Sunday, 28 December 2014

जो जिंदगी बदल दो, असली चमत्कार वो है; और बाबा ने वही किया..


मन का क्या है; भागता; रहता चारों ओर ।
करो समर्पित साई को मिले तभी उसे ठौर ।


जीवन में जो अप्रत्याशित और असंभावी होता है, हम उसे चमत्कार कहते हैं। जिसके बारे में कभी हमने सोचा नहीं; और यदि कल्पना की भी तो, उन्हें साकार करने की हमारे अंदर शक्ति नहीं थी। उनके प्रयोग के तौर-तरीके हमें नहीं पता थे।

मतलब, जो हम अपने जीवन में साक्षात नहीं कर पाए, अगर कोई दूसरा उसे करके दिखाता है, तो वो हमारे लिए चमत्कार हो जाता है। हम उस व्यक्ति को असाधारण व्यक्तित्व मानने लगते हैं। उसे पूजने लगते हैं। उसकी कहीं बातों और सलाह-मश्वरों पर अमल करने लगते हैं।...और हमें करना भी चाहिए, अगर उस व्यक्तित्व के चमत्कार समाज को एक नई दिशा देते हों, देश के हित में हों, हमारी जिंदगी में सकारात्मक बदलाव लाते हों, जो संसार को संस्कारित करने की पहल करते हों।


बाबा ऐसे ही चमत्कारिक संत थे। वे प्रयोगधर्मी थे। वे एक ऐसे महापुरुष थे; जो लोगों को सच के रास्ते पे चलने का मार्ग दिखाते थे। वे एक ऐसे शिक्षक थे; जो अपने भक्तों को अच्छाई का पाठ पढ़ाते थे। उन्हें एक ऐसे वैज्ञानिक के तौर पर भी याद कर सकते हैं, जो अपने नये-नये प्रयोगों से लोगों की आंखों पे पड़े अज्ञानता के पर्दे को हटा देते थे।


साईं बाबा ने वही चमत्कार किए। उनका आशीर्वाद, सान्निध्य हमें वहीं सुखद अनुभूति देता है, जैसी हमें अपने पुरखों के स्मरण के दौरान मिलती है। बाबा का सम्पूर्ण व्यक्तित्व चमत्कारिक था। उनके भीतर एक चुंबकीय प्रभाव था, जो हमें खींच लेता था। चुंबक बेहद प्रभावशाली तत्व है, जो बिजली के उत्पादन में सहायक की भूमिका निभाता है। बिजली हमें रोशनी देती है, हमारे दैनिक जीवन में काम आने वालीं तमाम भौतिक चीजों जैसे पंखा, टीवी, कूलर, फ्रिज आदि चलाने के काम आती है।


बाबा का चुंबकीय प्रभाव हमारे मन में विद्युत पैदा करता है। सकारात्मक ऊर्जा का ऐसा करंट दौड़ाता है, जो हमारे तंत्रिका तंत्र को अच्छे कर्मों के लिए उद्देलित करता है। मन को शांत करता है, तन को स्फूर्ति देता है। यानी अंदर और बाहर दोनों से हमें निर्मल कर देता है।


जब तब इनसान चांद तक नहीं पहुंचा था, तब तक चांद से टुकड़ा तोड़कर लाना एक कल्पना मात्र थी। लेकिन जब इनसान ने चांद पर कदम रखा, वहां की माटी, पत्थर धरती पर लाए, तो हमने उसे चमत्कार कहा। यह इनसान का किया चमत्कार था। इनसान लगातार चमत्कार कर रहा है। सारे चमत्कारों की जनक सकारात्मक ऊर्जा है, जो हरेक बंदे के भीतर निहित है। लेकिन उस ऊर्जा का प्रयोग करना एक कला है और अपने अंदर की इस कला को परखना एक चुनौती। बाबा का सान्निध्य हमें इसी आर्ट में पारंगत करता है। हमें इस चुनौती के लिए तैयार करता है।


चमत्कार को सभी सलाम करते हैं। लेकिन बाबा आज भी जो चमत्कार करते आ रहे हैं, उन्हें सिर्फ सलाम ठोंककर अपने-अपने रास्ते बढ़ लेना काफी नहीं है। उन चमत्कारों के पीछे छिपे मकसद को जानना-पहचानना और उन्हें आत्मसात करना अत्यंत आवश्यक है, तभी हम स्वयं को बदल सकते हैं, समाज में बदलाव लाने की बात सोच सकते हैं, दुनिया में बदलने की पहल कर सकते हैं।


तब की एक कहानी....
बात 1910 की है। शिर्डी के आसपास के क्षेत्र में हैजा फैला हुआ था। यह बीमारी कहीं शिर्डी तक न पहुंच जाए, इसे लेकर लोग परेशान थे; डरे हुए थे। एक दिन लोगों ने देखा बाबा मस्जिस्द में बैठे चक्की पर गेंहू पीस रहे हैें। यह देखकर लोगों को आश्चर्य होना लाजिमी था, क्योंकि दो-तीन रोटी खाने वाले एक बाबा को ढेर-सारे आटे की क्या आवश्यकता पड़ी? ऐसा अचरज भरा दृश्य लोगों के मन में किस्म-किस्म के सवाल पैदा करने लगा। कुछ महिलाओं ने बाबा को उठाकर गेंहू पीसने का काम अपने जिम्मे लिया, लेकिन उनकी नीयत कुछ और थी। मौका पाकर वे आटा अपने साथ लेकर जाने लगीं। बाबा ने उन्हें फटकारा। आदेश दिया कि, यह आटा गांव की मेंड़(सरहद) पर बिखेर दिया जाए। लोग बुरे मन से ऐसा कर आए। कुछ दिनों में लोगों ने देखा कि, हैजे का दुष्प्रभाव खत्म हो गया है।



वर्षों से एक कहावत चली आ रही है, गेंहू के साथ घुन पिसता है। बाबा चक्की में गेंहू नहीं; हैजा रूपी घुन पीस रहे थे। यह बाबा की लीला थी। व्यक्ति में अपार ऊर्जा निहित होती है। वो इसी की शक्ति से असंभव को संभव में बदलता है। लेकिन बाबा तो स्वयं ऊर्जा का स्त्रोत थे। इसलिए उनके लिए कोई भी काम असंभव नहीं था और आज भी नहीं है।

Friday, 26 December 2014

साई की लीला अपरंपार...


स्मरण करके देख लो ऊं साई का नाम।
स्वत: पूरे हो जाएंगे बिगड़े सारे काम।

ईश्वर कौन है? जिंदगी जीने का सही तरीका क्या है? धर्म क्या है; कर्म क्या है? पाप क्या है; पुण्य क्या है? ऐसे कई सारे प्रश्न हैं, जिनका साई ने अपने अलहदा तरीके से उत्तर दिया है। साई के बारे में जितना भी कहो; कम है। उनके बारे में कोई कुछ कह भी नहीं सकता। साई जब तक सशरीर पृश्वी पर मौजूद रहे; लोगों को; भक्तों को उनकी शंकाओं-कुशंकाओं से उबारते रहे।

कुछ लोग कहते हैं कि; साई ईश्वर का अवतार थे। कइयों का मानना है कि; वे चमत्कारिक महापुरुष थे; संत थे, बाबा थे। लेकिन साई क्या थे? उसे समझने के लिए अंतरमन में झाकना होगा; क्योंकि साई सबकुछ थे। वे हमारे मन में बैठी भावनाएं थे; जो हमारी इंद्रियों के जरिये अपनी अभिव्यक्ति करते थे। 

साई के परमभक्त श्री गोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर; जिन्हें बाबा हेमाडपंत कहकर पुकारते थे; ने अपनी पुस्तक श्री साई सच्चरित में बाबा की लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया है। जिन्होंने यह अद्भुत ग्रंथ; पवित्र ग्रंथ पढ़ा है, वे भली-भांति जानते-समझते हैं कि; बाबा ने मानव अवतार क्यों लिया था

हेमाडपंत ने यह यह महाग्रंथ मराठी भाषा में लिखा था, जिसका श्री शिवराम ठाकुर ने हिंदी में अनुवाद किया था। बगैर बाबा की आज्ञा के उन पर एक शब्द भी लिख पाना मुमकिन नहीं। कलम तभी चलेगी; दिमाग तभी काम करेगा, जब बाबा आपको आज्ञा दें। बाबा की आज्ञा थी; उनके भक्तों की अनुग्रह कि; मैं बाबा की कहानी; उनकी लीलाएं; उनकी बातें सरल भाषा में नई पीढ़ी तक पहुंचाऊं। कई बार कोशिश की; हर बार अल्पविराम लगता रहा। लेकिन बाबा ने आज्ञा दी, तब यह पुस्तक लिखने का प्रयास किया।

समय के साथ तमाम चीजें बदलती हैं। जीवनशैली में व्यापक बदलाव आता है। बोलने-चालने के तौर-तरीके बदलते हैं। बाबा के बारे में कौन नहीं जानता? लेकिन सिर्फ जानना ही काफी नहीं है। ईश्वरीय अवतार बाबा किस प्रयोजन से मानव अवतार में आए? वे अपने भक्तों/आमजनों को क्या संदेश देते थे; देना चाहते हैं; इसे ध्यान से समझना भी आवश्यक है। जो नई पौध; युवा पीढ़ी के बीच बाबा के संदेश सरल और सहज भाषा/उदाहरणों के साथ पहुंचे; हमने इस पुस्तक के जरिये बस यही एक छोटा-सा प्रयास किया है।

बाबा के अवतरण; और समाधि 15 अक्टूबर 1918 के दरमियान उनका सान्निध्य पाने वाले लोगों ने जो कुछ देखा/सुना और पाया अथवा महसूस किया; यह पुस्तक उन्हीं सत्य घटनाओं को सरल तरीके से शब्दों में पिरोने की एक छोटी कोशिश है।
बाबा महाराष्ट्र के परभानी जिले के पथरी कस्बे में जन्मे। हालांकि बाबा की लीला अपरंपार है, वे कहां से अवतरित हुए; यह ठीक से कोई नहीं जानता। बाबा ने अपनी जिंदगी की लंबा वक्त; महानिर्वाण तक शिरडी में गुजारा। बाबा के पावन चरणों का प्रतिफल ही है कि; शिरडी आज दुनिया में तीर्थ स्थल के तौर पर जाना-पहचाना जाता है। यहां जो मुराद लेकर आता है, खाली हाथ नहीं जाता। इस पुस्तक की रचना भी हमारे लिए एक मुराद पूरी होने जैसा ही है।

हेमाडपंत ने बाबा की जीवनी को कहानियों के रूप में अपनी पुस्तक श्री साई सच्चरित्र में उतारा है। ये वो सच्ची घटनाएं हैं, जिन्होंने मानव जगत को एक नई दिशा-दशा दी। इस पुस्तक में इन्हीें कहानियों का संक्षिप्त पुट आपको दिखाई पड़ेगा।


Thursday, 16 October 2014

श्री साई अमृत कथा क्या है?

श्री साई अमृत कथा क्या है?

