Thursday 18 August 2016

साई बदल डालते हैं..

सुमीत पोंदा ‘भाईजी’
[लेखक श्री साई अमृत कथा के माध्यम हैं]


शास्त्रों में वर्णित गुरु गीतामें की गई व्याख्या से गुरुशब्द को समझने की कोशिश करते हैं. गुरु – इस शब्द को हम विभक्त कर दें तो गुऔर रुहमें मिलते हैं. गुका अर्थ होता है अन्धकारऔर रुका अर्थ, दूर करना. इस प्रकार से गुरुका अर्थ हुआअंधकार को दूर करने वाला.
आज तो गुर द्वारा दीक्षित किये जाने के मायने बदल गये हैं पर यदि गुरु द्वारा दी जाने वाली दीक्षा का शाब्दिक अर्थ भी समझें तो गुरु के मायने और भी स्पष्ट हो जाते हैं. दीका अर्थ है, दाग (मैल) और क्षा’’ प्रयुक्त होता है, क्षय करने की क्रिया के लिए. इस प्रकार दीक्षाका अर्थ होता हैदागों का क्षय करना. सरल भाषा में, गुरु द्वारा दीक्षित किये जाने अर्थ होता है, गुरु द्वारा हमारे (मन का) मैल दूर करने की क्रिया. इसी तरह से, गुरु के प्रकारों में समर्थ सद्गुरु को गुरुता का सर्वोच्च स्तर माना गया है. साई समर्थ सद्गुरु हैं.

बहुत आसान होता है यह कहना कि मनुष्य यदि काम, क्रोध, लोभ, मत्सर, मोह के पाश से मुक्त हो जाए तो वह मुक्ति के पथ पर अग्रसर हो जाता है लेकिन दैनिक कार्यों में लग कर, गृहस्थाश्रम में रह कर यह कतई संभव नहीं होता है कि हम सब मन के इन विकारों से छुटकारा पा लें. इन्हें बलात् छोड़ने की कोशिश भी परेशान कर देने वाली होती है और जब तमाम कोशिशों के बावजूद इन विकारों से छूट नहीं पाते तो मन में हताशा का भाव पैदा होने लगता है. अपनी कमतरी का अहसास होने लगता है. अपने कर्म में अभाव महसूस होने लगता है.     

साई बाबा को समर्थ सद्गुरु माना गया है. वे सही मायनों में समर्थ सद्गुरु हैं भी. साई के संपर्क में जो भी आया, साई ने उसके दुर्गुणों का नाश न करते हुए, उनके स्वरुप को ही बदल डाला. साई का संसर्ग होने पर रोम-रोम हर्षित हो उठता है, मन में प्रसन्नता का भाव जाग्रत हो उठता है, शरीर में एक विद्युत-सा प्रवाह अनुभव करते हैं, साई के चरणों से प्रीति का अनुभव होता है और अपने सारे दुर्गुणों का सहज ही आभास होने लगता है. दुर्गुणों का आभास होने पर उनका दमन करने की इच्छा जाग उठती है. बदलाव की इच्छा जाग्रत होने लगती है और बदलने की इच्छा का उदय ही बदलाव की ओर पहला कदम होता है. साई की भक्ति इतने मानुषिक भाव जगा देती है कि जन्म-जन्मों के कर्मों के प्रभाव से निर्मित हमारा स्वभाव और उनके विकार शैने-शैने क्षीण होने लगते हैं. साई में प्रीति हमारे दुर्गुणों का इलाज करते हुए उन्हें सद्गुणों में बदल डालती है. हमारी आँखों के रास्ते हमारे सारे दुर्गुण पानी बनकर बह जाते हैं. हम सहज भाव से अपने दुश्मन को भी माफ कर देते हैं, लालच से पार पाते हैं, अहंकार से ऊपर उठ पाते हैं.... यकायक हमें यह लगने लगता हैं कि साई ने हमें नवाज़ दिया है; उसने हमें वो सब तो दिया ही जो हम मांगने आये थे पर उसने उससे कहीं अधिक भी दे दिया है. वो सब भी जो हमने तो माँगा ही नहीं था.

ऐसे ही बाबा ने असंख्य भक्तों को अपने आशीष से पार लगा दिया है और उनके अंदर परोपकार की भावना प्रबल कर दी है. वे ऐसा लगातार कर रहे हैं और करते ही रहते हैं. शिरडी में उनका पहला और ज्ञात चमत्कार उनकी इसी विधा को सुस्पष्ट करता है जब उन्हे शिरडी के बनियों द्वारा मस्जिद में दीप जलाने के लिए तेल देने से मना कर दिया गया था (अ. ५) और उन्होंने मस्जिद के जल को तेल में परिवर्तित करके दीप जलाये थे. यह चमत्कार देखकर बनियों के दिल में दर बैठ गया कि अब तो वे इस फकीर के श्राप से नहीं बच सकते परन्तु बाबा ने उनको न सिर्फ माफ कर दिया बल्कि उन्हें यह ज्ञान भी दिया कि झूठ बोलकर तेल नहीं देने से उन्होनें किस प्रकार ईश्वर से झूठ बोला है वरन मानवता की दृष्टि से भी वे किस प्रकार से दोषी हैं. यह सुनकर बनिए बाबा के चरण में गिर पड़े. उनमें आतंरिक सुधार हो रहा था.

साई सच्चरित्र के अध्ययन में एक प्रसंग (अ. ४९) आता है जब नाना चांदोरकर, बाबा के दर्शन को आयी एक मुस्लिम महिला की सुंदरता से सम्मोहित हो उठते हैं और अपने मन में उठते विचारों से ग्लानी महसूस करने लगते हैं. तब बाबा उनके विचारों को जान कर उनके घुटने पर एक थपकी लगा कर उन्हें यह कहते हैं कि ईश्वर कि बनाए हुई हर वस्तु में सुंदरता के दर्शन करना कतई बुरा नहीं है. जिस ईश्वर की निर्मित सृष्टि इतनी सुन्दर है, वह स्वयं कितना सुन्दर होगा! इस भाव से सृष्टि को देखेंगे तो उस परम-पिता की सुंदरता हमारे मन में बस जायेगी. सुंदरता से प्रभावित होना बुरा नहीं है, बुरा है उससे अहितकारी विचारों का पनपना. नाना को सहज ही अपनी गलती का अहसास हो गया और उसके मन से मैल साफ़ हो गया.

साई सच्चरित्र में कई स्थान पर बाबा के क्रोध का और उनके क्रोधित हो जाने का उल्लेख भी आता है. संतों का क्रोधित होना कोई असामान्य बात नहीं है. हमारे शास्त्रों में लिखा गया है कि जो भी संतों के क्रोध का पात्र बन गया, उसका जीवन तर गया. बाबा का क्रोध जिद:क्रोध कि श्रेणी में आता है. ऐसा क्रोध, जिसका कारण सामान्यजन की समझ में नहीं आता. इस प्रकार का क्रोध, लोगों में सुधार लाने के लिए होता है न कि मन कि हताशा या अप्रसन्नता प्रकट करने के लिए. जितनी जल्दी बाबा को क्रोध आता था, वह उतनी ही जल्दी सामान्य भी हो जाते थे. आमतौर पर बाबा के अनन्य भक्त इस प्रकार के क्रोध को सामान्य मानते थे परन्तु यदि किसी को उनके क्रोध से दु:ख होता था तो बाबा स्वयं उसे मनाते थे जैसा उन्होंने तात्या (अ. ६) के साथ किया जब मस्जिद में किये जा रहे, उनकी इच्छा के विपरीत, सुधारों के चलते, बाबा क्रोधित हो गए थे और उन्होंने किये जा रहे कार्यों को तोड़ दिया था. तात्या की पगड़ी को जलती अग्नि में फ़ेंक दिया था. तात्या इस पर भी शांत बने रहे और मस्जिद के कार्यों में लगे रहे. यह बाबा की भक्ति का ही प्रताप था. क्रोध शांत होने पर बाबा ने स्वयं एक नया साफा मंगवाकर तात्या के सर अपने हाथों से नयी पगड़ी बाँधी.

