साधु-संत और हम जैसे आम लोगों में अंतर क्या है? नि:संदेह कइयों का उत्तर होगा कि, साधु-संत ईश्वर की भक्ति में ज्यादा लीन रहते हैं, सांसारिक माया-मोह से दूर रहते हैं और भौतिक सुख-साधनों से परे होते हैं! लेकिन क्या यह अंतर ही पर्याप्त या सटीक है?
बिलकुल नहीं, क्योंकि यह तो
ऊपरी तौर पर दिखने वाली चीजें हैं। सतही बातें हैं। आम आदमी भी समय-समय पर इन सबसे
दूर रहता है। उदाहरण के तौर पर नवरात्रि को ही लीजिए! कई लोग नवरात्रि पर
जूते-चप्पल त्याग देते हैं। पूरे 9 दिन
नंगे पैर चलते हैं। पूरे नौ दिन सात्विक और एकदम साधारण भोजन करते हैं। कई तो
उपवास करते हैं और सिर्फ फलाहार या साबुदाने की खिचड़ी जैसा आहार लेते ग्रहण करते
हैं। सुबह-शाम देवी की स्तुति में बिताते हैं। तो इसका मतलब तो यह हुआ कि नवरात्रि
में किया गया यह जतन किसी भी व्यक्ति को साधु-संतों के तुल्य बना सकता है? बिलकुल नहीं। यह तो महज एक अच्छा इंसान बनने की दिशा में एक छोटी-सी पहल
कही जा सकती है। लम्बे से जीवन में कुछ सधे हुए, छोटे से कदम।
साधु-संत तो उस उपग्रह की तरह
होते हैं, तो सफलतापूर्वक दूसरों से ऊपर
स्थापित हो चुके होते हैं। उन्हें अपने मन के नेत्र से समूची दुनिया स्पष्ट दिखाई
देने लगती है। कहाँ, क्या है, कैसा है,
क्या करना ठीक है और क्या करना सही नहीं, वे
भली-भांति जान-समझ लेते हैं। उनका विवेक जागृत हो चुका होता है। दुनिया को वे हमसे
बेहतर समझते और जानते हैं। अगर आम भाषा में, समझ में आने वाले शब्दों में बात करें
तो साधु वह होता है जो स्वयं को साध चुका है, जिसे भगवान् किसी भी अन्य से अधिक प्रिय
होते हैं। संत इनसे कुछ आगे होते हैं। जो अपनी इच्छाओं के साथ उनका अंत भी साथ में
ले कर चलते हैं वो संत कहलाते हैं। ये भगवान् को किसी भी अन्य से अधिक प्यारे होते
हैं। सृष्टि में यह भगवान् का स्वरुप ले उनके दूत, सद्गुरू के रूप में अवतरित होते
हैं।
दरअसल, साधु-संत और हम जैसे आम व्यक्ति का सबसे बड़ा फर्क है
काम-क्रोध-मद और लोभ से उपजे अहंकार के त्याग का। एक साधु बनने की प्रक्रिया भी इन चार चरणों से शुरू होती है। सबसे पहले तो काम
का त्याग करना पड़ता है। काम यानी वासना। वासना के कई प्रकार होते हैं। यह धन-दौलत
के प्रति भी हो सकती है, ख़ुद को श्रेष्ठ साबित करने की भी और
स्त्री के प्रति भी। अगर ध्यान से देखा जाए तो विश्व में हो रहे तमाम अपराधों की जड़
में अर्थ यानि धन और कामिनी यानि स्त्री के प्रति वासना के चलते ही हो रहे हैं।
इसे त्यागना संतत्व की ओर पहला कदम बढाने जैसा है। जब मन के कोने में बैठा काम
निर्वासित हो जाता है, तो अपने आप मद यानी पैसे का मोह भी
चला जाता है। जब कोई काम और पैसे से विरक्ति पा लेता है, तो
उसके जीवन में लोभ कोई महत्व नहीं रह जाता है। भला जब ये तीनों आदतों का जीवन में
कोई महत्व नहीं रहेगा, तो क्रोध आना नामुमकिन है। इन चारों
पर फतह पाना वाला साधु हो जाता है। आमतौर पर हम ऐसा नहीं कर पाते। क्योंकि हम
गृहस्थ जीवन में जी रहे होते हैं। लिहाजा बाबा ने इन चारों के बीच रहते हुए भी खुद
को बेहतर इंसान बनाने के कई नुस्खे सिखाए हैं।
भगवान इंद्र की एक कथा तो आप सभी को पता ही
होगी। देवराज इंद्र एक दिन ऋषि दुर्वासा के पास गए। ऋषि ने उनके स्वागत-सम्मान के लिए उनके गले में हार पहनाया। इंद्र ने ऋषि दुर्वासा के सामने यह साबित करने के लिए कि अब उनमें अहंकार
नहीं रहा, वह हार अपने हाथी को पहना दिया। इंद्र का मानना था कि अगर हाथी ने वह हार गिरा दिया, तो समझ आ
जाएगा कि उनमें अभी अहंकार शेष है। हालांकि इंद्र ने यह बात दुर्वासा को नहीं बताई, बल्कि
अपने मन में रखी। दुर्वासा उनके मनोभाव को नहीं
समझ पाए, लेकिन उन्होंने
देवराज इंद्र को वह हार हाथी को पहनाते हुए देख लिया। जाहिर सी बात है कि इस तरह की सोच भी अहंकार का ही पर्याय है। बहरहाल,
हाथी ने अगले ही क्षण अपनी गर्दन हिलाकर वह हार नीचे गिरा दिया।
इंद्र समझ गए कि वे अभी अहंकार से मुक्त नहीं हुए हैं। चूंकि ऋषि दुर्वासा को इसका पता नहीं था, लिहाजा वे इंद्र के इस अजीब
बर्ताव से कुपित हो गए।
उन्होंने श्राप दे डाला कि देवताओं की शक्ति क्षीण हो जाए और सचमुच में देवताओं की
शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होने लगी। दैत्यों-दानवों के मामूली पराक्रम के आगे देव हारने लगे। देवों में हाहाकार मचने लगा। सब के सब भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे।
भगवान विष्णु ठहरे अंतरयामी, ब्रह्मांड की हरेक
घटना के जनक। भला उनकी आज्ञा के बगैर कभी कुछ हुआ है। दरअसल, यह सब विष्णु भगवान ने ही रचा था। इसके पीछे अमृत-मंथन की पृष्ठभूमि तैयार
करना था। खैर, उन्होंने देवों को सुझाया कि वे दैत्यों-दानवों के संग मिलकर समुद्र-मंथन करें।
इससे अमृत और विष निकलेगा। जिसके हिस्से में जो आएगा, वो उसकी किस्मत होगा और वही श्रेष्ठ होगा। अमृत पीने वाला अमर
हो जाएगा और जिसके खाते में विष आएगा, वो सदैव नश्वर देह में
जन्मेगा।
अमर होने की चाह हम सब में
सदियों से है। चाहे वह मनुष्य हो, देव हो या दानव हो। अमृत पाने के लोभ में सब एक हो गए। समुद्र मंथन के लिए मंदार
पर्वत को धुरी बनाया गया और शेषनाग को मंथने के लिए रस्सी जैसा रूप दिया गया। मंथन के दौरान जब सबके भार से मंदार पर्वत डूबने लगा, तो भगवान विष्णु ने कछुए का रूप लिया। और अपनी पीठ पर उस मंदार पर्वत को
झेल लिया यानी उठा लिया। यानी हम कितने भी बलशाली हो जाएं, अमृत पीकर अमरत्व को प्राप्त कर लें, लेकिन
हमारा बोझ उठाने वाला तो सिर्फ एक ही है, वो है ईश्वर। ईश्वर
की पीठ पर ही मन मथने का मौका मिलता है।
शिरडी में भी जब हम द्वारका माई मस्जिद में जाते हैं, तो वहां पर एक कछुए का प्रतीक दिखाई देता है। यह कछुआ प्रतीक है भक्ति और शक्ति का। कछुआ सारे अंग अपनी खोल के अंदर समेट लेता है। अपनी गर्दन, अपने चारों पैर सब उसके कठोर, पत्थरनुमा खोल के
नीचे आ जाते हैं। ऐसे ही हमारी भक्ति भी होनी चाहिए कि हम सारे द्वेष, अहंकार, आवेश भूलकर भक्ति में लीन हो जाएं। इस तरह कछुआ भक्ति का प्रतीक है। यह शक्ति का प्रतीक है। जब सारे विकारों पर हम काबू
पा लेते हैं, तब हमारा कठोर निर्णय या दृढ़संकल्प
हमें हर बुराई से बचाता है। कछुआ भी संत ही है।
‘श्री साई सतचरित्र’ में भी कछुए का उल्लेख आता है।
एक बार खाशाबा देशमुख की माँ, राधाबाई देशमुख गुरुमंत्र
मांगने साई के पास आईं और गुरुमंत्र n मिलने तक अनशन की हठ ले कर बैठ गईं। साई ने
उनसे कहा कि उनकी प्रणाली में गुरुमंत्र देने की प्ररम्परा है ही नहीं। उनके न मानने
पर बाबा ने उन्हें अपने गुरु के बारे में बताया। कैसे उनके गुरु ने उनका शिष्यत्व
स्वीकार करते ही उनका सिर मूंड कर उनसे दो पैसों की दक्षिणा मांगी। अपने गुरु के
संग साई बाबा स्वयं बारह वर्षों तक रहे। उनके गुरु उनसे बहुत प्रेम करते। वे कहने
लगे कि उनके गुरु जब सामने बैठे होते, तो वे कछुए की भांति
उन्हें निहारते जो नदी के दूसरे किनारे पर भी अगर हो तो सिर्फ़ अपनी आँखों से उनको
प्रेम से पालती। साई केवल उनकी आंखों को पढ़कर इस बात का अनुमान लगा लेते कि गुरु
उनसे क्या कहना चाहते हैं। उनके गुरु कछुए-से प्रतीत होते, जिन्होंने
अपने सारे विकार अपनी दृढ इच्छाशक्ति के बूते काबू में कर लिए थे। गुरुमंत्र यही
है कि आप गुरु से कुछ मांगने की इच्छा लेकर न जाएं। उन्हें देखें कि वे अपना जीवन
कैसे संवारते हैं, जीते हैं। कैसे अपने दुर्गुणों पर काबू
पाते हैं। कोई भी गुरुमंत्र पूछने या मांगने पर नहीं मिलता। यह तो एक ऊर्जा की तरह
है, आप जितना सामने वाले से सीखेंगे, महसूस
करेंगे उतना आपको प्राप्त होगी। अपने गुरु के प्रति अखंड निष्ठा और धैर्य ही किसी
के भी आंतरिक विकास की मूढ़ी है। यही गुरु को दी जाने वाली सर्वोच्च दक्षिणा है और
यही गुरु से पाने का मंत्र भी। इसी मंत्र को श्रद्धा और सबुरी भी कहा जाता है।
कछुआ लंबी उम्र का भी प्रतीक
है। लंबी उम्र तभी नसीब
होती है, जब हम समस्त विकारों से परे हो जाते
हैं। दरअसल, विकार हमारे अंदर की ऊर्जा का क्षय करते हैं।
ऊर्जा का क्षरण सांसों से जुड़ा है। सांसें कम होंगी, असंतुलित
होंगी, ता निश्चय है हमारी उम्र कम होगी। जब हम ईश्वर की
भक्ति में डूबते हैं और मन के सारे विकार-दोष धुल जाते हैं। हमारी ऊर्जा का क्षरण
होने से रुक जाता है, बल्कि बढ़ और जाती है। यह लंबी उम्र का
राज है। लेकिन यह लंबी उम्र किसी के काम आ सके, तभी उसकी
सार्थकता है। सद्गुरू की शरण में रहते हुए मन में विकारों का हास होता है और करुणा
और विवेक का उदय।
कछुए से जुड़ीं कई और बातें भी हैं। तो हम बात कर रहे
थे समुद्र-मंथन की। जब मंथन
शुरू हुआ, उस समय शेषनाग का मुंह दानवों की ओर था। जब थक कर शेषनाग अपनी सांस छोड़ता, तो उससे दानवों का नाश हो रहा था। यानी यह ईश्वर की एक लीला थी। कहते हैं न कि हम कभी
पिछलग्गू बने रहना नहीं चाहते। यह हमारा अहंकार होता है। इसी अहंकार में दानवों ने
शेषनाग की पूछ की ओर खुद को खड़ा करने अपनी तौहीन समझा। इस अहंकार में वे मारे गए।
ठीक ऐसी ही स्थिति कथा श्रवण के
दौरान हमारी होती है। हम ईश्वर या गुरु के सामने या कोई अच्छी बात सुनने के दौरान
क्या कभी पीठ देकर बैठते हैं? बिलकुल नहीं
क्योंकि सारे विकार हमारे मस्तिष्क, जीभ, नाक-कान पर बैठे होते हैं। हम मुंह करके बैठते हैं, बात
सुनते हैं, तो ईश्वर-गुरु की वाणी या उनके प्रभाव से निकली
ऊर्जा से हमारे विकार पर सीधा आक्रमण होता है और वे नष्ट हो जाते हैं।
बाबा अपने भक्तों को हमेशा ऐसी ही गुरुमंत्र देते थे।
वे खुद भक्तों में लीन हो जाते थे और भक्तों से चाहते थे कि वे उनको भी अपने में मिला
लें। इसलिए निरंतर कोशिश करिए साई को अपने में जागृत करने की दिशा में। साई हमारे ही अंदर मौजूद हैं, लेकिन हमने उन्हें विकारों से बोझ से दबा कर सुला रखा है। जिस दिन, जब भी आप उन्हें जागृत कर देंगे, फिर देखिए साई आपमें किस तरह परिवर्तन लाते हैं।
यह 100 प्रतिशत अचूक नुस्खा है। मैं साई के चरणों में बैठकर यह दावे से कह सकता हूं कियदि आपने अपने अंदर साई को जागृत कर लिया, तो आप स्वयं को पहचान नहीं पाएंगे। यानी अपने भीतर एक
बड़ा बदलाव महसूस करेंगे। खुद को नई ऊर्जा से भरा पाएंगे। तरोताजा हो उठेंगे। हालांकि यह भी अमृत-मंथन समान एक प्रक्रिया है। पहले खुद को खूब मंथना पड़ेगा।
जिस तरह दूध में मक्खन और मट्ठा दोनों मौजूद होते हैं, लेकिन ऊपरी तौर पर दिखाई नहीं देते। ठीक वैसी स्थिति हमारी
होती है। जब तक हम खुद को मंथेंगे नहीं, मक्खन और मट्ठा
अलग-अलग नहीं होंगे।
हालांकि अपने आप को मंथना कोई
सरल काम नहीं। और कोई भी अच्छी पहल इतनी सरल नहीं होती। इसके लिए थोड़ी-सी तकलीफ
से गुज़रना पड़ता है। जैसे हिमालय पर चढ़ने, समुद्र
की थाह लेने या किसी मंजिल को पाने कठिन परिश्रम करना पड़ता है, ठीक वैसे ही खुद को मंथने के लिए भी ऐसा ही जतन करना होता है। इसे ही हम
तपस्या कहते हैं। साधना-तपस्या के जरिये ही देवत्व की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त
होता है।
साई बहुत अलग किस्म के गुरु
हैं। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने कभी
किसी के कान में कोई संदेश फूंक दिया हो या कभी किसी को यह कहा
हो कि तुम ऐसा करो-वैसा करो! साई ने कभी किसी भक्त से यह नहीं
कहा कि तुम फलां रत्न की अंगूठी
पहनो या ताबीज बांधो! तुम्हारे
सारे बिगड़े काम बनेंगे। साई ने कभी भ्रम नहीं फैलाया और न ही कभी आडंबरों को
बढ़ावा दिया। क्योंकि यह सब जानते हैं कि अगर रत्न धारण करने से दु:ख-तकलीफें दूर
होतीं, तो राजा-महाराजाओं का शासन कभी खत्म नहीं होता। वे
अमर होते, कभी पराजित नहीं होते, अपनों
के ही षड्यंत्र का शिकार नही होते। अमीरों को कभी अस्पताल में जाने की जरूरत नहीं
पड़ती। ईश्वर की शरण में जाने की आवश्यकता ही महसूस न होती। उन्होंने तो कभी किसी को चार अगरबत्ती जलाने की सलाह भी नहीं दी। खोखले
आडम्बरों से बहुत दूर है साई को पाने की राह।
साई तो दैनिक जीवन से जुड़ीं वास्तविक बहुत छोटी-छोटी कहानियों में बात किया करते थे। अकसर तो
ऐसा होता था कि वे सामने खड़े व्यक्ति को ही केंद्रित करके बात करते, लेकिन उसे यह समझ ही नहीं आता। क्योंकि सामने वाला तो अपने ही मद में डूबा
होता। हां, जब उसकी निंद्रा खुलती, मोह-माया,
ईर्ष्या की कालिख धुलती, तब उसे पता चलता कि
साई ने उसे क्या सीख दी थी। साई के कहने का तौर-तरीका
दार्शनिक होता था। वैसे जीवन ही एक दर्शन है। इसलिए उसे वही समझ पाता है, जो चैतन्य होकर बातों की गहराई समझता है। यही जीवन को समझने का तरीका है। सुनने वालों को लगता कि साई ये क्या बोल रहे हैं, कुछ भी तो पल्ले नहीं पड़ रहा? यह और बात है कि अगर सुनने वाला
व्यक्ति एकाग्रचित्त होकर, खुद को बदलने की सोच लेकर वहां
मौजूद होता, तो उसे आभास हो जाता कि दरअसल, साई उसके बारे में ही बात कर रहे हैं। साई उसके अंदर भरे पड़े दोषों पर प्रहार कर रहे हैं।
यहीं से कहता है संतत्व का
रास्ता। अन्दर झांको, साई मिलेंगे।
तांका-झांकी इधर-उधर
बहुत हो गई यार।
खुद में भी अब
डूबने हो जाओ तैयार।
बाबा भली कर रहे।।
श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु।