Saturday 9 July 2016

गुरु पूर्णिमा पर साई को नमन

[Copyrighted article. This article is covered under the intellectual rights. Any part or content of this article must not be reproduced with out the written consent of Shri Sumeet Ponda. सर्वाधिकार सुरक्षित. यह लेख श्री साई अमृत कथा और श्री सुमीत पोंदा 'भाईजी' की निजी निधि है. इसे या इसके किशी भी अंश को निधिधारी की लिखित अनुमति के बिना उपयोग किया जाना दंडनीय अपराध होगा.]

हमारी संस्कृति में हर एक उत्सव मनाये जाने का एक निश्चित कारण होता है. लेकिन हम तो इसे महज रिवाज़ मानकर मना लेते हैं क्योंकि हमें इन कारणों के बारे में पता ही नहीं होता. शायद किसी ने बताया भी नहीं होता. गुरु पूर्णिमा गुरु का उत्सव है और बहुत सटीक है कि गुरु का यह उत्सव चंद्रमा की कलाओं और उसकी शीतलता के साथ जोड़ कर मनाया जाता है.
हम सभी जानते हैं कि चंद्रमा हमारी पृथ्वी का सबसे करीबी उपग्रह है. इसकी अपनी कोई रौशनी नहीं होती है. इसकी जो भी चमक है वह सूर्य के कारण है. पृथ्वी के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते-लगाते जब भी चंद्रमा सूर्य से विमुख हो जाता है तो कृष्ण पक्ष या अंधियारा पखवाड़ा शुरू हो जाता है यानि उजाले से अँधेरे की ओर चंद्रमा की यात्रा शुरू हो जाती है और इसके विपरीत जब चंद्रमा का मुख सूर्य की ओर हो जाता है तो यह अँधेरे से उजाले की ओर बढ़ना शुरू हो जाता है. इसे हम शुक्ल या उजियारा पक्ष कहते हैं. इसी तरह जब हम गुरु की ओर अपना मुंह कर लेते हैं तो हमारी भी अँधेरे से उजाले की यात्रा आरम्भ हो जाती है और जब हम गुरु पीठ कर लेते हैं तो हम अँधेरे की ओर बढ़ने लगते हैं. गुरु की ओर देखना तो हमें ही पड़ेगा. गुरु तो वहीँ रहता है. बस जब हम उसकी ओर जब देखते हैं तो वो हमें राह दिखाना शुरू कर देता है.
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एक और बात है जो गुरु के उत्सव को चंद्रमा से सीधे जोडती है. अंधेरे जब लम्बे होने लगते हैं तब गुरु की आवश्यकता अधिक लगने लगती है. सूर्य के दक्षिणायन, जब दिन छोटे होने लगते हैं और रात की लम्बाई बढ़ने लगती है, होने के बाद आषाढ़ माह में गुरु पूर्णिमा पहली पूर्णिमा होती है. पूर्णिमा की रात चंद्रमा अपनी सारी कलाएं बिखेरता है. सबसे ख़ूबसूरत होता है. प्रकाशवान होता है. गुरु तो अपने आप में प्रकाशित करने की क्रिया का ही नाम है. यही गुरु शब्द का अर्थ भी है.
पृथ्वी का तीन-चौथाई हिस्सा पानी है. चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण के कारण धरती पर पानी में हलचल पैदा कर देता है. पूर्णिमा की रात को जब चंद्रमा की लीला और उसकी रौशनी पूरी होती है तब उसकी शीतल चांदनी पृथ्वी पर समुद्र में हिलोरे पैदा करती है. समुद्र में ज्वार आ जाता है और उसके तले की गंदगी किनारे लग जाती है. तब साफ़ पानी वापस समुद्र में चला जाता है. हमारे शरीर में भी पानी का अंश अन्य चार तत्वों, वायु, पृथ्वी, अग्नि और आकाश से कहीं अधिक है. गुरु का दिया ज्ञान गुरु के गुरुत्वाकर्षण के चलते हमारे भौतिक आकार में हिलोरे पैदा करता है और हमारे मन की गंदगी को बाहर निकाल कर हमें साफ़ कर देता है. गुरु की सीख से उठ रही मन की हिलोरों के इसी ज्वार में हम एक कुशल नाविक की तरह अपने अन्दर की यात्रा शुरू कर देते हैं. ख़ुद की खोज प्रारम्भ हो जाती है. उस ख़ुद की जिसे हम जीवन की आपा-धापी में खो चुके होते हैं. गुरु पूर्णिमा उत्सव है उस यात्रा का जो हमें आध्यात्म की ओर ले जाती है, अपनी ओर ले जाती है.
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गुरु पूर्णिमा का पौराणिक महत्त्व भी है. इसी दिन कोई 15000 वर्ष पूर्व शिव ने हिमालय में 84 वर्षों तक अथक तपस्या के बाद विश्व के पहले, आदिगुरु, बन कर सप्तऋषियों को ज्ञान दिया था जिन्होंने इस ज्ञान को विश्व भर में फैलाया.
महर्षि वेदव्यास, जिन्हें विष्णु के 24 अवतारों में से एक माना जाता है, का जन्म इसी दिन ऋषि पाराशर और मछुआरे की बेटी सत्यवती के यहाँ हुआ था. उन्होंने न सिर्फ वेदों की पुनः रचना की बल्कि उन्हें चार भागों में उनकी शिक्षाओं के अनुसार व्यास रूप से बांटा भी. ये वेद अथर्ववेद, यजुर्वेद, सामवेद और ऋग्वेद कहलाये. वेदव्यास ने बाद में श्रीमद्भागवत और श्रीमद्भगवद्गीता की रचना कर इस संसार को ज्ञान का अद्भुत भण्डार दिया. इस पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है.
इसी दिन बुद्ध ने भी ज्ञान-प्राप्ति के कोई 5 हफ़्तों बाद सारनाथ में अपना पहला उद्बोधन किया था. जैन समुदाय का चातुर्मास आज ही के दिन प्रारंभ होता है जब 24वे तीर्थंकर महावीर स्वामी ने कैवल्य की प्राप्ति के बाद एक गंधार, गौतम स्वामी को अपना शिष्य बनाया था.
शिष्य के बिना गुरु का औचित्य ही नहीं है और गुरु के बिना शिष्य का अस्तित्व. दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और एक-दूसरे के बिना दोनों ही अधूरे हैं. साथ ही यह बात अवश्य ही सत्य है कि जिस दिन शिष्य में शिष्यत्व का भाव उत्पन्न हो जाएगा उस दिन ईश्वर स्वयं सद्गुरू का रूप लेकर आ जायेंगे. शिष्यत्व के भाव से मतलब है कि जिस दिन हम अपने मनोभावों पर किसी को शासन करने की स्वीकृति इस आशय  से देंगे कि वो जीवन की कठिन राहों पर हमारा हाथ पकड़ कर चले. जब हमारे भाव शासित किये जाने के योग्य हो जायेंगे, उस दिन हमारे जीवन में गुरु का आना तय है.
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शिर्डी में गुरु पूर्णिमा उत्सव की शुरुआत
सोमवार का दिन. 13 जुलाई, 1908. बाबा ने मस्जिद में बैठे-बैठे शामा को बुला कर कहा कि जाओ और उस बुड्ढे से कहो कि सामने लगे खम्बे की पूजा करे. तात्यासाहेब नूलकर को बाबा प्रेम से बुड्ढा कहा करते थे. शामा को खम्बे की पूजा करने की बात समझ नहीं आई लेकिन बाबा की बात कभी थोथी-पोची होती नहीं थी और बाबा का हुक्म टालने का ज़ोर उनमें नहीं था. वो दौड़े-दौड़े दादा केलकर के पास गए जिन्हें थोडा-बहुत ज्योतिष और पंचांग का ज्ञान था. दादा केलकर ने पंचांग देखा और बताया कि उस दिन गुरु पूर्णिमा थी. गुरु पूर्णिमा पर क्या करना है इस बात का भान तो उन दोनों में से किसी को था नहीं लेकिन वे समझ गए कि इस अवसर पर बाबा की इच्छा है कि गुरु के रूप में उस खम्बे का पूजन किया जाए जिसने पूरी मस्जिद का भार अपने ऊपर ले रखा है. गुरु भी तो अपने शिष्य का भार अपने ऊपर ले कर रखता है

नूलकर आये और उन्होंने शामा से कहा कि बाबा के अतिरिक्त हम किसी और को क्यों पूजे जब साक्षात् समर्थ सद्गुरू साईनाथ हमारे मध्य मौजूद हैं. उन्होंने बाबा से इस बाबत अनुमति मांगी लेकिन बाबा ने नहीं दी. शामा के बहुत ज़िद करने पर बाबा ने अपनी पूजा करने की अनुमति दी. बाबा को धोती अर्पण की गयी और पहली बार बाबा की आरती नूलकर द्वारा उतारी गयी. इस तरह शिर्डी में गुरु पूर्णिमा उत्सव की शुरुआत हुई.
साई के ऊपर उनके गुरु की बहुत गहरी छाप थी. अपने गुरु के बारे में कभी उन्होंने स्पष्ट रूप से किसी को कभी बताया नहीं. श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 18-19 में उल्लेख है कि खशाबा देशमुख की माँ राधाबाई देशमुख के बाबा से गुरुमंत्र प्राप्त करने ज़िद करने पर बाबा ने उन्हें बड़े ही प्रेम से यह समझाया था कि उनकी प्रणाली में गुरुमंत्र देने का कोई रिवाज़ है ही नहीं. उनके गुरु ने भी उन्हें कोई गुरुमंत्र नहीं दिया था बल्कि निष्ठा और धैर्य की दक्षिणा उनसे ली थी. बाबा ने अपने गुरु की 12 वर्षों तक अथक सेवा की और इसके बदले में गुरु की कृपादृष्टि से उन्हें जीवन का परम सुख मिला.
बाबा ने अपने गुरु से प्राप्त जीवन जीने के बहुमूल्य सूत्र श्रद्धा और सबुरी अपने भक्तों को भी दिए. साई बाबा का कहना था कि अपने गुरु में अटूट श्रद्धा रखने से और सबुरी (सब्र) रखने से जीवन के समस्त कष्ट दूर कर अंतिम ध्येय, ईश्वर से एकाकार, प्राप्त हो जाता है.

श्रद्धा मनुष्य में अभयत्व का संचार करती है. भय मृत्यु के समान होता है. अपने आराध्य में श्रद्धा कभी भी भयभीत नहीं होने देती. इसी श्रद्धा पर सवार होकर हम निडरता से अपना जीवन जी सकते हैं कि हमारा रखवाला जब सदा हमारे साथ ही है तो फिर कैसा डर? इसी तरह सबुरी हम में धैर्य का संचार करती है, हिम्मत देती है और आशा को जीवित रखती है. आशा ही जीवन का आधार है. यह सब्र रख कर ही हम सीख सकते हैं.
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साई के इन्ही सूत्रों से हम अपने जीवन को धन्य बना सकते हैं. अगर इन सूत्रों को हमने अपने जीवन में समो लिया तो यही इस गुरु पूर्णिमा पर साई को हमारी सच्ची गुरु-दक्षिणा होगी.
बाबा भली कर रहे।।
                       श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु
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