जब अन्नासाहेब दाभोलकर, जो गुरु की महत्ता को नकारते हुए बाबा के दर्शनों को आये थे और अल्प-शिक्षित होते हुए भी उच्च पदों पर आसीन होने के चलते अहंकार से भरे हुए थे, को यह प्रेरणा हुई (अ. २) कि बाबा जैसे चमत्कारी संत की लीलाओं को लिखा जाना चाहिए, तब शामा के अनुरोध पर उनकी इच्छा स्वीकृत हुई पर इस शर्त के साथ कि अन्नासाहेब को अपना अहंकार छोड़ कर बाबा की शरण में आना होगा. तब बाबा दाभोलकरजी को माध्यम बनाकर स्वयं अपनी जीवनी लिखेंगे. बाबा ने यही किया भी. साई की लीलाओं का श्रवण करने-मात्र से उनके भक्तों के दु:ख दूर हो जाते हैं. दाभोलकर के माध्यम से साई द्वारा लिखी गई जीवनी, साई सच्चरित्र, आज दुनिया में सबसे अधिक मात्र में पढ़ा जाने वाला ग्रन्थ हो गया है. एक अनुमान के मुताबिक आज इस ग्रन्थ की, दुनिया की विभिन्न भाषाओँ में, सालाना लगभग ५ लाख प्रतियाँ भक्तों द्वारा पढ़ी जाती हैं.

बाबा की कीर्ति को सम्पूर्ण महाराष्ट्र में फैलाने का श्रेय गणपतराव सहस्त्रबुद्धधे यानि दासगणु महाराज को जाता है. दासगणु बाबा शरण में आने से पूर्व पुलिस महकमे में बहुत छोटे पद पर स्थापित थे, गाने के शौक़ीन और द्विअर्थी संवादों से लबालब मराठी नाटक मंडलियों के तमाशे देखने के शौक़ीन भी थे. नानासाहेब चांदोरकर ने उन्हें बाबा से मिलवाया था. बाबा का आदेश हुआ कि अब उन्हें ईश्वर की सेवा में लग जाना चाहिए. नहीं माने. कुछ समय तक बाबा ने उन्हें अपनी लीलाएं रच कर इस ओर संकेत भी दिया. बाबा के कई सारे इशारों के बाद गणपतराव ईश्वर-भक्ति की ओर मुड ही गए और संतों पर, भक्ति पर अद्भुत काव्य संग्रह की रचना की. दासगणु के नाम से प्रचलित हुए. एक बार जब वे (अ. १५) बन-ठन कर चमकदार अंगरखा, जूते, गले में माला पहने कीर्तन करने को जा रहे थे तब बाबा ने उन्हें ताना मारकर कहा कि इतना सज-धज, दूल्हा बनकर वे कहाँ जा रहे हैं. ईश्वर-भक्ति में यह सब शोभा नहीं देता. उस दिन से दासगणु महाराज ने केवल अधोवस्त्र में, हाथ में करताल लिए कीर्तन करना प्रारम्भ कर दिया. कितना सार्थक तरीका था बाबा का यह बताने का कि दिखावट, इश्वर-प्राप्ति में बाधक होती है. समय आने पर बाबा ने दासगणु की ईशोपनिषद सम्बन्धी गुत्थी का समाधान काकासाहेब दीक्षित की नौकरानी नाम्या कि बहन, मलकरणी, के माध्यम से करवाया.

विपरीत समय में मन का संयम रखने के सम्बन्ध में बाबा ने स्वयं का उदाहरण उद्धत किया है कि उनके गुरु ने उन्हें (अ. ३२) चार-पांच घंटे तक एक कुएँ के ऊपर लटका रखा था और वे इसमें परम आनंद का अनुभव कर रहे थे. क्या ऐसे समय में कोई परम आनंद का अनुभव कर सकता हैं? जब ईश्वर हमें परीक्षा के दौर से पसार कर रहा होता है तब हमारा विश्वास टिके रहना चाहिए तभी हम उसकी कृपा पा सकते हैं.  

भगवत-प्राप्ति में धन-संग्रह की प्रवृत्ति बाधक होती है, यह बाबा ने गोचर किया जब एक व्यापारी उनसे (अ. १६-१७) ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति करने गया. इस कथा में बाबा ने स्पष्ट किया हैं कि जब तक मनुष्य का ध्यान धन में ही लगा रहेगा और जब तक धन-संग्रह ही उसका ध्यान-बिंदु रहेगा, तब तक ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है. वर्तमान समय में चेन्नै के सोफ्टवेयर कंपनी के मालिक, श्री के. वी. रमणी, को बाबा ने प्रेरणा दी और उन्होंने अपना कारोबार समेट कर समस्त धन-प्राप्ति बाबा की सेवा में लगा दी और १११ करोड़ रुपयों से शिरडी में एक समय में एक साथ १४००० भक्तों के आवास की सुविधा बनवा दी. ऐसा वैराग्य साई की प्रेरणा से ही संभव है.

बाबा के भक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि से परिपूर्ण होते हैं. काम में शास्त्रोक्त रूप से ही लिप्त होते हैं. क्रोध करते हैं मगर अपनी अक्षमताओं पर. लोभ रखते हैं मगर साई के चरणों का. मोह रहता है साई की लीलाओं को सुनने का. मद रहता है मगर साई के गुण-गान का और इर्ष्या (मत्सर) रहती है, अपनी चारित्रिक कमियों से.


साई बदल डालते हैं..

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभम भवतु..

Wednesday 17 August 2016

साई बाबा का छठा वचन


मेरी शरण आ ख़ाली जाए, हो तो कोई मुझे बताये
[Copyrighted article. This article is covered under the intellectual rights. Any part or content of this article must not be reproduced with out the written consent of Shri Sumeet Ponda. सर्वाधिकार सुरक्षित. यह लेख श्री साई अमृत कथा और श्री सुमीत पोंदा 'भाईजी' की निजी निधि है. इसे या इसके किशी भी अंश को निधिधारी की लिखित अनुमति के बिना उपयोग किया जाना दंडनीय अपराध होगा.]                                         
श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से छठे वचन के बारे में बताते हुएभाईजीसुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा का यह छठा वचन मेरी शरण ख़ाली जाए, हो तो कोई मुझे बताये साई के शरणागत को साई की महिमा के बारे में बताता है. यह कि उनकी शरण में आने वाला कभी ख़ाली हाथ नहीं लौटता. साई का यह वचन एक प्रकार से साई के विराट चरित्र को उजागर भी करता है जिसमें साई में भरोसा रखने वाले को साई ने इस बात की छूट भी दी है कि वो साई की शरण में जाने के बाद अगर मन की मुराद नहीं पाता तो इस बात की फ़रियाद साई से कर सकता है. इसी तरह, इस वचन को सुनने वाले के मन में साई के सर्वशक्तिमान राजाधिराज स्वरुप का उदय होता है. मानो कोई राजा अपनी प्रजा से कह रहा है कि तुम मेरी शरण में आ जाने के बाद ख़ाली कभी नहीं जा सकते.
दूसरी तरफ़ इस वचन में साई की करुणा भी उजागर होती है जिसमें वो बड़े ही प्रेम से इच्छा करने वाले को यह भी कहते समझ में आते हैं कि अगर उनकी शरण में आकर कोई अपने मन की नहीं पा सका है तो वह ज़रूर अपने साई से इस बात की फ़रियाद भी कर सकता है.
इस वचन को समझने के लिए समझना होगा कि साई की शरण क्या है? उनकी शरण पाने के लिए एक भक्त में क्या योग्यता होनी चाहिए? शरण में जाकर भक्त को क्या साई से मिल जाता है? मन का नहीं मिल पाने पर कोई भी भक्त साई से क्या फ़रियाद कर सकता है?
शरण में आने की शुरुआत चरणों से होती है और भक्ति की पहली सीढ़ी याचना बनती है.

 याचना में इच्छाएं छिपी होती है. पहले-पहल हम साई के समक्ष याचक बन कर ही तो आते हैं. उनसे चमत्कारों की उम्मीद रखते हैं. यहीँ से साई से हमारे प्यार-भरे रिश्ते की शुरुआत होती है. जीवन के इम्तिहान में जो पर्चा हमारी समझ में नहीं आता है, उसका हल मांगने हम साई के पास पहुँचते हैं. मांगते हैं और इतनी तीव्रता से मांगते हैं कि साई करुणावश हमें वो दे देते हैं जो हम उससे चाहते हैं. लोभ और मोह में फंस कर हम साई से सुख के आवरण में दुःख मांग लेते हैं. आज जो सुख समझ में आता है वो कल का दुःख ही होगा क्योंकि हम साई से सभी कुछ वही मांगते हैं जो नाशवान हैं. वस्तु को आज पाना और कल उसका नाश दुखी ही करता है. साई देना कुछ और चाहते हैं लेकिन रुक जाते हैं क्योंकि हमें तैयार नहीं पाते हैं. उसका भण्डार तो अमूल्य वस्तुओं और अहसासों से लबरेज़ हैं लेकिन हम ही निरर्थक चीज़ें उससे मांगते रहते हैं तभी हम पाकर और मांगते हैं. साई और भी दे देते है. मांगने का और पाने का यह सिलसिला चलता ही रहता है जब तक हम मांगते-मांगते शर्मिंदा नहीं हो जाते. वो हमारी मांगने की आदत से दुखी भी हो जाता है..वो तो दातार है. देना बंद ही नहीं करता. लेकिन इस पूरे क्रम में वो हमें सुधारता, संवारता चलता है.
[Copyrighted article. This article is covered under the intellectual rights. Any part or content of this article must not be reproduced with out the written consent of Shri Sumeet Ponda. सर्वाधिकार सुरक्षित. यह लेख श्री साई अमृत कथा और श्री सुमीत पोंदा 'भाईजी' की निजी निधि है. इसे या इसके किशी भी अंश को निधिधारी की लिखित अनुमति के बिना उपयोग किया जाना दंडनीय अपराध होगा.]                            जब हमारे पास अपनी ही ज़िद और साई की कृपा से नाशवान चीज़ों का अम्बार लग जाता है तो उनके खो जाने का डर भी मन में बैठ जाता है. तब साई हमें वो देना शुरू करता है जो वो हमेशा से ही हमें देना चाहता था. अब उसका काम शुरू होता है.

वो हमारे ही मांगे हुए दुःख का अहसास मिटाने लगता है. हमारे कर्मों की गति के अनुसार हम पर दुःख तो पड़ता है लेकिन हम दुखी नहीं होते. हमें दुःख प्रभावित नहीं करता. हम संवर रहे होते हैं. दुःख के अहसास के मिटने के बाद साई की कृपा से हमें सुख के पंख लग तो जाते हैं लेकिन अब हम बेलौस उड़ने नहीं लगते. संवरने से जीवन में संतुलन आ जाता है. स्थायित्व आ जाता है. साई के सही स्वरुप की पहचान होने लगती है. विश्वास होने लगता है कि जो साई कर रहे हैं वो हमारे भले का ही तो है.   
साई अनंतता का स्वरुप हैं. हर कण में, हर मन में, हर जीवन में, नभ-तल में साई हैं. यूं कहें कि यह सभी कुछ जो अस्तित्व में है, वह सभी कुछ साई में है या प्रत्येक विद्यमान जड़ और चेतन वस्तु में साई समाया हुआ है. बात एक ही है. साई परम सत्ता हैं. सर्वव्यापी हैं. सर्वज्ञाता हैं. सर्वशक्तिमान हैं. सर्वज्ञ साई हैं या साई सर्वज्ञ हैं इसमें भेद कर पाना मुश्किल है.
साई की शरण पाने के लिए या उसमें समाने के लिए किसी को कोई विशेष जतन या प्रयत्न नहीं करना पड़ता. किसी विशेष स्थान पर जाने की आवश्यकता भी नहीं है. अनुष्ठान करने, आहुति देने की भी कोई ज़रुरत नहीं होती है.
साई की शरण पाने के लिए भक्त को किसी प्रकार की विशेष योग्यता भी प्राप्त नहीं करनी होती. कोई पोथी या पुराण का अध्ययन नहीं करना है. कोई मंत्र नहीं रटना है और न ही कोई तंत्र साधना है. न कोई विशेष वस्त्र धारण करने हैं और न ही कोई भूषा. कोई हार-फूल, अगरबत्ती, चादर या फिर कोई भी महंगी वस्तु नहीं चढ़ानी है! कुछ भी साई को दरकार नहीं है. जो हमें देता है, उसे हम लौटा ही क्या सकते हैं? ये तो सोचना भी बेईमानी हुई. उसी का तो सब दिया हुआ है और इन चीज़ों से हमारा रिश्ता तभी तक है जब तक उसका दिया हुआ यह शरीर है. शरीर नाशवान है और उसके सारे रिश्ते भी. यही शाश्वत सत्य भी है. साई तो अजर-अमर हैं और उनका-हमारा साथ भी. इस साथ को बाँधने के लिए तो कोई भी नाशवान सेतु नहीं बन सकती.    
साई की शरण को पाने के लिए नाम रटन करने जैसी भी कोई साधारण क्रिया नहीं करनी होती. जीभ और होंठ को हिलाना भी नहीं है. सिर्फ़ साफ़ मन से साई का स्मरण मात्र कर लो. वही काफ़ी है. मन साफ़ है और साई में पूर्ण विश्वास है तो साई अपनी शरण में ले लेते हैं. पर मन साफ़ कैसे होगा?
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याचना से शुरू हुई भक्ति का चरम प्रेम है. जब साई के बिना, उनकी बातों के बिना, उनके दर्शन किये बिना जो अधूरापन लगे और जब वही अधूरापन पूरा भी लगने लगे तो समझो साई से प्रेम हो गया है. इस प्रेम को समझने के लिए मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम समझना होगा. प्रेम में तो विष को अमृत में बदलने की शक्ति होती है.
साई तो प्रेमी हैं ही. अनंत प्रेमी. उनके मन में हमारे लिए अकूत प्रेम का झरना सतत बहता ही रहता है. इस अनंत झरने में डूब कर ही हम अपने आप को साईमय बना लेते हैं. साई में और हम में कोई भेद नहीं रहता. साई की शरण में जाना, उनसे एकाकार हो जाने जैसा ही है. अनंत प्रेम. जब प्रेम अनंत हो जाता है तो रोम-रोम संत हो जाता है. साई का सान्निध्य पाकर हम भी संत हो जाते हैं. प्रेम में प्रेमी जैसा हो जाना सरल भाव है. हमारे रोम-रोम में भी संतत्व का भाव हिलोरे मारने लगता है. ये हमारा बदन मंदिर बन जाता है. साई का मंदिर..जिसमें सदैव साई की ज्योत साई के आगे प्रज्ज्वलित रहती है. अनुपम, अखंड ज्योत. अपने गुरु के प्रति अनंत प्रेम की ऐसी ही ज्योत से साई ने द्वारकामाई में वो धूनी जलाई होगी जो आज भी मानवता का कल्याण करती है. जब रोम-रोम संत हो जाता है, हमारा बदन मंदिर बन जाता है तब हमारा हृदय मन से महंत हो जाता है. साई से विलक्षण प्रेम ही उनकी शरण है. हमारे उद्धार का रास्ता खुलने लगता है.
साई से प्रेम कर और बदले में उनका प्रेम प्राप्त कर कोई भी कभी ख़ाली नहीं रहता. झोलियाँ इतनी भर जाती हैं कि छोटी पड़ने लगती हैं. हाथ उठते बाद में हैं और दुआएं क़ुबूल पहले हो जाती हैं. सजदा में झुका बाद में जाता है, बरकत पहले हो जाती है. साई की करामात है ही ऐसी. उन्हें किसी को ख़ाली हाथ लौटाना आता ही नहीं है.
साई की शरण में नाशवान चीज़ों का मोह सिमट जाता है. उनकी निरर्थकता समझ में आने लगती है. उनमें आसक्ति मिटने लगती है. वासना की आग ठंडी पड़ने लगती है. मोह साई में बन जाता है. साई की शरण सुखकारी लगने लगती है. प्रेम का अर्थ समझ में आने लगता है. आसक्ति का स्वरुप बदल जाता है. आसक्ति अब साई शरण की हो जाती है. उनके बिना चैन नहीं मिलता. मन में साई नाम का रटन बराबर चलता रहता है. साई सदा साथ रहते हैं. मोह आनंद में बदल जाता है. साई के साथ का आनंद.
भविष्य अनिश्चित होता है इसीलिए उसका भय हमेशा हमें सताता ही रहता है. अनिश्चितता की कोख से डर का जन्म होता है. भय का दूसरा अर्थ मृत्यु है. भयभीत व्यक्ति मृत के समान होता है. साई के साथ से भविष्य का यह भय भी मिट जाता है. साई नाम से मन में अभयत्व का भाव जागृत हो उठता है. कोई मेरा बुरा नहीं कर सकता! यह भाव मन में जगह बनाने लगते हैं. निर्भयता का उदय होने लगता है. अनिश्चितता के भंवर में साई के साथ से अभय का कमल खिल उठता है.
साई की शरण मन के भाव बदल देती है. हम जब उसकी शरण में आते हैं तो रिक्तता लेकर आते हैं, याचक बन कर आते हैं लेकिन साई इस रिक्तता में सुख, शांति और आनंद का भाव भर देते हैं. कोई कहे तो सही कि साई की शरण से वो ख़ाली लौटा है. साई ने कभी किसी को ख़ाली नहीं लौटाया.

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बाबा भली कर रहे।।

                    श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु।                                                     www.saiamritkatha.com