सुमीत पोंदा ‘भाईजी’
[माध्यम, श्री साई अमृत कथा]

साईबाबा के महासमाधि लेने के पूर्व और आज, जब उनके समाधीस्थ होने को लगभग एक सौ वर्ष होने को आ गए हैं, उनके नाम-स्मरण मात्र से लोगों को सुख की अनुभूति होती है. साईबाबा को पाना ज़रा भी मुश्किल नहीं है. उनके निंदक चाहे जो भी कहें, विश्वास करने वालों के लिए, साईबाबा साक्षात, सुलभ देव ही हैं. इस कलयुग के देव. उन्हें पाना और उनसे पाना कतई मुश्किल नहीं है लेकिन दुविधा वहाँ से शुरू होती है जब लोग साई को तो मानते हैं लेकिन साई की नहीं मानते. यही दु:ख साई को अपने सशरीर होने के दौरान भी सालता था और वो अक्सर कहते कि उनका भण्डार तो देने के लिए खुला है लेकिन लोग उनसे वो मांगते ही नहीं जो वो उन्हें देना चाहते हैं.

ये आज भी उतना ही सच है. शिरडी का समाधि मंदिर हो, गावों के चबूतरे पर बिठाई हुए साई की मूर्ति या शहरों की गलियों में साईबाबा के मंदिर हों, लोगों की कतार कम होने का नाम ही नहीं लेती. दीन-दु:खी हों या कोई सेठ, साई से हम सब, बहुत सारा मांगने जाते हैं और वो खुले हाथ से हमें देता जाता है. सच तो यह है कि हम मांगते-मांगते थक जाते हैं लेकिन उसकी करुणा में कोई कमी नहीं आती है. वो देने से नहीं थकता. हम साई से वो सब कुछ मांगते ही रहते हैं, जो हमें चाहिए होता है, वो सब कुछ जो इस जीवन से पहले या इस जीवन के साथ खत्म हो जाने वाला है. हम अपना सुख इन्ही चीज़ों में ढूंढते रहते हैं, तब इस साई का असल खेल शुरू होता है. साई की करुणा हमें इन चीज़ों के नश्वर होने का अहसास कराने लगती है. हमें यह महसूस होने लगता है कि जिन चीज़ों में हम अपना सुख ढूंढ रहे थे, वो तो असल में खत्म हो जाने वाली हैं और चूंकी हमने अपना सुख उनके साथ बाँध दिया है, उनके साथ ही सुख भी खत्म हो सकता है. तब साई से हम वो मांगने लगते हैं, जो साई हमें देना चाहता है. ये साई का चमत्कार ही होता है.

जब तक साई ने अपने सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञाता होने के प्रमाण नहीं दिए थे, अधिकतर लोग उन्हें एक पागल फकीर ही मानते थे. उनका मजाक उड़ाते, पत्थर मारते, ताने देते और उनकी उलाहना करते. ऐसी गणना की जाती है कि अपने दूसरे प्रवास के दौरान साई शिरडी में लगभग साठ साल रहे. १९१८ में उनकी महासमाधि से मात्र सात वर्ष पूर्व, उनकी आज्ञा से अन्नासाहेब दाभोलकर को उनका सच्चरित्र लिखने की प्रेरणा हुई – १९११ में. चूंकी श्री दाभोलकर भी १९१६ तक सरकारी नौकरी में थे, उनका इन सात सालों में हर समय शिरडी में रहना भी संभव नहीं था. दाभोलकर उर्फ हेमाडपंत द्वारा साई सच्चरित्र के ५३ अध्यायों में ९३०८ ओवियों (पद्यांश) में १९११ से लेकर १९१८ तक बाबा की रची हुई मात्र २६१ लीलाओं का वर्णन है. १९११ के पहले का बाबा की लीलाओं का खज़ाना अलग-अलग जगह पर छितरा पड़ा है. साई की अधिकाँश लीलाओं का कहीं कोई आधिकारिक वर्णन नहीं मिलता. १९१८ में बाबा के सदेह से सदैव होने के बाद भी उनके चमत्कारों का सिलसिला थमा नहीं है बल्कि उनके करोड़ों भक्तों को तो प्रत्येक क्षण उनके चमत्कारों का अहसास प्रतिपल होता ही रहता है. साई कथा अनंत है.

हम सभी इर्ष्या करते हैं दाभोलकरजी से, जिन्हें बाबा के आशीर्वाद से अमरत्व प्राप्त हुआ है. साई के इस सच्चरित्र को आज प्रायः सभी साई-भक्त अपने पास रखते हैं. दाभोलकरजी का भी मानना था कि बाबा ने स्वयं अपना सच्चरित्र रचा है. ऐसा बाबा ने उन्हें अपना सच्चरित्र रचने की आज्ञा देते समय कहा था. इस सच्चरित्र को ग्रन्थ भी माना जाता है क्योंकि इसमें न सिर्फ बाबा के चमत्कारों का उल्लेख है बल्कि श्रीमद् भागवत, भगवद्गीता, रामायण, वेदों और उपनिषदों का सार भी है. दाभोलकरजी को साधुवाद.

साई के श्रद्धालु कृतज्ञ भाव से इसी साई सच्चरित्र में उल्लेखित बाबा की लीलाओं को पढ़ते हैं और साई को अपने नज़दीक पाते हैं. अधिकांश श्रद्धालु इस ग्रन्थ को बाबा के चमत्कारों का लेखा-जोखा मान कर पढ़ते हैं और चमत्कृत होते हैं. हम में से अधिकांश यह नहीं समझते कि बाबा कि प्रत्येक लीला के पीछे जो चमत्कार होता था उससे वे किसी न किसी में संस्कार डालने का काम भी करते थे और अपने भक्तों को सदमार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते थे. यह दरअसल, इस साई सच्चरित्र का मर्म है. इसे यदि हम कहानियों की तरह पढेंगे तो किवदंती ही मान लेंगे लेकिन यदि प्रत्येक लीला के पीछे बाबा द्वारा रोपे गए संस्कार को आत्मसात कर लेंगे तो अपने जीवन को अधिक बेहतर बना सकेंगे.

कहा जाता है कि जीवन जीने कि कला सीखनी हो तो रामायण का अध्ययन करना चाहिए और मरने की कला सीखनी हो तो श्रीमद् भागवतमहापुराण को समझना चाहिए. मेरा मानना है कि यदि जीवन और मरण, दोनों ही कला में पारंगत होना हो तो साईबाबा की लीलाओं को समझकर आत्मसात करना चाहिए.

श्री साई अमृत कथा, श्री साई बाबा की प्रेरणा से एक प्रयास है, साई के श्रद्धालुओं में इन लीलाओं के श्रवण मात्र से उनका मर्म पहुचाने का जिससे वे अपना जीवन अधिक बेहतर बना सकें और दूसरों के जीवन में सुख घोलें और अंत में शांति की अनुभूती के साथ साईबाबा के साथ एकाकार हो सकें.

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.

Saturday, 27 September 2014

साई ही क्यों..

यह प्रश्न कुछ लोग उठाते हैं. साई ही क्यों? क्या कारण है कि साई के श्रद्धलुओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है? उनके दर्शन लेने के लिए हमारी सोच से भी लंबी कतारें क्यों लगती है? क्यों कर यह होता है कि लोग कहते हैं कि साई के दर से कोई ख़ाली हाथ नहीं लौटता, जो मांगो वह मिल ही जाता है? सच ही तो है! साई के दर पर रोज़ अनगिनत श्रद्धलुओं की मुरादें पूरी होती हैं. साई में विश्वास रखने वालों को चमत्कार ढूँढने कहीं जाना नहीं पड़ता. साई के चमत्कारों से हम सभी चमत्कृत हैं.

जीवन में जो अप्रत्याशित और असंभावी होता है, हम उसे चमत्कार कहते हैं. जिसके बारे में कभी हमने सोचा नहीं.. और यदि सोचा भी तो, उसे कई कारणों से साकार नहीं कर पाए अन्यथा साधारण शब्दों में कहें तो, परिस्थितियों से पार नहीं पा सके.. और जो हम अपने जीवन में साक्षात नहीं कर पाए, अगर कोई दूसरा उसे करके दिखाता है, तो वो हमारे लिए चमत्कार हो जाता है. हमें वह व्यक्ति असाधारण समझ में आने लगता है. हम उसे पूजने लगते हैं. उसकी कहीं बातों और सलाह-मश्वरों पर अमल करने लगते हैं .... और हमें करना भी चाहिए, अगर उस व्यक्तित्व के चमत्कार समाज को एक नई दिशा देते हों, समाज के हित में हों, हमारी जिंदगी में सकारात्मक बदलाव लाते हों, जो संसार को संस्कारित करने की पहल करते हों.


साईबाबा ने वही चमत्कार किए. उनका आशीर्वाद, सान्निध्य हमें वहीं सुखद अनुभूति देता है, जैसी हमें अपने पुरखों के स्मरण के दौरान मिलती है. बाबा का सम्पूर्ण व्यक्तित्व चामत्कारिक है. उनके भीतर एक चुंबकीय प्रभाव है, जो हमें खींच लेता है. बाबा का चुंबकीय प्रभाव हमारे मन में विद्युत पैदा करता है. सकारात्मक ऊर्जा का ऐसा प्रवाह दौड़ाता है, जो हमारे तंत्रिका तंत्र को अच्छे कर्मों के लिए उद्देलित करता है. मन को शांत करता है, तन को स्फूर्ति देता है.

सारे चमत्कारों की जनक सकारात्मक ऊर्जा है, जो हरेक बंदे के अंदर ही बसी है. साई भी तो यही कहते हैं. लेकिन उस ऊर्जा का प्रयोग करना एक कला है और अपने अंदर की इस कला को परखना एक चुनौती. बाबा का सान्निध्य हमें इसी कला में पारंगत करता है. हमें इस चुनौती के लिए तैयार करता है. साई हमेशा ही कहते कि ‘ईश्वर आहे..’ अर्थात ईश्वर हैं – हमारे अंदर ही बसता है. उसे कहीं और ढूँढना उस मृग के जैसा है जो कस्तूरी नाभि में लिए उसकी सुगंध से मोहित हो कर वन-वन दौड़ता फिरता है.

चमत्कार को सभी नमस्कार करते हैं. लेकिन बाबा, महासमाधी लेने के लगभग ९६ वर्षों बाद, आज भी जो चमत्कार करते आ रहे हैं, उन्हें सिर्फ सलाम ठोंककर, हाथ जोड़कर, अपने-अपने रास्ते बढ़ लेना काफी नहीं है. उन चमत्कारों के पीछे छिपे मकसद को जानना-पहचानना और उन्हें आत्मसात करना अत्यंत आवश्यक है, तभी हम स्वयं को बदल सकते हैं, समाज में बदलाव लाने की बात सोच सकते हैं, दुनिया को बदलने की पहल कर सकते हैं. यही साई को समस्त अवतारों से अलग करता है. बिना कोई भी अस्त्र-शस्त्र उठाये, साई लोगों को बदल रहे हैं.

जहां तक मैंने देखा और महसूस किया है, साई के नाम में वो अदम्य शक्ति है, जिसके स्मरण मात्र से हमारे अंदर अद्भुत शक्ति का संचार होता है और इस शक्ति के उदय होने के साथ-साथ एक ‘अभयकारी’ भाव उत्पन्न होने लगता है. मानो निरंकुश, दिशारहित, डरे-सहमे जीवन को एक ठौर-सा मिल जाता है. साई की भक्ति से वो भाव उत्पन्न होता है जिसमे दु:ख आपको दु:खी नहीं करता. अपमान होने पर आप अपमानित नहीं होते. कहीं कुछ खोने का डर नहीं होता. सब-कुछ होते हुए भी आप अभिमानी नहीं होते. साई हैं तो!

बाबा ने चोलकर से कहा भी तो था, “यदि तुम श्रद्धापूर्वक मेरे सामने हाथ फैलाओगे तो मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूँगा. यद्यपि मैं शरीर से यहाँ हूँ, परन्तु मुझे सात समुद्रों के पार घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान है. मैं तुम्हारे ह्रदय में विराजित, तुम्हारे अंतरस्थ ही हूँ..”

बाबा के इस आश्वासन को हम कई दफे भूल जाते हैं. गुज़रे हुए कल का दु:ख या शोक, हमें सुखी नहीं होने देता. जो आज हमारे पास है, उसका मोह, आनंद नहीं लेने देता और आने वाले कल का भय, जो आज है, उसके छूट जाने का भय, हमारे मन को शान्ति नहीं होने देता. साई में विश्वास हमें इस बात का अहसास कराता है कि बीते हुए कल का शोक करने से कुछ हासिल नहीं होता क्योंकि वो हमारी पकड़ से बाहर हो चुका है. जो बीत गई सो बात गई. तब अनुभूति होती है नित्य-सुख की.

साई में निष्ठा हमें यह बोध कराती है कि अभी जो हमारा है, उसमें मोह रखने से हम अपने आप को बाँध लेते हैं और वैसी चिड़िया, जिसके पंख क़तर दिए गए हों, वैसा महसूस करने लगते हैं. उड़ नहीं पाते और आनंद का अनुभव नहीं कर पाते. तब अनुभव करते हैं हम, नित्य-आनंद का.

हमारे पास जो है, वह सब ईश(साई)-कृपा से मिला है, हमारे अच्छे कर्मों को साई ने नवाज़ा है. यह सब छिन भी सकता है, यह डर हमें शांति में जीने नहीं देता. साई में विश्वास यह समझाता है कि नित्य अच्छे कर्म करने से और बुरे कर्मों से दूर रहने से साई-कृपा में स्थायित्व प्राप्त होता है. यह नित्य-शांति का मार्ग खोल कर रख देता है.

साई की कृपा पाने से भूत, वर्तमान और भविष्य का संताप, उनसे जुडी संवेदनाएं, तकलीफें और अनिश्चय का भेद मिट जाता है और सभी कुछ ‘तत्क्षण’ (अभी और यहाँ) में बदल जाता है और हमें ‘नित्य’ की अनुभूती होने लगती है. साई नित्य, निरंतर, लगातार हैं. इसी नित्य-सुख, नित्य-आनंद और नित्य-शान्ति का नाम साई है.

ज़रा सोचें! ब्रह्म और भ्रम में दोनों मिलते-जुलते शब्द हैं. जीवन में जब (ब्रह्म)साई-नाम की पहली किरण फूटती है, तो वो हमारे सारे भ्रम दूर कर देती है. भ्रम यानी अंधकार. वो अंधकार, जो हमारे मन-मस्तिष्क में घर किए बैठा रहता है.

साई हमें बदल डालते हैं. उनके नाम में ही सुख, आनंद और शान्ति मिलने लगती है. साई ने कहा भी तो है, “मेरे पास जो भी जो कुछ भी मांगने आता है, मैं उसे वह सब देता हूँ और तब तक देता रहता हूँ जब तक वह, वो सब कुछ न मांगने लगे, जो मैं उसे देना चाहता हूँ.” और साई में प्रीति हमें शैने:-शैने: अपने अंदर साई के जागृत होने का अहसास कराने लगती है. हमारे पापों को साई, पश्चाताप की धूनी में जला देते हैं, हमारे असंवेदनशील मानस को उसी में पिघला देते हैं और फिर हमें कुंदन की तरह निखार देते हैं.

आदमी सोचता कुछ है, करता कुछ और नज़र आता है, होता कुछ और है और तब, समझ में कुछ और आता है.... यह साई है. हमारे अंदर का साई हमें वह स्वरुप दे देता है जब हम अपने आप को नए लगने लगते हैं. हमारे अंदर का बदलाव भी साई ही है. इसी विश्वास के सहारे हम वो सब कुछ करने लगते हैं, जो कभी हमने सोचा भी नहीं था. और हम अचरज से भर उठते हैं. यह सब साई को अपने अंदर खोजने पर मिलता है.
ढूँढा सारे जहां में, तेरा पता नहीं.
और जब पता मिला है तेरा,
तो मेरा पता नहीं..

साई को अपने अंदर खोजने और जागृत करने का भास ‘स्मारये न तू शिक्षये’ जैसा होता है यानि हमारे अंदर जो कुछ भी है, उसका सिर्फ हमें स्मरण कराना साई का एकमात्र उद्देश्य है न कि उसकी शिक्षा देना.

चाहे हमने पढ़ा हो या नहीं, किसी ने हमें इस बात के संस्कार दिए हों या नहीं, हम सभी को पता होता है कि झूठ नहीं बोलना है; किसी को दु:ख नहीं देना है; किसी से कपट नहीं करना चाहिए; एक-न-एक दिन मरना ही है. यह सब कोई नयी बातें नहीं हैं. यह सब कुछ हमें पता ही है पर जीवन से दो-दो हाथ करने में, दूसरों को नीचा दिखने में, अपने आप को वैसा दिखाने में, जैसे हम हैं ही नहीं...हम जीवन के मूल, आधारभूत सत्य को याद नहीं रखते, भूल जाते हैं. समय-समय पर कोई हमें इसका निरंतर आभास कराता रहे, वो हमारे अंदर का साई है.


साई की विशिष्टता ही यही है कि वे सहज, सुलभ और सर्वस्व हैं. उन्होंने ईश्वर को, बिना किसी ढकोसले के, आम आदमी के लिए सुलभ कर दिया है. और मज़े की बात तो यही है कि साई की तलाश करते-करते इंसान अपने आप को ही ढूंढ लेता है. अध्यात्म जैसे गूढ़ रहस्य साई की भक्ति से एकदम आसानी से खुल जाते हैं. कोई ध्यान, समाधि, इत्यादी की ज़रूरत ही नहीं होती है. यहाँ तक कि साई नाम जपना भी ज़रूरी नहीं है. सिर्फ उसके नाम का स्मरण ही हमें अपनी मुश्किलों से निजात दिला देता है और हम जैसे लोग सिर्फ उसी के सहारे परम सत्य की खोज कर लेते है, ईश्वर को पा लेते हैं.

ज्ञान, भक्ति, सुचरित्र, वैराग्य, साधना, न्याय, अध्यात्म और सरलता का संगम हैं साई. साई का यही सुलभ रूप सबके मन में उतर जाता है जैसे मेरे मन में उतर गया.

मुझे याद नहीं कि मैंने साई से कितना कुछ माँगा है लेकिन इतना ज़रूर याद है कि मैंने उससे जो भी माँगा उसने बेहिचक मुझे दिया है. मैं मांगते-मांगते थक गया लेकिन वो देते-देते नहीं थका. एक अरसा हो गया है जब से मैंने उससे कुछ भी नहीं माँगा है और मज़े की बात तो यह है कि मुझे किसी चीज़ की कमी नहीं आने दी है और मुझे पूरा विश्वास है कि वो आने भी नहीं देगा. इस मांगने और पाने के चक्कर में, कब मैं साई में समा गया और साई मुझमें, यह पता ही नहीं चला. मेरे सारे कर्म उसके नाम, उसके चरणों में समर्पित होते चले गए. अब वही मेरे जीवन को दिशा देता है और मेरे लिए सारे निर्णय लेता है. वही जानता है कि मेरे लिए क्या अच्छा है. इससे आसान जीवन में क्या होगा? इसीलिए साई ..सिर्फ साई..


श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु..
सुमीत पोंदा ‘भाईजी’
(लेखक श्री साई अमृत कथा के माध्यम हैं)