Thursday, 10 August 2017

साई बाबा का आठवां वचन


भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
Copyright: Please do not reproduce 
any part of this work without written and explicit permission of Sai Awareness International                                  
श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से आठवें वचन के बारे में बताते हुएभाईजीसुमीतभाई पोंदा बताते हैं कि बाबा का यह आठवां वचन भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा साई के वचनों की सत्यता का बोध कराता है. साई ने मस्जिद में बैठ कर कहा भी तो है कि उनके वचन हमेशा सत्य होते हैं, कोई थोथे-पोचे नहीं. साई हमारा भार लेने को तैयार हैं. सवाल उठता है कि क्या हम अपना भार उन्हें देने को तैयार हैं? क्या हम अपना भार छोड़ने का मन बना चुके हैं? क्या हम अपने भार के बिना जीने को तैयार हैं? जब इन प्रश्नों के सही-सही उत्तर हम स्वयं को देने को तैयार हो जायेंगे तो हमारा भार भी हम साई के चरणों में छोड़ पाएंगे.

क्या है हमारा यह भार? जब हम पैदा होते हैं तब हम शून्य अवस्था में होते हैं. शून्यता से ही आते हैं. यही शून्यता हमें खींचती है. जीवन के अंत में हम फिर एक शून्य की ओर बढ़ जाते हैं. शून्यता से शून्यता के सफ़र का नाम ही जीवन है लेकिन हम इस सफ़र में शून्यता के भाव को भूल कर भार उठाना शुरू कर देते हैं. भार ममता का, अहंकार का, बैर-भाव का, अपमान का, क्रोध का. बस! इसी भार को इकठ्ठा करते रहते हैं और जीवन भर इसी भार को लिए चलते जाते हैं. यही भार हमें सालता है, दबाता है. हमारी सांस फूल जाती है. हिम्मत जवाब दे जाती है. लेकिन यह भार है कि कम होने की जगह बढ़ता ही जाता है. इकठ्ठा करने की आदत जो होती है हमें. इसी भार को ढोने की जुगत में हम अपना जीवन जीना भूल जाते हैं. सिर्फ़ साँसें चलती रहती हैं.
शून्यता के अहसास से शुरू हुए बचपन में हम बिना कारण के ही ख़ुश रह लेते थे, हँसते थे और इसी हँसी से अपनों को ख़ुशी भी देते थे. नींद में मुस्कुराते थे तो बड़े कहते थे कि भगवान् से बात कर रहे हैं. भोले-भाले से हम. भोलापन इसी शून्यता की देन था. सभी से दोस्ती. बैर को तो जानते भी न थे. किसी को नुकसान पहुंचाने की सोच भी नहीं सकते थे. अगर ग़लती से किसी को हमारी बात बुरी लग भी जाती तो बिना किसी लाग-लपेट के माफ़ी भी माँग लेते थे. कभी-कभी तो कान पकड़ कर भी! किसी भी बात का बुरा न लगता और अगर लगता भी तो किसी के ज़रा से फुसलाने भर से फिर मुस्कुरा उठते. धोखा देना किसे कहते हैं यह पता भी न था. किसी के भी साथ खेलने लगते. पल में हार जाते तो दूसरे ही दाँव में थोड़ी-से मासूम बेईमानी से फिर जीत जाते. खेल को खेल ही समझते. हार में भी ख़ुश और जीत में भी. थक जाने से नींद आती थी. छोटी-छोटी ज़रूरतें..जिनको पूरा करने में कोई परेशानी नहीं होती थी. न बुराई लेते और न देते. किसी की भी सुन लेते थे. हिसाब नहीं सिर्फ़ किताबों से वास्ता था. हिसाब का तो दूर-दूर तक पता नहीं था. न मान का मान और न ही अपमान का दंश. यही शून्यता होती है. जहाँ सब बराबर होता है, सब बराबर होते हैं. यही हमारा स्वरुप होता है. बिलकुल पानी की तरह. जहाँ हो बह चले. जो चाहा आकार ले लिया. अपनी जगह बना ली. हर जगह समा जाते.
फिर बड़े होने लगते हैं. सपनों में आने वाला भगवान् न जाने कहाँ खो जाता है. उसकी जगह ख़्वाहिशों से भर जाती है. जब भारी हो जाती हैं तो यही ख़्वाहिशें सपनों से बाहर निकल कर नींद उड़ाने लगती हैं. अब नींद में भगवान् नहीं मिलते हैं तो उनसे बात नहीं हो पाती. आँखें भारी हो जाती हैं लेकिन उन आँखों में नींद कहाँ? नींद ही न हो तो फिर नींद में हँसी कहाँ! हँसी आने को वजह मांगती है और वजह मिल जाए तो जगह नहीं मिलती. जगह मिल जाए तो साथ नहीं मिलता. अकेले हँसे तो लोग पागल समझेंगे, यही भाव मन में समा जाता है. अब भाव को निकलने को जगह तो चाहिए. हँसी नहीं तो ग़ुस्सा ही सही. बात-बात पर खीजने लगते हैं. चिढ़चिढे हो जाते हैं. बचपन का भोलापन बहुत पीछे कहीं छूट जाता है. इसी के साथ दोस्त-नातेदार भी पीछे छूट जाते हैं. सफ़र अकेले तय करने का भार साथ ले लेते हैं. अपनी दुःख-तकलीफ़ किससे बांटे? कोई बचा ही नहीं. हर कोई अपने भार की गठरी उठाये अकेला ही तो चलता, हांफता मिलता है. अकेले ही ख़ुद का भार उठाना पड़ता है.
खेलते अब भी हैं लेकिन दाँव इतने बड़े हो गए होते हैं कि अब हार पचती नहीं. हार हरा देती है. हार के दौर में जीत की चाहत का भार उठाना कठिन होता है. इसी चाहत का भार अब बेईमानी के रास्ते पर ले जाता है. मासूमियत खो चुकी है. जानबूझ कर की हुई बेईमानी की ग्लानि का अपना भार इतना अधिक होता है कि अपने आप से चिढ़ होने लगती है. अब तो चिढ़ का भार भी उठाना पड़ता है.
छोटी-छोटी बातों पर बुरा मानने लगते हैं. किसी के किये छोटे-से मज़ाक का बुरा मान जाते हैं. मनाने पर आसानी से मानते भी नहीं. माफ़ करना मुश्किल लगने लगता है और इसीलिए भार में रहते हैं.  जीवन में छोटी-छोटी बातों पर आनंद लेना भूल से जाते हैं. इसी में रिश्तों को भूल जाते हैं. अपनी ग़लती मानते नहीं और मान भी लें तो माफ़ी माँगना छोटेपन का अहसास कराता है. माफ़ी मांगने को दिल तो करता है लेकिन अहंकार का भाव आड़े आ जाता है. परनिंदा में आनंद आने लगता है. इसी में अपनी जीत का अहसास करने लगते हैं. यह अहसास थोथा ही सही लेकिन भारी होता है.
कितने ही भार अपने ऊपर लिए चलते जाते हैं. लेकिन भार लेकर कितनी दूर चल पाते हैं! थक जाते हैं. टूट जाते हैं. हताश हो जाते हैं. निराशा घेर लेती है. अवसाद मन में बैठ जाता है. किसी से बात करने को दिल नहीं करता. अकेले से एक द्वीप समान हो जाते हैं. सबसे अलग-थलग. मन रोता है लेकिन आँसू आँखों के ख़ाली भंवर में कहीं गुम हो जाते हैं. सब कुछ छोड़ देने कि इच्छा होती है लेकिन हिम्मत साथ नहीं देती. दिन में भी अँधेरा छा जाता है. भंवर में सहेज कर रखे आंसूं सूखे थोड़े ही थे. अब उबलते हैं और आँखों की पोर में भर जाते हैं. दिखना बंद हो जाता है. ठोकरें खाते हुए, ठौर को ढूंढते-ढूंढते साई के चरणों पर हाथ चला जाता है. गिरते हुए वही थाम लेता है. उसको पुकारो तो सही. दिल से.

साई के पैरों पर सिर रख कर जब सच्चे दिल से इस अँधेरे से मुक्ति की चाह व्यक्त करते हैं तो साई धीरे-से अपना हाथ हमारे सर पर रखते हैं. कान में धीरे फुसफुसाते हैं कि अपना भार मुझ पर छोड़ दो. हमारा भार साई ले लेते हैं. हम बदलने लगते हैं. पोर में जमे आँसूं का झरना बह निकलता है और उसके साथ ही हमारे सारे भार भी पिघलने लगते हैं. किसी सालों पुराने हिमखण्ड के समान. सैलाब आ जाता है. सारे भार बह निकलते हैं. अपनी की हुई ग़लतियों का अहसास होने लगता है. अपनों से माफ़ी माँगने में अब झिझक नहीं होती. कहा-सुना माफ़ करना भी मुश्किल नहीं लगता. जानते तो थे कि न जाने कौन-सी साँस आखिरी हो लेकिन अब मानने भी लगते हैं. न जाने कितना वक़्त बचा है! अब कौन लड़े दुनिया से? दुनिया की नसीहत, जो अब तक सिर्फ़ दूसरों को देते थे, पर अमल करने का दिल चाहता है. फिर बच्चा बनने को दिल मचल उठता है. हँसी एकदम से तो नहीं आती लेकिन अधरों का सूखा रेगिस्तान मुस्कान की हरियाली से लहलहा उठता है. मासूमियत भी एकदम से नहीं आती लेकिन इमानदारी लौटती राह पर फिर बांहें फैलाए खड़ी मिलती है. बात-बात पर झल्ला उठने वाले हम अब सम्हल कर बात करने लगते हैं. स्वार्थ कब परमार्थ में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता. निंदा का स्वरुप भी बदल जाता है. अब निंदा किसी की बुराई का बखान नहीं, किसी में सुधार के लिए करते हैं. अपनी निंदा पर तो अब सिर्फ़ मुस्कुरा देते हैं. मानो दिल को अब ये पता है कि शब्दों के बाण से कैसे बचना है. लड़खड़ाते पैरों में नई लचक आ जाती है. बुझती आँखों के दिए जगमगाने लगते हैं. नींद बिना किसी दवाई के आने लगती है. चैन लौट आता है और सपनों में भगवान् से मुलाकातें भी. अब कोई कैसे मुस्काए बिना रह सकता है? शून्यता का सफ़र फिर शुरू हो चुका है. साई का वचन भी शून्य की तरह अनंत सत्य है, झूठा नहीं.

बाबा भली कर रहे।।

                      श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु
www.facebook.com/saiamritkatha/

No comments:

Post a Comment