Friday, 24 March 2017

गुरूर से पैदा सारे मैल दूर करता है गुरु


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जीवन को सही दिशा में ले जाने के लिए हमेशा एक मार्गदर्शक की आवश्यकता पड़ती है। हम जो काम कर रहे हैं या जिस दिशा में जा रहे हैंवो ठीक है या नहींइसका मूल्यांकन बेहद जरूरी होता है। जो भी इसमें हमारी सहायता करता हैउसे हम अपना गुरु मान लेते हैं।

गुरु कोई भी हो सकता है। कोई व्यक्ति भी और अजीवित-जीवित चीज भी। यह जरूरी नहीं कि हम गुरु की तलाश में यहां-वहां भटकें। या यह मानकर चलें कि कोई व्यक्ति विशेष ही हमारा गुरु बनने के काबिल है। यह भी आवश्यक नहीं कि गुरु वही हो सकता हैजो शिक्षित हो या धन-बल से परिपूर्ण हो। कम पढ़ा-लिखा या अनपढ़ व्यक्ति किसी को सही राह दिखा सकता है।

उदाहरण के तौर पर जंगलों में रहने वाले आदिवासी कम पढ़े लिखे या अनपढ़ भी हो सकते हैंलेकिन उन्हें जंगल के चप्पे-चप्पे का पता होता है। जब कोई घने-डरावने जंगल में भटक जाता हैतो वे उसे सही राह दिखा देते हैं। उस संकट के समय वे ही हमारे मार्गदर्शन-गुरु होते हैं। ऐसे ही एक आदिवासी गुर का ज़िक्र श्री साई सच्चरित्र में आता है।

अब यह सवाल उठना लाजिमी है कि भला अजीवित चीजें भी किसी का मार्गदर्शन कर सकती हैंआपने मील का पत्थर देखा होगा। वह अजीवित पत्थर अनजान रास्तों पर हमारा मार्गदर्शन करता है। साइन बोर्ड अजीवित वस्तु हैंवे हमें सही राह दिखाते हैं। जीवित चीजें जैसे पेड़-पौधे हमें शुद्ध वातावरण देकर हमारे जीवन को खुशहाल बनाते हैं। एक प्रकार से ये भी गुरु तुल्य हैं।

यह तो सभी भली-भांति जानते हैं कि कण-कण में ईश्वर का वास होता है। इससे ही स्पष्ट हो जाता है किजो भी कणचाहे वो जीवित हो या अजीवित हमारा मार्ग प्रशस्त करता हैवो हमारा गुरु है। यानी सीधे तौर पर वो हमारा ईश्वर है। हम भी कण-कण से निर्मित हैं। इसलिए हम खुद भी अपने गुरु हो सकते हैं। अपनी अंतरआत्मा की आवाज सुनकर सही दिशा की ओर बढ़ सकते हैं।



गुरु की महिमाउसके मायने आदि को लेकर अनगिनत किताबें रची गई हैं। अब हम शास्त्रों में वर्णित गुरु गीता’ में की गई व्याख्या से गुरु’ शब्द को समझने की कोशिश करते हैं। अगर हम ‘गुरु शब्द को विभक्त कर दें, तो गु’ और रु’ अक्षर हमें मिलते हैं। गु’ का अर्थ होता है अन्धकार’ और रु’ का अर्थ दूर करना। इस प्रकार से गुरु’ का अर्थ हुआअंधकार को दूर करने वाला हालांकि वर्तमान समय में गुर द्वारा दीक्षित किए जाने के मायने ही बदल गए हैं। यदि गुरु द्वारा दी जाने वाली दीक्षा का शाब्दिक अर्थ समझेंतो गुरु के मायने और भी स्पष्ट हो जाते हैं। दी’ का अर्थ है दाग (मैल) और क्षा’’ प्रयुक्त होता हैक्षय करने की क्रिया के लिए। इस प्रकार दीक्षा’ का अर्थ होता हैदागों का क्षय करना सरल भाषा में गुरु द्वारा दीक्षित किए जाने अर्थ होता हैगुरु द्वारा हमारे (मन का) मैल दूर करने की क्रिया इसी तरह से गुरु के प्रकारों में समर्थ सद्गुरु को गुरुता का सर्वोच्च स्तर माना गया है। साई समर्थ सद्गुरु हैं।

गुरूर और गुरु इन दोनों शब्दों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। लेकिन इनके मायने और मर्म में जमीन-आसमान का अंतर है। जो स्वयं को गुरु से भी महान समझने लगे, वहां से गुरूर का जन्म होता है। गुरूर का वास हमारे दिमाग को उद्देलित करता है। उसे भटका देता है। मस्तिष्क से उपजा गुरूर धीरे-धीरे मन का मलिन कर देता है। इस प्रकार हम अपने ही गुरूर में डूबे हुए अपना जीवन खराब कर लेते हैं। दूसरों के जीवन को खराब करने का प्रयास करते रहते हैं। वहीं गुरु का वास दिल में होता है। अगर दिल सही ढंग से धड़केगातो निश्चय ही दिमाग भी ठंडा रहेगा। सही से सोचेगा। यानी गुरु दिमाग में बैठे गुरूर को दूर कर देता है। हमें क्या चाहिए गुरूर या गुरु? यह हम पर निर्भर करता है। हांगुरूर बहुत सस्ते और आसानी से मिल जाता हैलेकिन गुरु को पाना किसी कठिन तपस्या से कम नहीं। कहते भी हैं कि कुछ बेहतर पाने के लिए परिश्रम तो करना ही होता है। परिश्रम भी सही दिशा में होना आवश्यक है। दिशाहीन परिश्रम व्यर्थ है। गुरु दिशासूचक है।

वैसे यह कहना बहुत आसान होता है कि मनुष्य यदि कामक्रोधलोभ और मोह के पाश से मुक्त हो जाए, तो वह मुक्ति के पथ पर अग्रसर हो जाता है। लेकिन दैनिक कार्यों में लग कर,गृहस्थाश्रम में रह कर यह उतना आसान भी नहीं होता। हम सबमें से कितनों ने आसानी से मन के इन विकारों से छुटकारा पाया होगाइस पर गौर करें। काम-क्रोध-लोभ और मोह को बलात् छोड़ने की कोशिश भी परेशान कर देने वाली होती है। जब तमाम कोशिशों के बावजूद इन विकारों से हम छूट नहीं पातेतो मन में हताशा का भाव पैदा होने लगता है। अपनी कमतरी का अहसास होने लगता है। अपने कर्म में अभाव महसूस होने लगता है। लगने लगता है कि जितना कर्म हम कर रहे हैंउसका उतना फल मिलेगा भी की नहीं?


     

बाबा हमेशा उन लोगों के बीच रहेजिनमें काम-क्रोध-मोह और लोभ गहरी पैठ जमाए होते थे। दरअसलकिसी गुरुसाधु-संत या ईश्वर के पास वे ही लोग सबसे पहले पहुंचते हैंजिनका गुरूर सिर चढ़कर बोलता है। वे अपने गुरूर में यह परखते हैं कि फलां गुरुसंत या ईश्वर उनके विकार दूर कर भी पाएगा कि नहींलेकिन ऐसे अज्ञानियों का क्या पता होता किअगर वे किसी गुरु के सान्निध्य में पहुंचे हैंतो कहीं न कहीं उनका गुरूर टूटा अवश्य है।


साई बाबा को समर्थ सद्गुरु माना गया है। वे सही मायनों में समर्थ सद्गुरु हैं भी। साई के संपर्क में जो भी आयासाई ने उसके दुर्गुणों का नाश न करते हुए उनके स्वरूप को ही बदल डाला। साई का संसर्ग होने पर रोम-रोम हर्षित हो उठता है। मन में प्रसन्नता का भाव जाग्रत हो उठता है। शरीर में एक विद्युत-सा प्रवाह अनुभव करते हैं। साई के चरणों से प्रीति का अनुभव होता है और अपने सारे दुर्गुणों का सहज ही आभास होने लगता है। दुर्गुणों का आभास होने पर उनका दमन करने की इच्छा जाग उठती है। बदलाव की इच्छा जाग्रत होने लगती है और बदलने की इच्छा का उदय ही बदलाव की ओर पहला कदम होता है।

साई की भक्ति इतने मानुषिक भाव जगा देती है कि जन्म-जन्मों के कर्मों के प्रभाव से निर्मित हमारा स्वभाव और उनके विकार शने:-शने: क्षीण होने लगते हैं। साई में प्रीति हमारे दुर्गुणों का इलाज करते हुए उन्हें सद्गुणों में बदल डालती है। हमारी आंखों के रास्ते हमारे सारे दुर्गुण पानी बनकर बह जाते हैं। हम सहज भाव से अपने दुश्मन को भी माफ कर देते हैं। लालच से पार पाते हैं। अहंकार से ऊपर उठ पाते हैं। यकायक हमें यह लगने लगता हैं कि साई ने हमें नवाज़ दिया हैउसने हमें वो सब तो दिया ही जो हम मांगने आए थे, पर उसने उससे कहीं अधिक भी दे दिया है। वो सब भी जो हमने तो मांगा ही नहीं था। बाबा ने ऐसे ही असंख्य भक्तों को अपने आशीष से पार लगा दिया और लगा रहे हैं। बाबा सबके अंदर परोपकार की भावना प्रबल कर देते हैं। वे ऐसा लगातार कर रहे हैं और करते ही रहते हैं।

शिर्डी में उनका पहला और ज्ञात चमत्कार उनकी इसी विधा को सुस्पष्ट करता है, जब उन्हें शिर्डी के बनियों ने मस्जिद में दीप जलाने के लिए तेल देने से मना कर दिया गया था। तब उन्होंने मस्जिद के जल को तेल में परिवर्तित करके दीप जलाये थे। यह चमत्कार देखकर बनियों के दिल में डर बैठ गया कि अब तो वे इस फकीर के श्राप से नहीं बच सकते। परन्तु बाबा ने उनको न सिर्फ माफ कर दिया, बल्कि उन्हें यह ज्ञान भी दिया कि झूठ बोलकर तेल नहीं देने से उन्होनें किस प्रकार ईश्वर से झूठ बोला है। वरन मानवता की दृष्टि से भी वे किस प्रकार से दोषी हैं। यह सुनकर बनिए बाबा के चरण में गिर पड़े। उनमें आतंरिक सुधार होता गया।


हेमाडपंत की ‘श्री साई सतचरित्र’ में ऐसे कई प्रसंग पढ़ने को मिल सकते हैं। बाबा के चमत्कार से जुड़ी एक ऐसी ही अन्य घटना के बारे में और जानिए। एक बार बाबा के दर्शन को मुस्लिम महिला पहुंची। उस वक्त वहां नानासाहेब चांदोरकर भी मौजूद थे।  नाना उस महिला के सौंदर्य रूप पर मोहित हो उठे। हालांकि जैसे ही उनके मन में उस महिला के प्रति वासना के भाव जागृत हुएतो उन्हें आत्मग्लानि महसूस होने लगी।  बाबा ने नाना के मन को पढ़ लिया। बाबा ने नाना के घुटने पर एक थपकी लगाते हुए कहा कि ईश्वर की बनाई हर वस्तु सुंदर है। सुंदरता के दर्शन करना कतई बुरा नहीं है। जिस ईश्वर की निर्मित सृष्टि इतनी सुन्दर हैवह स्वयं कितना सुन्दर होगा! इस भाव से सृष्टि को देखेंगे, तो उस परम-पिता की सुंदरता हमारे मन में बस जाएगी। सुंदरता से प्रभावित होना बुरा नहीं हैबुरा है उससे अहितकारी विचारों का पनपना। बाबा के कहने का आशय समझते ही नाना को सहज ही अपनी गलती का अहसास हो गया और उसके मन से मैल साफ़ हो गया।

‘’श्री साई सतचरित्र’ में कई स्थान पर बाबा के क्रोधित हो जाने का उल्लेख भी आता है। संतों का क्रोधित होना कोई असामान्य बात नहीं है। हमारे शास्त्रों में लिखा गया है कि जो भी संतों के क्रोध का पात्र बन गयाउसका जीवन तर गया। बाबा का क्रोध जिद:क्रोध कि श्रेणी में आता है। ऐसा क्रोधजिसका कारण सामान्यजन की समझ में नहीं आता। इस प्रकार का क्रोधलोगों में सुधार लाने के लिए होता है न कि मन कि हताशा या अप्रसन्नता प्रकट करने के लिए। जितनी जल्दी बाबा को क्रोध आता थावह उतनी ही जल्दी सामान्य भी हो जाते थे। आमतौर पर बाबा के अनन्य भक्त इस प्रकार के क्रोध को सामान्य मानते थे, परन्तु यदि किसी को उनके क्रोध से दु:ख होता था, तो बाबा स्वयं उसे मनाते थे। महासागर के जल की तरह बाबा का क्रोध था। जिस तरह महासागर में लहरें केवल सतह पर होती हैं और नीचे तल में शांति होती है, उसी तरह बाबा का क्रोध भी केवल ऊपरी था। अन्दर से तो वे बिलकुल शांत और केन्द्रित होते। वे किसी पर यदि क्रोध करते दिखते तो वे वास्तव में उस व्यक्ति के अवगुणों पर क्रोधित हो रहे होते। किसी व्यक्ति से कभी उनका न तो कोई द्वेष था और न ही कोई दुश्मनी।

बाबा के क्रोध से जुड़ा एक वाक्या यहां बताना चाहूंगा। यह 1911 की बात होगी। जब बाबा उनकी इच्छा के विपरीत मस्जिद में किए गए जीर्णोद्धार से नाराज हो उठे थे। क्रोध में बाबा ने वहां किए जा रहे निर्माण को तोड़ दिया था। तात्या की पगड़ी को जलती अग्नि में फ़ेंक दिया था। तात्या इस पर भी शांत बने रहे और मस्जिद के कार्यों में लगे रहे। यह बाबा की भक्ति का ही प्रताप था। क्रोध शांत होने पर बाबा ने स्वयं एक नया साफा मंगवाकर तात्या के सर अपने हाथों से नयी पगड़ी बांधी।



गुरु की महत्ता से जुड़ा एक किस्सा और है। अन्नासाहेब दाभोलकर यानी हेमाडपंत गुरु की महत्ता को नकारते हुए बाबा के दर्शन को आए थे। वे अल्प-शिक्षित होते हुए भी उच्च पदों पर आसीन होने के चलते अहंकार से भरे हुए थे। वे बाबा में आस्था पल्लवित होने के बाद बाबा की जीवनी लिखना चाहते थे और उसके लिए अनुमति लेना चाहते थे। बाबा ने उन्हें शामा के अनुरोध पर स्वीकृत तो दीलेकिन एक शर्त पर कि अन्नासाहेब को अपना अहंकार छोड़कर उनकी शरण में आना होगा। ऐसा ही हुआ। कहते हैं कि साई की लीलाओं का श्रवण करने-मात्र से उनके भक्तों के दु:ख दूर हो जाते हैं। दाभोलकर के माध्यम से साई द्वारा लिखी गई जीवनी ‘श्री साई सतचरित्र आज दुनिया में सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला ग्रन्थ हो गया है। एक अनुमान के मुताबिक इस ग्रन्थ की  दुनिया की विभिन्न भाषाओं में  सालाना लगभग 5 लाख प्रतियां भक्तों के पास पहुंचती हैं। अहंकार का त्याग अकल्पित ऊंचाई देता है लेकिन त्याग करने से पहले यह अहसास भी गुरु की ही शरण में होता है कि हमारे अन्दर वास्तव में अहंकार है। स्वदोष दर्शन का माध्यम है गुरु की संगत। जब स्वदोष का अहसास हो गया तो फिर दोष दूर होने में समय नहीं लगता।

बाबा भली कर रहे।।
श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु
www.saiamritkatha.com

साई बाबा का सातवां वचन

जैसा भाव रहा जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मन का
                                                                                
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श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से सातवें वचन के बारे में बताते हुएभाईजीसुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा का यह सातवां वचन जैसा भाव रहा जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मन का साई के भक्तों को परस्परता का भाव सिखाता है. जैसा हमारे मन का भाव होगा, साई के मन का रूप भी वही हो जायेगा. भाव में ही साई बसते हैं, इस सत्य को यह वचन सुदृढ़ करता है, बल देता है. जितनी शक्ति हम अपने भाव को देंगे, उतना ही बल हम साई के मन को भी देंगे. यह वचन इसी भाव की महिमा का गान है.
भाव मन की सहज उत्पत्ति होते हैं जिन्हें जब हम अपनी इच्छा-शक्ति से प्राण देते हैं तो वो फलीभूत होते हैं. भाव से ही विचार और विचारों से कर्म बनते हैं. इन्हीं कर्मों से हम अपना नसीब या प्रारब्ध गढ़ते हैं. स्पष्ट है, भाव से ही हम बनते हैं. भाव से ही हमारी सृष्टि का निर्माण होता है.
परम सत्ता, जिसे हम ईश्वर कहते हैं, में तो कोई क्रिया है नहीं. वह निर्गुण, निराकार है. उसमें तो भाव भी नहीं है. जिसके पास जो नहीं होता, उसे वही चाहिए भी होता है. देवता इसीलिए मानव रूप लेकर इस धरती पर आते हैं कि वो भावजनित भक्ति का सुख और आनंद ले सकें. इसीलिए कहते हैं कि ईश्वर भाव का भूखा है. उसने अपनी अर्धांगिनी माया या प्रकृति को इस सृष्टि की रचना का निमित्त बनाया और इस सृष्टि की समस्त रचना माया के भाव से ही हुई. सुन्दर भाव लेकर प्रकृति ने इस सृष्टि को इतना सुन्दर बनाया. प्रकृति ने ही भगवान् की भी रचना की क्योंकि सृष्टि स्वयं इतनी व्यापक और सामर्थ्यवान नहीं थी कि वह इतनी विशाल रचना को गतिमान रख सके. उसी ने भगवान् के तीन रूपों को बनाया. रचियता या निर्माता के रूप में ब्रह्मा, स्थितिकर्ता के रूप में विष्णु और नवनिर्माण के देव के रूप में महेश.
चूंकि भगवान् स्वयं अपने कर्म-क्षेत्र को भोग नहीं सकते इसलिए भगवान् के गुण लेकर मनुष्य बनाये गए. भगवद् आचरण लिए परिपूर्ण मनुष्य ही अवतार के रूप में जाने जाते हैं. जिस मनुष्य में भगवान् का भाव प्रदीप्त या उज्जवल रहता है, वह अवतार माने जाते हैं. अपने भाव से ही मनुष्य भगवान् को महसूस कर सकता है और इन्हें अपने कर्मों से बल देकर ख़ुद भगवान् का दर्जा भी प्राप्त कर सकता है. सिर्फ़ भाव का ही महत्त्व है. 

कस्तूरी तो मृग की नाभि में होती है. नाभि में कस्तूरी की सुगंध लिए इसी सुगंध को ढूँढने के लिए वह वन-वन भटकता है. वैसे ही मानव ने कभी भगवान् को देखा नहीं लेकिन उसने इस सृष्टि के निर्माता, स्थितिकर्ता और संहारकर्ता के रूप में भगवान् की अवधारणा को अपने भाव से बल दिया. ये भाव उसी कस्तूरी की सुगंध है. भाव में भगवान् की उपस्थिति से हमारे विश्वास को बल मिलता है. भगवान् की खोज हमारे अस्तित्व को बनाये रखती है. हमें निडर हो कर जीने का साहस मिलता है. भगवान् की उपस्थिति का अहसास हमें बुराई के मार्ग से दूर रहने की सीख देता है. यही भाव अंतरात्मा भी कहलाता है. जो इसकी सुन लेता है वह अपनी अच्छाई को बल देकर बुराई से दूर रहता है और जो इसे नहीं सुनता, वह अपने अन्दर के भगवद् तत्त्व को शक्तिहीन बना देता है और दानव बन जाता है. हमारे भाव में ही देव और दानव बसते हैं.
जो काम सहज ही मानव देह की सीमाओं से परे लगता है वह भाव से ही संभव हो जाता है. हमारी सीमित बुद्धि इसका श्रेय भगवान् को देती है. इनको सहज भाषा में चमत्कार भी कहा जाता है. चमत्कार कहीं बाहर से नहीं होते. हमारे अपने भावों की प्रगाढ़ता से ही चमत्कार संभव होते हैं. भावों के बंधन में रहने वाले ईश्वर हमारे भावों की तीव्रता के चलते चमत्कार करने को मजबूर हो जाते हैं.
सामान्य मानव बुद्धि के चलते हम चमत्कार को ही नमस्कार करते हैं. उन्हीं में भगवान् को ढूंढते हैं. कुछ लोग तो चमत्कारों को ही भगवान् के होने का साक्ष्य मानते हैं. साई में हमारा विश्वास भी चमत्कार के कारण ही जड़ जमाता है. साई में जब हमारा विश्वास प्रगाढ़ होने लगता है तब इन चमत्कारों की संख्या भी बढ़ती जाती है और फिर कुछ समय के बाद ऐसी घटनाएं, जो एक समय पर हमें चमत्कारी लगती थीं, अब सामान्य लगती हैं. ऐसे ही जब भावों की तीव्रता कम हो जाती है तब चमत्कार भी क्षीण पड़ने लगते हैं.
मन में साई बसते हैं और मन में ही भाव भी. दोनों के एक ही जगह रहने से चुम्बकीय प्रभाव जैसी शक्ति काम करती है. चुम्बक के प्रभाव में लम्बे समय तक रहने पर एक साधारण से लोहे के टुकड़े में भी चुम्बक के लक्षण, थोड़े ही समय के लिए लेकिन, आ ही जाते हैं. यहाँ, हमारे मन में, तो दोनों – साई और हमारे भाव – प्रतिपल साथ में ही रहते हैं. भावों में बसने वाले साई कब ख़ुद हमारे भावों को पवित्र करने लगते हैं पता ही नहीं चलता. साई के साथ में रह-रह कर हमारे भाव साई का स्वरुप धारण कर उनकी शक्तियों को अपने अन्दर समा लेते हैं. भाव साई हो जाते हैं और साई भाव.

भाव दो प्रकार के होते हैं. भक्ति-भाव और सेवा-भाव. अपने इष्ट के प्रति सम्पूर्ण प्रीति का भाव भक्ति भाव कहलाता है. सभी ओर वही दिखता है जिसको हम अपने मन में पूजते हैं. इसमें माथे पर चंदन-तिलक लगाने की वृत्ति जैसा थोथा आडंबर या बार-बार प्रणाम या दण्डवत् करने जैसी मात्र शारीरिक क्रिया का कोई महत्त्व या स्थान नहीं है. प्रीति तो मन से होती है. धन की लालच में साई के दर पर आई मद्रासी भजन मंडली की महिला प्रमुख ने साई को राम के रूप में देखा तो काकासाहेब दीक्षित के ध्यान में वे विट्ठल के रूप में आये. शामा को साई ने भगवान् दत्तात्रेय के रूप में दर्शन दिए तो मुले शास्त्री को उनके गुरु घोलप स्वामी के रूप में. डॉ. पंडित को उन्होंने काका पुराणिक के रूप में दर्शन दे कर अपने गले और माथे पर चंदन लगाने की अनुमति दी. नानासाहेब चांदोरकर के पंढरपुर तबादले पर मस्जिद में पहले ही साई ने उनके भाव के अनुरूप पंढरपुर जाने की भूमिका बना दी थी. दासगणु के संगम स्नान के भाव को जान कर साई ने अपने चरणों से ही पवित्र तीर्थों की धारा बहा दी. सर्प को साई का रूप समझ कर जब बालाजी नेवासकर ने उसे दूध अर्पण किया तो वह बिना किसी को हानि पहुंचाए वहां से चला गया. जैसा जिसके मन का भाव था, उसे वैसे ही बाबा ने दर्शन दिए. उनके भावों में अपने इष्ट के दर्शन की प्रगाढ़ता का मान साई को रखना ही पड़ा. भाव से सभी कुछ संभव है. भाव बिन भक्ति अधूरी है. अधूरी भक्ति से कुछ भी हासिल नहीं होता, वो शक्तिहीन होती है.
 श्रीमति सावित्री तेंदुलकर के भाव थे उसी कारण से बाबा ने उनके पुत्र बाबू तेंदुलकर की कुंडली के ग्रहों की चाल बदल कर डॉक्टर न बन पाने के योग होने के बावजूद उन्हें परीक्षा में पास करवाया. बापूसाहेब बूटी की मृत्यु की भविष्यवाणी को उल्टा कर उनकी मृत्यु को टाल दिया. अनेक प्रकांड ज्योतिषियों की भविष्यवाणी, कि दामूअन्ना कासार के जीवन में संतान सुख नहीं लिखा, को बाबा ने बदल दिया और उनके घर में संतान की उत्पत्ति हुई. ऐसे ही कई निसंतान दम्पत्तियों के घर बाबा ने कई अड़चनों ने बाद भी संतान सुख की प्राप्ति करवाई तो कितनों के ही घर बाबा ने धन-धान्य से भरे. आज भी साई के चमत्कारों की कोई थाह नहीं है. अपने भावों से मिली साई की कृपा के चलते नक्षत्रों की चाल भी बदल जाती है.
शामा के मन में बाबा के प्रति मित्रता का भाव था लेकिन शायद उसके पूर्व कर्मों के चलते धन की कमी उसे रहनी ही थी. बाबा के प्रति शामा के भावों की तीव्रता का अंदाज़ा इसी बात से लग सकता है कि जब वे सोते तो उनकी प्रत्येक श्वासोच्छ्वास के साथ साई का उच्चारण स्पष्ट सुनाई देता. शामा के पास बहुत अधिक धन न होने के बावजूद बाबा की कृपा के चलते उन्होंने एक धनवान व्यक्ति की तरह जीवन बिताया. बाबा ने उसी शामा को बड़े-बड़े धनवान लोगों का, न्यायाधीशों, मामलतदार, जिलाधीशों, महंत और मठाधीशों का संग करवाया. उन्हें सभी जगह बाबा का प्रतिनिधि मानकर लोगों द्वारा उन्हें बहुत आदर और मान, आदर-सत्कार दिया जाता और इन्हीं भक्तों से उन्हें कीमती भेंट, इत्यादि भी मिलती. धनाढ्यों की तरह घोडा-गाड़ी और हाथी की सवारी भी शामा को करने को मिलती. रसूखदार भी बाबा के दर्शन करने के लिए अपनी सिफ़ारिश शामा के माध्यम से ही करवाते. इस तरह अपने भावों के चलते उन्हें बाबा की कृपा से वो ठाठ नसीब हुए जो बड़े-बड़े सेठों को नसीब नहीं होते. शंकर के दर्शन से पूर्व जिस तरह नंदी पूजे जाते हैं, उसी तरह साई बाबा के दर्शनों के पूर्व भक्त शामा से होते हुए ही जाते. साई के सुदामा थे शामा. भाव इतने बलवान होते हैं कि प्रारब्ध को भी छल देते हैं. यह शामा का जीवन जानने से समझ में आता है.
इसी तरह दाभोलकर के मन में भाव उत्पन्न हुआ कि बाबा की लीलाएँ और उनके माध्यम से बाबा का चरित्र लोगों तक पहुंचना चाहिए तो बाबा ने उनके भावों का मान रखा और आज उन्हीं दाभोलकर के लिखे श्री साई सच्चरित्र को पूरी दुनिया में लाखों लोग रोज़ पढ़ते हैं और उसमें बाबा के व्यक्तित्व के सजीव चित्रण से स्वयं को धन्य पाते हैं. दाभोलकर के भावों के चलते ही बाबा ने उन्हें यह आश्वासन दिया था कि यदि दाभोलकर अनन्य भाव से अपना अहंकार छोड़कर बाबा की शरण में आयेंगे तब बाबा उनके माध्यम से स्वयं अपना चरित्र लिखेंगे. अहंकार भी भाव है लेकिन बाकी सारे भावों को प्रदूषित कर देता है. बाबा ने अपना वचन निभाया और आज दाभोलकर को वेदव्यास के समकक्ष पूजनीय बना दिया है. भाव तो कतरे को भी समन्दर कर देते हैं.
भाव कैसे फलीभूत होते हैं? जब भक्ति भाव अपने चरम पर पहुँच जाता है और जब चहुँओर, हर किसी में अपने इष्ट का स्वरुप ही दिखता है तो मन में सेवा भाव का उदय होने लगता है. भाव अब प्रीति की सीढ़ी चढ़कर सेवा की सीढ़ी पर चढ़ कर बदलने लगते हैं. अब साई किसी मंदिर में, मूर्ति में, चित्र में, छवि में, किसी स्थान विशेष में सीमित न होकर पानी की फुहार की तरह सभी दिशाओं में फैल जाते हैं. भाव अब अपने साई के प्रति न रह कर हर मनुष्य में मौजूद साई की ओर खिंचने लगते हैं. भाव का स्वरुप बदल जाता है. अब साई एक न होकर अनेक हो जाते हैं. मेरे अन्दर भी साई होते हैं तो सभी के अन्दर भी साई होते हैं. यह भावना इस भाव से बनती है. क्या जड़ और क्या चेतन? सभी में साई ही तो है. सभी का आदर, सभी को सम्मान. सभी को प्रेम और सभी से प्रेम. भाव अब फल देने लगते हैं.

भावों के फलीभूत होने की अकेली सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त है उनका निर्दोष होना. मन में मैल यानि गंदगी भरी होगी तो मलिन भाव उत्पन्न होंगे और मलिन भावों में किसी का भी भला नहीं छिपा होता. भाव में अगर स्वार्थ भरा हो तो भावों का वज़न कम हो जाता है. स्वार्थ है तो साथ नहीं होता और साथ में स्वार्थ नहीं होता. स्वार्थ का वज़न बहुत होता है. रिश्तों में से स्वार्थ निकाल देने पर रिश्ते हलके हो जाते हैं. महत्त्वहीन. निस्वार्थ भाव से ही साई को पाया जा सकता है. जब मन दूसरों के सुख में सुखी और दूसरों के दुःख से दुखी होने लगे तो समझो अब सेवा भाव मज़बूत होने लगा है. जब दूसरों के दुःख से मन दुखी होने लगता है तो यही मन उस दुःख को दूर करने के प्रयास भी करने लगता है. जब हम दूसरों की आँखों से आंसूं पोंछते हैं, जब किसी रोते हुए के चेहरे पर मुस्कान लेकर आते हैं, किसी निर्धन का इलाज करवा देते हैं, किसी भूखे को रोटी देते हैं, बेसहारा को सहारा देते हैं तब हम साई को पा लेते हैं. उसी दुखी चेहरे पर मुस्कान में, उसकी आँखों के आंसुओं में, रोटी के उस टुकड़े में, सहारे के उस सुख में हमें अब साई दिखाई देने लगता है. साई मूर्ति से निकल कर मानो हमारे जीवन में सुगंध की तरह समा जाते हैं.
दूसरों की सेवा करने वालों को कभी अपने लिए दुआ मांगनी ही नहीं पड़ती. अपने लिए कुछ मांगने की ज़रुरत ही नहीं रहती. हाथ उठने से पहले ही दुआ क़ुबूल हो जाती है. साई को पाने के बाद अब किस और चीज़ की दुआ मांगोगे?
सुख, शांति और आनंद के रूप में हमें साई मिल जाते हैं. जैसा रूप हमारे मन का होता साई उसी रूप में ढल जाते हैं. वो कभी भी हमें दुखी नहीं होने देते. यही तो हम साई से चाहते भी हैं. जैसा भाव रहा जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे साई के मन का.
बाबा भली कर रहे।।

                      श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु