Thursday 25 February 2016

कड़वे नीम के मीठे पत्ते



श्री साई अमृत कथा में बाबा के प्राकट्य के बारे में उल्लेख हुए, सुमीतभाई पोंदा भाईजीबताते हैं कि सभी को विदित है कि साई बाबा को शिर्डी में पहली बार एक नौजवान युवक के रूप में गाँव के नीम के पेड़ के नीचे गहन ध्यान में बैठे हुए नाना चोपदार की माँ ने देखा था.
इसी नीम के पेड़ के नीचे साई ने अपने गुरु का स्थान बताया तो कभी यह भी बताया कि कैसे उन्होंने 12 वर्ष इस पेड़ के तले तपस्या की है. कभी उन्होंने लोगों को यह भी बताया कि उस नीम के पेड़ के नीचे एक सुरंग है जिसका दूसरा छोर चावड़ी के पास कहीं निकलता है. शिर्डी गाँव में एक उत्सव के दौरान किसी को भगवान खंडोबा का संचार हुआ और इस पेड़ के बारे में गाँव वासियों ने जिज्ञासा ज़ाहिर की और उसके कहने पर जब उस स्थान की खुदाई की गयी तो नीचे एक तहख़ाना मिला जिसमे दीपक जल रहे थे, गौमुखी और कुछ मालाएं भी वहाँ पर मिलीं. साई बाबा, जिनका नामकरण इस दौरान हुआ नहीं था, ने इस बात की पुष्टि की कि यहाँ पर उनके गुरु का स्थान है और उनके सम्मान में बेहतर होगा कि उस स्थान को पुनः बंद कर दिया जाए. इस तरह खुदे हुए स्थान को पुनः बंद करवा दिया गया.


कुछ सालों बाद इसी नीम की डाल को काटने के लिए जब एक बच्चा इस पेड़ पर चढ़ कर गिर, काल का ग्रास बन गया तब दूर बाबा ने मस्जिद में ह्रदय-विदारक रूप से शंख बजाया था जिसे इस बात का संकेत माना गया कि इस पवित्र पेड़ की अस्मिता बनी रहनी चाहिए.
वहीँ दूसरी ओर, कुछ और सालों बाद, बाबा की आज्ञा से भक्तों के रहने के लिए वाड़ा बनवाने के लिए, इसी पेड़ से सटकर हरि विनायक साठे ने ज़मीन ख़रीदी. जब इस वाड़े का निर्माण शुरू हुआ तब इस पेड़ की एक डाल निर्माण में आड़े आ रही थी. तब बाबा से इस बाबत् सुझाव माँगा गया तो बाबा ने अपनी चिरपरिचित शैली में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि माँ के पेट में बच्चा आड़ा हो जाए तो क्या करेंगे! बाबा की बात लोगों की तुरंत समझ में आ गयी और सम्मानरूप एक छोटी-सी पूजा कर उस डाल को काट दिया गया. इस तरह इसी नीम के पेड़ की छाँव में शिर्डी में भक्तों की सुविधा लिए पहले वाड़े का निर्माण हुआ. यह वाड़ा साठे वाड़ा कहलाया. हाल ही के वर्षों में, 1997 और 1999 के बीच, हुए समाधि मंदिर परिसर के पुनर्निर्माण में इस वाड़े को जर्जर अवस्था में होने के कारण हटा दिया गया है.

आज भी इस नीम के पेड़ के तले एक छोटी-सी मढ़िया की शक्ल में ऊपर से सोने से मढ़े हुए धूसर रंग के पत्थर से बने छोटे-से मंदिर में बाबा का मूल चित्र रखा हुआ है जिसके आगे वही शिवलिंग है जिसे बाबा ने शिव-भक्त मेघा को दिया था. बाबा को यह शिवलिंग पुणे के एक भक्त ने दिया था. गुरुस्थान में यह शिवलिंग मेघा की बाबा के प्रति गुरु-भक्ति के शाश्वत प्रतीक के रूप में इस गुरुस्थान को प्रदीप्त करता है. इसी के आगे बाबा के प्रथम शिर्डी आगमन के प्रतीक स्वरुप, डॉ. रामराव कोठारे द्वारा बनवाई गयी पादुकाएँ, जो कि श्रावणी पूर्णिमा, शक संवत 1834 यानि मंगलवार, 27 अगस्त, 1912 के दिन स्थापित की गयी थी, भी रखी गयी हैं.
इसके ठीक सामने, एक धूनी-पात्र है जिसमें प्रत्येक गुरुवार और शुक्रवार को प्रज्ज्वलित अग्नि में भक्त लोभान जलाते हैं. वैज्ञानिक दृष्टि से लोभान से उठने वाली भभक से वातावरण में व्याप्त जीवाणु समाप्त हो जाते है और वातावरण शुद्ध हो जाता है. बाबा ने भी कहा था कि जो भी भक्त इस स्थान पर गुरुवार और शुक्रवार की शाम लोभान जलाएगा, उसके और उसके परिवार के सारे कष्ट कट जायेंगे.


इस पवित्र नीम के पेड़ के इर्द-गिर्द परिक्रमा का पथ है जिस पर चलकर भक्त, साई की उपस्थिति को महसूस करते हैं. साई के गुरु-स्वरुप को सिद्ध करता है यह पवित्र पेड़ जिसके पत्ते मीठे हैं! क्या कारण है कि कड़वी तासीर का होते हुए भी इस नीम के पत्ते मीठे हैं?
विज्ञान कहता हैं कि पेड़ों में भी प्राण होते हैं. हमारे दर्शन में तो पेड़ों को देवता माना गया है. उनकी पूजा की जाती है. भारत के महान वैज्ञानिक जे. सी. बोस ने पेड़ों के स्वभाव का अध्ययन करने के लिए क्रेस्कोग्राफ़ नाम का उपकरण बनाया जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरूस्कार से सम्मानित भी किया गया. इस उपकरण से उन्होंने खोज की थी कि पेड़ों और पौधों के स्वभाव और बर्ताव में, उनके समीप वातावरण का असर इंसानों की तरह ही पड़ता है. कोई आश्चर्य नहीं कि साई बाबा जैसे संत की 12 वर्षों की तपस्या का असर इस नीम के पेड़ पर इस तरह से पड़ा हो कि वह कड़वेपन का अपना मूल स्वभाव छोड़ कर मीठा हो गया हो!

क्या यह नीम का पेड़ हमारे मन के जैसा नहीं है जिसमें उठने वाले, काम, क्रोध, मद, इर्ष्या, लोभ से सने मलीन विचार उस पर उगने वाले उन कड़वे पत्तों के जैसे ही हैं! क्या हम अपने उस कड़वे मन की छाँव में साई को नहीं बिठा सकते? जब एक पेड़ उस साई की पवित्र उपस्थिति से अपना चरित्र छोड़ कर मीठा हो सकता है तो क्या साई के स्पर्श और आगमन मात्र से ही हमारे विचारों का स्वरुप बदलना नहीं शुरू होगा? ज़रा साई को अपने मन में बैठने तो दो, उन्हें ध्यान तो लगाने दो. तुम भी मीठे हो जाओगे. 

बाबा भली कर रहे।।

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु

Friday 19 February 2016

साई बाबा का तीसरा वचन


त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौड़ा आऊँगा

श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से दूसरे वचन के बारे में बताते हुए ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा का यह तीसरा वचन, “त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौड़ा आऊँगा” अभयकारी वचन है. इसे पढ़ने वाले को सहज ही डर से मुक्ति मिल जाती है.
इस वचन को समझना है तो पहले यह समझना होगा कि क्या सिर्फ शरीरधारी होने से ही साई का अस्तित्व था?
साई तो हमेशा ही शरीर के परे थे. उनका शरीर तो मात्र एक नश्वर ज़रिया था इस धरती पर लोगों से संपर्क बना कर उन्हें बेहतर इंसान बनने की ओर अग्रसर करना और लोगों को अभयत्व देने वाले नाम – साई - को स्थापित करने का. यह उद्देश्य पूरा होते ही साई ने देह छोड़ कर पुनः अनंतता को ओढ़ लिया और उस परमशक्ति में फिर से समा गए जिसका दास वो ख़ुद को कहा करते.




आज साई सदेह नहीं हैं लेकिन आज भी उनका नाम और उनका काम उनके भक्तों को पूर्ण संरक्षण दे रहा है. साई का यह वचन आज भी दोहराते हुए उनके भक्तों की आँखों में पानी भर आता है, शरीर रोमांचित हो उठता है और साई के प्रति अनुग्रह उनमें आत्म-विश्वास का संचार कर देता है. साई ने इस वचन के माध्यम से अपनी अखंड उपस्थिति के प्रति अपने भक्तों को आश्वस्त किया है. यह वचन भक्त के आवेगशील मनोभावों को नियंत्रित करता है, उसकी हृदयगति को नियंत्रित करता है और संवेदनाओं को जागृत करता है.
15 अक्टूबर, 1918, मंगलवार के रोज़, दशहरे के पावन दिन दोपहर के 2.30 बजे बाबा ने अपनी नश्वर देह छोड़ कर समाधि का वरण कर लिया था. उनकी देहोत्सर्ग की इस क्रिया को ऐच्छिक भी माना जा सकता है क्योंकि उन्होंने तात्या पाटिल की मृत्यु अपने ऊपर ले कर उसको जीवन-दान दे दिया था.
इससे लगभग 35 वर्ष पूर्व भी, दिसंबर 1887 में भी बाबा ने तीन दिन की एक छोटी ऐच्छिक समाधि ली थी. तब भी शिर्डीवासियों ने पहला दिन ही ढलते-ढलते ये मान लिया था कि बाबा अब लौट के नहीं आयेंगे लेकिन ये तो बाबा का नामकरण करने वाले और उनके प्रथम भक्त म्हालसापति की दृढ़ इच्छा-शक्ति का ही परिणाम था, जो बाबा का सर अपनी गोद में लेकर बैठे थे, कि उन्होंने शिर्डी के लोगों और प्रशासन के आगे झुकने से मना कर दिया था और बाबा के वापस आने की तीन दिन की समयावधि तक उन्होंने किसी को भी बाबा को हाथ लगाने नहीं दिया था. धन्य है वो भक्त म्हालसापति! यदि उन्होंने दबाव में आ कर लोगों को बाबा की देह की अंतिम क्रिया करने की बात मान ली होती तो बाबा के असली रूप, उसका माह्तम्य जानने और उनकी लीलाओं को देखने से हम सभी लोग वंचित रह गए होते. तीसरे दिन की समयावधि समाप्त होते-होते बाबा के शरीर में प्राण लौट आये थे जैसा कि उन्होंने समाधि लेने से पूर्व म्हालसापति को इंगित कर ही दिया था.

अपनी इच्छा से प्राणों को शरीर से अलग कर लेने और फिर उन दोनों को अपनी मर्ज़ी से जोड़ने  वाले साई की देह त्यागने की क्रिया को भला साधारण रूप से कैसे लिया जा सकता है! श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 7 में साई की यौगिक क्षमताओं के बारे में पढ़ कर स्पष्ट हो जाता है कि साई बाबा का अपने मन और शरीर पर अद्भुत नियंत्रण था. उनका ब्रहमचर्य हनुमान के सदृश अखंड था और अपने संपर्क में आने वाली सारी महिलाओं को हमेशा बहुत ही मर्यादित नज़रों से देखते. कभी भी किसी की नज़रों में सीधे नहीं देखते. सभी महिलाओं को वे माई (माँ) कह कर ही संबोधित करते. वे कभी खण्डयोग कर अपने शरीर के सारे अंगों को अलग कर फिर जोड़ देते तो कभी धौति-क्रिया के माध्यम से अपने पेट की सारी अतड़ीया निकाल कर उन्हें कपड़े से साफ़ कर पेड़ों की टहनियों पर सूखने को डाल देते थे और फिर उन्हें वापस अपनी जगह लगा लेते थे. वो एक हथेली चौढ़े और तीन हाथ लम्बे लकड़ी के पटिये पर चारों कोनो पर दीपक लगा कर उसे फटी हुई चिंदियों से लटकाकर उस पर ऐसे सोते कि कौतुकी लोगों को वे केवल उस पटिये पर सोते दिखते न कि चढ़ते और उतरते. वे रात में सोते तो म्हालसापति को कहते कि ध्यान रखना कि कहीं सोते में उनके ह्रदय में भगवत्स्मरण बंद न हो जाए. जिस साई को अपने शरीर और इन्द्रियों पर इतना नियंत्रण हो वह कैसे मृत्यु का ग्रास बन सकता है? वह तो इच्छा-मृत्यु का ही वरण कर सकता है. ऐसी मृत्यु जिसमे सिर्फ उनका शरीर निष्प्राण हुआ हो, साई तो अखंड, सतत और अनवरत् हैं. मृत्यु ने साई का शरीर नहीं हरा था बल्कि साई ने शरीर को त्यागा था जो साई के लिए कतई कठिन नहीं था.
शरीर में आसक्ति, उसका त्यागा जाना मुश्किल कर देती है. जिस व्यक्ति की शरीर में ही आसक्ति हो, उसके लिए शरीर त्यागना दुखदायी होता है. इसे त्यागना उसके लिए कठिन होता है जो या तो शरीर को ही जीवन मानता हो और शरीर के होने या न होने को जीवन को होने या न होने के जैसा समझता हो. साई तो त्याग की प्रतिमूर्ति थे. न धन-संपत्ति का संग्रह, न जीभ में कोई स्वाद का लालच, न महिलाओं में कोई आसक्ति और न ही किसी प्रकार की अन्य वासनाएं. साई तो त्याग को ही जीते थे या कहें कि साई ने जीवन भर त्याग को ही जिया.
उनका अपने शरीर के प्रति कोई मोह था ही नहीं. न तो वे तो इस शरीर को संवारते थे और न ही कभी कपड़ों या आभूषणों में उनकी दिलचस्पी ही रही. वे कई-कई दिनों तक स्नान नहीं करते लेकिन मन की पवित्रता से हर समय उनके चेहरे पर एक अजीब ही नूर रहता. फटे कपड़ों में रहकर भी उन्होंने लोगों के उधड़े हुए भाग्य को सिलने का काम किया. बिना फर्श की मस्जिद में ज़मीन पर बैठ-बैठे भी उन्होंने लोगों के पत्थर जैसे मन को कोमल किया. धूनी के सामने बैठकर झुलसते हुए तन को परमार्थ में लगाया. ऐसा पावन शरीर त्यागने में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई. जीवन, प्राण, शरीर भरम है. हमारे दर्शन में भी लिखा है कि शरीर को जीवित रखने वाली आत्मा जो कि इस शरीर की ऊर्जा है, वह तो शाश्वत, अमर, अटूट और अटल है.
श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 8 में मानव जीवन के महत्त्व को दर्शाते हुए उल्लेख है कि अलग-अलग योनियों में जन्म लेते-लेते जब इस आत्मा के पुण्य और पाप का समन्वय हो जाता है तो मानव जन्म का अवसर मिलता है. इसी जन्म में आकर पापों और पुण्यों को जलाने का अवसर भी मिलता है जो आत्मा को मोक्ष देकर परमात्मा के अन्दर विलीन कर देता है.
परमात्मा अंशी है और हम उसके अंश. हम उसी का रंग-रूप, उसी की छाँव-धूप हैं. हम एक बूँद है तो वह सात समुन्दर. वो परबत है तो हम कंकड़. हम निर्बल हैं तो वो बलवान लेकिन वो हरपल हमारे साथ ही होता है. हम उसी शक्ति का सुर-संगीत हैं और उसी के गीत गाते हैं. बस मुसीबत तब होती है कि हम उसके गीत गाते-गाते, अपने शब्द, सुर, ताल और लय बिगाड़ लेते हैं. जब हमारे शब्द, सुर, लय, ताल बिगड़ने लगते हैं तब हमारे कर्मों का स्वरुप बिगड़ने लगता है. हमें समझ लेना चाहिए कि हम परमात्मा के प्रेम और भाईचारे के मूल सिद्धांत से दूर होते जा रहे हैं और अब हमारे पापों के रास्ते का सफ़र प्रारंभ हो चुका है. हम तनाव में रहने लगते हैं. चैन नहीं पाते. उखड़े-से रहते हैं. तब सद्गुरू की ज़रुरत होती है.
पाप और पुण्य को जलाने का रास्ता सद्गुरू के चरणों में ही मिलता है जो अपने शिष्य को उसके तमाम अवगुणों और कमियों के बावजूद अपनाकर उसे अपने मूल, परमात्मा, से मिलाने का कार्य करता है. साई बाबा ऐसे ही सद्गुरू हैं जिन्हें कोई देवता, कोई भगवान् या फिर अवतार कहते हैं.   
मनुष्य का जन्म अपने कर्मों के चलते होता है जबकि देवता करुणावश अवतार लेते हैं. जब-जब भी मानवता गुमराह हो जाती है तो वो परम शक्ति जिसे हम ईश्वर, अल्लाह या फिर गॉड कह कर पुकारते हैं, कभी राम, तो कभी कृष्ण, जीसस, पैग़म्बर, नानक, बुद्ध, महावीर तो कभी ज़रथुश्त्र और अन्य का अवतार लेकर इस धरा पर जन्म लेती है और अपना-अपना काम कर, अपनी पावन देह से धरती को पवित्र करने के उद्देश्य से यहीं छोड़ स्वधाम चली जाती हैं.
जहाँ भी इनकी देह विश्राम करती है या फिर जिस जगह भी पंच-तत्वों में विलीन हो जाती है, वहाँ पर धाम बन जाता है. लोग उस पार्थिव देह की पवित्रता की चुम्बकीय शक्ति से खिंचे उस धाम पर आते हैं और अपने मन को खोल कर रख देते है. इनकी देह की निर्मलता, शुचिता और शुद्धि, किसी भी स्थल को देवालय के जैसी कर देती है. ठीक इसी तरह साई बाबा की शक्ति और पवित्रता से सिंचित पवित्र देह ने शिर्डी को भी पवित्र धाम बना दिया है, जहाँ लोग पैरों में बंधी डोर से चिड़ियों की भांति खिंचे चले आते हैं. बदले में साई भी अपने भक्तों के लिए हर जन्म में दौड़े चले आते हैं कभी सत्य की राह दिखाने तो कभी पापों को जलाने, कभी गले से लगाने तो कभी उनको सांत्वना देने. हमेशा. हर जन्म में.
श्री साई सच्चरित्र में कई सारे किस्से आते हैं जब बाबा ने भक्तों को उनके पूर्व जन्मों का हाल कह सुनाया. एक बार जब बाबा ने स्कूल मास्टर शामा के गाल पर चिमटी ली तो शामा ने बनावटी रोष दिखाते हुए उनसे कहा कि हमें तो ऐसा देव चाहिए जो हमें रोज़-रोज़ नया खाने को दे, अच्चा-अच्छा पहनने को दे और हमारा ख़याल रखे. बाबा ने तपाक से कहा कि इसी लिए तो मैं आया हूँ. मेरा और तेरा 72 जन्मों का रिश्ता है. ऐसा ही बाबा ने जिलाधीश के निज सहायक नानासाहेब चांदोरकर को अपने पास बुलावा भेजा और कहा कि उनका और बाबा का तो तीन जन्मों का नाता है. श्रीमती खापर्डे के कई जन्मों का वृत्तान्त बताते हुए बाबा ने उनके हाथों से बना खाना खाया. पूर्व जन्म में जायदाद को लेकर एक-दूसरे को मार डालने वाले दो भाई जब इस जन्म में बकरे के रूप में उनके पास आये तो बाबा ने उन्हें मोल लेकर उन्हें घास भी खिलाई. सांप के मुंह से मेंढक को बचाने पर बाबा ने उन दोनों, वीरभद्रप्पा और चैनबसप्पा, के ही कई सारे पूर्व जन्मों की कथा भी सुनायी. बाबा ने यह भी बताया कि कैसे उन्होंने हर जन्म में उस मेंढक की रक्षा करी है. धुरन्धर भाइयों से बाबा ने अपना साठ जन्मों का रिश्ता बताया.
साई का अपने भक्तों से रिश्ता जब बन जाता है तो वो फिर हमें अपनी छात्र-छाया से दूर नहीं होने देते. साई इतनी आसानी से रिश्ता बनाने भी तो नहीं देते थे. कितनी ही बार होता था जब कोई इच्छा के बावजूद शिर्डी नहीं आ पाता था तो कोई शिर्डी आकर भी मस्जिद की सीढियां नहीं चढ़ पाता था. बाबा की मर्ज़ी के बगैर कोई भी उनके क़रीब नहीं आ सकता था. बाबा किनको अपने पास आने से रोकते थे? पद, पैसे और ख़ानदान के अहंकार से भरे लोगों को बाबा सख्त नापसंद करते. जैसे कि हाजी सिद्दीक़ फाल्के जिन्हें अपनी हज यात्रा का बहुत अभिमान हो गया था. धन के लोभी लोगों की भी बाबा के दरबार में कोई जगह नहीं थी. जैसे वो बनिया जो ब्रह्मज्ञान लेने बाबा के पास आया था लेकिन बाबा की माया के जाल में ऐसा उलझा कि उस समय जब बाबा को सिर्फ पांच रुपयों की ज़रुरत थी और उसकी जेब में ढाई सौ रुपये होने के बावजूद वो नहीं दे पाया. मेघा जैसे भक्त, जिसकी मृत्यु पर बाबा ने भी आंसू बहाए थे, पर भी बाबा पहले-पहल नाराज़ हुए थे जब उसके मन में बाबा के यवन होने का भाव था. बाबा ने कालान्तर में उसकी भक्ति को बढ़ाया ही. नानासाहेब चांदोरकर को बाबा ने संरक्षण तो दिया लेकिन जब एक सुन्दर मुस्लिम महिला को देख उनके मन में वासना के भाव उत्पन्न हुए तो बाबा ने बड़े ही प्रेम समझाकर से उन भावों को दूर धकेल दिया और चांदोरकर को ग्लानी-मुक्त कर दिया. शिर्डी से मीलों दूर पंढरपुर के एक वकील ने तात्यासाहेब नूलकर के बाबा में विश्वास को लेकर मज़ाक उड़ाया था और जब वही वकील सालों बाद बाबा के पास दर्शन के लिए आया तो बाबा ने उसे दुत्कार दिया था. जो ज़ुबान किसी के विश्वास की निंदा करे ऐसी बोली बाबा को सख्त नापसंद थी.   
ऐसा नहीं था कि बाबा किसी को भी अपने पास आने से रोकते थे, उनका विरोध तो केवल उन नकारात्मक मनोभावों से था जिन्हें लेकर ये लोग बाबा के पास आते थे. बाबा का मानना था कि इन भावों के साथ कोई भी उस मस्जिद की सीढियां नहीं चढ़ सकता जिन भावों में या तो ख़ुद आने वाले का या फिर किसी और का अहित छिपा हो. ऐसे मनोभाव न सिर्फ मनुष्य के अपने व्यक्तित्व को तोड़ते हैं बल्कि दूसरों के लिए भी हानिकारक होते हैं. जो इच्छाएँ इंसान के ईश्वर को पाने में बाधक हों वो इच्छाएँ लेकर कोई भी कभी भी बाबा के पास नहीं पहुँच पाया.
जो भी बाबा के शुरूआती भक्तों में गिने गए वे सभी स्वभाव से सरल और धनवान लेकिन धन-संग्रह में अनासक्ति रखने वाले ही थे. बाबा अकसर गाते, “फ़क़ीरी अव्वल बादशाही. अमीरी से लाख सवाई. गरीबों का अल्लाह भाई.” जिसके पास कोई इच्छा नहीं है, वो बादशाहों की तरह रह सकता है. धन इंसान की सेवा के लिए है लेकिन जब इंसान धन की सेवा करने लगे तो वो धन का सेवक कहलाता है. जिसको धन का मोह ही नहीं है वो बादशाह की तरह रह सकता है.
चाह गयी, चिंता गयी. मनवा बेपरवाह.
जिनको कछु न चाहिए, वो शाहन के शाह.
बाबा का मानना था धन नहीं धन के प्रति मोह, ईश्वर-प्राप्ति में बाधक है. बाबा ने कभी किसी को धन-संग्रह या संचय करने से नहीं रोका लेकिन उनका मानना था कि जो भी धन किसी के पास है वो उसे उसका मालिक न समझे बल्कि ईश्वर के उस आशीर्वाद के प्रति ज़िम्मेदार समझे और उस धन से वो धर्म करे, परोपकार करे. धन से धर्मार्जन ईश्वर के पास पहुंचा देता है. इस आसक्ति से मुक्ति ईश्वर का रास्ता खोलती है. साई के दर का रास्ता खोलती है. जो अपने आप को सर्वशक्तिमान समझता हो, उसे साई की क्या दरकार!
आज जब बाबा सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि अब जब इन भावों से युक्त होकर जाने वालों को डांट कर भागने वाला नहीं है और जब साई की मस्जिद और उनके समाधि मंदिर के द्वार सभी के लिए खुले हुए हैं, तब यह कैसे संभव होता है कि साई इन जैसों को अपने पास आने से रोक सकें? इसका जवाब बहुत ही सरलता से दिया जा सकता है कि जब इस प्रकार के लोग शिर्डी पहुँचते हैं तो उन्हें तब तक बाबा के पास होने की अनुभूति नहीं मिलती जब तक वे अपने सारे केंचुल उतार कर बाबा की शरण में न आ जाएँ. जब तक उनमें आतंरिक सुधार नहीं आ जाता, उनको साई से तो मिलता है लेकिन उन्हें साई नहीं मिलते. उनमें और मंदिर के बाहर बैठ कर भीख मांगने वालों में कोई विशेष अंतर नहीं होता. ये अन्दर, बाबा के सामने भीख मांगते हैं. बाहर बैठकर मांगने वाला फिर भी बेहतर होता है क्योंकि वो खुलकर मांग रहा है और ये छुपाकर. हाथ दोनों के ही फैले हैं. दीन दोनों ही हैं. कष्ट में दोनों ही हैं. बाबा के दर से ख़ाली कोई नहीं लौटता. अंतर सिर्फ इस बात का है कि कौन क्या लेकर लौट रहा है.
साई के भक्त तो वो होते हैं जिन्हें साई से नहीं, साई ही चाहिए होते हैं. जब साई अपने हो गए तो पूरी कायनात अपनी हो जाती है. साई तब आपके हो सकते हैं जब आप साई के चाहे अनुसार अपना वर्तन करें. बिना शर्त समर्पण, साई की भक्ति की एकमात्र शर्त है. साई हमेशा ही दौड़े-दौड़े चले आते हैं. केवल साई को याद भर करना पड़ता है. जैसे अपनी जेब में पड़े बटुए की जवाबदारी आपकी होती है, आप उसे सम्हालते रहते हैं. वैसे ही अपनी शरण में आये ऐसे भक्तों को साई हमेशा ही सम्हालते हैं. कई-कई जन्मों तक. हमेशा. पहले साई हमें अपनी ओर खेंचते है और फिर जब हम उनकी तरह बर्ताव कर जब उनके जैसे बन जाते हैं, तब साई की वो शक्ति हमारे अन्दर भी आ जाती है. उस लोहे के टुकड़े की तरह जिसमें चुम्बकीय शक्ति तो है लेकिन वो सुप्त रहती है जब तक कि वो दुसरे चुम्बक के प्रभाव में नहीं आती. अब साई हमारी ओर खिंचे चले आते हैं. साई को अपने पास, अपने संरक्षण के लिए बुलाना है तो पहले साई के बनो. फिर साई बनो.
भक्त ही किसी को भगवान् बनाते हैं. भगवान् के बिना भक्त और भक्त के बिना भगवान् अधूरे हैं. दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं. परमात्मा के बिन आत्मा और आत्मा के बिन परमात्मा, दोनों ही अधूरे हैं.  जैसे जब तुम साई के अंश थे तो तुम दौड़ते हुए साई के पास जाते थे. तब तुम अपूर्ण थे. तुम्हारे व्यक्तित्व का दूसरा भाग साई के पास था. अब जब साई तुम्हारा अंश, तुम्हारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुके हैं तो साई तुम्हारे बिन अपूर्ण हैं. तुम ही साई को पूर्ण करते हो. वे दौड़ते हुए तुम्हारे पास आते हैं. यह साई का आश्वासन है और वचन भी.     

  
बाबा भली कर रहे।।

                        श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु

Tuesday 16 February 2016

साई बाबा का दूसरा वचन


चढ़े समाधि की सीढ़ी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर


श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से दूसरे वचन के बारे में बताते हुए ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा के दूसरे वचन, “चढ़े समाधि की सीढ़ी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर” के भी बहुत ही गहरे आध्यात्मिक मायने हैं. यह वचन साई का परोपकारी वचन है.
पहला वचन यदि साई की राह में किसी भक्त की यात्रा की शुरुआत है तो यह दूसरा वचन साई के शरणागत को एक नयी ऊँचाई पर ले जाता है. इस भक्त को साई के और क़रीब ले कर आता है. किसी भी साई-भक्त की साई यात्रा में साई की समाधि की यह पहली सीढ़ी अति-महत्त्वपूर्ण है.
अगर इस वचन को थोथे शाब्दिक रूप से समझा जाए तो साई की समाधि की सीढ़ी पर पैर रखने या चढ़ने-मात्र से ही भक्तों के दुखों का नाश हो जाना चाहिए. ऐसा हो भी जाता है. विश्वास हमेशा फलीभूत होता है. यह आश्रित के कर्मों और भक्त की भक्ति पर निर्भर करता है कि साई की समाधि की ड्योढ़ी पर पैर रखते ही दुखों का नाश हो जाता है या दुःख कम हो जाते हैं या फिर बिलकुल ही कम नहीं होते. किसी को भी अपने ऊपर पैर रखने देने के पूर्व यह समाधि कड़े इम्तिहान लेती है. भक्त की भक्ति की परीक्षा और उसके कर्मों का लेखा यहीं पर परखे जाते हैं.
इस वचन की महत्ता को समझने के लिए यह समझना होगा कि समाधि क्या है? चढ़ना क्या है? चढ़ने वाले की योग्यता क्या होना चाहिए? दुःख क्या हैं? दुःख पैरों तले कैसे आयेंगे?

समाधि मन, तन और चित्त की वो एक अवस्था है जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य – तीनों एक साथ, एक ही स्थान पर, ‘अभी’ और ‘यहीं’ संजोये रहते हैं. जो कुछ भी होता है, वो बस ‘अभी’ और ‘यहाँ’ होता है. जिसने ‘समय’ पर नियंत्रण पा लिया, उसने ‘तब’ और ‘कब’ पर विजय प्राप्त कर ‘अब’ को पा लिया. इसी तरह जिसने ‘स्थान’ पर क़ाबू पा लिया, उसने ‘कहाँ’ और ‘वहाँ’ पर विजय प्राप्त कर ली, उसने ‘यहाँ’ को जीत लिया. साई के साथ सब कुछ ऐसा ही था. वो समय और स्थान से परे लोगों को उबार लेने का काम करते थे और आज भी कर रहे हैं. दरअसल, समाधि अवस्था योग की सर्वोच्च स्थिति है जिसमे समय और स्थान निर्मूल हो जाते हैं. सभी कुछ एक साथ, एक ही जगह, एक ही समय पर घटित होता है.
यह अवस्था शारीरिक ताप-संताप, इच्छाओं-वासनाओं से परे है. इस अवस्था में शरीर, दूसरे के रोगों को अपनी भी इच्छा से हर भी लेता है और नष्ट भी कर देता है. श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 7 में उल्लेखित है कि बाबा ने दादासाहेब खापर्डे के पुत्र के प्लेग की गांठे अपने शरीर पर ले ली थीं. यह भी माना जाता है कि बाबा ने अपनी इच्छा से बायज़ामाई के बेटे तात्या का रोग हर कर उसके स्थान पर उसकी मृत्यु को अपना लिया था (श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 42).
समाधि अवस्था में मन काम, क्रोध, इर्ष्या और अहंकार से रिक्त रहता है. यह अवस्था मन की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, आशंकाओं, उपेक्षाओं, मान-अपमान, स्वाभिमान-अभिमान, राग-द्वेष से परे है. नानावल्ली द्वारा बाबा को अपने आसन से हटा देने पर भी बाबा का सहज रहना इस बात का परिचायक है कि बाबा में लेशमात्र भी अभिमान नहीं था और न ही वह इस बात से आहत हुए थे. वे इस अपमानजनक कृत्य पर भी सहज और शांत ही रहे थे. शिर्डी के बनियों द्वारा उन्हें मस्जिद में दिए जलाने के लिए जब तेल देने से मना कर दिया गया था और जब बाबा ने जल से ही दीपक जलाये थे, तब भी उन्होंने उन दुकानदारों को कोई श्राप या सज़ा नहीं देते हुए केवल समझाइश ही दी थी कि किस तरह से उनका झूठ बोलना न सिर्फ उनके अपने व्यक्तित्व के लिए नुकसानदेह है बल्कि उन्होंने झूठ बोलकर उस ख़ुदा की शान में ख़िलाफ़त की है जिसकी स्तुति में वो दीपक जलाये जाने थे. साई ने हमेशा लोगों को सुधारने का काम बिना किसी हथियार और सज़ा के किया है और  आज भी कर रहे हैं. अपने जिस कठिन समय को लोग भगवान की सज़ा मानते हैं वो तो दरअसल उनके अपने कर्मों का ही फल होता है. यह शाश्वत सत्य है कि कर्म बिना फल दिए शांत नहीं होता.  
बरसों-बरस लग जाते हैं तब समाधि की स्थिति में आ पाना संभव हो पाता है. योगावस्था का चरम है समाधि. योग का अर्थ ही है, ‘चित्तवृत्ति निरोध:’ यानि जिसमें चित्त की वृत्ति थम जाये. समाधि अवस्था में चित्त अपनी मूल वृत्ति के विपरीत एकदम स्थिर रहता है, भटकता नहीं है. स्व-केन्द्रित न होकर चित्त परोपकार के भाव से भर उठता है. इसीलिए तो साई की शरण में जाकर अपने पापों के कटने का अहसास मन को होता है. जीवन सरल बन जाता है.

श्री दाभोलकर रचित श्री साई सच्चरित्र को पढ़ कर समझ में आता है कि साई बाबा में समाधि के गुण सदैव विद्यमान थे. वे चलते-फिरते, सोते-जागते सदैव समाधि अवस्था में ही रहते. वे अपने आपको सदा ईश्वर का आज्ञाकारी सेवक ही मानते जैसा कि श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 34 में उल्लेखित है. बाबा ने शामा से कहा, “जो निरभिमान होकर अपने को कृतज्ञ समझ कर उन (ईश्वर) पर पूर्ण विश्वास करेगा, उसके कष्ट दूर हो जाएँगे और उसे उसे मुक्ति की प्राप्ति होगी.
जो मुक्त है, वही सच्ची समाधि में है. शरीर, मन और चित्त की यह स्थिति, ईश्वर का अखंड स्मरण करने से, उसके अस्तित्व में बिना शर्त समर्पण कर और सम्पूर्ण ब्रह्मांड को उसकी सत्ता मान कर आचरण करने से ही संभव है. यही कारण है कि साई जब सदेह थे तब भी सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वोपरि थे और आज जब वो भौतिक देहधारी नहीं हैं तब भी इन्हीं गुणों को परिलक्षित करते दिखते हैं.
सदेह रहते हुए वे अपने पास आने वाले भक्तों का भूत, वर्तमान और भविष्य सदा ही बता देते थे. इसके लिए उन्हें कभी किसी का न तो हाथ देखने की ज़रुरत ही थी और न ही किसी की जन्मकुंडली उन्होंने देखी हो ऐसा हुआ था. न कोई रमल विद्या और न ही कोई कर्ण-पिशाचिनी विद्या उनके पास थी. उनका ध्यान इतना प्रगाढ़ था कि जागृत अवस्था में वे किसी का भी आज, गुज़रा हुआ और आने वाला कल बिलकुल सटीक बता देते थे. लोगों को आने वाली विपदाओं के प्रति आगाह करते जैसे कि उन्होंने दामू अन्ना को उसकी लालच से भरे अनाज और रुई के सौदों (श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 25) के प्रति आगाह कर किया था. इस सौदे को अपनी जिद के मुताबिक़ कर दामू को भारी घाटा होता. इस और इस जैसी अन्य घटनाओं से सिद्ध होता है कि साई बाबा को भविष्य के बारे में न सिर्फ बिलकुल ठीक-ठीक पता होता था बल्कि वे अपनी शरण में आने वालों को अनिष्ट से बचा लेते थे. इसी तरह उन्होंने भीमाजी पाटिल के पूर्व जन्मों के पापों को काट कर उन्हें तकलीफदेह क्षय रोग से मुक्त किया था (श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 13). इस और इस जैसी कई अन्य घटनाओं से स्पष्ट होता है कि बाबा को अपनी शरण में आने वालों के पूर्व के घटनाक्रम और क्या कर्म उनको तकलीफ पहुंचा रहे हैं, के बारे में सब कुछ साफ़-साफ़ पता रहता था. जैसे उन्होंने बापूसाहेब बूटी के साथ आये अग्निहोत्र ब्राह्मण और ज्योतिष-शास्त्र में पारंगत मुले शास्त्री को उनके गुरु श्री घोळप स्वामी के रूप में दर्शन दिए थे (श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 12). यह घटना बाबा के वर्तमान को पढ़ने की क्षमता के बारे में बताती है. ऐसे ही कई किस्से आते हैं, जहाँ पर बाबा ने अपनी त्रिकालज्ञता का परिचय दिया है.
श्री साई सच्चरित्र में बाबा ने आश्वस्त किया है कि उनकी समाधि उनके भक्तों से बातें करेंगी, उनकी रक्षा करेगी और इस तरह से साई बाबा के पास होने का अहसास सदा उनके भक्तों को होता रहेगा. उनके पास होने का भास सदा ही उनके भक्तों को होता रहता भी है. क्या साई की समाधि उनसे अलग है? क्या साई, यह नश्वर देह छोड़ने के बाद अपनी सारी शक्तियां अपनी समाधि को देकर कहीं किसी और रूप में, किसी और स्थान पर चले गए हैं? उन्होंने अपनी समाधि को अपने से अलग क्यों बताया? साई ने जब इस देह से जीते जी मोह नहीं रखा तो इस नश्वर तत्व को वे समाधीस्थ होने के बाद क्यों कर्ता बताते. सर्वज्ञ साई अब अपनी समाधि के साथ-साथ समस्त जग के अनंत स्वरुप में मिल गए हैं, निराकार हो गए हैं तब शिर्डी स्थित उनकी समाधि उनके इस धरा पर उपस्थिति की प्रतीक स्वरुप सगुण भक्ति को बल दे रही है.  
संतों के स्वधाम गमन को उनका समधीस्थ होना माना गया है. साई भी तो एक संत थे जिन्हें ईश्वर-प्रदत्त शक्तियां परोपकार के लिए मिली थीं. संत कौन होते हैं?श्रीमद् भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि संत ईश्वर का ही स्वरुप होते हैं. स+अंत = संत. जो अपना अंत साथ में लेकर चलते हैं वो संत माने जा सकते हैं. अपना अंत यानि अपनी भौतिक इच्छाओं का अंत जो साथ में लेकर चले, वो संत होता है. सदेह रहते हुए भी भौतिक इच्छाओं का अंत, संतों को अदम्य शक्ति देता है. स्वयं पर क़ाबू पाने की शक्ति. यही शक्ति जीते जी उनको परमार्थी बना देती है और देह त्याग के बाद समर्थ, परमहंस. परमहंस यानि वो श्वेत, बेदाग़ पंछी जिसे सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का वाहन भी माना जाता है जो जितना पानी में रहता है, उतना ही पानी के बाहर भी. यह विभूतियाँ भी इसी तरह इस धरती पर रहते हुए भौतिकता से दूर और आध्यात्मिकता के अन्दर रहती हैं और परम आध्यात्मिक ऊचाइयों को प्राप्त कर चुकी होती हैं. ऐसे ही परमहंस हैं साई बाबा जो न सिर्फ ख़ुद के आध्यात्मिक उत्थान के लिए कार्यरत थे बल्कि ख़ुद पर आश्रितों के लिए भी सतत चिंतित रहते हैं.
ऐसे परमहंसों की समाधि की सीढ़ी चढ़ने के लिए यानि उनके पास तक जाने के लिए भक्त या आश्रित का स्वयं मन का साफ़, शुद्ध और बेदाग़ होना चाहिए. यदि पूर्व में किसी के दिल दुखाने वाले कार्य किये हों तो उनका प्रायश्चित भी करना होगा और न कर पाने की स्थिति में, उसका संकल्प तो होना ही चाहिए.
सुख की चाह और दुःख सहना, इसी से उत्पन्न होने वाली संवेदनशीलता इंसान को इंसान रहने देती है. कर्म का सिद्धांत है कि हर कर्म से कोई दुखी होता है तो कोई सुखी. किसी एक का दुःख किसी दूसरे का सुख बन ही जाता है. और तो और, जो अहसास आज किसी को सुख देता है, वही अहसास कल उसी को दुखी भी कर सकता है. इंसान कर्म से पार नहीं पा सकता और कर्म, सुख-दुःख के झूले से. कर्म इंसान करता है और अपने दुःख के लिए दोष ईश्वर को देता है.
दुखी तो इस दुनिया में सभी हैं. ऐसा कोई घर नहीं है जहाँ पर दुःख न हो. कोई शरीर से तो कोई धन से दुखी है. कोई रिश्तों से तो कोई परिस्थितियों से. कोई रोटी के लिए तरसता है तो कोई उसे हजम करने के लिए तड़पता है. कोई बहुत नींद आने से परेशान रहता है तो कोई रात-रात भर जाग कर परेशान होता है. साइकिल वाला इसलिए परेशान है कि उसके पास गाड़ी नहीं तो गाड़ी वाला इसलिए परेशान है कि गाड़ी में घूमने के कारण से उसका वज़न बढ़ गया है और उसे कम करने के लिए वो साइकिल चलाता है. दुःख के मूल में इच्छाओं का वास होता है और इच्छाएँ मृत्यु-पर्यंत ख़त्म नहीं होती. और होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि इन्हीं दुःख देने वाली इच्छाओं के ज़रिये अध्यात्म के रास्ते खुल जाते हैं. अध्यात्म यानि ख़ुद को पा लेने की अवस्था. समाधि की अवस्था. बहुत कम लोग इस तक पहुँच पाते हैं.
दुःख तीनो काल में अपना एक विशिष्ट स्वरुप लिए होता है. भूतकाल की किसी बात का शोक हमें हमेशा सालता रहता है. कोई अपमान, कोई अप्रिय घटना या फिर कोई पराजय – हम इन्हें दिल से लगाकर रखते हैं. यह भूल जाते हैं कि अगर किसी ने हमारा अपमान एक बार भी किया है तो उस अपमान को रोज़-रोज़ याद करके, हम स्वयं को प्रत्येक दिन अपने हाथों अपमानित करते ही रहते हैं. एक बार की पराजय को दिल से लगा कर बैठे होते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि वो तो सिर्फ़ एक बुरा दिन था. दिन बुरा होने से जीवन बुरा नहीं हो जाता. उसे रोज़ याद कर हम रोज़ पराजित होते रहते हैं. ऐसा ही उन अप्रिय घटनाओं के साथ होता है जिनका दंश हम पालते रहते हैं और उन्हें पोषित भी करते हैं.
वर्तमान का मोह भी दुःख का ही एक रूप है. धन-संपत्ति का मोह हमें उसका आनंद ही नहीं लेने देता. हम चैन से नहीं बैठ पाते. और धन कमाने की जुगत में उस आज को भी खो देते हैं जो किसी भी संपत्ति से अधिक मूल्यवान है. उन रिश्तों को भी ताक पर रख देते हैं जिनका जीवित रहना हमारे लिए सांस का काम करता है. जीवन में रिश्ते तो रह जाते हैं लेकिन रिश्तों में जीवन ख़त्म हो जाता है. संतान के प्रति मोह हमें उसके भले की सोचने नहीं देता. रिश्तों को निभाने की जुगत में हम अपनों को अपने से इतना सटा लेते हैं कि उनका भी सांस लेना दूभर हो जाता है और हमारा भी. अखबार ठीक से पढने के लिए हमेशा एक निश्चित दूरी होना ज़रूरी है. आँखों के बहुत पास होने से अक्षर पढ़ने में नहीं आते. हमें अपना रुतबा भी बहुत प्यारा होता है. उसे निभाने के लिए हम अपने चेहरे पर झूठ के इतनी परत चढ़ा लेते हैं कि ख़ुद से मुलाक़ात होने पर ख़ुद को भी पहचान नहीं सकते. मोह मारता है.
भविष्य का भय, आज को डरावना बना देता है. आज जो कुछ भी हमें साई की कृपा से मिला है, उसके छिन जाने का डर हमारे सारे व्यक्तित्व को मटमैला कर देता है. जीवन के शांत पानी में भविष्य के भय का पत्थर फ़ेंक कर हम नीचे का मैल ऊपर ले आते है और उस पानी को दूषित कर देते हैं. और मज़े की बात तो यह है कि अंत में समझ आता है कि जीवन में हमारे अधिकांश भय निर्मूल, बेकार के ही सिद्ध होते हैं. ये निराधार ही होते है. हमारे मन की अँधेरी उड़ान का परिणाम होते हैं भय लेकिन यह हक़ीकत जीवन की साझ में ही समझ आती है जब बहुत कुछ सुधारा नहीं जा सकता.
गुज़रे हुए कल का शोक, वर्तमान का मोह और भविष्य का भय, ये तीनों हमें सुख, शांति और आनंद से दूर ही रखते हैं. यह सभी के साथ होता है. अपने और अपनों के लिए ही जी-जी कर हम भूल चुके होते हैं कि सुख, शांति और आनंद को पाने का सबसे आसान रास्ता होता है परोपकार का. दूसरे को सुख देने की असीम शांति में हमारे सारे शोक घुल जाते हैं, मोह खो जाते हैं और भय हवा हो जाते हैं. परोपकार का भाव हमें एक सीढ़ी ऊपर चढ़ा देता है. यही सीढ़ी उस साई की समाधि की पहली सीढ़ी है जहाँ पर कोई भी नकारात्मक भाव ठहर ही नहीं सकते क्योंकि परोपकार का रास्ता साई के पास ही लेकर जाता है.
परोपकार ही साई की पहचान है. ख़ुद फटे कपड़ों में रहते लेकिन दूसरों को अपने एक बोल से निहाल कर देते, ओढ़ी हुई फ़क़ीरी को होठों की मुस्कान तले दबाकर रखते, भिक्षा लेते तो बदले में दुआओं का भण्डार खोल देते, दक्षिणा मांगते तो वर्षों पुराने बोझ से मुक्ति का दान दे देते, भक्ति लेकर अभयकारी उदी को मुक्तहस्त से माथे पर लगा देते. किस्मत का लेखा और सितारों की चाल साई बदल देते हैं. यह शक्ति उनको परोपकार करने के बदले, और लिए मिली है!        
साई की समाधि की सीढ़ी पर चढ़ने की इच्छा हमेशा परोपकार की भावना के साथ होनी चाहिए. यही इस सीढ़ी पर चढ़ने की आवश्यकता भी है और योग्यता है. दूसरों के लिए साई से मांगी हुई दुआ किन रास्तों से, कितनी गुणा श्रृंगारित और संपन्न होकर वापस हमारे ही पास आती है, इस बात का अहसास अगर हमें हो जाए तो हम कभी अपने लिए साई से दुआ मांगेंगे ही नहीं. दूसरों का अच्छा करो. इससे जो दुआ निकलती है वो कर्मों के फल को भी पिघला देती है.

इस सीढ़ी पर अपने लिए मांगेंगे तो भी मिलेगा लेकिन उतना ही जितना हम उठाने का सामर्थ्य रखते हो लेकिन जब हम दूसरे के लिए खुशियाँ मांगेंगे तो साई न सिर्फ हमें हमारी हैसियत से ज़्यादा देगा बल्कि हमारे सामर्थ्य को बढ़ा भी देगा. हमारा दुःख, सुख में बदल जाएगा. मर्ज़ी हमारी है. साई की समाधि की सीढ़ी हमारे बोझ उठाने को तैयार है. पहला कदम हमें ही रखना होगा. यहाँ ज़िन्दगी को समझोगे तो समझोगे कि ख़ुशी से रो देना और ग़मों में मुस्कुराना ही जीवन है. तब दुःख क़दमों के नीचे होंगे.


बाबा भली कर रहे।।
श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु
www.saiamritkatha.com

Friday 12 February 2016

साई बाबा का पहला वचन


 जो शिर्डी में आएगा, आपद दूर भगायेगा
श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से पहले का विस्तार करते हुए सुमीतभाई पोंदा ‘भाईजी’ बताते हैं कि साई बाबा के 11 वचनों में से पहला वचन है, “जो शिर्डी में आएगा, आपद दूर भगायेगा.” यह वचन साई का उद्गार भी है और आश्वासन भी. यह वचन साई बाबा के भक्तों की अध्यात्मिक उड़ान में सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यहीं से उसके तन से प्रारम्भ हो रही शिर्डी की यात्रा अंतिम वचन तक पहुँचते-पहुँचते मन की यात्रा बन जाती है.
अपने फ़ायदे के लिए साई के दर पर हर बार जाकर मांगने और मांगने से अधिक पाने वाला आम इंसान, जब मांगते-मांगते थक जाता है और साई देते-देते नहीं थकता, तब वह साई से वो सब कुछ मांगने लगता है जो साई उसे हमेशा से ही देना चाहते थे लेकिन जो वह लेने के लिए कभी तैयार ही नहीं था. श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 32 में साई कहते भी तो हैं, “मेरे सरकार का खज़ाना भरपूर है और वह बह रहा है. मैं तो कहता हूँ कि खोदकर गाड़ी में भर कर ले जाओ. जो सच्ची माँ का लाल होगा, उसे स्वयं ही भरना चाहिए.” ये कौन-सा खज़ाना है जो साई हमेशा से ही अपने भक्तों को देना चाहते हैं? ख़ज़ाने से साई का अर्थ आध्यात्मिक भंडार से है.

आपदाएं या विपरीत परिस्थितियां जीवन का एक अभिन्न अंग हैं. जीवन सुख-दुःख, ख़ुशी-ग़म, अच्छे-बुरे, ग़लत-सही जैसी परिस्थितियों का सम्मिश्रण है. हर दिन एक जैसा नहीं होता. अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर चलती ही रहती हैं. कर्म के सिद्धांतों की बात करें तो यह भी स्पष्ट हो ही जाता है कि अच्छी और बुरी, दोनों ही परिस्थितियां इंसान के ही कर्मों का फल होती हैं. श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 32 में साई आगे कहते हैं, “जो कुछ भी कोई करता है, एक दिन उसका फल उसको अवश्य प्राप्त होगा और जो मेरे इन वचनों को याद रखेगा, उसे मौलिक आनन्द की प्राप्ति होगी.” अच्छे के बदले अच्छा होता है और बुरे के बदले बुरा अनुभव मिलता है. कर्म करने को इंसान स्वतंत्र है.
जब तक कर्म नहीं हुआ है तब तक कर्म इंसान का ग़ुलाम है लेकिन एक बार जब कर्म हो गया तब इंसान कर्म का ग़ुलाम हो जाता है. किये हुए कर्म का फल उसे भोगना ही पड़ता है. कर्म के फल का निर्धारण कर्म की प्रबलता और तीव्रता पर निर्भर करता है. फल का निर्धारण उस अदृश्य शक्ति के हाथों में हैं जिसे हम ईश्वर कहते हैं. उसके न्याय की रीत निराली है. कर्म से, किन्ही परिस्थितियों में भी छुटकारा नहीं है.
जीवन मिला है इसलिए कर्म करना हैं और चूंकि कर्म होते है, इसलिए उन्हें भोगना, उनका फल भोगना हमारी मजबूरी है. जो कर्म अभी हुए नहीं है और जिनके हम मालिक हैं, वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं. जो कर्म हमारे द्वारा हो चुके हैं लेकिन जिनका फल निर्धारण अभी नहीं हुआ है, वो संचित कर्म कहलाते हैं. जो कर्म हो चुके हैं और जिनके फल का निर्धारण भी हो चुका है और जो हमें भोगने ही है, वे प्रारब्ध कहलाते हैं. प्रारब्ध में जिन कर्मों के फल असुखकारी हैं, उन्हें आपदा समझा जाता है.    
जब कोई यह पहला वचन पढ़ता है तो उसे सहज ही यह महसूस हो उठता है कि उसकी सारी आपदाएं शिर्डी में आते ही समाप्त हो जायेंगी. लेकिन क्या इस वचन का महज इतना-सा ही अर्थ है? श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 25 में दामू अन्ना कासार के बाबा को पूछे सवाल से इसका जवाब मिल जाता है. दामू ने बाबा से पूछा था कि जो सभी जन बाबा के दर्शनों के लिए शिर्डी आते हैं, क्या उन सभी को लाभ पहुँचता है? इसके जवाब में बाबा ने कहा, ”बौर लगे आम वृक्ष की ओर देखो. क्या सभी बौर आम में तब्दील हो जाते हैं. कुछ बौर तो अपने आप झर जाते हैं और जो बचते हैं उनमें से भी कुछ आंधी के झकोरों से नष्ट हो जाते हैं और उनमें से कुछ ही शेष रह जाते हैं.”
इस वक्तव्य से बाबा का क्या अभिप्राय था? मन में प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि जब शिर्डी जाने वाले हर व्यक्ति को वहाँ जाकर फ़ायदा ही न हो तो क्यों कोई शिर्डी जाएगा! बाबा के कथन को अगर समझने की कोशिश करें तो समझ में आता है कि किसी का भी शिर्डी आना किसी बौर के आम बनने जैसा ही तो है.
कहा गया है कि ईश्वर की याद विपदा के समय ही आती है. विपदा टल जाने पर आमतौर पर इंसान ईश्वर को भूल जाता है. ऐसे अवसरवादी को दुःख फिर ढूंढ ही लेता है या ऐसा इंसान खुद ही अपने दुःख को ढूंढ लेता है. जो आनंद के समय भी ईश्वर को याद करते रहते हैं, उन्हें दुःख तो आ सकता है लेकिन दुःख उन्हें दुखी नहीं करता. ऐसे ही शिर्डी की यात्रा शुरू करने से पहले ही कई भक्तों का मन बदल जाता है और वह शिर्डी पहुँच ही नहीं पाते. मन की अल्हड़ प्रवृत्ति चित्त को भटका देती है. इनमें से कुछ अगर शिर्डी पहुँच भी जाते हैं तो भी उनमें से कई तो केवल तन से शिर्डी में होते हैं. उनका मन तो भटकता ही रहता है. कोई नौकरी के बारे में सोचता है तो कोई व्यापार और परिवार के बारे में. फ़ायदे-नुकसान के घट-जोड़ में लगा मन उस तन को भी शिर्डी में ठहरने नहीं देता. भटकता मन, इनके तन की शिर्डी में उपस्थिति को नगण्य कर देता है. इन बौरों में तो आम बनने के गुण होते ही नहीं. 
जैसे कुछ बौर स्वयं ही झर जाते हैं वैसे ही शिर्डी आने वाले कुछ भक्त तुरंत ही अपनी समस्या का समाधान नहीं मिलने के कारण अपने आप शिर्डी आना छोड़ देते हैं. उन्हें शायद इस बात का भास ही नहीं होता है कि हर समस्या का समाधान तुरंत ही नहीं मिल जाता. साई से चमत्कारों की उम्मीद रखने वालों को इस बात का ज्ञान ही नहीं होता है कि चमत्कार साई नहीं करते बल्कि साई में हमारी श्रद्धा साई को चमत्कार करने में मजबूर करती है और यह रातोंरात नहीं होता. किसी भी शक्ति पर भरोसे को विश्वास में, विश्वास को आस्था में और आस्था को श्रद्धा में बदलने में समय लगता है. आस्था और श्रद्धा के रास्ते में तर्क खड़ा नज़र आता है.
आस्था और तर्क दोनों एक ही दिशा में साथ-साथ चलते हैं लेकिन कभी रेल की पटरियों की तरह मिलते नहीं. दोनों में होड़ रहती है. तर्क आस्था को आगे बढ़ने नहीं देता और आस्था तर्क को परास्त करना चाहती है. तर्क विवाद को जन्म देता है और आस्था विश्वास को. तर्क कारण ढूंढता है और आस्था कारण से परे नए आयाम ढूंढती है. तर्क मन को कमज़ोर करने का काम करता है तो आस्था विश्वास को दृढ़ करती है. तर्क चमत्कारों को नकारता है. चमत्कार आस्था को नमन करते हैं. तर्क सत्य की खोज में लगा रहता है. आस्था सत्य का ही रूप है. तर्क दिशा देता है तो आस्था गति. तर्क अशांत करता है तो आस्था शांति देती है. तर्क मायूस करता है, आस्था उल्लास से भर देती है. साई में आस्था हो तो तर्क ठहरता ही नहीं क्योंकि साई तर्कों से परे हैं. साई को खोजना है तो तर्कों से परे जाकर ही खोजना होगा.
शिर्डी श्रद्धा है तो साई में भक्ति सबुरी यानि सब्र है. आस्था शिर्डी यानि श्रद्धा का रास्ता खोलती है. अगर हमें चमत्कार नहीं दिख रहा है तो कमी साई में नहीं बल्कि हमारी श्रद्धा में ही है. साई तो देने को तैयार बैठा है. लेने वाले में लेने की क़ाबिलियत तो हो. लायकात होने पर ही इच्छा फलीभूत होती है. जो बौर इस क़ाबिलियत के साथ आस्था की राह पकड़ लेते हैं, उनके आम बनने में एक बाधा और कम हो जाती है. लेकिन अभी भी भक्ति की मासूम टहनी से उनका रिश्ता कच्चा ही रहता है. ज़रा सब्र तो कर, प्यारे!
जैसे ऐसे कमज़ोर रिश्ते से चिपके कुछ बौर तेज़ हवाओं और अंधड़ में झर जाते हैं वैसे ही कुछ और भक्त मोह और लालच के चलते साई को खो देते हैं. कुछ वैमनस्यता और इर्ष्या के अंधड़ में साई से दूर हो जाते हैं. कामेच्छा की प्रबलता मन को साई में टिकने ही नहीं देती. मन की ग्रंथियों के तूफ़ान में ये बौर भी भक्ति की मासूम टहनी में टिक ही नहीं पाते और झर जाते हैं. अब जो बच जाते हैं, वे आम बनने की राह में बढ़ जाते हैं.
शिर्डी का पुरातन नाम ‘शिलधी’ है. समय के साथ ‘शिलधी’ के अपभ्रंश के रूप में अधिक आसान, शिर्डी प्रयुक्त होने लगा. साई बाबा की अष्टोरशत नामावली में पांचवे स्थान पर बाबा का एक नाम “गोदावरीतट शिलधीवासिनै:” बताया गया है. गोदावरी के तट पर बसी शिलधी का वासी! ‘शिलधी’ को अगर दो हिस्सों में कर देते हैं तो “शिला+धी” बनता है. ‘शिला’ का एक अर्थ मेरु या पहाड़ भी होता है और ‘धी’ का अर्थ ज्ञान हुआ.
स्थान का बल प्रधान होता है. इस प्रकार से शिर्डी का बल भी प्रधान हुआ. हमारे शास्त्रों में अधिकांश देवी-देवताओं का स्थान ऊंची जगहों पर ही होता है. इस अर्थ से शिर्डी भी एक पहाड़ हुई. वो पवित्र, पावन, ऊंचा और अडिग पहाड़ जिसने देविदास, जानकीदास, आनंदनाथ, कई सूफ़ी यायावर इत्यादि, कई संतों को और बाद में, संतों के संत, परमहंस श्री साईनाथ को अपनी ओर खींच लिया. शिर्डी में कोई तो चुम्बकीय तत्त्व है जिसने इतने संतों के तप से पाए पुण्य को अपने अन्दर समाहित कर रखा है.
शिर्डी जाना या शिर्डी में आना किसी मेरु या पहाड़ पर चढ़ने के बराबर ही होता है जहाँ से दुनिया एक अलग रूप में लेकिन छोटी नज़र आती है और नज़रें दूर तक देख सकती हैं. दृष्टिकोण बदल जाता है. जहाँ हवा शुद्ध और ताज़ी होती है लेकिन अंतर को कपकपां भी देती है. उसके वेग के सामने पैर जमा कर खड़ा होना भी चुनौतीपूर्ण होता है. इस जगह सूर्य का प्रकाश अधिक ऊर्जावान लेकिन उसका निर्दयी ताप और अधिक पास होता है और वैसे ही चंद्रमा की शीतलता भी पास लेकिन जड़ कर देने वाली होती है. तारों की टिमटिमाहट साफ़ दिखती है लेकिन उनकी नीरसता मन को उदास कर देती है.
इस पहाड़ पर चढ़ना आसान नहीं होता. चढ़ाई एकदम खड़ी है. बिलकुल सीधी. पैर जमाने को कोई जगह नहीं. पकड़ने को कोई सहारा नहीं. दम भरने लगता है और सांस फूलने. शिर्डी में साई तक पहुँचने के लिए कई कड़ी परीक्षाएं देनी होती है. आराम करने रुके तो मन के विचार नीचे की गहराई देख कर चक्कर खाने लगते हैं.  
श्री साई सच्चरित्र के अध्याय-2 में दाभोलकरजी को गुरु की महत्ता समझाने के लिए बाबा ने ऐसी ही ऊँचाई पर पहुंचने के लिए ऐसे ही रास्ते का का ज़िक्र किया है. पथ-प्रदर्शक के साथ होने से हाँफते, गिरते-पड़ते, दुरूह, कठिन और काटों भरे रास्तों से होकर, जीव-जंतुओं से बच कर जो ऊपर पहुँच जाता है, उसे ज्ञान यानि आपदाओं से मुक्ति मिल जाती है. वो ऐसी जगह पहुँच जाता है जहाँ पर दुःख दुखी कर निराश नहीं करता और जहाँ मन सुखी होने पर निरंकुश होकर उड़ान नहीं भरता.
दृष्टिकोण बदलने से ममता की जगह समता का भाव उत्पन्न हो जाता है. साई की ऊर्जा का तेज अपने चेहरे पर नज़र आने लगता है और वहीँ उसकी चाँद जैसी शीतलता ओज बढ़ा देती है. साई की आँखों के तारों की चमचमाहट नए ब्रह्मांडों, जीवन में नए आयामों की खोज का रास्ता खोलती है. भटकते हुए मन को रास्ते और मंजिल दोनों ही नज़र आने लगते है.
साई के साथ होने से उनकी साँसों के सुगन्धित झोंके जहाँ पर नयी आशा का संचार करते हैं. यहाँ मन के विकार रूप बदल लेते हैं. काम शास्त्रोक्त हो जाता है. क्रोध अपनी कमजोरियों पर आने लगता है. लोभ साई के चरणों का होने लगता है. साई की भक्ति की मस्ती का रंग चढ़ जाता है. यह शिर्डी है जहाँ आपदाएं निकल भागने का रास्ता खोजती है. कर्मों के प्रतिकूल प्रभाव सद्गुरू साई के श्रीचरणों में जाने से क्षीण पड़ने लगते हैं.
भाव बदलने से विचार और विचारों में परिवर्तन से कर्मों में बदलाव होने लगता है. क्रियमाण कर्म अच्छे होने से उनका प्रभाव भी बदल जाता है. संचित कर्मों के फल का स्वरुप बदलने लगता है. प्रारब्ध को झेलने की शक्ति मिलती है. साई के ताप से कर्मों का स्वरुप बदलने लगता है.
सोने को तपाने पर वह कुंदन बन जाता है. उसकी मिलावट, अशुद्धता उसके तप कर लाल हो जाने पर दूर हो जाती है. वैसे ही शिर्डी वो स्थान है जिसे साई ने दो अलग-अलग पड़ावों में कोई 63-64 वर्ष तक अपने तप और ताप से प्रबल किया. जहाँ उन्होंने मानवता की परिभाषा को साफ़ कर उस पर से धूल हटा दी. धर्म और अधर्म का भेद बताया. जहाँ साई ने न जाने कितनों की ही तकलीफें दूर की, और जिनका प्रारब्ध उनके सुख के आड़े आ रहा था, साई ने उनके दुखदायी अहसासों को हर लिया. जहाँ साई ने लोगों के जीवन में आशा की नयी किरण जगाई और जहाँ साई ने अपनी अनवरत जलती धूनी की राख से मुर्दों को भी जीवनदान दिया.
शिर्डी वह जगह है जहाँ की मिटटी में अनगिनत भक्तों की आशा का केंद्र बन चुके साई का पंचतत्वों से बना शरीर विश्राम कर रहा है, वहां की मिटटी से एकाकार हो चुका है. साई शिर्डी बन चुके है या शिर्डी साई हो चुकी है, यह भेद करना नामुमकिन है. जिस मिटटी की ऊर्जा साई के नाम में बसी हुई है, उस शिर्डी में आपदाएं कहाँ ठहर सकती हैं. ज़रुरत है तो साई में बिना शर्त समर्पण की. यही शिर्डी आने की शर्त है और योग्यता भी.

शिर्डी में आकर आपदा उन्हीं की दूर होती है जो आस्था की मुश्किल राह पर चलते हुए श्रद्धा के रूप में साई को पाने की ख्वाहिश रखते हैं. शिर्डी में बैठे, साई पूरे विश्व में अपने भक्तों की आपदाएं हटाने का काम सहज ही करते हैं. साई तक पहुँचने में यही पहला पड़ाव सबसे अहम भी है और मुश्किल भी.        

    बाबा भली कर रहे।।

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु

Wednesday 10 February 2016

SAI JAGAT SPECIAL ISSUE ON SHREE SAI AMRIT KATHA @ BHOPAL





चावड़ी महोत्सव : साई नाम की मस्ती



श्री साई अमृत कथा में बाबा की बातें करते हुए कथा के माध्यम सुमीत पोंदा भाईजी साई बाबा के जीवन चरित्र पर आधारित घटनाओं का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि साई बाबा का भक्तों के भाव में रहने का उल्लेख जब भी किया जाता है तो चावड़ी महोत्सव का माहत्म्य उभर कर सामने जाता है.
यह सबको पता है कि शिर्डी में अपने दूसरे प्रवास के दौरान, म्हालसापति की अव्यक्त अनिच्छा के चलते साई बाबा को जब खंडोबा मंदिर में प्राश्रय नहीं मिल पाया था तो उन्होंने कुछ दिन नीम के पेड़ के नीचे और कुछ दिन जंगलों में बिताने के बाद जिस टूटे-फूटे भवन को अपना आशियाना बनाया, वह एक पुरानी मस्जिद थी जिसमें सालों पहले इबादत होना बंद हो गयी थी. इस मस्जिद में छत के नाम लकड़ी के कुछ, कभी भी टूट सकने वाले मोटे जर्जर लठ्ठों पर कुछ पत्थर की फर्शियां टिकी थीं और फर्श के नाम पर कच्ची मिट्टी थी जो बारिश के दिनों में बहुत परेशान करती थी. बाबा तो ठीक से बैठ पाते और ही सो पाते. रात करवटें लेते-लेते निकलती.
उस वक़्त उस फ़क़ीर को जानता तो शिर्डी गाँव था लेकिन पहचानने वाले कम ही थे. वो फ़क़ीर उसी रिसती-भीगती-भिगाती मस्जिद से ही शिर्डी की तक़दीर बदलने बैठा था. कुछ कदम पर शिर्डी गाँव का टूटा-फूटा सभा कक्ष भी था. यह मस्जिद से तो बेहतर स्थिति में था. गाँव के लोग इसे चावड़ी कहते थे. यह चावड़ी मानों बाबा की प्रयोगशाला थी. किसी को एकांतवास के लिए बाबा यहाँ भेजते तो किसी को अहंकार से मुक्ति के लिए तो किसी को रोगों से मुक्ति के लिए. किसी को समझ में नहीं आता कि बाबा जो काम मस्जिद में भी कर सकते थे, उस काम के लिए उन्हें चावड़ी की ज़रुरत क्यों पड़ी! फ़क़ीर के भेद निराले, वही जानता है कि वो क्यों कुछ करता है. अलग-अलग गुरु भी तो शिष्य को शिक्षा अपने ही ख़ास ढंग से देते हैं. कुछ समझाते हैं तो कुछ सज़ा भी देते हैं लेकिन दोनों ही परिस्थितियों में फ़ायदा शिष्य का ही होता है.
समय गुज़रता गया. उस फ़क़ीर की साख और उसका चरित्र शिर्डीवासियों को समझ में आने लगा. उन्हें कहीं अहसास होने लगा था कि उनके भाग्य में इस हीरे के माध्यम से सकारात्मक फेर आने वाला है. अब बारिश हुई तो लोग बाबा को चावड़ी में रहने को कहने लगे. भाव से भीने होने वाले शिर्डी के इस भगवान् ने अपने गांव वालों की यह बात भी मान ली लेकिन मस्जिद में रहना नहीं छोड़ा. चाहे जैसा मौसम हो, एक रात मस्जिद में तो एक रात चावड़ी में बाबा रहने लगे.
मस्जिद में तो उनके साथ रात में सोने वालों में तात्या पाटिल और भक्त म्हालसापति थे लेकिन चावड़ी में बाबा अकेले सोते. नानासाहेब डेंगले द्वारा एक हथेली चौढ़े और ढाई हाथ चिंदियों से लटका कर रखे लकड़ी के तख्ते पर सोने का क्रम यहीं का माना जाता है. इस लकड़ी पर चारों कोनों में बाबा एक-एक दीपक भी जला लिया करते थे. क्या ये क्रिया महज बाबा के योग सिध्धियों पर नियंत्रण को बताती हैं या एक फ़क़ीर का उस अनुभव लेने को दर्शाती हैं जिसे साधारण मनुष्य जीते हैं? जीवन भी तो इसी तरह रिश्तों की कच्ची डोर से बंधे एक पतले, संकरे रास्ते जैसा ही है, जिसमें होश खोकर संतुलन खोया तो पतन की आशंका बनी रहती है. इस रास्ते पर हर दिशा से प्रकाश आने देना चाहिए, ऐसा यह चार दिए बताते हैं. जीवन में हर पल, हर दम जागरूक और संवेदनशील रहना चाहिए, शायद बाबा की यह अद्भुत क्रिया यही बताती है.
राधाकृष्णमाई के शिर्डी आगमन के कुछ समय बाद तो हर चीज़ मानो एक निश्चित आकार लेने लगी. बाबा के चावड़ी में सोने जाने को एक उत्सव के रूप में मनाने का ख्याल आया. धनी भक्तों से रथ, पालकी, वाद्ययंत्र, बर्तन, इत्यादी का बंदोबस्त करने को कहा गया. कोई चंवर, चिपलिस, ढोल, मंजीरे ले आया तो कोई ध्वजा. बाबा को यह बहुत नागवार गुज़रा. उन्हें इस आन-बान से कोई लेना-देना था ही नहीं. लेकिन भगवान् ने कभी अपने भक्तों की इच्छा टाली है भला?
9 दिसंबर, 1910. पहली बार बाबा की पालकी निकली. भक्तों के बहुत मान-मुनौव्वल के बाद बाबा इस चावड़ी यात्रा के प्रस्ताव पर राज़ी हो गए लेकिन पालकी में बैठने की बात पर राज़ी नहीं हुए. वे इस यात्रा में पैदल ही चलते. पालकी में उनकी छवि और पादुकाएँ रखी जातीं. मस्जिद में कोई ठीक व्यवस्था होने के कारण, पालकी बाहर सड़क पर ही रखी रहती. एक दिन उसमें से कोई चोर चांदी के हाथी निकल कर ले गए. कोहराम मचने पर उन्होंने कहा कि  पूरी पालकी ही क्यों नहीं ले गए! इसी तरह उन्होंने भक्तों के द्वारा अर्पण किये हुए कढ़ाईदार अंगरखे तो पहने लेकिन अपनी फटी-पुरानी कफनी के ऊपर.
मस्जिद में भजन होते. बाबा की षोडशोपचार पूजा के बाद, तात्या के सहारे से उठते बाबा अपने हाथ से मस्जिद से निकलते समय, वहाँ का दीपक बुझा देते. मानो पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देने के लिए. लोगों को मुक्त-हस्त से उदी बांटते. सबसे पहले अपने सजे-संवरे घोड़े, श्यामसुंदर के माथे पर अपने हाथों से बाबा उदी लगाते. ढोल-नगाड़े, गाजे-बाजे, लालटेनों की कतार और रंग-बिरंगी आतिशबाज़ी के बीच बाबा की छतरी पकडे भागोजी शिंदे होते तो उनके एक तरफ काकासाहेब दीक्षित और दूसरी तरफ़ नानासाहेब निमोणकर. तात्या और म्हालसा और उनके जैसे कितने ही भक्त, भक्ति में सराबोर नृत्य करते. कुछ कदम का फासला और यह पालकी यात्रा कोई दो-ढाई घंटे में ख़त्म होती. बीच में मारुती मंदिर के सामने बाबा रुक कर कुछ अबूझ इशारे करते. मानो कोई बातें कर रहे हों. बाबा रहस्य ही तो हैं, हर मतलब से परे! पूरा वातावरण भक्ति से अभामयी हो उठता. चावड़ी पहुँचने पर कोई उनके पाद प्रक्षालन करता तो कोई चिलम सुलगा कर देता. ज्ञानदेव और तुकाराम की आरतियों के समय बाबा सम्मानपूर्वक स्वयं खड़े हो जाते. गद्दियों के ढेर पर जब बाबा रात्रि-विश्राम के लिए जब सोने को होते तो तात्या उन्हें एक गुलाब देते. बाबा उन्हें कहते कि रात में उनकी खबर लेतें रहें.

प्रश्न उठता है कि हमेशा ऐच्छिक दीनता में रहने वाले और करुणा से भरे साई ने इस वैभवपूर्ण चावड़ी यात्रा की अनुमति क्यों दी. क्या केवल भक्तों के बस में रहने वाले साई के पास भक्तों के अनुरोध के सिवा भी कोई कारण था? साई के दर पर मांगने आने वालों में समय के साथ-साथ अत्यधिक शिक्षित, धनाढ्य और उच्च पदों पर सुशोभित लोग आने लगे थे. स्वभावतः इतने संपन्न व्यक्तियों का अहंकार एक फटे कपड़े पहने फ़क़ीर के सामने पूरी तरह झुकने या अपनी झोली फैलाने से उनको रोकता ही होगा. उनका अहंकार घटाने के लिए बाबा ने ऐसी लीला रची जिससे उनका सर्वशक्तिमान, राजाधिराज वाला स्वरुप सामने उभर कर सके और साथ में उनकी सादगी भी परिलक्षित होती रहे. किसी के अहंकार को छोटा करना हो तो उसके सामने अपना कद बढ़ा लेना चाहिए.

साई के रंग अनेक और उनके रूप कई हज़ार. कहाँ तक हम थाह पा सकेंगे?

        
बाबा भली कर रहे।।

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु