Tuesday, 30 April 2019

आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा नहीं है दूर



श्री साई अमृत कथा में माध्यम श्री सुमीत पोंदा ‘भाईजी’ साई बाबा के वचनों में से नौवें वचन कि व्याख्या करते हुए बताते हैं कि श्री साई बाबा का यह वचन – आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा नहीं है दूर –बाबा के कल्पद्रुम, मंशापूरण कल्पवृक्ष या कल्पतरु सरीखा होने का परिचायक है. यह किसी से नहीं छिपा है कि साई बाबा ने सशरीर रहते हुए तो सदा ही अपने भक्तों के दुःख दूर किये और, आज भी, जब वह सशरीर नहीं हैं तब भी, हम सभी की सुनते हैं और हमारे कष्टों का निवारण करते हैं.  आज भी वो हमारे मन की मुराद पूरी करते ही रहते हैं. हमारे होंठ हिलते भी नहीं कि बाबा हमारी मंशा पूरी कर देते हैं.

हमारे मन में सहज ही यह विचार कौंध जाते हैं कि यह कैसे संभव है कि वो परम, दिव्य आत्माएँ जिन्हें हम देवता या भगवान् अथवा सिद्ध पुरुष मानते हैं, हमारी मंशाएँ, इच्छाएँ पूरी कर देते हैं जबकि वो तो हमें दिखते भी नहीं हैं! जब वो हाड़-माँस में हैं ही नहीं तो यह कैसे संभव है कि वो हमारी मुरादें भी पूरी कर सकते हैं! यह विचार मन में सहज ही आ जाते हैं. कई बार जब मन की होने में समय लगता है तो उनके अस्तित्व पर भी संदेह यही भिक्षुक मन उठाता है. सच ही तो है. हमारी बुद्धि महत्त्व-बुद्धि है. जिस वस्तु में, अस्तित्व में हमें अपना स्वार्थ सिद्ध होता दिखाई पड़ेगा, उसी को हमारा मन स्वीकार कर महत्त्व देना शुरू कर देगा. इसके ठीक उलट, अगर हमारा स्वार्थ कहीं सिद्ध नहीं हो रहा है तो हम उस ओर देखेंगे भी नहीं. स्वार्थ जो करवा ले वो कम है.

ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि में कई सारी समय-रेखाएँ (time-line) समानांतर चल रही हैं. यह भौतिकी-शास्त्र का नियम है. हमें लगता है कि समय गुज़र रहा है लेकिन सच तो यह है कि उस चलायमान समय-रेखा पर हम खड़े रहते हैं. दृश्य बदल जाते हैं. साथी बदल जाते हैं. संगी बदल जाते हैं. परिस्थितयाँ बदल जाती हैं. हम गुज़र जाते हैं और फिर कहीं और, किसी अन्य समय रेखा पर अपने आप को पाते हैं. नए परिवेश में, नए लोगों के मध्य. नए रूप-रंग के साथ. नई योनी में. नया जन्म. पुनर्जन्म. यही सत्य है.

ऐसी ही समय-रेखा पर वो पवित्र और दिव्य आत्माएँ भी निरंतर बहती रहती है. मानव अवतार रूप में साई भी ईश्वर की समय-रेखा पर हैं और हमसे अभी इतनी दूर नहीं गए हैं कि उन तक हमारी आवाज़ पहुँचने में देर लगे. आख़िर समाधी लिए हुए उन्हें अभी समय ही कितना हुआ है! सौ साल और कुछ ऊपर. ईश्वर की अनंत समय-रेखा में तो यह काल धूल के एक कण के बराबर भी नहीं है. साई तो हमारे बहुत ही पास हैं. इतने पास कि इधर हम सोचते हैं और वो सुन लेते हैं. हमारा भाव भी एक ऊर्जा है. जब मानसिक वेग के साथ यह ऊर्जा हम किसी को भेजना चाहते हैं तो यह एक कंपन के रूप में सामने आती हैं. समय रेखाओं पर हमारे भाव का कंपन हमारे साई तक बहुत ही जल्द पहुँच जाता है. वही कंपन उन्हें झझकोर देता है. वो हमारी ओर देखते हैं. हमें महसूस भी होता है. उनकी टोह लेती नज़रों का हमें आभास भी होता है. हम उन्हें पुकारते हैं और वो सुन लेते हैं. वो भी पलट कर हमें सहायता दे देते हैं. भाव का वेग उन तक जल्द पहुँच जाता है.

फिर प्रश्न उठता है कि क्या हम सभी को इस परमतत्त्व की सहायता लेने की ज़रुरत पड़ती है?
  
ईश्वरीय राज्य का एक छोटा-सा भाग है यह पृथ्वी. उसके कुल अनंत सृजन का शायद सौंवा या फिर हज़ारवाँ या फिर लाखवाँ हिस्सा भी हो सकती है. वह तो सकल ब्रह्माण्ड का नायक है. उसकी इस अनुपम कृति का कितना भाग ही हमने देखा होगा! जो सारी दुनिया देखने का दावा भी करता है वह भी इस सृष्टि का एक कण ही है. अगर कभी हमने अंतरिक्ष में स्थापित उपग्रहों से खींचे पृथ्वी के चित्र देखे हों तो हमें समझ में आएगा कि कई हज़ारों मील ऊपर से लिए गए चित्र में तो पृथ्वी एक छोटे-से गोले सामान नज़र आती है और उस गोले में तमाम द्वीप, महाद्वीप, सागर, महासागर भी छोटे से कण सामान नज़र आते हैं. अगर हम अपने आप को उस चित्र में ढूँढने भी जाएँ तो शायद पेंसिल की नोक से बने एक छोटे से बिंदु से अधिक हम कुछ भी नहीं. यही हमारा सही वजूद, अस्तित्व है. यही सच्चाई है कि उस ईश्वर की परमसत्ता में हम तो बहुत ही छोटे हैं. इस सच्चाई को अनदेखा कर अपने अहंकार के चलते हम तो अपने आप को सर्वशक्तिमान मान कर चलते हैं जो कभी ख़त्म होंगे ही नहीं. भूल जाते हैं कि एक साँस की देर है. ‘है’ ‘था’ बन जाता है. नाम भी छिन जाता है. हम भी अपने आप से दूर हो जाते हैं. गुरूर तो राख बन कर उड़ जाता है. मिट्टी फिर मिट्टी बन जाती है. अनंत में खो जाती है. ईश्वर की समय-रेखा पर हम क्षणिक हैं. बस यही स्थाई सच्चाई है. जब हम क्षणिक हैं तो हमारा जलवा, अहंकार, धन-दौलत, संपत्ति-विपत्ति, परिवार सभी कुछ क्षणिक है. जब तक हम हैं, हमें इनके होने का भ्रम रहता है. समय साक्षी है कि या तो हम उन्हें छोड़ चलेंगे या वो हमें छोड़ देंगे. इसी मिलने-बिछड़ने के क्रम में सभी को सहायता की ज़रुरत पड़ती है. कोई न कोई इच्छाएँ अपूर्ण रह जाती है. इनसे दुःख उत्पन्न होता है. जिनको हमने अपना सहारा माना था वो तो अब कोई भी नहीं हैं. समय-रेखा के इस नए मुक़ाम पर तो हम एकदम अकेले हैं. सहारे छिन जाने पर अकेलापन महसूस होता है. आवाज़ देते हैं पर कोई सुनता नहीं तो कोई सुन कर अनसुना कर देता है. इस दुनिया में हर कोई कभी न कभी तो ऐसे मुक़ाम पर पहुँचता है जब कोई साथ देने वाला या मदद करने वाला उसके पास नहीं होता. नितांत अँधेरा. हाथ को हाथ नहीं सूझता. सभी को कभी न कभी सहारे की ज़रुरत तो पड़ती ही है.

क्यों हमें सहायता की आवश्यकता पड़ती है? हम सभी जानते हैं कि हम सभी अपने पुराने संचित कर्मों के अधीन रहते हैं. यही चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने किये हुए कर्म हमें नियंत्रित करते हैं और इन्हीं कर्मों का फल हमारे प्रारब्ध को निर्मित करता है. इन्हीं कर्मों का यह फल हमें एक निश्चित दिशा में धकेल देता है – उस राह पर, जिस पर हमें स्वयं ही समझ नहीं आता कि हम ख़ुद-ब-ख़ुद कैसे चल निकलते हैं. इसी राह पर चलते-चलते और अपने किये हुए कर्मों का अच्छा-बुरा फल भोगते हुए जब हम ऐसी परिस्थिति में फँस जाते हैं कि हमें कोई राह न सूझ पड़े तो हम रुक जाते हैं, अटक जाते हैं. कर्मों के फल स्वरुप कुछ परिस्थितियाँ ऐसी निर्मित हो जाती हैं कि हमें कुछ भी सूझ नहीं पड़ता. इनसे पार पाना हमें सहज ही नहीं सूझता! दुनिया में बहुत कुछ है जो हमारी सहज बुद्धि और पराक्रम से बहुत परे है. ऐसी जगहों पर पहुँच कर हमारी बिद्धि और इच्छाशक्ति भी जवाब दे देते हैं. सोच पर पड़े परदे से आगे की राह में अँधेरा छा जाता है. ऐसी परिस्थिति दलदल के समान होती है. जितने भी हम हाथ-पैर चलाते हैं, उतने ही इस दलदल में धँसते जाते हैं. साँस फूलने लगती है, हाथ-पैर भारी हो जाते हैं. इच्छा होती है कि इनको काट कर फ़ेंक दें. शायद तब फिर दलदल से निकलने का कोई रास्ता मिल जाए. लेकिन न तो हाथ-पैर हम काट सकते हैं क्योंकि वही तो वो इच्छाएँ हैं जिनसे परे हो पाना हमारे लिए संभव नहीं होता है. निढाल हो जाते हैं. दंभ कभी का पीछे छूट चुका होता है. अहंकार चूर हो चुका होता है. अभिमान का सिर झुका होता है. रह जाते हैं सिर्फ़ हम. निढाल. असहाय. अब तो इंतज़ार है कि कब यह दलदल हमें निगल जाए और हम उसके अंदर डूब जाएँ. वो भी नहीं होता. दलदल अंदर खींचता है तो उखड़ती साँसें फिर जोर मारने लगती हैं. आशा की किरण डूबने भी तो नहीं देती. साई की याद ऐसे ही क्षणों में आती है. जब कोई नहीं आता, मेरे साई आते हैं. समय-रेखा पर उनको हमारी आवाज़, हमारे भाव का कंपन  सुनाई दे जाता है. वो पलटते हैं, दलदल के किनारे आ कर खड़े हो जाते हैं. अपनी करुणामयी आँखों से हमें देखते हैं. मानो पूछ रहे हों कि हमने अपना ये हाल क्यों कर दिया. उनकी आँखों से बहता करुणा का झरना हमारे तमाम सवालों का जवाब हमारे अंदर से ही निकालता है. हमारी आँखों से जवाब के रूप में वही झरना बह निकलता है. झरने से झरना मिलता है. दरिया बन जाता है. करुणा का हस्तांतरण हो जाता है. दलदल की कीचड़ से सने हम यह महसूस भी नहीं कर पाते कि हम तो कब के साई की उस करुणा के साफ़ पानी में तैरने लगे हैं. जब अहसास होता है तो महसूस होने लगता है कि दलदल में तो हम व्यर्थ ही गए. जब कर्मों के अधीन हम उनके सम्मोहन में बंधे हुए झूठ और फरेब के रास्ते पर चलते जा रहे थे तो क्यों तब हमने साई से मदद नहीं माँगी. तब क्यों हमने उनके नाम की गुहार नहीं लगाई? क्यों हम व्यर्थ से आकर्षणों के मोहपाश में फँसे चलते गए? तब क्या हमारे पास कोई और रास्ता नहीं था? क्यों हम अहंकार और मोह-माया के छद्म, मायावी और अस्थाई आवरण को ओढने के पीछे भाग रहे थे? फिर हम जवाब दते हैं कि क्या तब साई आस-पास नहीं थे जो वो हमें रोक लेते? वो तो थे. ठीक वहीं पर जहाँ आज हैं लेकिन हम ही ने तो उनको अनदेखा कर दिया. हम ही ने तो उनकी नहीं सुनी. हम ही ने तो उन्हें मात्र अपनी इच्छापूर्ति का माध्यम समझ रखा था. उन्होंने तो हमें वही दिया जो हमने उनसे माँगा. किसे पता था कि जिसे हम सुख समझ रहे हैं तो वो दुःख का बीज है. जिसे हमने अपने आनंद का कारण मान लिया था वो तो असल में शोक का थोथा आवरण था. सच तो यह है कि कामेच्छा के अंधे घोड़े पर सवार हम अपने विवेक की आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं. साई का दरबार तो खुला है. हमने उनसे माँग लिया तो हमें वो मिला जिसकी हमने इच्छा की. कभी पलट कर उनकी मर्ज़ी तो जानने की कोशिश भी नहीं की कि वो हमें क्या देना चाहते हैं. अगर उनकी ओर पहले देख लेते, कान उन्ही पर लगा लेते कि वो क्या कहना चाहते हैं तो दलदल की ओर पाँव मुड़ते ही नहीं. उनकी चलने ही कहाँ दी हमने? अगर उन पर ही छोड़ देते तो क्या कुछ नहीं मिलता! वो तो देने के लिए दरिया ले कर बैठे हैं और हमने उनसे चुल्लू भर पानी माँग लिया. वो तो चैन की नींद देना चाहते थे, हमने उनसे धन के बिस्तर पर जगराते माँग लिए. उन्हें तो हम मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारे में ढूंढते रहे लेकिन वो तो ठीक हमारी नज़रों के सामने थे. हम अपने आप में नहीं थे.

अब भी देर नहीं हुई है. वो अब हाथ बढ़ाते हैं. अपना हाथ बढ़ाते हुए साफ़ पानी में तैरते हम साई से अब भी तो कह सकते हैं कि बहुत हो गई हमारे मन की. अब तेरी मर्ज़ी से तू हमें चला. उसकी राह में कोई भूल नहीं, कोई छल नहीं. साई जब देने बैठे तो उसकी सहायता माँग लो. वो जो हम चाहते हैं लेकिन समझ नहीं पाते वो तो साई के ख़ज़ाने में सर्वदा सुलभ है. उसकी मान लेते तो कभी अकेले न पड़ते. वो तो सदा सहाय है. हम ही छद्म जीवन जीना चाहते थे. उसका हाथ तो सदा हमारे हाथ में था. हम ही छुड़ा कर भाग लिए थे. जब वो देता है तो मुँह से बरबस ही निकल पड़ता है क्या-क्या हम साई से माँगना चाहते थे और साई ने हमें क्या-क्या दे दिया है! यही उसकी सहायता है जो हमसे कभी भी दूर नहीं है.

इस वचन की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि यह हमें साई की सदा सहायता देने की प्रवृत्ति से रु-बरु करवाता है. हमारी लालच की वृत्ति को साई पूरा करें या न करें लेकिन जब भी हम साई से सहायता की गुहार लगाते हैं तो साई अवश्य ही सुनते है. वो सिर्फ़ सुनते ही नहीं हैं, वो सहायता कर अभयत्व भी प्रदान करते हैं. यह वचन बाबा कि सर्वव्यापकता से भी हमें परिचित कराता है. यह वचन बताता है कि जब भी हमें सहायता की ज़रूरत पड़ेगी, साई हमें कभी भी निर्श्रित छोड़ निराश नहीं होने देंगे. भला माँ कभी अपने बच्चों से दूर हुई है! साई तो हमारी माँ हैं. 



बाबा भली कर रहे..

श्री सद्गुरु साईनाथर्पणमस्तु. शुभं भवतु.




Monday, 4 September 2017

Towards the Treasury of Sai


-          With the permission of Sai, Sumeet Ponda

Lest we see miracles, we don’t bow down. Till such time that we witness or experience an impossibility turning in to a possibility, we actually don’t believe. Same is the case with our belief in Sai. The miracles that Sai performs make ordinary people turn into devotees who, in turn, queue up for kilometres and hours together for a glimpse of the Saint-deity, carved into life in exotic white Italian marble, at His Samadhi in bustling Shirdi. Usually, miracle is the link that binds ordinary innocent people to Sai. Similar visuals can be seen outside numerous Sai Baba Temples that have flourished in various corners, not only in India but even in far flung Nations.
People line up with offerings including garlands, incense sticks, offerings, prasad, etc. in their hands and tonnes of wishes, desires and greed in their hearts to win over the nonchalant Faqir. They want the World at their feet. Their wish list includes power, money, name, children and their welfare, marriage, property and everything that they can imagine for a luxurious, comfortable life. No wonder there may be a few who would want to avenge an offence or level scores or even want downfall of some other person. For most, Sai is a wish-fulfilling deity. They know, they are sure, that Sai will never return them empty-handed. Sai unfailingly listens and readily responds to the cries because, on the infinite time-line, He hasn’t even gone away a hundred years from us. I know, from my experience, that Sai never grants negative desires but He does grant all material wishes according to our Karma-balance. I also understand that once one takes refuge in the realm of Sai, all previous and future Karmas fall into a semblance.  
We ask from Him, and He, with good grace, grants. Our demands keep increasing but His treasure never falls short. But is this the only treasure Sai has? Is this all that’s to Sai. In Shree Sai Sachcharitra, Sai mentions too:  My Sircar says, "Take, take," but everybody comes to me and says 'Give, give.' Nobody attends carefully to the meaning of what I say. My Sircar's treasury (spiritual wealth) is full, it is overflowing. I say, "Dig out and take away this wealth in cartloads, the blessed son of a true mother should fill himself with this wealth. The skill of my Faqir, the Leela of my Bhagwan, the aptitude of my Sircar is quite unique. What about Me? Body (earth) will mix with earth, breath with air. This time won't come again. I go somewhere, sit somewhere; the hard Maya troubles Me much, still I feel always anxiety for My men. He who does anything (spiritual endeavour) will reap its fruit and he who remembers these words of Mine will get invaluable happiness."

Who cares? We all are so blindingly in pursuit of illusions that we simply pretend to overlook the unending treasury of Sai in pursuit of something that’s perishable, because as again in Shree Sai Sachcharitra, Sai Baba says, What My Sircar (God) gives, lasts to the end of time. No other gift from any man can be compared to His. In our chase for materialistic wealth, we decide to forget that whatever God gives us, is permanent in nature; What God wills for us, will stay forever while all that is created and gifted by fragile human beings, will not last and if our happiness is dependent on it, it too will vanish. Sai wants us to rise spiritually so that we become useful for others and at the same time, we add value to our existence and justify our endeavour on this planet wherein we are given an invaluable mortal coil. Whatever enhancement we make here will offset all our previous negative Karmas and help us create a better destiny in future lives. We still ignore.
The never-ending rat-race for money and material comforts starts taking a huge toll by way of enticing never-ending tensions. One subsides and the other is ready to pop-up. The greed of having, acquiring and accumulating more and more robs us of minor, yet important pleasures of life. A smile becomes a rarity. The complexity of relations and the pressure to maintain them while trying to keep everyone happy taxes heavily. The self-created paucity of time actually disorganises us big way. We are always gasping for breath while we try to make ends meet.
Nothing seems to be in order – we, our house and our work. There is commotion everywhere. The numerous channels on the television fail to entertain. The books that taught us values collect dust in the crafted mahogany shelf. The information onslaught by various media is beyond the realms of our brains’ processing capabilities. Nothing stays in the clutter. The relations stored in a mobile transform us into islands. We are left aloof and alone. Emotionally broken! The fluffy, comfortable bed is devoid of sleep. The sleeping pills are ineffective and so are anti-depressants. It is a vacuum that blaringly looks in our eyes. We become irritable. We make issues out of nothing. We act like a frustrated person who finds happiness nowhere. We rake up fights deliberately. Perhaps, that gives us more solace than staying calm. We want to win. Our anger finds a vent on the weak. The burden to show-off, in order to make us socially acceptable, makes us a portable brand store. We want to flaunt them even if they are a first copy of the original. There’s nothing original left in us. Values, characters, nature and form, all have mutilated. At times, even the mirror in front of us lies. Scared, we close our eyes because we are not able to look at our own selves. And when we close our eyes, an invisible tear rolls out. Invisible, because we don’t want others to see us break-down!
Groping in the dark, broken, we look for recourse, a resort, a support. Our insecurity and the fear of rejection don’t allow us to open up even to our confidantes, including our family and friends. A deep chasm stares at us. Then suddenly, we find a strange force pulling us towards it. That force caresses us, consoles us and cajoles us. We burst into tears. A lava of pent up emotions stats flowing. While we stare at the infinite insecurity, Sai caresses us. He creates this whirlpool of happenings and events, this turmoil only to make us realise that we are treading the wrong path and Sai, with open arms, is waiting for us – to hold us and take us on the right path. Provided we are willing.
   
 Another miracle, albeit of a different nature, is about to unfold. Sai starts pulling us. In fact, Sai has a unique way of pulling His devotees like one pulls a sparrow tied from feet by a tender thread. He has a distinctive method of putting people on the path of reformation. Sai is a true reformist. He changes people without punishing them. He changes people with love, compassion, empathy, kindness, forgiveness and joy. He changes us with His love. The tears of helplessness now become tears of joy. Ecstasy fills us to the brim. We become calm and relaxed. The jitters of insecurity turn into a strong feeling of security. Sai replaces remorse with recrafting, guilt with retracing. From being irritable, we become relaxed; our howling vanishes into whispers; the ill-temper turns into warmth; selfishness vanishes and we begin to offer helping hands.
Sai retracts us and puts us on the right path, the path He always wanted us to be on. He ensures that we reach the pinnacle of our spiritual path, His treasury without any further hiccups. Another miracle has happened.

Baba bhalii kar rahe..
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Thursday, 10 August 2017

साई बाबा का आठवां वचन


भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
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श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से आठवें वचन के बारे में बताते हुएभाईजीसुमीतभाई पोंदा बताते हैं कि बाबा का यह आठवां वचन भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा साई के वचनों की सत्यता का बोध कराता है. साई ने मस्जिद में बैठ कर कहा भी तो है कि उनके वचन हमेशा सत्य होते हैं, कोई थोथे-पोचे नहीं. साई हमारा भार लेने को तैयार हैं. सवाल उठता है कि क्या हम अपना भार उन्हें देने को तैयार हैं? क्या हम अपना भार छोड़ने का मन बना चुके हैं? क्या हम अपने भार के बिना जीने को तैयार हैं? जब इन प्रश्नों के सही-सही उत्तर हम स्वयं को देने को तैयार हो जायेंगे तो हमारा भार भी हम साई के चरणों में छोड़ पाएंगे.

क्या है हमारा यह भार? जब हम पैदा होते हैं तब हम शून्य अवस्था में होते हैं. शून्यता से ही आते हैं. यही शून्यता हमें खींचती है. जीवन के अंत में हम फिर एक शून्य की ओर बढ़ जाते हैं. शून्यता से शून्यता के सफ़र का नाम ही जीवन है लेकिन हम इस सफ़र में शून्यता के भाव को भूल कर भार उठाना शुरू कर देते हैं. भार ममता का, अहंकार का, बैर-भाव का, अपमान का, क्रोध का. बस! इसी भार को इकठ्ठा करते रहते हैं और जीवन भर इसी भार को लिए चलते जाते हैं. यही भार हमें सालता है, दबाता है. हमारी सांस फूल जाती है. हिम्मत जवाब दे जाती है. लेकिन यह भार है कि कम होने की जगह बढ़ता ही जाता है. इकठ्ठा करने की आदत जो होती है हमें. इसी भार को ढोने की जुगत में हम अपना जीवन जीना भूल जाते हैं. सिर्फ़ साँसें चलती रहती हैं.
शून्यता के अहसास से शुरू हुए बचपन में हम बिना कारण के ही ख़ुश रह लेते थे, हँसते थे और इसी हँसी से अपनों को ख़ुशी भी देते थे. नींद में मुस्कुराते थे तो बड़े कहते थे कि भगवान् से बात कर रहे हैं. भोले-भाले से हम. भोलापन इसी शून्यता की देन था. सभी से दोस्ती. बैर को तो जानते भी न थे. किसी को नुकसान पहुंचाने की सोच भी नहीं सकते थे. अगर ग़लती से किसी को हमारी बात बुरी लग भी जाती तो बिना किसी लाग-लपेट के माफ़ी भी माँग लेते थे. कभी-कभी तो कान पकड़ कर भी! किसी भी बात का बुरा न लगता और अगर लगता भी तो किसी के ज़रा से फुसलाने भर से फिर मुस्कुरा उठते. धोखा देना किसे कहते हैं यह पता भी न था. किसी के भी साथ खेलने लगते. पल में हार जाते तो दूसरे ही दाँव में थोड़ी-से मासूम बेईमानी से फिर जीत जाते. खेल को खेल ही समझते. हार में भी ख़ुश और जीत में भी. थक जाने से नींद आती थी. छोटी-छोटी ज़रूरतें..जिनको पूरा करने में कोई परेशानी नहीं होती थी. न बुराई लेते और न देते. किसी की भी सुन लेते थे. हिसाब नहीं सिर्फ़ किताबों से वास्ता था. हिसाब का तो दूर-दूर तक पता नहीं था. न मान का मान और न ही अपमान का दंश. यही शून्यता होती है. जहाँ सब बराबर होता है, सब बराबर होते हैं. यही हमारा स्वरुप होता है. बिलकुल पानी की तरह. जहाँ हो बह चले. जो चाहा आकार ले लिया. अपनी जगह बना ली. हर जगह समा जाते.
फिर बड़े होने लगते हैं. सपनों में आने वाला भगवान् न जाने कहाँ खो जाता है. उसकी जगह ख़्वाहिशों से भर जाती है. जब भारी हो जाती हैं तो यही ख़्वाहिशें सपनों से बाहर निकल कर नींद उड़ाने लगती हैं. अब नींद में भगवान् नहीं मिलते हैं तो उनसे बात नहीं हो पाती. आँखें भारी हो जाती हैं लेकिन उन आँखों में नींद कहाँ? नींद ही न हो तो फिर नींद में हँसी कहाँ! हँसी आने को वजह मांगती है और वजह मिल जाए तो जगह नहीं मिलती. जगह मिल जाए तो साथ नहीं मिलता. अकेले हँसे तो लोग पागल समझेंगे, यही भाव मन में समा जाता है. अब भाव को निकलने को जगह तो चाहिए. हँसी नहीं तो ग़ुस्सा ही सही. बात-बात पर खीजने लगते हैं. चिढ़चिढे हो जाते हैं. बचपन का भोलापन बहुत पीछे कहीं छूट जाता है. इसी के साथ दोस्त-नातेदार भी पीछे छूट जाते हैं. सफ़र अकेले तय करने का भार साथ ले लेते हैं. अपनी दुःख-तकलीफ़ किससे बांटे? कोई बचा ही नहीं. हर कोई अपने भार की गठरी उठाये अकेला ही तो चलता, हांफता मिलता है. अकेले ही ख़ुद का भार उठाना पड़ता है.
खेलते अब भी हैं लेकिन दाँव इतने बड़े हो गए होते हैं कि अब हार पचती नहीं. हार हरा देती है. हार के दौर में जीत की चाहत का भार उठाना कठिन होता है. इसी चाहत का भार अब बेईमानी के रास्ते पर ले जाता है. मासूमियत खो चुकी है. जानबूझ कर की हुई बेईमानी की ग्लानि का अपना भार इतना अधिक होता है कि अपने आप से चिढ़ होने लगती है. अब तो चिढ़ का भार भी उठाना पड़ता है.
छोटी-छोटी बातों पर बुरा मानने लगते हैं. किसी के किये छोटे-से मज़ाक का बुरा मान जाते हैं. मनाने पर आसानी से मानते भी नहीं. माफ़ करना मुश्किल लगने लगता है और इसीलिए भार में रहते हैं.  जीवन में छोटी-छोटी बातों पर आनंद लेना भूल से जाते हैं. इसी में रिश्तों को भूल जाते हैं. अपनी ग़लती मानते नहीं और मान भी लें तो माफ़ी माँगना छोटेपन का अहसास कराता है. माफ़ी मांगने को दिल तो करता है लेकिन अहंकार का भाव आड़े आ जाता है. परनिंदा में आनंद आने लगता है. इसी में अपनी जीत का अहसास करने लगते हैं. यह अहसास थोथा ही सही लेकिन भारी होता है.
कितने ही भार अपने ऊपर लिए चलते जाते हैं. लेकिन भार लेकर कितनी दूर चल पाते हैं! थक जाते हैं. टूट जाते हैं. हताश हो जाते हैं. निराशा घेर लेती है. अवसाद मन में बैठ जाता है. किसी से बात करने को दिल नहीं करता. अकेले से एक द्वीप समान हो जाते हैं. सबसे अलग-थलग. मन रोता है लेकिन आँसू आँखों के ख़ाली भंवर में कहीं गुम हो जाते हैं. सब कुछ छोड़ देने कि इच्छा होती है लेकिन हिम्मत साथ नहीं देती. दिन में भी अँधेरा छा जाता है. भंवर में सहेज कर रखे आंसूं सूखे थोड़े ही थे. अब उबलते हैं और आँखों की पोर में भर जाते हैं. दिखना बंद हो जाता है. ठोकरें खाते हुए, ठौर को ढूंढते-ढूंढते साई के चरणों पर हाथ चला जाता है. गिरते हुए वही थाम लेता है. उसको पुकारो तो सही. दिल से.

साई के पैरों पर सिर रख कर जब सच्चे दिल से इस अँधेरे से मुक्ति की चाह व्यक्त करते हैं तो साई धीरे-से अपना हाथ हमारे सर पर रखते हैं. कान में धीरे फुसफुसाते हैं कि अपना भार मुझ पर छोड़ दो. हमारा भार साई ले लेते हैं. हम बदलने लगते हैं. पोर में जमे आँसूं का झरना बह निकलता है और उसके साथ ही हमारे सारे भार भी पिघलने लगते हैं. किसी सालों पुराने हिमखण्ड के समान. सैलाब आ जाता है. सारे भार बह निकलते हैं. अपनी की हुई ग़लतियों का अहसास होने लगता है. अपनों से माफ़ी माँगने में अब झिझक नहीं होती. कहा-सुना माफ़ करना भी मुश्किल नहीं लगता. जानते तो थे कि न जाने कौन-सी साँस आखिरी हो लेकिन अब मानने भी लगते हैं. न जाने कितना वक़्त बचा है! अब कौन लड़े दुनिया से? दुनिया की नसीहत, जो अब तक सिर्फ़ दूसरों को देते थे, पर अमल करने का दिल चाहता है. फिर बच्चा बनने को दिल मचल उठता है. हँसी एकदम से तो नहीं आती लेकिन अधरों का सूखा रेगिस्तान मुस्कान की हरियाली से लहलहा उठता है. मासूमियत भी एकदम से नहीं आती लेकिन इमानदारी लौटती राह पर फिर बांहें फैलाए खड़ी मिलती है. बात-बात पर झल्ला उठने वाले हम अब सम्हल कर बात करने लगते हैं. स्वार्थ कब परमार्थ में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता. निंदा का स्वरुप भी बदल जाता है. अब निंदा किसी की बुराई का बखान नहीं, किसी में सुधार के लिए करते हैं. अपनी निंदा पर तो अब सिर्फ़ मुस्कुरा देते हैं. मानो दिल को अब ये पता है कि शब्दों के बाण से कैसे बचना है. लड़खड़ाते पैरों में नई लचक आ जाती है. बुझती आँखों के दिए जगमगाने लगते हैं. नींद बिना किसी दवाई के आने लगती है. चैन लौट आता है और सपनों में भगवान् से मुलाकातें भी. अब कोई कैसे मुस्काए बिना रह सकता है? शून्यता का सफ़र फिर शुरू हो चुका है. साई का वचन भी शून्य की तरह अनंत सत्य है, झूठा नहीं.

बाबा भली कर रहे।।

                      श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु
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Saturday, 24 June 2017

आत्म-मंथन से ही निकलेगा संतत्व का रास्ता

साधु-संत और हम जैसे आम लोगों में अंतर क्या है? नि:संदेह कइयों का उत्तर होगा कि, साधु-संत ईश्वर की भक्ति में ज्यादा लीन रहते हैं, सांसारिक माया-मोह से दूर रहते हैं और भौतिक सुख-साधनों से परे होते हैं! लेकिन क्या यह अंतर ही पर्याप्त या सटीक है?

बिलकुल नहीं, क्योंकि यह तो ऊपरी तौर पर दिखने वाली चीजें हैं। सतही बातें हैं। आम आदमी भी समय-समय पर इन सबसे दूर रहता है। उदाहरण के तौर पर नवरात्रि को ही लीजिए! कई लोग नवरात्रि पर जूते-चप्पल त्याग देते हैं। पूरे 9 दिन नंगे पैर चलते हैं। पूरे नौ दिन सात्विक और एकदम साधारण भोजन करते हैं। कई तो उपवास करते हैं और सिर्फ फलाहार या साबुदाने की खिचड़ी जैसा आहार लेते ग्रहण करते हैं। सुबह-शाम देवी की स्तुति में बिताते हैं। तो इसका मतलब तो यह हुआ कि नवरात्रि में किया गया यह जतन किसी भी व्यक्ति को साधु-संतों के तुल्य बना सकता है? बिलकुल नहीं। यह तो महज एक अच्छा इंसान बनने की दिशा में एक छोटी-सी पहल कही जा सकती है। लम्बे से जीवन में कुछ सधे हुए, छोटे से कदम।

साधु-संत तो उस उपग्रह की तरह होते हैं, तो सफलतापूर्वक दूसरों से ऊपर स्थापित हो चुके होते हैं। उन्हें अपने मन के नेत्र से समूची दुनिया स्पष्ट दिखाई देने लगती है। कहाँ, क्या है, कैसा है, क्या करना ठीक है और क्या करना सही नहीं, वे भली-भांति जान-समझ लेते हैं। उनका विवेक जागृत हो चुका होता है। दुनिया को वे हमसे बेहतर समझते और जानते हैं। अगर आम भाषा में, समझ में आने वाले शब्दों में बात करें तो साधु वह होता है जो स्वयं को साध चुका है, जिसे भगवान् किसी भी अन्य से अधिक प्रिय होते हैं। संत इनसे कुछ आगे होते हैं। जो अपनी इच्छाओं के साथ उनका अंत भी साथ में ले कर चलते हैं वो संत कहलाते हैं। ये भगवान् को किसी भी अन्य से अधिक प्यारे होते हैं। सृष्टि में यह भगवान् का स्वरुप ले उनके दूत, सद्गुरू के रूप में अवतरित होते हैं।

दरअसल, साधु-संत और हम जैसे आम व्यक्ति का सबसे बड़ा फर्क है काम-क्रोध-मद और लोभ से उपजे अहंकार के त्याग का। एक साधु बनने की प्रक्रिया भी इन चार चरणों से शुरू होती है। सबसे पहले तो काम का त्याग करना पड़ता है। काम यानी वासना। वासना के कई प्रकार होते हैं। यह धन-दौलत के प्रति भी हो सकती है, ख़ुद को श्रेष्ठ साबित करने की भी और स्त्री के प्रति भी। अगर ध्यान से देखा जाए तो विश्व में हो रहे तमाम अपराधों की जड़ में अर्थ यानि धन और कामिनी यानि स्त्री के प्रति वासना के चलते ही हो रहे हैं। इसे त्यागना संतत्व की ओर पहला कदम बढाने जैसा है। जब मन के कोने में बैठा काम निर्वासित हो जाता है, तो अपने आप मद यानी पैसे का मोह भी चला जाता है। जब कोई काम और पैसे से विरक्ति पा लेता है, तो उसके जीवन में लोभ कोई महत्व नहीं रह जाता है। भला जब ये तीनों आदतों का जीवन में कोई महत्व नहीं रहेगा, तो क्रोध आना नामुमकिन है। इन चारों पर फतह पाना वाला साधु हो जाता है। आमतौर पर हम ऐसा नहीं कर पाते। क्योंकि हम गृहस्थ जीवन में जी रहे होते हैं। लिहाजा बाबा ने इन चारों के बीच रहते हुए भी खुद को बेहतर इंसान बनाने के कई नुस्खे सिखाए हैं।

भगवान इंद्र की एक कथा तो आप सभी को पता ही होगी। देवराज इंद्र एक दिन ऋषि दुर्वासा के पास गए। ऋषि ने उनके स्वागत-सम्मान के लिए उनके गले में हार पहनाया। इंद्र ने ऋषि दुर्वासा के सामने यह साबित करने के लिए कि अब उनमें अहंकार नहीं रहा, वह हार अपने हाथी को पहना दिया। इंद्र का मानना था कि अगर हाथी ने वह हार गिरा दिया, तो समझ आ जाएगा कि उनमें अभी अहंकार शेष है। हालांकि इंद्र ने यह बात दुर्वासा को नहीं बताई, बल्कि अपने मन में रखी। दुर्वासा उनके मनोभाव को नहीं समझ पाएलेकिन उन्होंने देवराज इंद्र को वह हार हाथी को पहनाते हुए देख लिया। जाहिर सी बात है कि इस तरह की सोच भी अहंकार का ही पर्याय है। बहरहाल, हाथी ने अगले ही क्षण अपनी गर्दन हिलाकर वह हार नीचे गिरा दिया। इंद्र समझ गए कि वे अभी अहंकार से मुक्त नहीं हुए हैं। चूंकि ऋषि दुर्वासा को इसका पता नहीं था, लिहाजा वे इंद्र के इस अजीब बर्ताव से  कुपित हो गए। उन्होंने श्राप दे डाला कि देवताओं की शक्ति क्षीण हो जाए और सचमुच में देवताओं की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होने लगी। दैत्यों-दानवों के मामूली पराक्रम के आगे देव हारने लगे। देवों में हाहाकार मचने लगा। सब के सब भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे।


भगवान विष्णु ठहरे अंतरयामी, ब्रह्मांड की हरेक घटना के जनक। भला उनकी आज्ञा के बगैर कभी कुछ हुआ है। दरअसल, यह सब विष्णु भगवान ने ही रचा था। इसके पीछे अमृत-मंथन की पृष्ठभूमि तैयार करना था। खैरउन्होंने  देवों को सुझाया कि वे दैत्यों-दानवों के संग मिलकर समुद्र-मंथन करें। इससे अमृत और विष निकलेगा। जिसके हिस्से में जो आएगा, वो उसकी किस्मत होगा और वही श्रेष्ठ होगा। अमृत पीने वाला अमर हो जाएगा और जिसके खाते में विष आएगा, वो सदैव नश्वर देह में जन्मेगा।

अमर होने की चाह हम सब में सदियों से है। चाहे वह मनुष्य होदेव हो या दानव हो। अमृत पाने के लोभ में सब एक हो गए। समुद्र मंथन के लिए मंदार पर्वत को धुरी बनाया गया और शेषनाग को मंथने के लिए रस्सी जैसा रूप दिया गया। मंथन के दौरान जब सबके भार से मंदार पर्वत डूबने लगा, तो भगवान विष्णु ने कछुए का रूप लिया। और अपनी पीठ पर उस मंदार पर्वत को झेल लिया यानी उठा लिया। यानी हम कितने भी बलशाली हो जाएं, अमृत पीकर अमरत्व को प्राप्त कर लें, लेकिन हमारा बोझ उठाने वाला तो सिर्फ एक ही है, वो है ईश्वर। ईश्वर की पीठ पर ही मन मथने का मौका मिलता है।

शिरडी में भी जब हम द्वारका माई मस्जिद में जाते हैं, तो वहां पर एक कछुए का प्रतीक दिखाई देता है। यह कछुआ प्रतीक है भक्ति और शक्ति का। कछुआ सारे अंग अपनी खोल के अंदर समेट लेता है। अपनी गर्दन, अपने चारों पैर सब उसके कठोर, पत्थरनुमा खोल के नीचे आ जाते हैं। ऐसे ही हमारी भक्ति भी होनी चाहिए कि हम सारे द्वेषअहंकारआवेश भूलकर भक्ति में लीन हो जाएं। इस तरह कछुआ भक्ति का प्रतीक है। यह शक्ति का प्रतीक है। जब सारे विकारों पर हम काबू पा लेते हैं, तब हमारा कठोर निर्णय या दृढ़संकल्प हमें हर बुराई से बचाता है। कछुआ भी संत ही है।

श्री साई सतचरित्र में भी कछुए का उल्लेख आता है। एक बार खाशाबा देशमुख की माँ, राधाबाई देशमुख गुरुमंत्र मांगने साई के पास आईं और गुरुमंत्र n मिलने तक अनशन की हठ ले कर बैठ गईं। साई ने उनसे कहा कि उनकी प्रणाली में गुरुमंत्र देने की प्ररम्परा है ही नहीं। उनके न मानने पर बाबा ने उन्हें अपने गुरु के बारे में बताया। कैसे उनके गुरु ने उनका शिष्यत्व स्वीकार करते ही उनका सिर मूंड कर उनसे दो पैसों की दक्षिणा मांगी। अपने गुरु के संग साई बाबा स्वयं बारह वर्षों तक रहे। उनके गुरु उनसे बहुत प्रेम करते। वे कहने लगे कि उनके गुरु जब सामने बैठे होते, तो वे कछुए की भांति उन्हें निहारते जो नदी के दूसरे किनारे पर भी अगर हो तो सिर्फ़ अपनी आँखों से उनको प्रेम से पालती। साई केवल उनकी आंखों को पढ़कर इस बात का अनुमान लगा लेते कि गुरु उनसे क्या कहना चाहते हैं। उनके गुरु कछुए-से प्रतीत होते, जिन्होंने अपने सारे विकार अपनी दृढ इच्छाशक्ति के बूते काबू में कर लिए थे। गुरुमंत्र यही है कि आप गुरु से कुछ मांगने की इच्छा लेकर न जाएं। उन्हें देखें कि वे अपना जीवन कैसे संवारते हैं, जीते हैं। कैसे अपने दुर्गुणों पर काबू पाते हैं। कोई भी गुरुमंत्र पूछने या मांगने पर नहीं मिलता। यह तो एक ऊर्जा की तरह है, आप जितना सामने वाले से सीखेंगे, महसूस करेंगे उतना आपको प्राप्त होगी। अपने गुरु के प्रति अखंड निष्ठा और धैर्य ही किसी के भी आंतरिक विकास की मूढ़ी है। यही गुरु को दी जाने वाली सर्वोच्च दक्षिणा है और यही गुरु से पाने का मंत्र भी। इसी मंत्र को श्रद्धा और सबुरी भी कहा जाता है।

कछुआ लंबी उम्र का भी प्रतीक है। लंबी उम्र तभी नसीब होती है, जब हम समस्त विकारों से परे हो जाते हैं। दरअसल, विकार हमारे अंदर की ऊर्जा का क्षय करते हैं। ऊर्जा का क्षरण सांसों से जुड़ा है। सांसें कम होंगी, असंतुलित होंगी, ता निश्चय है हमारी उम्र कम होगी। जब हम ईश्वर की भक्ति में डूबते हैं और मन के सारे विकार-दोष धुल जाते हैं। हमारी ऊर्जा का क्षरण होने से रुक जाता है, बल्कि बढ़ और जाती है। यह लंबी उम्र का राज है। लेकिन यह लंबी उम्र किसी के काम आ सके, तभी उसकी सार्थकता है। सद्गुरू की शरण में रहते हुए मन में विकारों का हास होता है और करुणा और विवेक का उदय।

कछुए से जुड़ीं कई और बातें भी हैं। तो हम बात कर रहे थे समुद्र-मंथन की। जब मंथन शुरू हुआ, उस समय शेषनाग का मुंह दानवों की ओर था। जब थक कर शेषनाग अपनी सांस छोड़ता, तो उससे दानवों का नाश हो रहा था। यानी यह ईश्वर की एक लीला थी। कहते हैं न कि हम कभी पिछलग्गू बने रहना नहीं चाहते। यह हमारा अहंकार होता है। इसी अहंकार में दानवों ने शेषनाग की पूछ की ओर खुद को खड़ा करने अपनी तौहीन समझा। इस अहंकार में वे मारे गए।

ठीक ऐसी ही स्थिति कथा श्रवण के दौरान हमारी होती है। हम ईश्वर या गुरु के सामने या कोई अच्छी बात सुनने के दौरान क्या कभी पीठ देकर बैठते हैं? बिलकुल नहीं क्योंकि सारे विकार हमारे मस्तिष्क, जीभ, नाक-कान पर बैठे होते हैं। हम मुंह करके बैठते हैं, बात सुनते हैं, तो ईश्वर-गुरु की वाणी या उनके प्रभाव से निकली ऊर्जा से हमारे विकार पर सीधा आक्रमण होता है और वे नष्ट हो जाते हैं।

बाबा अपने भक्तों को हमेशा ऐसी ही गुरुमंत्र देते थे। वे खुद भक्तों में लीन हो जाते थे और भक्तों से चाहते थे कि वे उनको भी अपने में मिला लें। इसलिए निरंतर कोशिश करिए साई को अपने में जागृत करने की दिशा में। साई हमारे ही अंदर मौजूद हैं, लेकिन हमने उन्हें विकारों से बोझ से दबा कर सुला रखा है। जिस दिन, जब भी आप उन्हें जागृत कर देंगे, फिर देखिए साई आपमें किस तरह परिवर्तन लाते हैं।

यह 100 प्रतिशत अचूक नुस्खा है। मैं साई के चरणों में बैठकर यह दावे से कह सकता हूं कियदि आपने अपने अंदर साई को जागृत कर लिया, तो आप स्वयं को पहचान नहीं पाएंगे। यानी अपने भीतर एक बड़ा बदलाव महसूस करेंगे। खुद को नई ऊर्जा से भरा पाएंगे। तरोताजा हो उठेंगे। हालांकि यह भी अमृत-मंथन समान एक प्रक्रिया है। पहले खुद को खूब मंथना पड़ेगा। जिस तरह दूध में मक्खन और मट्ठा दोनों मौजूद होते हैं, लेकिन ऊपरी तौर पर दिखाई नहीं देते। ठीक वैसी स्थिति हमारी होती है। जब तक हम खुद को मंथेंगे नहीं, मक्खन और मट्ठा अलग-अलग नहीं होंगे।

हालांकि अपने आप को मंथना कोई सरल काम नहीं। और कोई भी अच्छी पहल इतनी सरल नहीं होती। इसके लिए थोड़ी-सी तकलीफ से गुज़रना पड़ता है। जैसे हिमालय पर चढ़ने, समुद्र की थाह लेने या किसी मंजिल को पाने कठिन परिश्रम करना पड़ता है, ठीक वैसे ही खुद को मंथने के लिए भी ऐसा ही जतन करना होता है। इसे ही हम तपस्या कहते हैं। साधना-तपस्या के जरिये ही देवत्व की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
  
साई बहुत अलग किस्म के गुरु हैं। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने कभी किसी के कान में कोई संदेश फूंक दिया हो या कभी किसी को यह कहा हो कि तुम ऐसा करो-वैसा करो! साई ने कभी किसी भक्त से यह नहीं कहा कि तुम फलां रत्न की अंगूठी पहनो या ताबीज बांधो! तुम्हारे सारे बिगड़े काम बनेंगे। साई ने कभी भ्रम नहीं फैलाया और न ही कभी आडंबरों को बढ़ावा दिया। क्योंकि यह सब जानते हैं कि अगर रत्न धारण करने से दु:ख-तकलीफें दूर होतीं, तो राजा-महाराजाओं का शासन कभी खत्म नहीं होता। वे अमर होते, कभी पराजित नहीं होते, अपनों के ही षड्यंत्र का शिकार नही होते। अमीरों को कभी अस्पताल में जाने की जरूरत नहीं पड़ती। ईश्वर की शरण में जाने की आवश्यकता ही महसूस न होती। उन्होंने तो कभी किसी को चार अगरबत्ती जलाने की सलाह भी नहीं दी। खोखले आडम्बरों से बहुत दूर है साई को पाने की राह।

 साई तो दैनिक जीवन से जुड़ीं वास्तविक बहुत छोटी-छोटी कहानियों में बात किया करते थे। अकसर तो ऐसा होता था कि वे सामने खड़े व्यक्ति को ही केंद्रित करके बात करते, लेकिन उसे यह समझ ही नहीं आता। क्योंकि सामने वाला तो अपने ही मद में डूबा होता। हां, जब उसकी निंद्रा खुलती, मोह-माया, ईर्ष्या की कालिख धुलती, तब उसे पता चलता कि साई ने उसे क्या सीख दी थी। साई के कहने का तौर-तरीका दार्शनिक होता था। वैसे जीवन ही एक दर्शन है। इसलिए उसे वही समझ पाता है, जो चैतन्य होकर बातों की गहराई समझता है। यही जीवन को समझने का तरीका है। सुनने वालों को लगता कि साई ये क्या बोल रहे हैं, कुछ भी तो पल्ले नहीं पड़ रहा? यह और बात है कि अगर सुनने वाला व्यक्ति एकाग्रचित्त होकर, खुद को बदलने की सोच लेकर वहां मौजूद होता, तो उसे आभास हो जाता कि दरअसल, साई उसके बारे में ही बात कर रहे हैं। साई उसके अंदर भरे पड़े दोषों पर प्रहार कर रहे हैं।

यहीं से कहता है संतत्व का रास्ता। अन्दर झांको, साई मिलेंगे।

तांका-झांकी इधर-उधर बहुत हो गई यार।
खुद में भी अब डूबने हो जाओ तैयार।

बाबा भली कर रहे।।

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु