Tuesday, 30 April 2019

आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा नहीं है दूर



श्री साई अमृत कथा में माध्यम श्री सुमीत पोंदा ‘भाईजी’ साई बाबा के वचनों में से नौवें वचन कि व्याख्या करते हुए बताते हैं कि श्री साई बाबा का यह वचन – आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा नहीं है दूर –बाबा के कल्पद्रुम, मंशापूरण कल्पवृक्ष या कल्पतरु सरीखा होने का परिचायक है. यह किसी से नहीं छिपा है कि साई बाबा ने सशरीर रहते हुए तो सदा ही अपने भक्तों के दुःख दूर किये और, आज भी, जब वह सशरीर नहीं हैं तब भी, हम सभी की सुनते हैं और हमारे कष्टों का निवारण करते हैं.  आज भी वो हमारे मन की मुराद पूरी करते ही रहते हैं. हमारे होंठ हिलते भी नहीं कि बाबा हमारी मंशा पूरी कर देते हैं.

हमारे मन में सहज ही यह विचार कौंध जाते हैं कि यह कैसे संभव है कि वो परम, दिव्य आत्माएँ जिन्हें हम देवता या भगवान् अथवा सिद्ध पुरुष मानते हैं, हमारी मंशाएँ, इच्छाएँ पूरी कर देते हैं जबकि वो तो हमें दिखते भी नहीं हैं! जब वो हाड़-माँस में हैं ही नहीं तो यह कैसे संभव है कि वो हमारी मुरादें भी पूरी कर सकते हैं! यह विचार मन में सहज ही आ जाते हैं. कई बार जब मन की होने में समय लगता है तो उनके अस्तित्व पर भी संदेह यही भिक्षुक मन उठाता है. सच ही तो है. हमारी बुद्धि महत्त्व-बुद्धि है. जिस वस्तु में, अस्तित्व में हमें अपना स्वार्थ सिद्ध होता दिखाई पड़ेगा, उसी को हमारा मन स्वीकार कर महत्त्व देना शुरू कर देगा. इसके ठीक उलट, अगर हमारा स्वार्थ कहीं सिद्ध नहीं हो रहा है तो हम उस ओर देखेंगे भी नहीं. स्वार्थ जो करवा ले वो कम है.

ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि में कई सारी समय-रेखाएँ (time-line) समानांतर चल रही हैं. यह भौतिकी-शास्त्र का नियम है. हमें लगता है कि समय गुज़र रहा है लेकिन सच तो यह है कि उस चलायमान समय-रेखा पर हम खड़े रहते हैं. दृश्य बदल जाते हैं. साथी बदल जाते हैं. संगी बदल जाते हैं. परिस्थितयाँ बदल जाती हैं. हम गुज़र जाते हैं और फिर कहीं और, किसी अन्य समय रेखा पर अपने आप को पाते हैं. नए परिवेश में, नए लोगों के मध्य. नए रूप-रंग के साथ. नई योनी में. नया जन्म. पुनर्जन्म. यही सत्य है.

ऐसी ही समय-रेखा पर वो पवित्र और दिव्य आत्माएँ भी निरंतर बहती रहती है. मानव अवतार रूप में साई भी ईश्वर की समय-रेखा पर हैं और हमसे अभी इतनी दूर नहीं गए हैं कि उन तक हमारी आवाज़ पहुँचने में देर लगे. आख़िर समाधी लिए हुए उन्हें अभी समय ही कितना हुआ है! सौ साल और कुछ ऊपर. ईश्वर की अनंत समय-रेखा में तो यह काल धूल के एक कण के बराबर भी नहीं है. साई तो हमारे बहुत ही पास हैं. इतने पास कि इधर हम सोचते हैं और वो सुन लेते हैं. हमारा भाव भी एक ऊर्जा है. जब मानसिक वेग के साथ यह ऊर्जा हम किसी को भेजना चाहते हैं तो यह एक कंपन के रूप में सामने आती हैं. समय रेखाओं पर हमारे भाव का कंपन हमारे साई तक बहुत ही जल्द पहुँच जाता है. वही कंपन उन्हें झझकोर देता है. वो हमारी ओर देखते हैं. हमें महसूस भी होता है. उनकी टोह लेती नज़रों का हमें आभास भी होता है. हम उन्हें पुकारते हैं और वो सुन लेते हैं. वो भी पलट कर हमें सहायता दे देते हैं. भाव का वेग उन तक जल्द पहुँच जाता है.

फिर प्रश्न उठता है कि क्या हम सभी को इस परमतत्त्व की सहायता लेने की ज़रुरत पड़ती है?
  
ईश्वरीय राज्य का एक छोटा-सा भाग है यह पृथ्वी. उसके कुल अनंत सृजन का शायद सौंवा या फिर हज़ारवाँ या फिर लाखवाँ हिस्सा भी हो सकती है. वह तो सकल ब्रह्माण्ड का नायक है. उसकी इस अनुपम कृति का कितना भाग ही हमने देखा होगा! जो सारी दुनिया देखने का दावा भी करता है वह भी इस सृष्टि का एक कण ही है. अगर कभी हमने अंतरिक्ष में स्थापित उपग्रहों से खींचे पृथ्वी के चित्र देखे हों तो हमें समझ में आएगा कि कई हज़ारों मील ऊपर से लिए गए चित्र में तो पृथ्वी एक छोटे-से गोले सामान नज़र आती है और उस गोले में तमाम द्वीप, महाद्वीप, सागर, महासागर भी छोटे से कण सामान नज़र आते हैं. अगर हम अपने आप को उस चित्र में ढूँढने भी जाएँ तो शायद पेंसिल की नोक से बने एक छोटे से बिंदु से अधिक हम कुछ भी नहीं. यही हमारा सही वजूद, अस्तित्व है. यही सच्चाई है कि उस ईश्वर की परमसत्ता में हम तो बहुत ही छोटे हैं. इस सच्चाई को अनदेखा कर अपने अहंकार के चलते हम तो अपने आप को सर्वशक्तिमान मान कर चलते हैं जो कभी ख़त्म होंगे ही नहीं. भूल जाते हैं कि एक साँस की देर है. ‘है’ ‘था’ बन जाता है. नाम भी छिन जाता है. हम भी अपने आप से दूर हो जाते हैं. गुरूर तो राख बन कर उड़ जाता है. मिट्टी फिर मिट्टी बन जाती है. अनंत में खो जाती है. ईश्वर की समय-रेखा पर हम क्षणिक हैं. बस यही स्थाई सच्चाई है. जब हम क्षणिक हैं तो हमारा जलवा, अहंकार, धन-दौलत, संपत्ति-विपत्ति, परिवार सभी कुछ क्षणिक है. जब तक हम हैं, हमें इनके होने का भ्रम रहता है. समय साक्षी है कि या तो हम उन्हें छोड़ चलेंगे या वो हमें छोड़ देंगे. इसी मिलने-बिछड़ने के क्रम में सभी को सहायता की ज़रुरत पड़ती है. कोई न कोई इच्छाएँ अपूर्ण रह जाती है. इनसे दुःख उत्पन्न होता है. जिनको हमने अपना सहारा माना था वो तो अब कोई भी नहीं हैं. समय-रेखा के इस नए मुक़ाम पर तो हम एकदम अकेले हैं. सहारे छिन जाने पर अकेलापन महसूस होता है. आवाज़ देते हैं पर कोई सुनता नहीं तो कोई सुन कर अनसुना कर देता है. इस दुनिया में हर कोई कभी न कभी तो ऐसे मुक़ाम पर पहुँचता है जब कोई साथ देने वाला या मदद करने वाला उसके पास नहीं होता. नितांत अँधेरा. हाथ को हाथ नहीं सूझता. सभी को कभी न कभी सहारे की ज़रुरत तो पड़ती ही है.

क्यों हमें सहायता की आवश्यकता पड़ती है? हम सभी जानते हैं कि हम सभी अपने पुराने संचित कर्मों के अधीन रहते हैं. यही चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने किये हुए कर्म हमें नियंत्रित करते हैं और इन्हीं कर्मों का फल हमारे प्रारब्ध को निर्मित करता है. इन्हीं कर्मों का यह फल हमें एक निश्चित दिशा में धकेल देता है – उस राह पर, जिस पर हमें स्वयं ही समझ नहीं आता कि हम ख़ुद-ब-ख़ुद कैसे चल निकलते हैं. इसी राह पर चलते-चलते और अपने किये हुए कर्मों का अच्छा-बुरा फल भोगते हुए जब हम ऐसी परिस्थिति में फँस जाते हैं कि हमें कोई राह न सूझ पड़े तो हम रुक जाते हैं, अटक जाते हैं. कर्मों के फल स्वरुप कुछ परिस्थितियाँ ऐसी निर्मित हो जाती हैं कि हमें कुछ भी सूझ नहीं पड़ता. इनसे पार पाना हमें सहज ही नहीं सूझता! दुनिया में बहुत कुछ है जो हमारी सहज बुद्धि और पराक्रम से बहुत परे है. ऐसी जगहों पर पहुँच कर हमारी बिद्धि और इच्छाशक्ति भी जवाब दे देते हैं. सोच पर पड़े परदे से आगे की राह में अँधेरा छा जाता है. ऐसी परिस्थिति दलदल के समान होती है. जितने भी हम हाथ-पैर चलाते हैं, उतने ही इस दलदल में धँसते जाते हैं. साँस फूलने लगती है, हाथ-पैर भारी हो जाते हैं. इच्छा होती है कि इनको काट कर फ़ेंक दें. शायद तब फिर दलदल से निकलने का कोई रास्ता मिल जाए. लेकिन न तो हाथ-पैर हम काट सकते हैं क्योंकि वही तो वो इच्छाएँ हैं जिनसे परे हो पाना हमारे लिए संभव नहीं होता है. निढाल हो जाते हैं. दंभ कभी का पीछे छूट चुका होता है. अहंकार चूर हो चुका होता है. अभिमान का सिर झुका होता है. रह जाते हैं सिर्फ़ हम. निढाल. असहाय. अब तो इंतज़ार है कि कब यह दलदल हमें निगल जाए और हम उसके अंदर डूब जाएँ. वो भी नहीं होता. दलदल अंदर खींचता है तो उखड़ती साँसें फिर जोर मारने लगती हैं. आशा की किरण डूबने भी तो नहीं देती. साई की याद ऐसे ही क्षणों में आती है. जब कोई नहीं आता, मेरे साई आते हैं. समय-रेखा पर उनको हमारी आवाज़, हमारे भाव का कंपन  सुनाई दे जाता है. वो पलटते हैं, दलदल के किनारे आ कर खड़े हो जाते हैं. अपनी करुणामयी आँखों से हमें देखते हैं. मानो पूछ रहे हों कि हमने अपना ये हाल क्यों कर दिया. उनकी आँखों से बहता करुणा का झरना हमारे तमाम सवालों का जवाब हमारे अंदर से ही निकालता है. हमारी आँखों से जवाब के रूप में वही झरना बह निकलता है. झरने से झरना मिलता है. दरिया बन जाता है. करुणा का हस्तांतरण हो जाता है. दलदल की कीचड़ से सने हम यह महसूस भी नहीं कर पाते कि हम तो कब के साई की उस करुणा के साफ़ पानी में तैरने लगे हैं. जब अहसास होता है तो महसूस होने लगता है कि दलदल में तो हम व्यर्थ ही गए. जब कर्मों के अधीन हम उनके सम्मोहन में बंधे हुए झूठ और फरेब के रास्ते पर चलते जा रहे थे तो क्यों तब हमने साई से मदद नहीं माँगी. तब क्यों हमने उनके नाम की गुहार नहीं लगाई? क्यों हम व्यर्थ से आकर्षणों के मोहपाश में फँसे चलते गए? तब क्या हमारे पास कोई और रास्ता नहीं था? क्यों हम अहंकार और मोह-माया के छद्म, मायावी और अस्थाई आवरण को ओढने के पीछे भाग रहे थे? फिर हम जवाब दते हैं कि क्या तब साई आस-पास नहीं थे जो वो हमें रोक लेते? वो तो थे. ठीक वहीं पर जहाँ आज हैं लेकिन हम ही ने तो उनको अनदेखा कर दिया. हम ही ने तो उनकी नहीं सुनी. हम ही ने तो उन्हें मात्र अपनी इच्छापूर्ति का माध्यम समझ रखा था. उन्होंने तो हमें वही दिया जो हमने उनसे माँगा. किसे पता था कि जिसे हम सुख समझ रहे हैं तो वो दुःख का बीज है. जिसे हमने अपने आनंद का कारण मान लिया था वो तो असल में शोक का थोथा आवरण था. सच तो यह है कि कामेच्छा के अंधे घोड़े पर सवार हम अपने विवेक की आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं. साई का दरबार तो खुला है. हमने उनसे माँग लिया तो हमें वो मिला जिसकी हमने इच्छा की. कभी पलट कर उनकी मर्ज़ी तो जानने की कोशिश भी नहीं की कि वो हमें क्या देना चाहते हैं. अगर उनकी ओर पहले देख लेते, कान उन्ही पर लगा लेते कि वो क्या कहना चाहते हैं तो दलदल की ओर पाँव मुड़ते ही नहीं. उनकी चलने ही कहाँ दी हमने? अगर उन पर ही छोड़ देते तो क्या कुछ नहीं मिलता! वो तो देने के लिए दरिया ले कर बैठे हैं और हमने उनसे चुल्लू भर पानी माँग लिया. वो तो चैन की नींद देना चाहते थे, हमने उनसे धन के बिस्तर पर जगराते माँग लिए. उन्हें तो हम मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारे में ढूंढते रहे लेकिन वो तो ठीक हमारी नज़रों के सामने थे. हम अपने आप में नहीं थे.

अब भी देर नहीं हुई है. वो अब हाथ बढ़ाते हैं. अपना हाथ बढ़ाते हुए साफ़ पानी में तैरते हम साई से अब भी तो कह सकते हैं कि बहुत हो गई हमारे मन की. अब तेरी मर्ज़ी से तू हमें चला. उसकी राह में कोई भूल नहीं, कोई छल नहीं. साई जब देने बैठे तो उसकी सहायता माँग लो. वो जो हम चाहते हैं लेकिन समझ नहीं पाते वो तो साई के ख़ज़ाने में सर्वदा सुलभ है. उसकी मान लेते तो कभी अकेले न पड़ते. वो तो सदा सहाय है. हम ही छद्म जीवन जीना चाहते थे. उसका हाथ तो सदा हमारे हाथ में था. हम ही छुड़ा कर भाग लिए थे. जब वो देता है तो मुँह से बरबस ही निकल पड़ता है क्या-क्या हम साई से माँगना चाहते थे और साई ने हमें क्या-क्या दे दिया है! यही उसकी सहायता है जो हमसे कभी भी दूर नहीं है.

इस वचन की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि यह हमें साई की सदा सहायता देने की प्रवृत्ति से रु-बरु करवाता है. हमारी लालच की वृत्ति को साई पूरा करें या न करें लेकिन जब भी हम साई से सहायता की गुहार लगाते हैं तो साई अवश्य ही सुनते है. वो सिर्फ़ सुनते ही नहीं हैं, वो सहायता कर अभयत्व भी प्रदान करते हैं. यह वचन बाबा कि सर्वव्यापकता से भी हमें परिचित कराता है. यह वचन बताता है कि जब भी हमें सहायता की ज़रूरत पड़ेगी, साई हमें कभी भी निर्श्रित छोड़ निराश नहीं होने देंगे. भला माँ कभी अपने बच्चों से दूर हुई है! साई तो हमारी माँ हैं. 



बाबा भली कर रहे..

श्री सद्गुरु साईनाथर्पणमस्तु. शुभं भवतु.