मन में रखना दृढ़ विश्वास, करे
समाधि पूरी आस
श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से दूसरे वचन के बारे में बताते हुए ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा का चौथा वचन - मन में रखना दृढ़ विश्वास, करे समाधि पूरी आस - भक्तों के जीवन में साई की समाधि के प्रति आस्था को सुदृढ़ करता है. यह वचन आस से आस्था का रास्ता खोलता है.
भक्त अपने अंतःकरण से साई की समाधि को साई का ही विस्तार मानते हुए साई की भक्ति के प्रति और आकृष्ट हो जाता है. उसके अंतःकरण में साई की समाधि के प्रति अगाध आस्था का उदय होने लगता है. साई की समाधि, बाबा के उन वचनों का प्रतीक है जो उनके भक्तों को निराशा के अन्धकार से निकाल कर आशा की पगडंडी पर ले कर आती है.
इस वचन को समझने के लिए पहले समझना होगा कि
मन क्या है. दृढ़ विश्वास क्या होता है? आस और आशा क्या होती हैं? आस से आस्था का
संचार कैसे होगा? समाधि हमारी आस को कैसे पूरा करेगी?
मन में ही तो साई बसते हैं. साई को हम
देवालयों में ढूंढते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि हमारा मन ही साई का मंदिर है. हम
चाहे किसी भी मज़हब को मानते हो, हमें सिखाया गया है कि देवालय में दाख़िल होने से पहले
अपने जूते बाहर उतार कर ही अन्दर जाते हैं जिससे हमारे जूतों पर लगी बाहर की धूल,
मिट्टी, गंदगी से देवालय अपवित्र न हो जाए लेकिन यही बात हम अपने मन के बारे में
भूल जाते हैं. बाहर की तमाम गंदगी से सनी हुई अपनी मद और अभिमान के जूते लेकर हम
अपने मन में घुस जाते हैं और उस जगह को गंदा करते हैं जहाँ पर हमनें साई को बिठा
रखा है. तन की स्वच्छता का ध्यान तो बहुत रखते हैं लेकिन मन की स्वच्छता का ध्यान
कहाँ रहता है हमें?
इन जूतों के साथ, हम
अपने क्रोध की हमें ही जलाने वाली आग, कटुता की हमें ही काटने वाली धार, हमें ही
मारने वाला बैर का बीज, ख़ुद को तकलीफ़ पहुंचाने वाली बदले की मंशा, बार-बार हमें
अपने ही लक्ष्य से भटकाने वाला लालच, अपनी ही नज़रों में हमें गिराने वाली वासना, हमें
झूठे दंभ में रखने वाला हमारा अहंकार और ख़ुद को पहले और दूसरों को बाद में छलने
वाली धोखे देने की भावना का कीचड़ भी साथ में लेकर इस मंदिर में आ जाते हैं. क्या
कीचड़ में कहीं देवों को सहज देखा है? लेकिन साई तो सबसे अलग हैं!
साई तो उस कीचड़ से
सने हमारे मन में रुके रहते हैं और उसे अन्दर ही अन्दर से स्वच्छ भी करते रहते
हैं. ख़ुद ही अपने रहने की जगह, हमारे मन, को साफ़ करते हैं. वो तो चाहते हैं कि हम
सुधर जायें और स्वभावगत बुराइयों से पार पा सकें. वापस अपने निर्मल स्वरूप में आ
जाएँ. हमारा वही स्वरुप मूल है जो हमें जन्म के समय मिला था. जो चादर हम ओढ़ कर आये
थे वो बिलकुल साफ़ थी. उसमें कोई दाग़ नहीं था. अपने स्वरुप की चादर को हम अपने
स्वभाव के मैल से मैला कर लेते हैं. वह स्वभाव जो हमें बाहर से, समाज और दुनिया से
मिलता है. यह जानते हुए भी कि इस कीचड़ में गंद के सिवा कुछ भी नहीं मिलेगा, हम
कीचड़ में धंसते ही चले जाते हैं. इस चादर को ओढ़ने के बाद हमें अपने आप से घिन होने
लगती है. इसे शर्म के मारे हम फिर अपने नीचे दबा लेते हैं. उसी पर सोने लगते हैं. हम
अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं, दुखी होते हैं, हमें नींद नहीं आती और खुली आँखों
से अपनी ही चादर पर चिंता की करवटे लेते-लेते दुःख की सिलवटें उकेरते रहते हैं.
सांसों की आवाज़ कानों में चुभती है. निढाल जिस्म को ढोते-ढोते कब वक़्त से पहले ही
हमारा दम निकल जाता है, समझ में नहीं आता.
इसी मैले मन में साई
से मांगने के लिए इतना कुछ भर रखते हैं कि जब मांगने बैठते हैं तो विचार भावों पर
हावी हो जाते हैं. भावों में आस बसती है और विचारों में आशा. भाव हमारे अपने होते
हैं. विचार बाहर से आते हैं. भाव साई को चाहता है. विचार साई से चाहते हैं. भाव
दूसरों का भला चाहता है, जानता है कि दूसरों के भले में ही अपना भला छुपा होता है.
विचार स्वार्थ से हवा पाकर वासना की आग को भड़का देते हैं. भाव सरलता चाहते हैं तो
विचार कभी सीधे चलते ही नहीं. भाव मन साधते हैं तो विचार मन को बहका देते हैं. भाव
और विचारों की खीचा-तानी के बीच जब हम साई के पास, कुछ मांगने पहुँचते हैं तो
दोनों की इस रस्साकशी में विचारों से मांग बैठते हैं. साई सब जानता है लेकिन फिर
भी मुस्कुराकर हमें वही देता है जो हम उससे मांगते हैं. वो तो ना कहना जानता ही
नहीं है. इसी उम्मीद में वो हमें वो सभी कुछ बिना रुके दिए जाता है कि हम किसी दिन
तो वापस आयेंगे और उससे वो मांगेंगे जो वो हमें देना चाहता है. वो हमारे भावों को
पढ़ चुका होता है.
जैसे-जैसे वो हमें
देते जाता है, हमारा विश्वास उस साई में बढ़ने लगता है लेकिन हमारा अहंकार इसके
साथ-साथ बड़ा भी होता जाता है. हम जानते तो हैं कि हमें जो कुछ भी मिला है वह साई
ही की कृपा से मिला है लेकिन इसे मानना बड़ा ही मुश्किल होता है. हम हैं तो क़तरा ही
लेकिन अपने आप को करता मानने लगते हैं. अगर इस बीच हमारी कुछ ऐसी इच्छाएँ पूरी नहीं
होती जिनकी पूर्ति में हमारा ही नुकसान होता, तो हम हताश हो जाते हैं. विश्वास डोल
जाता है. तब फिर साई के ही करता होने का अहसास जाग जाता है.
विश्वास जब हमारी इच्छाओं
की पूरी होने पर विकसित होना शुरू होता है तो भरोसा कहलाता है. यह पहली सीढ़ी होती
है. यह भरोसा इन्हीं के समान और इच्छाओं की पूर्ति पर पल्लवित होता है और फिर विश्वास
कहलाता है. बस! हम में से अधिकांश यहीं पर रुक जाते हैं. इस विश्वास को दृढ़ होने नहीं
देते. उसे आस्था या श्रद्धा में बदलने ही नहीं देते. मन मंदिर बिना आस्था के कुछ
भी तो नहीं. मंदिर की तो एक-एक ईंट में आस्था बसती है.
मन की भट्टी में भक्ति
की आंच पर इस विश्वास की ईंट को पकाने के लिए इच्छाओं के कोयले को चिता समान सजा
कर धैर्य की फुंकनी से हवा देनी पड़ती है. इसी धैर्य को बाबा ने सब्र या सबुरी कहा.
सबुरी हमें बड़े से
बड़े संकट से तार देती है. मुसीबतों में विश्वास दिलाती है कि सब कुछ ठीक-ठाक होगा.
हमें अपने वीर होने का अहसास कराती है और बलशाली बनाती है. विचारों पर क़ाबू करना
सिखाती है. हमारे आत्म-विश्वास को मज़बूत बनाती है. दुखों से तार देती है. हमारी
अपेक्षा से बेहतर परिणाम हमको दिखाती है.
मन की भट्टी में
इच्छाओं के कोयले पर, भक्ति की आंच से, सबुरी की फूँक से हमारे विश्वास की ईंट जब पकने
लगती है तो इच्छाएँ राख हो जाती हैं. उनका स्वरुप बदल जाता है. इसी राख से बर्तनरूपी
जीवन को मांजने पर उसमें चमक आ जाती है. वासना के जीवाणु मर जाते हैं. हाथों का लोभरूप
मैल छूट जाता है. माथे पर उस राख को लगाने से रूप में अनासक्ति हो जाती है. राख
में न जाने कितने ही गुण छुपे रहते हैं. हम सब जानते हैं लेकिन स्वभाव की कमजोरी
के चलते सब भूल जाते हैं. इच्छाओं का स्वरुप बदल जाने पर उनका उपयोग भी बदल जाता
है. जहाँ पहले वही इच्छाएँ स्वार्थ के लिए होती थीं अब परमार्थ के लिए होती हैं. पहले
इच्छाएँ बहकाने का काम करती थीं. अब उनकी राख मन को शुद्ध करती है. इच्छाओं का यह
बदला रुप हमारा स्वरुप भी बदल देता है.
इस बदले हुए स्वरुप
में ख़ुद को पहचानना मुश्किल हो जाता है. इच्छाएँ अब भी होती हैं लेकिन उनमें वासना
का विष नहीं होता. एक-एक कर के इन ईंटों को अपने मन में सजाना पड़ता है तब जाकर साई
के रहने की जगह बनना शुरू हो पाती है.
शिर्डी में साई की
समाधि कोई साधारण समाधि नहीं है. ऐसी ही आस्था की पकी हुई ईंटों से साई की समाधि
बनी हुई है. परमात्मा में उनके अटूट विश्वास को जब पकने के लिए उन्होंने अपनी
इच्छाओं की चिता बना कर मुक्ति की आकांक्षा से प्रज्ज्वलित किया होगा और जब उसे सबुरी
की फूँक दी होगी तब ही उनकी इस समाधि की नींव की ईंट तैयार हुई होगी.
श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 43-44, जिसमें बाबा की
महासमाधि की यात्रा का विवरण है, को पढ़कर यह जानने में आता है कि उनके आज्ञाकारी
सेवक माधव फासले के हाथों अनजाने ही एक ईंट के टूटने पर साई ने उसे अपनी
महासमाधि का संकेत यह कहते हुए माना था कि उनकी जीवन संगिनी चली गयी. हमेशा अपना
सर उस ईंट पर रख बाबा सोते और उसे हमेशा बहुत ही सहेज कर रखते. भला कोई ईंट को
क्यों सहेज कर रखता! यही श्रद्धा थी जिसने साई को आस्था का प्रतीक बनाया. इसी
श्रद्धा पर बाबा अपना सर रख सोते और इसी को सहेज कर भी रखते. इस तरह इस अमूल्य ईंट
को बाबा अपनी जीवन संगिनी मानते थे. श्रद्धा उनकी जीवन संगिनी तो थी भी. यही ईंट
जब टूट गयी तो साई बाबा को मानो यह आदेश हो गया था कि अब उनकी अटूट श्रद्धा को
लेकर उन्हें परमात्मा से फिर एकाकार हो जाना है. साई की उस ईंट के टूटने पर जो कण
यहाँ-वहां बिखरे होंगे अणु विस्फ़ोट के समान उससे कई-कई गुणा श्रद्धा उर्जा के रूप
में इस विश्व में फैल गयी होगी!
इस ईंट को मूल्यवान
धातु से जोड़ कर उनके उपयोग की अन्य वस्तुओं के साथ बाबा की समाधि में भी रखा गया
है. आस्था की स्वरुप उस ईंट का प्रारब्ध ही इसी तरह गढ़ा गया था कि उसे अटूट रह कर
साई के साथ और टूटने पर भी सदा साई में मिल कर उनकी समाधि का हिस्सा हो जाना था.
उस समाधि में वैसे तो अनेकों ईंटें लगी होंगी लेकिन इस बहुमूल्य ईंट को तो उस
समाधि की नींव होना था.
उस समाधि को जिसे साई
हमेशा ओढ़ कर शिर्डी की गलियों को ब्रहमांड मानकर घूमते रहे और दुनिया भर के लोगों
को मुक्ति की राह सुझाई. इसके लिए बाबा ने स्वयं पहले तो उनकी भौतिक इच्छाएं पूरी
की और बाद में मुमुक्षा या मुक्ति का बीज बोया. एक बीज से कितने फल पैदा होते हैं
यह तो बीज की क्षमता से अधिक मिट्टी की उर्वरता या उपजाऊ क्षमता पर निर्भर करता
है. ऐसे ही मुमुक्षा की इच्छा तो साई अपने सारे ही भक्तों में उत्पन्न कर देते हैं
लेकिन कितने भक्त मुक्ति पाने की इच्छा रख कर उसे पाने निकल पड़ते हैं, यह हमारे
संस्कारों और स्वभाव पर निर्भर करता है. साई के सारे ही भक्त भक्ति की राह पर अपने
आप को खोजने निकल नहीं पड़ते. अधिकांश तो बाबा की दी हुई माया में ही उलझ कर रह
जाते हैं. कुछ ही इससे आगे निकल पाते हैं.
जो इस राह पर आगे
निकल जाते हैं, वो बाबा की समाधि पर पहले तो अपना हाथ रखते हैं, साई को महसूस करते
हैं. जो साई की समाधि पर इस तरह से हाथ रखते हैं, उनका प्रारब्ध साई अब अपने हाथों
में ले लेते हैं. इनके हाथों में अब साई के हाथों की गर्माहट महसूस की जा सकती है.
यह गर्माहट तमाम मानसिक ज़ंजीरों को पिघला देती है. जब साई के ये दीवाने, साई की
समाधि पर अपना सर रख देते हैं, साई की आस्थारूप ईंट से संपर्क में आते हैं तो उनके
कानों में पड़ने वाली उस ईंट पर सर रखकर सोने वाले साई के श्वासोच्छ्वास के ओज से
उनकी तकदीरें बदल जाती हैं. साई की प्रत्येक सांस में अल्लाह का ही नाम रहता.
अल्लाह का नाम ही अन्दर आता और अल्लाह का नाम ही बाहर आता.
अब आस का स्वरुप बदल
जाता है. वो आशा को अपने अन्दर विलीन कर लेती है. जो पहले भावों में बसती थी लेकिन
विचारों से सुनाई देती थी वो आस अब भावों में ही सुनाई देती है. आस परोपकारी होती
है तो आशा स्वार्थी. आस परिपूर्णता की ओर ले जाती है तो आशा सदा अपना कद बढ़ाती हुई
अपूर्ण ही रहती है. आस सदा के लिए होती है तो आशा रोज़ नया रूप लेकर सामने आ खड़ी
होती है. आस संतोषी बनाती है तो आशा असंतोष उत्पन्न करती है. आस भीड़ से अलग करती
है तो आशा भीड़ में जोड़ देती है. आस विजय का नाम है तो आशा होड़ का. आशा का विलीन
होना और आस का प्रबल होना, यह साई की कृपा से ही संभव हो सकता है.
आशा के लुप्त हो
जाने से और आस के बलवान होने से भावों और विचारों का घर्षण समाप्त हो जाता है. मन
से भाव, भाव से विचार, विचारों से कर्म और कर्म से प्रारब्ध – सभी एक पंक्ति में आ
जाते हैं.
निर्मल मन में साई
के प्रति दृढ़ विश्वास, साई की समाधि की वो ईंट, हम सबका प्रारब्ध बदल कर हमारी
मुक्ति की आस को पूरा करती है. वो मुक्ति जहाँ पर हम साई से एकाकार हो जाते हैं.
हमारा अहंकार साई के चरणों में लीन होकर विलीन हो जाता है और हम साई की दीनता को
समेट लेते हैं. हम साई हो जाते हैं. समाधि आस को पूरा करती है. दृढ़ विश्वास रखो.
बाबा भली कर रहे।।
श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु।
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