Friday, 18 March 2016

साई बाबा का पाँचवा वचन


मुझे सदा जीवित ही जानो
अनुभव करो सत्य पहचानो
                                                                                  

साई सत्य है. श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से पाँचवे वचन के बारे में बताते हुए भाईजी सुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा का यह पाँचवा वचन – मुझे सदा जीवित ही जानोअनुभव करो सत्य पहचानो – साई के सत्य स्वरुप के दर्शन को भावों में पिरो कर साई के भक्तों के जीवन में सत्य की राह खोलता हैसत्य ही नित्य है. निरंतर है. अखंड है. अविनाशी है. यह वचन साई के ऐसे ही अविनाशी, अनंत, अखंड और निरंतर स्वरुप से भक्त को रू-बरू कराता है. साई का न तो कोई आदि है और न अंत ही. साई तो सतत, निरंतर विश्वास का नाम है. इस वचन से साई के भक्त को साई के सत्य स्वरुप का भान होता है. यही सत्य अनुभव करने पर हमारे जीवन में साई के सत्य का प्रकाश दिखने लगता है.
      साई को समाधि लिए हुए कई दशक हो गए हैं. उनकी समाधि की शताब्दी भी सन्निकट है. समय रेखा में साई वर्तमान से बहुत दूर नहीं हुए हैं और इसीलिए हमारे मन की सच्ची आवाज़ सुनकर वो पलट कर मुस्कुरा देते हैं. जैसे-जैसे साई और इन जैसी अन्य पवित्र आत्माओं का सफ़र समय-रेखा पर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे हमारी आवाज़ इन तक पहुँचनी धीमी हो जाती है. देर से उन तक पहुँचती है. यह देर  हमारे जीवन में जुड़े सत्य के महीन पड़ने से होती है. इन पवित्र आत्माओं के कान तो हमारी आवाज़ सुनने के लिए बेचैन रहते ही हैं. कमजोरी तो हम ही में आ जाती है. हमारी आवाज़ में ही आ जाती है.

जैसे-जैसे समय-रेखा पर यह युगपुरुष हमसे दूर होते जाते हैं, हमारे मन पर उनका प्रभाव उनकी अपरोक्ष उपस्थिति के अभाव में कम होने लगता है. हमें देखने वाली कोई नज़र जब दिखाई नहीं देती तो ऐसा ही होता है! हमारे जीवन में असत्य का प्रभाव बढ़ने लगता है. ऐसा नहीं है कि इन आत्माओं के महत्त्व में कोई कमी आ जाती है लेकिन बुद्धि तो प्रमाण मांगती है. होता यूं है कि जब इन युगपुरुषों के समकालीन हमारे बीच नहीं रहते तो इनके जीवन-तत्त्व का सत्य पीढ़ियों के झरने में बहते-बहते अपना मूल स्वरुप और दिशा खो देता है. बाद की पीढ़ी वाले कानों सुनी तो अगली पीढ़ी को बता देते है लेकिन मन से जो भाव महसूस किया होता है, वह संप्रेषित नहीं कर पाते. तब इन महापुरुषों की जीवन-गाथा तथ्य कम और कहानी अधिक लगने लगती है. कुछ और समय और कई पीढ़ियों से गुजरने के बाद तो यह बातें काल्पनिक-सी ही लगने लगती है. इस झरने में बहते हुए, कम होते-होते भाव कहीं खो जाता है.
इन जीवन-गाथाओं में अब भक्ति से अधिक युक्ति का समावेश हो जाता है. कुछ किस्सों में बत्ताने वाले की याददाश्त की सीमितता के चलते, निरंतरता खो जाती है तो कहीं कुछ काल्पनिक भी जुड़ जाता है ओ असत्य लगता है. कहानियां तो रह जाती हैं लेकिन अब वो मनोमंथन न कर मनोरंजन का साधन हो जाती हैं. थोथे कर्मकांड को धर्म मान लिया जाता है. जब कर्मकांड में भाव न हो तो वह भक्ति नहीं बन पाता. भावहीन कर्मकांड महज शारीरिक क्रिया तक सिमट कर रह जाता है.  

ऐसा इसलिए होता है कि भगवान् या अवतार बुद्धि का नहीं विवेक का विषय होते हैं. बुद्धि असत्य का साधन होती है तो विवेक सत्य का वाहन. विवेक को परीक्षा देनी होती है, बुद्धि परीक्षा लेती है. विवेक का रास्ता लम्बा और तकलीफ़देह होता है. बुद्धि आरामदायक छोटे रास्ते खोजती है. बुद्धि, युक्ति-प्रधान होती है तो विवेक भक्ति-प्रधान. विवेक करुणा को जागृत कर देता है तो बुद्धि करुणाविहीन बनाती है. करुणा ही भक्ति की सुवास है. जब विवेक को बुद्धि ढांक  लेती है तो भक्ति कमज़ोर पड़ जाती है. मन में असत्य का उदय हो जाता है. जितना असत्य बढ़ता जाता है, हमारी आवाज़ उतनी ही क्षीण होती जाती है और इसीलिए समय-रेखा पर लगातार दूर हो रहे इन युगपुरुषों तक नहीं पहुँचती है. जब इनके कानों तक हमारी आवाज़ पड़ना कम हो जाती है तो इन्हें फिर अवतार लेना पड़ता है. हमारे मन के इसी असत्य को साफ़ करने के लिए समय-समय पर परमात्मा हमेशा कोई न कोई अवतार लेकर हमारे उद्धार के लिए अवतरित होते ही हैं.
सत्य-रूप अवतारों का समय-समय पर आगमन सुनिश्चित है. जब भी असत्य का तत्त्व झूठ, फरेब, बेईमानी, दुराचार, वैमनस्य, लोभ, लालच, कदाचरण, अन्याय, इत्यादि के रूप में अपना स्वरुप बढ़ाने लगता है, तब-तब इनका नाश करने युगपुरुष अवतरित होते हैं. वे कभी मर्यादा पुरुष राम के रूप में, कभी सारथी बन कृष्ण के रूप में, कभी शांतिस्वरुप महावीर बन, कभी त्याग की प्रतिमूर्ति बन बुद्ध के रूप में, तो कभी परम-शक्ति के निर्गुण स्वरुप का पैग़ाम लेकर पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के रूप में, एकता का पाठ पढ़ाने गुरु नानक के रूप में, बलिदान की मिसाल रखने जीसस क्राइस्ट बन कर तो कभी इंसानियत का पैग़ाम देकर झोलियाँ भरने वाले फ़क़ीर साई बाबा का अवतार लेकर आते हैं. उनका जीवन युगों-युगों तक, हमारे आचरण में बस गए असत्य में से सत्य का अर्क निकाल कर हमारे सामने रख देता है.

सत्य को जब असत्य मान लिया जाता है तब राम पूजे ज़रूर जाते हैं लेकिन चरित्र रावण का जिया जाता है. कृष्ण के आगे हाथ जोड़ कर खड़े तो रहते हैं लेकिन मन में कंस, दुर्योधन और जरासंघ से भाव उत्पन्न होते हैं. सलीब के ऊपर जीसस दिखते तो ज़रूर हैं लेकिन उनकी करुणा को हम आत्मसात नहीं कर पाते. पैग़म्बर की बातें तो होती हैं लेकिन उनके उपदेश तोड़-मरोड़ कर समझाए जाते हैं. इसी तरह साई को तो मानते हैं लेकिन साई की नहीं मानते. साई की नहीं मानते क्योंकि साई की पूर्णता पर हमें संदेह होता है. हम इस बात को नहीं मानते कि हम साई के ही अंश हैं और उससे मिलकर पूर्णता चाहते हैं क्योंकि हम उसे देख नहीं पाते. उस बुद्धि के लिए तो साई समाधीस्थ हो चुके हैं. प्राण त्याग चुके हैं. दुनियादारी के लहजे से तो साई मर चुके हैं! अब तो वो सिर्फ़ हमारी इच्छापूर्ति का साधन बन चुके हैं. हम साई से तो मांगते हैं. साई को भूल जाते हैं. साई तो हमारे लिए सिर्फ़ चमत्कार का माध्यम हैं. ऐसे चमत्कार तो साई तब भी करते थे जब वो सशरीर थे और आज भी करते हैं.   
साई के जिन चमत्कारों का ज़िक्र सुन कर हम अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए साई के पास जाते हैं, उन चमत्कारों का ध्येय तो उनके भक्तों का उत्थान ही था. साई कोई छोटे-मोटे जादूगर नहीं थे जिन्हें अपनी आजीविका चलने के लिए ऐसे चमत्कारों का सहारा लेना पड़ता. वो तो एक फ़क़ीर थे जिनकी जीवन से अपेक्षाएं बेहद सीमित थी. अगर वो चमत्कार नहीं करते तो भी उनको भिक्षा मांग कर रूखी-सूखी तो मिल ही जाती थी. पहनने को फटे कपड़े ही उन्हें भाते. वो तो अपने भक्तों की विनम्र भक्ति और उनकी दीनता से अभिभूत हो कर इन लीलाओं को करते जिन्हें साधारण बुद्धि चमत्कार समझती जबकि आध्यात्मिक रूप से यह बाबा की उनके भक्तों को पुनः संस्कारित करने की अनूठी रीत थी. साई का प्रत्येक चमत्कार हम सभी में संस्कार डालने के लिए ही होता था. अब भी होता है. विभिन्न कारणों से अपने स्थान से हट चुके ‘मैं’ को पुनः आत्मरूप में स्थिर करना आध्यात्म का तो अर्थ ही है. भूल चुके संस्कारों को याद कराना. उनको स्थिर कर देना. ख़ुद को ख़ुद से मिलाकर शांति देना यही आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य है और क्रिया भी. यही सत्य का मार्ग भी है. खोज साई की नहीं. खोज स्वयं की. यही साई के चमत्कारों का उद्देश्य होता है.
साई की सत्य का मार्ग दिखाने की रीत भी एकदम सरल है. वो हमें देना तो कुछ और ही चाहते हैं लेकिन जानते हैं कि हमें किन चीज़ों की इच्छा है. किन चीज़ों को पाने की आशा में हम बेचैन रहते हैं. हममें से अधिकाँश तो धन-संपत्ति, शादी, संतान, क़ानूनी मामलों में जीत और इन जैसी ही अनेक चीज़े साई से मांगने जाते हैं. वो सरलता से दे देता है. वो तो सितारों की चाल भी हमारे लिए बदल देता है. नसीब की रेखाएं बदले बिना साई नसीब का लेखा बदल देता है. यह उसकी शक्ति है. हमारे नसीब और औक़ात से बढ़कर हमें दे देता है. हमारा लालच बढ़ जाता है. हम और मांगते हैं. वो और दे देता है. मांगने और देने का सिलसिला बराबर चलता रहता है. हम मांगते-मांगते थक जाते हैं, अब थोड़ी ग्लानि भी होने लगती है. भिखारी-सा महसूस करने लगते हैं.
इंसान के पास जब कुछ नहीं हो तो उसे डर नहीं लगता. खो कर भी क्या खो जायेगा? अब डर बढ़ जाता है. अब जबकि वो हमें हमारी पसंद का इतना कुछ दे चुका होता है, तो उन चीज़ों के खो जाने का डर हमारे मन में समा जाता है. इच्छाओं के फलीभूत होते ही इन चीज़ों को सम्हालने की अशांति और खोने का भय आकार ले लेते हैं. हमारी लालच पूरी होते ही और बढ़ जाती है और ग्लानि में बदल जाती है. जलन के मारे जब दुश्मनी के भाव से जीने लगते हैं तो शोक कहाँ पीछे रहता है. लोगों से आगे बढ़ेंगे तो दुश्मन भी बढ़ जाते हैं. दूसरों को अपने से ज़्यादा ख़ुश देखते हैं तो जलन होने लगती है. शोक तो दुःख के साथ ही चलता है. जो आज सुख का विषय है वो कल दुःख का कारण बन जाता है.
हमनें साई से माँगा भी तो अनित्य और नाशवान है. जो कुछ भी हमनें साई से लिया है, उन सभी का एक दिन ख़ात्मा हो ही जाना है. अब जब मिल गया है तो मन स्थिर नहीं रह पाता. बेचैनी का आलम रहता है. संस्कार दूषित हो गए जो होते हैं. हम जीते-जी हम मर जाते हैं. पहले इच्छाओं को बल देने, फिर उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए और उसके बाद उनका बोझ लिए-लिए हम जिंदा लाश ही तो बन जाते हैं. सारी संवेदनाएं शून्य से नीचे होती हैं. बदहवास से ठौर पाने को तड़पते हैं. आँखें रोती हैं लेकिन आंसूं को तरसती हैं क्योंकि आंसूं तो हम पहले ही अपनी इच्छाओं के लिए बहा चुके होते हैं. ज़ुबान दर्द को बयान करना चाहती हैं लेकिन शब्द तो मांगों को बुनते-बुनते खो चुके होते हैं. निर्जीव होने की कोई और पहचान होती है क्या!
साई कहते भी तो थे, “मनुष्य की बनाई हुई सारी चीज़ें नाशवान होती है. ईश्वर-प्रदत्त वस्तुएं हमेशा रहती हैं.” क्या सूरज-चाँद को कहीं ख़त्म होते देखा है? कुदरत का रूप बिगाड़ सकें है लेकिन क्या कुदरत ख़त्म हुई? मनुष्य का स्वरुप बिगड़ गया है लेकिन क्या ईश्वर का मनुष्य में भरोसा कम हुआ? आज भी नयी नस्ल तो पैदा हो ही रही है! जब अनित्य में ममता बाँध लेंगे तो उसके ख़त्म होने पर दुःख ही होगा. अनित्य ही असत्य है. असत्य के पैर नहीं होते. वो चलता नहीं, हवा में तैरता है लेकिन ओंधे मुंह गिर भी पड़ता है. उसकी उम्र ज़्यादा नहीं होती. हमारा शरीर नाशवान है, अनित्य है, असत्य है लेकिन आत्मा अजर-अमर है. रूप नाशवान है, स्वरुप नित्य है. सत्य है.
विषय-आधारित सुख, नाशवान है. विषय के साथ उस सुख की समाप्ति तय है. उसी तरह साधन-जन्य आनंद असत्य है क्योंकि साधन की समाप्ति पर वह समाप्त हो जायेगा. सुख, शांति और आनंद नित्य है और सत्य हैं.

साई से माँगना ही है तो इनको मांगो. ऐसी वास्तु मांगो जो कभी ख़त्म न हो. और साई से माँगना भी क्या. जब साई से मांगते हैं तो साई को यह अहसास कराते हैं कि हमें उस पर भरोसा नहीं है. मांग कर हम उसे यह बताते हैं कि उसे तो यह पता भी नहीं है कि हमें क्या चाहिए. अपना हाथ फैलाए हुए हम तो अपना ही क़द गिरा चुके होते हैं. हम तो जानते ही नहीं है कि वो तो समुन्दर लेकर बैठा है हमें देने के लिए और हम हैं कि चुल्लू भर पानी में ही संतोष कर लेते हैं. कभी उस पर तो छोड़ कर देखो! हम कुछ छींटे अपने पर डाल कर ख़ुशी मनाते हैं, साई तो हमें तर करने बैठा है. एक बार मांगना छोड़ कर साई पर भरोसा कर के तो देखो!
फिर जीवित होने के लिए अब हम दोबारा साई की तरफ ही मुड़ते है. साई से फिर चमत्कार की उम्मीद लिए. अब एक नए तरह का चमत्कार चाहते हैं हम.     
साई चमत्कार करते भी हैं. साई पर अपना भार छोड़कर हम दोबारा जी उठते हैं. सूख चुकी आँखों के कुँए में फिर पानी की कोई झिर फूट पड़ती है. अब आंसूं नमकीन नहीं, मीठे लगते है. साई को शुक्रिया कहने के लिए सूख चुकी ज़ुबान को एक बार फिर शब्द मिल जाते हैं. निढाल जिस्म जीवन की राहों पर हल्का होकर मानो तैरने लगता है. इच्छाओं का बोझ जो हट चुका होता है. यह जीवन अब सदा के लिए होता है. साई का भाव हमारे अन्दर फिर जी उठता है. साई को हम फिर जीवित जानने लगते हैं. सत्य की पहचान मिल जाती है. साई ही सत्य है, नित्य हैं. उससे मिलने वाली चीज़ कभी ख़त्म नहीं होगी.
अब जब साई अपनी मर्जी से देना शुरू करते हैं तो वो सत्य से चित्त को भर कर हमें आनंद से सराबोर कर देते हैं. न ही किसी चीज़ का मोह. न उससे उत्पन्न होने वाला कोई शोक. न उसके खो जाने का भय और न ही उसके जाने का कोई दुःख.
मुझे सदा जीवित ही जानो..अनुभव करो सत्य पहचानो. साई को जीवित जानने की अनुभूति से हमारे मन का सफ़र अब सुख, शांति और आनंद का सफ़र बन जाता है.
बाबा भली कर रहे।।

                          श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु

साई बाबा का चौथा वचन


मन में रखना दृढ़ विश्वास, करे समाधि पूरी आस
                                                                                  
श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से दूसरे वचन के बारे में बताते हुए भाईजी सुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा का चौथा वचन - मन में रखना दृढ़ विश्वास, करे समाधि पूरी आस - भक्तों के जीवन में साई की समाधि के प्रति आस्था को सुदृढ़ करता है. यह वचन आस से आस्था का रास्ता खोलता है.
भक्त अपने अंतःकरण से साई की समाधि को साई का ही विस्तार मानते हुए साई की भक्ति के प्रति और आकृष्ट हो जाता है. उसके अंतःकरण में साई की समाधि के प्रति अगाध आस्था का उदय होने लगता है. साई की समाधि, बाबा के उन वचनों का प्रतीक है जो उनके भक्तों को निराशा के अन्धकार से निकाल कर आशा की पगडंडी पर ले कर आती है.
      इस वचन को समझने के लिए पहले समझना होगा कि मन क्या है. दृढ़ विश्वास क्या होता है? आस और आशा क्या होती हैं? आस से आस्था का संचार कैसे होगा? समाधि हमारी आस को कैसे पूरा करेगी?
      मन में ही तो साई बसते हैं. साई को हम देवालयों में ढूंढते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि हमारा मन ही साई का मंदिर है. हम चाहे किसी भी मज़हब को मानते हो, हमें सिखाया गया है कि देवालय में दाख़िल होने से पहले अपने जूते बाहर उतार कर ही अन्दर जाते हैं जिससे हमारे जूतों पर लगी बाहर की धूल, मिट्टी, गंदगी से देवालय अपवित्र न हो जाए लेकिन यही बात हम अपने मन के बारे में भूल जाते हैं. बाहर की तमाम गंदगी से सनी हुई अपनी मद और अभिमान के जूते लेकर हम अपने मन में घुस जाते हैं और उस जगह को गंदा करते हैं जहाँ पर हमनें साई को बिठा रखा है. तन की स्वच्छता का ध्यान तो बहुत रखते हैं लेकिन मन की स्वच्छता का ध्यान कहाँ रहता है हमें?
इन जूतों के साथ, हम अपने क्रोध की हमें ही जलाने वाली आग, कटुता की हमें ही काटने वाली धार, हमें ही मारने वाला बैर का बीज, ख़ुद को तकलीफ़ पहुंचाने वाली बदले की मंशा, बार-बार हमें अपने ही लक्ष्य से भटकाने वाला लालच, अपनी ही नज़रों में हमें गिराने वाली वासना, हमें झूठे दंभ में रखने वाला हमारा अहंकार और ख़ुद को पहले और दूसरों को बाद में छलने वाली धोखे देने की भावना का कीचड़ भी साथ में लेकर इस मंदिर में आ जाते हैं. क्या कीचड़ में कहीं देवों को सहज देखा है? लेकिन साई तो सबसे अलग हैं!
साई तो उस कीचड़ से सने हमारे मन में रुके रहते हैं और उसे अन्दर ही अन्दर से स्वच्छ भी करते रहते हैं. ख़ुद ही अपने रहने की जगह, हमारे मन, को साफ़ करते हैं. वो तो चाहते हैं कि हम सुधर जायें और स्वभावगत बुराइयों से पार पा सकें. वापस अपने निर्मल स्वरूप में आ जाएँ. हमारा वही स्वरुप मूल है जो हमें जन्म के समय मिला था. जो चादर हम ओढ़ कर आये थे वो बिलकुल साफ़ थी. उसमें कोई दाग़ नहीं था. अपने स्वरुप की चादर को हम अपने स्वभाव के मैल से मैला कर लेते हैं. वह स्वभाव जो हमें बाहर से, समाज और दुनिया से मिलता है. यह जानते हुए भी कि इस कीचड़ में गंद के सिवा कुछ भी नहीं मिलेगा, हम कीचड़ में धंसते ही चले जाते हैं. इस चादर को ओढ़ने के बाद हमें अपने आप से घिन होने लगती है. इसे शर्म के मारे हम फिर अपने नीचे दबा लेते हैं. उसी पर सोने लगते हैं. हम अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं, दुखी होते हैं, हमें नींद नहीं आती और खुली आँखों से अपनी ही चादर पर चिंता की करवटे लेते-लेते दुःख की सिलवटें उकेरते रहते हैं. सांसों की आवाज़ कानों में चुभती है. निढाल जिस्म को ढोते-ढोते कब वक़्त से पहले ही हमारा दम निकल जाता है, समझ में नहीं आता.

इसी मैले मन में साई से मांगने के लिए इतना कुछ भर रखते हैं कि जब मांगने बैठते हैं तो विचार भावों पर हावी हो जाते हैं. भावों में आस बसती है और विचारों में आशा. भाव हमारे अपने होते हैं. विचार बाहर से आते हैं. भाव साई को चाहता है. विचार साई से चाहते हैं. भाव दूसरों का भला चाहता है, जानता है कि दूसरों के भले में ही अपना भला छुपा होता है. विचार स्वार्थ से हवा पाकर वासना की आग को भड़का देते हैं. भाव सरलता चाहते हैं तो विचार कभी सीधे चलते ही नहीं. भाव मन साधते हैं तो विचार मन को बहका देते हैं. भाव और विचारों की खीचा-तानी के बीच जब हम साई के पास, कुछ मांगने पहुँचते हैं तो दोनों की इस रस्साकशी में विचारों से मांग बैठते हैं. साई सब जानता है लेकिन फिर भी मुस्कुराकर हमें वही देता है जो हम उससे मांगते हैं. वो तो ना कहना जानता ही नहीं है. इसी उम्मीद में वो हमें वो सभी कुछ बिना रुके दिए जाता है कि हम किसी दिन तो वापस आयेंगे और उससे वो मांगेंगे जो वो हमें देना चाहता है. वो हमारे भावों को पढ़ चुका होता है.
जैसे-जैसे वो हमें देते जाता है, हमारा विश्वास उस साई में बढ़ने लगता है लेकिन हमारा अहंकार इसके साथ-साथ बड़ा भी होता जाता है. हम जानते तो हैं कि हमें जो कुछ भी मिला है वह साई ही की कृपा से मिला है लेकिन इसे मानना बड़ा ही मुश्किल होता है. हम हैं तो क़तरा ही लेकिन अपने आप को करता मानने लगते हैं. अगर इस बीच हमारी कुछ ऐसी इच्छाएँ पूरी नहीं होती जिनकी पूर्ति में हमारा ही नुकसान होता, तो हम हताश हो जाते हैं. विश्वास डोल जाता है. तब फिर साई के ही करता होने का अहसास जाग जाता है.
विश्वास जब हमारी इच्छाओं की पूरी होने पर विकसित होना शुरू होता है तो भरोसा कहलाता है. यह पहली सीढ़ी होती है. यह भरोसा इन्हीं के समान और इच्छाओं की पूर्ति पर पल्लवित होता है और फिर विश्वास कहलाता है. बस! हम में से अधिकांश यहीं पर रुक जाते हैं. इस विश्वास को दृढ़ होने नहीं देते. उसे आस्था या श्रद्धा में बदलने ही नहीं देते. मन मंदिर बिना आस्था के कुछ भी तो नहीं. मंदिर की तो एक-एक ईंट में आस्था बसती है.
मन की भट्टी में भक्ति की आंच पर इस विश्वास की ईंट को पकाने के लिए इच्छाओं के कोयले को चिता समान सजा कर धैर्य की फुंकनी से हवा देनी पड़ती है. इसी धैर्य को बाबा ने सब्र या सबुरी कहा.
सबुरी हमें बड़े से बड़े संकट से तार देती है. मुसीबतों में विश्वास दिलाती है कि सब कुछ ठीक-ठाक होगा. हमें अपने वीर होने का अहसास कराती है और बलशाली बनाती है. विचारों पर क़ाबू करना सिखाती है. हमारे आत्म-विश्वास को मज़बूत बनाती है. दुखों से तार देती है. हमारी अपेक्षा से बेहतर परिणाम हमको दिखाती है.
मन की भट्टी में इच्छाओं के कोयले पर, भक्ति की आंच से, सबुरी की फूँक से हमारे विश्वास की ईंट जब पकने लगती है तो इच्छाएँ राख हो जाती हैं. उनका स्वरुप बदल जाता है. इसी राख से बर्तनरूपी जीवन को मांजने पर उसमें चमक आ जाती है. वासना के जीवाणु मर जाते हैं. हाथों का लोभरूप मैल छूट जाता है. माथे पर उस राख को लगाने से रूप में अनासक्ति हो जाती है. राख में न जाने कितने ही गुण छुपे रहते हैं. हम सब जानते हैं लेकिन स्वभाव की कमजोरी के चलते सब भूल जाते हैं. इच्छाओं का स्वरुप बदल जाने पर उनका उपयोग भी बदल जाता है. जहाँ पहले वही इच्छाएँ स्वार्थ के लिए होती थीं अब परमार्थ के लिए होती हैं. पहले इच्छाएँ बहकाने का काम करती थीं. अब उनकी राख मन को शुद्ध करती है. इच्छाओं का यह बदला रुप हमारा स्वरुप भी बदल देता है.
इस बदले हुए स्वरुप में ख़ुद को पहचानना मुश्किल हो जाता है. इच्छाएँ अब भी होती हैं लेकिन उनमें वासना का विष नहीं होता. एक-एक कर के इन ईंटों को अपने मन में सजाना पड़ता है तब जाकर साई के रहने की जगह बनना शुरू हो पाती है.
शिर्डी में साई की समाधि कोई साधारण समाधि नहीं है. ऐसी ही आस्था की पकी हुई ईंटों से साई की समाधि बनी हुई है. परमात्मा में उनके अटूट विश्वास को जब पकने के लिए उन्होंने अपनी इच्छाओं की चिता बना कर मुक्ति की आकांक्षा से प्रज्ज्वलित किया होगा और जब उसे सबुरी की फूँक दी होगी तब ही उनकी इस समाधि की नींव की ईंट तैयार हुई होगी.
श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 43-44, जिसमें बाबा की महासमाधि की यात्रा का विवरण है, को पढ़कर यह जानने में आता है कि उनके आज्ञाकारी सेवक माधव फासले के हाथों अनजाने ही एक ईंट के टूटने पर साई ने उसे अपनी महासमाधि का संकेत यह कहते हुए माना था कि उनकी जीवन संगिनी चली गयी. हमेशा अपना सर उस ईंट पर रख बाबा सोते और उसे हमेशा बहुत ही सहेज कर रखते. भला कोई ईंट को क्यों सहेज कर रखता! यही श्रद्धा थी जिसने साई को आस्था का प्रतीक बनाया. इसी श्रद्धा पर बाबा अपना सर रख सोते और इसी को सहेज कर भी रखते. इस तरह इस अमूल्य ईंट को बाबा अपनी जीवन संगिनी मानते थे. श्रद्धा उनकी जीवन संगिनी तो थी भी. यही ईंट जब टूट गयी तो साई बाबा को मानो यह आदेश हो गया था कि अब उनकी अटूट श्रद्धा को लेकर उन्हें परमात्मा से फिर एकाकार हो जाना है. साई की उस ईंट के टूटने पर जो कण यहाँ-वहां बिखरे होंगे अणु विस्फ़ोट के समान उससे कई-कई गुणा श्रद्धा उर्जा के रूप में इस विश्व में फैल गयी होगी!

इस ईंट को मूल्यवान धातु से जोड़ कर उनके उपयोग की अन्य वस्तुओं के साथ बाबा की समाधि में भी रखा गया है. आस्था की स्वरुप उस ईंट का प्रारब्ध ही इसी तरह गढ़ा गया था कि उसे अटूट रह कर साई के साथ और टूटने पर भी सदा साई में मिल कर उनकी समाधि का हिस्सा हो जाना था. उस समाधि में वैसे तो अनेकों ईंटें लगी होंगी लेकिन इस बहुमूल्य ईंट को तो उस समाधि की नींव होना था. 
उस समाधि को जिसे साई हमेशा ओढ़ कर शिर्डी की गलियों को ब्रहमांड मानकर घूमते रहे और दुनिया भर के लोगों को मुक्ति की राह सुझाई. इसके लिए बाबा ने स्वयं पहले तो उनकी भौतिक इच्छाएं पूरी की और बाद में मुमुक्षा या मुक्ति का बीज बोया. एक बीज से कितने फल पैदा होते हैं यह तो बीज की क्षमता से अधिक मिट्टी की उर्वरता या उपजाऊ क्षमता पर निर्भर करता है. ऐसे ही मुमुक्षा की इच्छा तो साई अपने सारे ही भक्तों में उत्पन्न कर देते हैं लेकिन कितने भक्त मुक्ति पाने की इच्छा रख कर उसे पाने निकल पड़ते हैं, यह हमारे संस्कारों और स्वभाव पर निर्भर करता है. साई के सारे ही भक्त भक्ति की राह पर अपने आप को खोजने निकल नहीं पड़ते. अधिकांश तो बाबा की दी हुई माया में ही उलझ कर रह जाते हैं. कुछ ही इससे आगे निकल पाते हैं.
जो इस राह पर आगे निकल जाते हैं, वो बाबा की समाधि पर पहले तो अपना हाथ रखते हैं, साई को महसूस करते हैं. जो साई की समाधि पर इस तरह से हाथ रखते हैं, उनका प्रारब्ध साई अब अपने हाथों में ले लेते हैं. इनके हाथों में अब साई के हाथों की गर्माहट महसूस की जा सकती है. यह गर्माहट तमाम मानसिक ज़ंजीरों को पिघला देती है. जब साई के ये दीवाने, साई की समाधि पर अपना सर रख देते हैं, साई की आस्थारूप ईंट से संपर्क में आते हैं तो उनके कानों में पड़ने वाली उस ईंट पर सर रखकर सोने वाले साई के श्वासोच्छ्वास के ओज से उनकी तकदीरें बदल जाती हैं. साई की प्रत्येक सांस में अल्लाह का ही नाम रहता. अल्लाह का नाम ही अन्दर आता और अल्लाह का नाम ही बाहर आता.
अब आस का स्वरुप बदल जाता है. वो आशा को अपने अन्दर विलीन कर लेती है. जो पहले भावों में बसती थी लेकिन विचारों से सुनाई देती थी वो आस अब भावों में ही सुनाई देती है. आस परोपकारी होती है तो आशा स्वार्थी. आस परिपूर्णता की ओर ले जाती है तो आशा सदा अपना कद बढ़ाती हुई अपूर्ण ही रहती है. आस सदा के लिए होती है तो आशा रोज़ नया रूप लेकर सामने आ खड़ी होती है. आस संतोषी बनाती है तो आशा असंतोष उत्पन्न करती है. आस भीड़ से अलग करती है तो आशा भीड़ में जोड़ देती है. आस विजय का नाम है तो आशा होड़ का. आशा का विलीन होना और आस का प्रबल होना, यह साई की कृपा से ही संभव हो सकता है.

आशा के लुप्त हो जाने से और आस के बलवान होने से भावों और विचारों का घर्षण समाप्त हो जाता है. मन से भाव, भाव से विचार, विचारों से कर्म और कर्म से प्रारब्ध – सभी एक पंक्ति में आ जाते हैं.
निर्मल मन में साई के प्रति दृढ़ विश्वास, साई की समाधि की वो ईंट, हम सबका प्रारब्ध बदल कर हमारी मुक्ति की आस को पूरा करती है. वो मुक्ति जहाँ पर हम साई से एकाकार हो जाते हैं. हमारा अहंकार साई के चरणों में लीन होकर विलीन हो जाता है और हम साई की दीनता को समेट लेते हैं. हम साई हो जाते हैं. समाधि आस को पूरा करती है. दृढ़ विश्वास रखो.


बाबा भली कर रहे।।
                          श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु




















साई सत्यव्रत पूजा



शिर्डी में साई सत्यव्रत पूजा प्रत्येक दिन पूर्ण विधि-विधान से की जाती है. श्री साई अमृत कथा में ‘भाईजी’ शिर्डी में प्रतिदिन होने वाली साई सत्यव्रत पूजा के बारे में उल्लेख करते हुए बताते हैं कि पुणे ज़िले के जुन्नर तालुका में नारायणगाँव के निवासी भीमाजी पाटिल को इस पूजा को प्रारम्भ करने की प्रेरणा बाबा द्वारा दी गयी.

सत्यनारायण व्रत कथा की प्रासंगिकता
भारतवर्ष के कई सारे प्रान्तों में प्रत्येक पूरनमासी को अथवा किसी शुभ कार्य को करने के पहले या कुछ मिलने के बाद धन्यवाद स्वरुप सत्यनारायण व्रत कथा करने की प्रथा कई वर्षों से प्रचलित है. इस दिन केले के पत्तों से सजे मंडप में चौकी पर सुपारी रूप में गणपति, चावल की ढेरियों से षोडश-मात्रिकाएं, गेंहू की ढेरियों से बने नवग्रह, पीतल की बालगोपाल की प्रतिमा और सत्यनारायण भगवान् की छबि के रूप में विष्णु को स्थापित कर परिवार और मित्रों के साथ विधि-विधान से पूजा की जाती है. पांच-अध्यायी कथा का वाचन कर आरती से इसकी पूर्णाहूति की जाती है. पूजा से पहले उपवास रखा जाता है और रात-भर सत्संग, इत्यादि का कार्यक्रम रखा जाता है.
हमारे देश में सामाजिक दृष्टि से इस पूजा का बहुत अधिक महत्त्व है. कम से कम कर्मकाण्ड में धार्मिक संस्कारों का पुनःस्मरण कराने के लिए इससे और सरल कोई उपाय भारतीय संस्कृति में नहीं सामने आता. इस कथा में वो सभी कुछ समाया हुआ है जो हमें सरल जीवन जीने के उपाय बताता है. सत्य की राह पर चलते-चलते अपने अन्दर के उस सत्य को जागृत करना इस पूजा का मुख्य उद्देश्य है जो हमें मालूम तो होता है लेकिन जानबूझकर हम उसे भूलना पसंद करते हैं. सत्य के बारे में सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसकी अपेक्षा हम सभी को हमेशा दूसरों से ही होती है. हम इसका पालन करने में झिझकते हैं. भारतीय दर्शन कितना प्राचीन, सभ्य, वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए हुए, व्यावहारिक और परिपूर्ण है, इसका ज्ञान इस पूजा से मिलता है. इस पूजा का आविष्कार करने वाले को साधुवाद!
इस पूजा और साई बाबा के जीवन चरित्र में कई समानताए है.

धरती की पूजा
सबसे पहले इसमें धरती की पूजा जो सारे उद्यम का मूल है, हमें अपने जड़ों का सम्मान करने के बारे में बताती है. यह बताती है कि जिस माँ की कोख से हम जन्मे हैं और जिस पिता का कुल हमें मिला है, वह हमारे सारे संस्कारों का मूल है. सबसे पहले उसका सम्मान किया जाना ज़रूरी है. माँ की कोख से मिली स्वभाव में सरलता इस भाव को दृढ़ करती है तो पिता से मिले संस्कार इसे बल देते हैं. इस क्रिया के पीछे यही भाव है कि अगर अपनी सम्मानपूर्वक अपनी जड़ों से जुड़े रहेंगे तो हमारे सारे उद्यम सफ़ल होंगे. साई बाबा के माता-पिता के बारे में हमेशा अटकलें लगती रहीं. कई तो मानते हैं वे अयोनिज थे यानि उनका प्राकट्य किसी योनी से नहीं हुआ था और यह कि वे स्वयंभू थे. तथ्य कुछ भी हो, साई ने सदा ही सरलता से ही जीवन जिया. कोई दिखावा तो उन्होंने कभी किया ही नहीं. यह उनकी माँ की कोख की पहचान रही. सदा ही बाबा ने संस्कारवान जीवन जिया यह इस बात को दर्शाता है कि साई कुलीन परिवार से ताल्लुक रखते थे. अपने भक्तों को भी वे सदा ही सरलता भरा जीवन जीने को कहते. दिखावा उन्हें लेशमात्र भी पसंद नहीं था.

गणपति पूजन   
विघ्नविनाशक गणेश की सुपारी रूप में पूजा बताती है कि इस दुनिया की हर जड़ और चेतन वस्तु में भगवान् का वास होता है और इसीलिए हर चीज़ का पूरा आदर किया जाना चाहिए. यह पूजा उनके स्वरुप की पूजा है जिसमें उनका बड़ा पेट हमें अपनी बातें अपने ही तक रखने की सीख देता है. उनके बड़े कान और छोटा मुख बताता है कि हम कम बोले और ज़्यादा सुने. उनकी लंबी सूंड हमें खोजी बनने की तरफ प्रेरित करती है. उनका बड़ा मस्तक हमें स्वाभिमान में जीने की कला देता है. माता-पिता के सम्मान का गुण तो गणेश में सदा ही विद्यमान रहा है. साई बाबा में भी कम बोलने और ज़्यादा सुनने के गुण रहे. किसी के भी तीनों कालों को वे लगातार पढ़ते रहते. अपनी बातें अपने तक ही रखने की सीख स्वाभिमान से रहते बाबा से सदा ही मिलती रहती. वे तो कहते ही रहते, “जिन्ने पानी, उन्ने छुपानी.” इसका मतलब जो भी पाया है वह उपरवाले की कृपा से पाया है, उसका व्यर्थ प्रदर्शन ठीक नहीं.

षोडशमात्रिका पूजन
षोडशमात्रिकाओं का पूजन स्त्री-सम्मान का प्रतीक है. यह क्रिया स्त्री के विभिन्न रूपों, माँ, बहन, पत्नी, बेटी, का आदर करने के बारे में बताती हैं. साई ने तो सदा ही महिलाओं के प्रति आदर का भाव रखा. अपने संपर्क में या समक्ष आने वाली किसी भी महिला के प्रति उथले भाव कभी भी नहीं रखे. बायज़ामाई, लक्ष्मीबाई शिंदे, चन्द्राबाई बोरकर, श्रीमती गोखले, श्रीमती खापर्डे, श्रीमती औरंगाबादकर, राधाबाई देशमुख, श्रीमती तर्खड, श्रीमती तेन्दुलकर, मौशीबाई या फिर राधाकृष्णमाई हों या फिर भक्तों की टोलियों में आने वाली अन्य महिलाऐं, बाबा सदा ही सबके आई या माई ही कहते और उनके आदर के प्रति सभी को आगाह करते रहते.

नवग्रह पूजन  
नवग्रह का पूजन हमें अपने इतिहास और खगोलशास्त्र में गर्व महसूस कराता है कि सबसे पहले, कई वर्षों पूर्व, भारत में ही ग्रहों के बारे में इतनी सटीक खोज हुई थी. ग्रहों के स्वभाव के बारे में जानकर हम उनके बारे में एकदम ठीक वैज्ञानिक आकलन कर सकते हैं. ग्रहों का सम्मान हमें समाज और जीवन में यश और मान दिलवाता है. यह क्रिया उसी मान को पाने की दिशा में एक प्रयास मानी जा सकती है. बाबा भी अपने भक्तों को सदा ही सभी जीवों में ईश्वर के दर्शन करने को उत्प्रेरित करते रहते. सभी जीवों में ईश्वर तत्त्व के दर्शन करते रहने से और उनके प्रति दया भाव रखने से, उनकी सेवा करने से सदा ही बिगड़े हुए ग्रहों की चाल सुधर जाती है. श्री साई सच्चरित्र में ऐसे ही कई उदाहरण आते हैं जहाँ साई के कहने पर कुत्ते को या किसी अन्य जीव को भोजन कराने से साई बाबा के भक्तों की बिगड़ी तबियत और वित्तीय स्थिति में सुधार आया.

अतिथि सत्कार
बालगोपाल की प्रतिमा का स्नान, वस्त्रार्चन, श्रृंगार, यज्ञोपवीत संस्कार, रक्षा-सूत्र बंधन, नैवेद्य अर्पण, जल से आचमन और पान-बीड़ा अर्पण हमें इस बात का ज्ञान देता है कि अतिथियों को कैसे मान देना चाहिए. उनकी छोटी से छोटी ज़रुरत का ध्यान रखना हमारा कर्त्तव्य है. अतिथि देवो भवः एक परिपूर्ण भारतीय सूत्र है जिसका सम्पूर्ण विश्व में कोई समकक्ष नहीं है. अपने भक्तों के ठहरने और भोजन की सम्पूर्ण व्यवस्था करने के लिए बाबा ने पहले श्रीमान साठे और बाद में काकासाहेब दीक्षित को शिर्डी में वाड़ा बनवाने के लिए प्रेरित किया. कई सालों तक तो बाबा अपने हाथों से बड़े ही चाव से भक्तों के लिए भोजन तैयार करते और प्यार से परोसते. उन्हें प्यार से भाल पर अपनी चमत्कारी उदी भी लगाते. भक्त तो बाबा के लिए अतिथि के रूप में भगवान् थे. बाबा अपने भक्तों में भी ईश्वर के दर्शन करते.

प्रथम अध्याय: परोपकार से संतत्व
फिर जब मुख्य कथा प्रारम्भ होती है तो पहले अध्याय में उल्लेखित ऋषियों की मानव जाति के उत्थान के प्रति चिंता दर्शाती है कि महापुरुष हमेशा दूसरों के ही हित के लिए ही चिंतित रहते हैं और जो परमार्थ के बारे में सोचते हैं वे अमर हो जाते हैं और सैकड़ों साल बाद याद किये जाते हैं. नारद का संत स्वरुप दर्शाता है कि संत सीधे ईश्वरत्व से संपर्क में रहते हैं और मानवोत्थान के सूत्र देते हैं. साई तो स्वयं ऋषि भी थे और संत भी. वे अपने आश्रितों की भलाई के लिए सदैव ही चिंतित रहते और साथ ही स्वयं भक्ति के सूत्र और उपाय बताते रहते.

द्वितीय अध्याय: धन से धन कमाओ
दूसरे अध्याय में उस ब्राह्मण के बारे में उल्लेख है जो निर्धन तो था लेकिन जब उसने लकड़ियाँ बेचने का पराक्रम धर्म करने के उद्देश्य से किया तो परमात्मा ने उसकी मंशा जान उसे कर्म के बदले धर्म धन के रास्ते उपलब्ध कराया. सीख मिलती है कि मेहनत का कोई स्थानापन्न नहीं हो सकता. सही नीति और मंशा से की गई मेहनत से इंसान अपना प्रारब्ध ख़ुद गढ़ सकता है. यह भी सीखने को मिलता है कि जब इंसान नीति से कमाए हुए धन से धर्मोपार्जन करना चाहता है तो ईश्वर सदा सहायता करते हैं. सारे रास्ते खुल जाते हैं और अवरोध हट जाते हैं. नीयत से ही नियति का निर्माण होता है यह इस कथा से समझ में आता है. साई बाबा ने भी सदा लोगों को सही दिशा में ही कर्म करने की प्रेरणा दी. शिर्डी के एक आलसी से ख़ज़ाने की लालच में खेत जुतवा दिया और फिर उसमे खेती करवा दी. धन दिया, धर्म दिया, मान दिया. दामू कासार जैसे लोगों से व्यापार में सट्टे की प्रवृत्ति छुड़वाई. धनाढ्यों से परोपकार के काम करवाए. धार्मिक स्थानों का जीर्णोद्धार भी करवाया. नीयत में खोट को प्यार से ठीक किया.

तीसरा व चौथा अध्याय: व्यापार और परिवार में नेक नीयत  
तीसरे और चौथे अध्याय में व्यापारी की कथा आती है. दो अध्याय में फैली हुई ये कथा यह बताती है कि बनिए अथवा स्वयं का व्यवसाय करने वाले को कैसा आचरण करना चाहिए. सबसे ज़रूरी बात तो यह है कि ईश्वर किसी भी साधारण मनुष्य अथवा सन्यासी या किसी भी अन्य रूप में सामने आ सकता है. किसी से भी झूठ बोलकर अपने किये हुए वादे से मुकरना नहीं चाहिए. ऐसी ही सीख साई बाबा ने नानासाहेब चांदोरकर को भी दी थी जब वो कोपरगाँव के दत्त मंदिर के पुजारी से तीन सौ रुपये देने का वादा पूरा करने में असमर्थ थे तो छुपते-छुपाते शिर्डी पहुंचे पर रास्ते में काटों से लहुलुहान हो गए थे. बाबा ने कुछ देर उनसे बात न कर उनको उनकी गलती का अहसास कराया.
किसी अन्य का अनीति से धन कमाया धन सज़ा भी दिलवा सकता है जैसी कि उसको बनिए को और उसके जंवाई को हुई थी जब चोर उनके पास चुराया हुआ धन फ़ेंक कर चले गए थे. किसी और के धन पर हमारा अधिकार नहीं होता है. ऐसा ही किस्सा श्री साई सच्चरित्र में मद्रासी भजन मंडली के लालची प्रमुख के सपने का आता है जिसमें वो अपनी लालच के चलते जेल में खड़ा है और बाबा उसे उसकी गलतियों का अहसास करा रहे हैं.  
इन दोनों अध्यायों में यह भी समझ आता है कि पत्नी से बेहतर आपका कोई शुभचिंतक नहीं होता और उसकी बात को लगातार अनदेखा करना भगवान् को भी नागवार गुजरता है. अपने शुभचिंतक की बात को लगातार अनदेखा करने पर तकलीफ़ आती ही है. इसमें पत्नी के लिए भी व्यावहारिक सन्देश है कि पति के प्रेम में किसी का अनादर नहीं करना चाहिए. कलावती पति से मिलने को आतुर भगवान् का प्रसाद लिए बिना ही उठ भागी थी और कुछ देर के लिए ही सही अपना पति खो बैठी थी. श्री साई सच्चरित्र में औरंगाबादकर दंपत्ति, तेन्दुलकर दंपत्ति, तर्खड दंपत्ति, काकासाहेब दीक्षित और उनकी पत्नि, बायज़ामाई और उनके पति, खापर्डे दंपत्ति, आदि ऐसे कई दम्पत्तियों का ज़िक्र आता है जो सफ़ल दांपत्य की मिसाल बन कर सामने आते है.

पाँचवा अध्याय: राजधर्म का पालन और भोजन का सम्मान        
अंतिम अध्याय में उस क्षत्रिय की कहानी आती है जिसमें एक राजा शिकार पर निकलता है और जब उसे थकी हालत में देखकर उसकी प्रजा के लेकिन नीच जाति के लोग उसे प्रसाद के रूप में अन्न भेंट करते हैं तो वह उसकी अवज्ञा करता है. इसके फलस्वरूप उसे मुसीबतों का सामना करना पड़ता है. सीख मिलती है कि जब भी कोई प्रेम से भोजन भेंट करे तो उसे अपना सम्मान समझो. उसका अनादर नहीं करना चाहिए. यही सीख बाबा ने भी श्री साई सच्चरित्र में अपने तीन अन्य दोस्तों की कहानी में दी है जिसमें वो लोग रास्ता भूल जाते हैं और भील द्वारा भोजन की पेशकश ठुकरा देते हैं. वो वन में ही भटकते रहते हैं और उन्हें रास्त तब ही मिलता है जब वे उस भील द्वारा अर्पित भोजन ग्रहण कर लेते हैं. भूखे पेट कहीं रास्ता मिलता है क्या!
इस अंतिम अध्याय की कथा का मर्म समझाते हुए भाईजी बताते हैं कि अपने से नीची जाति वालों को कमतर समझना ईश्वर की कृति का अपमान होता है. सभी को बराबर का दर्जा दो. यदि नहीं दे सकते हो तो उनका अपमान तो मत करो. यही सीख बाबा ने अपनी तमाम उम्र लोगों को दी कि अपने बीच से तेली की दीवार हटा दो.

कहानी भीमाजी पाटिल की  
शिर्डी में साई सत्यव्रत पूजा की बात आगे बढ़ाते हुए भाईजी बताते हैं कि भीमाजी पाटिल को क्षय रोग हो गया था और उन्हें लगभग हर पाँचवे मिनिट पर खून की उल्टियाँ हुआ करती थी. कई इलाज करवाए गए लेकिन थक-हार कर जब बाबा के परम भक्त नानासाहेब चांदोरकर से सलाह ली तो उन्होंने भीमाजी को तुरंत साई बाबा के श्रीचरणों में ले जाने को कहा.
श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 13 में आता है कि जब भीमाजी को बाबा के पास लाया गया तो बाबा ने उनकी हालत देखकर दो-टूक कह दिया कि यह भीमाजी के पूर्व जन्मों का फल है और इसे तो उन्हें काटना ही पड़ेगा. इस पर भीमाजी ने अत्यंत दयनीय भाव से बाबा से याचना करते हुए कहा कि उन्हें इस पीड़ा से बचा लें और अब उन्हें केवल बाबा का ही सहारा है. उनकी गुहार पर बाबा पसीज गए और बाबा की दया दृष्टि पड़ते ही उन्हें खून की उल्टियाँ होना बंद हो गयीं. बाबा ने उन्हें भीमाबाई के घर रहने भेज दिया जो कि किसी भी दृष्टि से उनके रहने लायक तो न था लेकिन बाबा के आदेश का कौन टाल सकता था. बाबा की तो रीत ही निराली थी. हो सकता है कि भीमाबाई के यहाँ रहने भेज कर बाबा भीमाजी पाटिल के अहंकार का इलाज कर रहे हों या ऐसा कर के उनके पूर्व जन्म के कर्मों के प्रभाव को बाबा कम कर रहे हों. बाबा की बातें बाबा ही जाने!
एक रात भीमाजी ने सपना देखा कि वो एक कक्षा में बैठे हैं और कविता याद न कर पाने पर उन्हें बेंत से मार कर स्कूल मास्टर सज़ा दे रहे हैं. सपने में ही उन्हें खूब दर्द का अहसास हुआ. कुछ समय बाद फिर रात को उन्हें एक सपना आया जिसमें कोई उनकी छाती पर एक भारी पत्थर रख कर ज़ोर-ज़ोर से घुमा रहा था और दर्द के मारे उनकी जान निकली जा रही थी. कराहते हुए उनकी नींद खुली तो उन्होंने पाया कि उनका रोग जाता रहा और उनकी तबियत बिलकुल ठीक हो गयी थी. यह बाबा की बिलकुल अनूठी रीत थी भीमाजी के कर्मों को शांत करने की. कर्मों के फल सपनों में महसूस किये दर्द के माध्यम से शांत हो गए. भक्तों को ऐसी प्रीति सिर्फ़ साई के चरणों में समर्पित हो कर ही मिलती है.
भीमाजी जब ठीक होकर अपने गाँव पहुंचे तब उन्होंने साई की इस प्रीति को अमर बनाने के उद्देश्य से अपने गांव में साई सत्यव्रत पूजा प्रारम्भ की. इसमें सत्यनारायण भगवान् के साथ साई बाबा की मूर्ति भी पूजी जाती है. आज भी यह पूजा शिर्डी में प्रतिदिन तीन पालियों में सत्यनारायण पूजा दालान में प्रतिदिन संपन कराई जाती है.
साई में ही सत्यनारायण बसते हैं क्योंकि साई सत्य हैं, नित्य हैं और सद्गुरू बन सत्य की राह पर हम सबको लिये चलते हैं. साई में ही सत्य के दर्शन करने से आध्यात्मिक उन्नति गति पकड़ लेती है और अपने भाव सुधरने का भास होता है. भाव से ही विचार और विचारों से कर्म सुधारते हैं. बाबा सत्यनारायण के रूप में भी हमारा हाथ पकड़ कर हमारे साथ हमें सत्य की राह पर लिए चलते हैं.                       
      
   बाबा भली कर रहे।।

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु