Tuesday, 30 June 2015

मक्खन-मिश्री अर्पित करो साई को




साई की काकड़ आरती में सम्मिलित होने का अवसर जब भी मिलता है, हर साई-भक्त दोनों हाथों से उसे लपक लेता है. दिल में अनगिनत फरमाइशे लिए हम पुजरिओं को बाबा को निद्रा-लीला से जगाते देखते हैं लेकिन जो भाव उस समय उमड़ते हैं, जो ख़याल मन में घुमड़ते हैं, वो मन धोने का काम करते हैं. काकड़ का व्यवहारिक मतलब होता है आपस में गुंथी हुई रस्सियाँ. हमारी फरमाइशे आपस में उलझ कर काकड़ में जल कर रूप बदल लेती हैं मानो काम, क्रोध, मत्सर, मद को आपस में गूंथ कर काकड़ बनाया और वैराग्य का घी उसमे उड़ेल कर अपनी भक्ति की ज्योत जला दी हो.

उधर पुजारी-सेवादार साई को स्नान करवाते समय बाबा की मूर्ति और उनकी समाधि पर गुलाब-जल मिश्रित पानी डालकर सांकेतिक स्नान की क्रिया में लीन होते हैं, यहाँ हमारे मन से वो दृश्य मैल हटाने का काम कर रहा होता है. साई की मूर्ति और समाधि से जल की धारा जब नीचे रीस कर गिर रही होती है और सेवादार उसे समेटने के अथक प्रयास कर रहे होते हैं कि किसी के पैर के नीचे वो जल ना आ जाए जिससे उसका अपमान हो, हमारे मन में इधर हमारा गुज़रा हुआ कल बह कर निकल रहा होता है. हम उसे समेटने की कोशिश भी नहीं करते. मन से बदले की भावना काफूर होने लगती है. हमारे अन्दर माफ़ी देने का भाव उत्पन्न होने लगता है. हम मन ही मन उन सबको माफ़ कर देते हैं जिनके कारण हमें कभी ना कभी दुःख पहुंचा है. दरअसल किसी को माफ़ कर हम किसी और पर नहीं खुद अपने आप पर अहसान कर रहे होते हैं. दूसरों को माफ़ करके हम स्वयं हल्का महसूस करते हैं.

जब साई की मूर्ति को साफ़ कर, पोंछ कर बाबा का नख-शिख अष्टगंध से श्रृंगारित करने के बाद बाबा को नए वस्त्र धारण करवाए जाते हैं तो मन में हूँक सी उठती है कि दुनिया के सारे वस्त्र साई नाम को धारण करने के आगे गौण हैं और साई नाम का आवरण ओढने से हमारे आचरण में गज़ब का परिवर्तन आ जाता है. साई हमें बदलने लगते हैं.

वस्त्रार्पण के बाद जब साई को पुजारी मुकुट पहनाते हैं तो जो उसकी आभा, छटा होती है, उसको देखकर, भले ही कुछ ही देर के लिए, हम अपने अहंकार से दूर हो जाते हैं. साई का राजाधिराज वाला स्वरुप नज़र आने लगता हैं और हम उनके करोड़ों भक्तों में एक राज-कण के समान. मानो उस देव के आगे हमारी कोई औकात ही नहीं है. और वाक़ई में है भी नहीं.

इन सबके बाद जब एक छोटी आरती, ‘शिरडी माझे पंढरपुर..’ संपन्न होती है और दर्शन कतार प्रारम्भ होती है और जब चारों और से बाबा पर फूलों कि वर्षा होने लगती है तो लगता हैं मानो साई ने हमें इन कुछ पलों में वो सब भी तो दे दिया जो हमने कभी माँगा ही नहीं था. मन में भक्ति की लहरें हिलोरे मारने लगती है. साई के ऊपर से नज़रें हटाने को दिल नहीं करता. उनके सामने लोट-लोट कर भी दिल नहीं भरता. उसके बिना सब कुछ निरर्थक लगने लगता है. साई से प्रेम हो जाता है.

सुरक्षा गार्ड की ‘पुढे चला..(आगे बढिए..)’ पुकार पर हम आगे बढ़ते हैं लेकिन मन साई के चरणों में रखकर.
         
जब हम बाहर निकलते हैं तो द्वार पर खड़े सेवादार को हाथ में एक पतीली से चम्मच भर-भर कर मक्खन-मिश्री का प्रसाद देते सहज ही देखते हैं. वैष्णव परंपरा का विस्तार. हम सहज ही अपनी हथेली आगे बढ़ाते हैं और उस मक्खन-मिश्री के प्रसाद को हाथ में ले अधरों तक ले जाते हैं और उसके स्वाद से भर उठते हैं. मन की सारी कड़वाहट उस प्रसाद की मिठास में धुल सी जाती है. क्या है ये मक्खन-मिश्री? क्यों बांटते हैं इसे?

काकड़ आरती के दौरान हमारे मन का मैल धुल गया है और कुछ देर के लिए ही सही हम  सौम्य, स्वच्छ और स्वस्थ हो गए हैं. हमारा मन उस मक्खन से सदृश हो जाता है. नर्म, साफ़ और मन-माफिक आकार लेने वाला. यह मक्खन सदैव ऐसा ही रहना चाहिए. ताज़ा. बासी मक्खन खट्टा हो जाता है, उसमें से बदबू आने लगती है. सदा अपने मन को मथते रहो, साई के नाम से बिलोते रहो. मन सदा नया बना रहना चाहिए. आखिर मक्खन का एक नाम नवनीत भी तो है. उसमें मिली जो मिश्री है वो है हमारी भक्ति, साई में हमारी प्रीति. निर्लिप्त, निष्कलंक, निष्कपट, निष्काम. मीठी. साई की मस्ती में हमने हमारा ह्रदय बिलो दिया होता है, मथ दिया होता है और उसमे भक्ति की मिश्री मिला कर साई को अर्पण कर दिया होता है और उसके स्वाद से हमारा जीवन परिवर्तन होने लगता है.

यही है वो मक्खन-मिश्री का प्रसाद जो बार-बार ग्रहण करने से साई हमारे और हम साई के हो जाते हैं.

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.

Friday, 26 June 2015

नित्य सुख, शांति और आनंद का नाम साई है




श्री साई अमृत कथा में ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा बताते हैं कि हमारा जीवन मुख्यतः तीन हिस्सों में बंटा होता है. कल, आज और कल. वो कल जो गुज़र गया और हल पल गुज़रता जा रहा है. वो आज जो हम जी रहे हैं और वो कल जिसमें हम प्रतिक्षण जा रहे हैं.

कल जो गुज़र गया है, वो हमारी स्मृतियों में स्थिर हो जाता है, हमारे अनुभव के अनुसार, अच्छी या बुरी तस्वीर बन कर. यह स्मृतियाँ अक्सर दुखदायी ही होती हैं. किसी ने हमारा अपमान कर दिया है तो उस अपमान को हम याद करते ही रहते हैं. किसी ने तो हमारा अपमान एक बार किया है लेकिन उस अपमान को रोज़ याद करके हम ख़ुद को रोज़ अपमानित करते रहते हैं. किसी ने अगर हमें दुःख दिया है तो हम रोज़-रोज़ उस को याद कर दुखी होते रहते हैं. मन ही मन यह मनाते हैं कि कब हमें भी मौका मिले और हम उस अपमान का, उस दुख का, उस अनुभव का हिसाब बराबर कर सकें. माफ़ करना इतना सरल अगर होता तो यह नहीं कहा जाता कि क्षमा तो वीरों का आभूषण है. उस दुखदायी घड़ी का बोझ अपने सर पर लादे-लादे निराश, निढाल घूमते रहते हैं, शोक मानते रहते हैं. यह भूल जाते हैं कि यह उस पल, जो गुज़र गया है, को हम चाह कर भी नहीं बदल सकते. इसी शोक को रोज़-रोज़ जीते-जीत हम अपने आज और आने वाले कल में भी रीस कर आने का अवसर दे देते हैं. यह दुःख, शोक हमारे सुख का रास्ता रोक देता है, यह याद रखना होगा.

इसी तरह, वर्तमान की चिंता हमें उस घड़ी का आनंद मनाने से रोक देती है जो वाकई हमारी पकड़ में है. वर्तमान ही वो पल है जिसको हम जैसे चाहे लिख सकते हैं क्योंकि जो बीत गयी, सो बात गयी. जो आने वाला कल है वो अनिश्चित है. उसे चाह कर भी हम नियंत्रित नहीं कर सकते. शायद इसीलिए इस पल को ‘प्रेज़ेंट’ भी कहते हैं – ईश्वर का तोहफा. लेकिन इस पल में हमें, वो सब जिसको हम अपना समझते हैं – अपना परिवार, नौकरी, कारोबार, सम्पत्ति, गाड़ी-घोड़े, पद, मान, कुर्सी, शक्ति, शरीर, इत्यादि – इसको सहेज कर रखने की चिंता में बिता देते हैं. यह जानते हुए भी कि इस संसार में हर चीज़, हर पल बदलती रहती है, उसे पकड़कर रखने की चाहत में हम अपना आज गंवा देते हैं. ‘मैं’ और ‘हूँ’ के बीच आने वाली हर चीज़ की चाह हमारे वर्तमान को कष्टप्रद बना देती है.

आने वाला कल, हम सब जानते हैं, कि किसी के बस में नहीं है. और बात तो छोडिये, हमारी सांसें भी हमारे बस में नहीं हैं. सफ़र का पता नहीं और सामान सदियों का! आने वाले कल की अनिश्चितता हमारे मन में भय बन कर समा जाती है. यह भली-भांति जानते हुए भी कि हम भविष्य को नियंत्रित नहीं कर सकते, हम उस स्थिति का आनंद उठाने के स्थान पर भयभीत होते रहते हैं. भूल जाते हैं कि जब कुछ भी तय नहीं तो सभी कुछ संभव है. सवाल कौंधते रहते हैं. जो आज है अगर वो कल ना हुआ तो? ये कुर्सी कल चली गई तो? ये गाड़ी कल ना रही तो? ऐसे ही और ना जाने कितने ही प्रश्न!! मज़े की बात तो है कि हम स्वयं इन का कोई भी उत्तर कभी नहीं दे सकते लेकिन फिर भी नादानी करते ही रहते हैं. यह भय शांति का रास्ता रोक देता है.

इस दुःख, चिंता और भय से हम परे नहीं रह सकते क्योंकि यह मनुष्य योनी में जन्म का आशीर्वाद भी है जिसे हम श्राप बनाकर जीते रहते हैं. मनुष्य योनी में जन्म का आशीर्वाद है जिसे हम भूल जाते हैं और वो है सुख, आनंद और शांति में जीने का.

साई जैसे सद्गुरु की शरण में जाकर इस व्याधि का उपचार मिल जाता है. साई का चोला ओढने की देर है. मन में असीम शांति का अनुभव होने लगता है. कडवे अनुभव माफ़ी की लौ में पिघलने लगते हैं. दुश्मन को माफ़ कर हम खुद अपने आप को उसके नियंत्रण से आज़ाद कर देते हैं. दुखदायी स्मृतियाँ क्षीण होने लगती हैं. अतीत का काँटा साई के दुलार से खुद ही निकल जाता है. अपना रिमोट कंट्रोल हम परिस्थितियों के हाथों से छीन साई के हाथों में दे देते हैं.

आज की और अपनों की चिंता से मुक्त हो जाते हैं जब सारी चिंताएं हम साई पर छोड़ देते हैं. साई में भक्ति ऐसा ही अभयत्व प्रदान करती है. हमें यह महसूस होने लगता है कि जो कुछ भी हम अपना या अपना कमाया हुआ समझते थे, वह दरअसल साई की कृपा और उसके कारण किये गए हमारे अच्छे कर्मों से प्राप्त हुआ है और इसीलिए जो साई का दिया है, उसकी रक्षा खुद साई की ज़िम्मेदारी है. हमें को सिर्फ निर्लिप्त भाव से कर्म करते जाना है और उसे साई को समर्पित करते जाना है. साई खुद ही सम्हालेंगे.

भविष्य साई को सौपने से हम निश्चिन्त हो जाते हैं. यह निश्चिंतता हमें निश्चित की ओर ले जाती है जिससे भय का निवारण हो जाता है. साई के चरणों में कैसा भय?

हम अनुभव करने लगते हैं नित्य सुख, नित्य शांति और नित्य आनंद का और यही नित्य सुख, नित्य शांति और नित्य आनंद साई है. साई ही नित्य है और यही सत्य है.
  
श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.

Thursday, 25 June 2015

‘मैं’ की क़ैद से निकलो


मैं में मैं समाया सारा,
मै ही मुझको सबसे प्यारा.
अपनों से मुझे दूर यह रखता,
मैं ही टूटता, मैं ही बिखरता.
मैं ने मुझको पकड़ रखा है,
बस बंधन में जकड़ रखा है.
मैं साँझ सवेरे मैं से लड़ता,
मुंह की खाता, गिर-गिर पड़ता.
उठता फिर कि इससे छूंटू,
जान बचाकर इससे भागूं.
मगर ये मुझको नहीं छोड़ता,
बाहर-अन्दर मुझे तोड़ता..


श्री साई अमृत कथा में ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा बताते हैं कि जितना प्रबल हमारा अहंकार होता जायेगा, उतना मुश्किल अपने ह्रदय में साई को बिठाना होता जायेगा. अहंकार दरअसल हमारा ही प्रत्यक्ष विस्तार होता है लेकिन हमारे मन-मस्तिष्क से बहुत ज़्यादा ताक़तवर. हमारे सारे अस्तित्व पर छा जाता है और हमारे वजूद पर पूरा नियंत्रण कर लेता है.

हमारा अहंकार हमें वो होने का आभास दे देता है जो हम हैं ही नहीं. सारे फसाद की जड़ वही होता है. हमारे अन्दर इतनी जगह घेर लेता है कि हमारे अपनों के लिए हमारे अन्दर ही कोई जगह नहीं बचती. अपनी नज़र में हम इतने ताक़तवर हो जाते हैं कि हमें लगता है कि दुनिया हम से ही शुरू और हम पे ही ख़त्म हो जाती है. ऐसी खुशफ़हमी हो जाती है कि दुनिया में हमें किसी की ज़रुरत नहीं पड़ेगी. दूसरों को नीचा देखने लगते हैं, स्वयं को बहुत ऊपर. कोई हमारे सामने टिकता नहीं दिखता. ज़बान में कडवाहट और स्वर में कटुता आ जाती है. अपने ही साथ बहुत मज़ा आने लगता है और दूसरों का साथ ख़लल डालता है. पत्नी, बच्चे, माँ, पिता, मित्र सब दूर होने लगते हैं और आखिर में जब हमें अपनों के दूर हो जाने का अहसास होता है तब हम कितनी ही आवाज़ दें, उनको सुनाई नहीं देती. पश्चाताप में हाथ मलते रह जाते हैं लेकिन दिल से निकलते आंसूं भी उन दूरियों को कम नहीं करते.

जैसे किसी घर में अँधेरा हो, तो मेहमान घंटी नहीं बजाते, वैसे ही जब मन में अहंकार भरा हो तो साईनाथ नहीं आते.

उन्हें दूषित जगह रहना पसंद ही नहीं. उन्होंने दासगणु महाराज का घमंड तोड़ने के लिए ईशावास्य उपनिषद की व्याख्या काकासाहेब दीक्षित की नौकरानी नाम्या की बहन मलकरणी से करवाई. इन्ही दासगणु महाराज के कीर्तन करने के समय पहने जाने वाले कपड़ों पर बाबा ने व्यंग्य कर उन्हे सादगी-परस्त होने का मार्ग दिया. इसी तरह ब्रम्हज्ञान की इच्छा रखने वाले सेठ को उसकी प्राप्ति के लिए पांच प्राण, पांच इन्द्रियां, मन बुद्धि और अहंकार का त्याग करने का उपाय बताया. बापूसाहेब बूटी, बाबू तेंदुलकर और दामू अन्ना के ज्योतिषियों के दंभ को तोड़ उनकी भविष्यवाणी के विपरीत लेकिन कारगर फल दिए तो कहीं नानासाहेब चांदोरकर के पंढरपुर जाने की सूचना से पूर्व यह बात उन्हें बता कर अपने करता होने का परिचय दिया.

दरअसल, साई की खासियत है कि वो हमें हमारी औकात से ज़्यादा देता है. हम पर इतनी कृपा करता है कि हम भूल जाते हैं कि साई हमारी परीक्षा ले रहा है. वो हमें और भी ज़्यादा देने से पहले परखना चाहता है कि हम उसकी कृपा के लायक है भी कि नहीं. इस परीक्षा में भी वो हमारी सहायता करता है, इशारे से सुझाता है. यह हम पर है कि हम उसका इशारा समझ सके.

साई को अपने मन में जगाना ही साई को पाना है जो कुछ भी और पाने से बहुत ज़्यादा है. सवाल यह है कि वो तो देना चाहता है लेकिन क्या हम लेने के लिए तैयार हैं? सोचें.

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.

उदी राख होकर भी जीना सिखाती है


श्री साई अमृत कथा में ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा बताते हैं, साई जिसे भी शिरडी बुलाते हैं, उसे साई की धूनी की राख, जिसे साई के भक्त उदी कहते हैं, साथ में लेकर आने की ललक रहती है. कतार में खड़े, साई के दीवाने इस उदी को मिलने पर माथे पर लगाते हैं, पानी में घोल कर पी लेते हैं, किसी भी शुभ कार्य में जाने से पहले उसे ज़रूर अपने साथ रखते हैं, काफी सारे तो उसे रोज़ ही सवेरे-शाम अपने माथे लगाकर धन्य महसूस करते हैं. दाभोलकरजी द्वारा रचित पावन ग्रन्थ, श्री साई सच्चरित्र, में उदी के कई सारे चमत्कारों का उल्लेख भी मिलता है.

ये चमत्कार आज भी होते रहते हैं. बाबा की धूनी की उदी आज भी रामबाण औषधि है, संकट हरती है, कल्याण करती है और साई के सदा जीवित होने और उनका अपने भक्तों के साथ सदैव होने का सतत अहसास कराती रहती है. आज भी पूरे के पूरे कई ग्रन्थ इस उदी के चमत्कारों पर लिखे जा सकते हैं.

इतिहास गवाह है कि साई ने अपने दूसरे प्रवास में शिरडी की उस टूटी-फूटी इमारत, जो कि एक ज़माने की मस्जिद थी और कई सालों से इसमें इबादत होना बंद हो चुकी थी, को अपना ठिकाना बना लिया. इसे बाद में बाबा ने मस्जिदमाई कहा और अपने अनगिनत चमत्कारों, कर्मो और अपने जीवन के साथ-साथ समाधि का भी साक्षी बनाया.

इसी जगह को बाद में लोगों ने अपनी योग्यतानुसार और प्रारब्ध के चलते ज्ञान, काम, अर्थ और मोक्ष पाने का साधन मानते हुए द्वारिकामाई कहा. इसी पावन स्थान साई ने एक नित्य अग्निहोत्र के समान धूनी पूरे समय जलाए रखी. बाबा के हाथ से प्रज्ज्वलित यह धूनी आज भी अनवरत जल ही रही है. बाबा भक्तों से जो दक्षिणा लेते, उससे मुख्यतः इस धूनी के लिए लकड़ियाँ मोल लेते. बाबा पूरे समय अपने हाथों से इस धूनी में लकड़ियाँ डालते रहते. यह क्रम बाबा की समाधि के बाद उनके कई भक्तों ने निभाया और अब साई बाबा संस्थान इस धूनी की पवित्र आग को जलाए रख रहा है.

बाबा जब शिरडी में नए-नए आए थे तो उन्होंने लोगों के रोगों का इलाज अपनी अनोखी चिकित्सीय विधा से किया लेकिन जब लोगों की भीड़ शिरडी में बढ़ने लगी तो बाबा ने इसी धूनी से मुट्ठी भर-भर राख लोगों को देना शुरू कर दिया और इस राख ने तो चमत्कार कर दिए. इसी राख ने कितनों को ना जाने नयी ज़िन्दगी दी और कितनों को ही रोग-मुक्त किया. कईयों के बिगड़े काम बने तो कईयों को खोया भाग्य मिला.

कई भक्तों के तो भाल पर बाबा अपने हाथों से उदी लगाते. यहाँ तक कि अपने घोड़े श्यामसुंदर को भी पालकी के लिए चलने के समय प्यार से उदी लगाते. बड़े प्यार से बाबा खुले हाथों से उदी बांटते और गाते..”रमते राम आओजी, उदियाँ की गुनिया लाओ जी..”

शायद बाबा उदी में हमारे जीवन का सार समझते थे और सदैव उनका प्रयत्न ऐसा ही रहता था कि हम सभी जीवन की क्षण-भंगुरता को समझें. यह परम सत्य है कि म्रत्यु सभी को आनी है और इसका कोई भी समय निश्चित नही है. हम सभी को एक ना एक दिन राख में तब्दील हो जाना है. अरबोंपति हो या फ़क़ीर, सभी की राख एक मुट्ठी बराबर ही होती है. फिर काहे का दंभ करते हैं हम सब!? चिता की आग, सभी को एक बराबर समझती है. सभी का अंत वही है. लेकिन जिस तरह उदी राख होने के बावजूद भी उसको माथे पर लगाया जाता है और राख होने पर भी वह कल्याणकारी होती है, ऐसा किरदार हम सभी का क्यों नहीं हो सकता? क्यों हम ऐसा जीवन ना जियें, जिसमे करुणा, प्रेम, आत्मीयता, क्षमा, शांति और एकात्मता का भाव हो जो हमारे जीते जी ऐसी मिसाल बन जाए जिसे हमारे होने पर लोग आदर्श मान कर हमारे जैसे बनने का प्रयास करें और राख होने पर भी हमारा जीवन और उसमे किये कार्य, लोगों का कल्याण करें.

बाबा की उदी यही भाव सिखाती है..

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.

साई सद्गुरु हैं


श्री साई अमृत कथा में ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा बताते हैं कि शिरडी के साई बाबा को सद्गुरु कहा जाता है जो कि गुरुओं की श्रेणी में, गुरु गीता के अनुसार, गुरु का सर्वोच्च प्रकार है. सवाल यह उठता है कि क्यों साई को गुरुता की सर्वोच्च पायदान माना जाता है. शास्त्रों के अनुसार गुरु का अर्थ होता है, अन्धकार मिटाने वाला. ‘गु’ मतलब ‘अन्धकार’ और ‘रु’ का मतलब होता है नष्ट करने की क्रिया. इसी प्रकार दीक्षा का अर्थ होता है, अज्ञान को हटा कर ज्ञान को स्थापित करना. ‘दी’ मतलब ज्ञान देने की क्रिया और ‘क्षा’ का अर्थ होता है धब्बों को क्षय.

गुरु वो नहीं जो ज्ञान दे बल्कि गुरु वो होता है जो अज्ञान में से ‘अ’ रुपी अशुद्धि को हटा कर ज्ञान को उजागर करे. ठीक उसी तरह जिस तरह दूध में मक्खन तो होता है लेकिन दिखता तब ही है जब दूध को बिलोया जाता है. ठीक उसी तरह जिस तरह एक बीज में तना, पत्ते, फल, फूल, जड़, जीवन यानि पूरा पेड़ समाहित होता है लेकिन दिखता वो तब ही है जब उस बीज की पूरी देखभाल हो और उसे उर्वरक दे कर समयानुसार सींचा जाए. जिस तरह कोयले में हीरा होता है पर दिखाई वो तब ही देता है जब उसे तराशा जाए. सद्गुरु का काम ठीक यही है.

जब हम पैदा होते हैं तो हमें छल, कपट, बैर, क्रोध, लालच, वैमनस्य, आसक्ति, इत्यादि इन भावों के बारे में कुछ भी नहीं पता होता. हम पालने में पड़े-पड़े मुस्कुराते रहते हैं या अप्रिय महसूस या भूख लगने करने पर रोते हैं, बेवजह खिलखिलाते हैं, भोले-भाले होते हैं लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, दुनिया से हमारा वास्ता पड़ता है, हम मानुषिक स्वभाव के चलते वो सभी कुछ सीखते चलते हैं जो हममें दोष लगाता है. हमारा मूल स्वरुप तो स्वच्छ है, दोष तो हम ओढ़ लेते हैं. मूल स्वरुप से तो हम सुखी ही होते हैं लेकिन इन दोषों के कारण स्वभाव से दुखी होने लगते हैं. भटकने लगते हैं. अपना पथ छोड़ दते हैं. अच्छाइयों से विमुख हो जाते हैं. दूसरों को तो तकलीफ देते ही हैं, साथ में खुद को भी दुखी करते हैं.

इसी अँधेरी राह की गलियों में भटकते हम थक-हार कर जब निढाल हो बैठते हैं और जब मन ही मन हम अपने अन्दर सुधार कने को प्रबल हो उठते है तो कहीं से, किसी भी बहाने से, किसी भी रूप में कोई ऐसा सामने आ खड़ा होता है जो हमारा हाथ पकड़ता है. वह समय भी हो सकता है और कोई हमारा अपना भी या फिर एकदम ही कोई अपरिचित जो हमें सद्गुरु की राह पर ले चलता है..या फिर धकेल देता है. बस. उसका काम वहीँ पर समाप्त हो जाता है.

‘अ’ हटाने की राह पर हमें अब अकेला ही चलकर सद्गुरु तक पहुंचना होता है. प्रेरणा, शक्ति, सामर्थ्य, बल देते हुए स्वयं सद्गुरु हमें अपनी और खींचता है. रौशनी भी वही देता है, रास्ते भी वही बनाता है. उसके पास पहुँचते-पहुँचते पश्चाताप, संताप, प्रायश्चित, नयन-नीर के रास्ते हमारे दोष धुलने लगते हैं. सद्गुरु के सान्निध्य में आकर लगता है जैसे बरसों से प्यासे चातक को अमृत-बूँद मिल गयी हो, वर्षों से सूखे मरुधर में पानी की नहर फूट पड़ी हो, छालों पर ठंडक पड़ जाने सा अहसास होता है. सद्गुरु के प्रति प्यार आंसुओं में बहने लगता है, शरीर में रोमांच भर उठता है, मन में आल्हाद की स्थिति बन जाती है, भाव-विचार-भाषा बदल जाते हैं, कटुता कटने लगती है, ममता की जगह समता का भाव आने लगता है. मन सद्गुरु के ख्यालों से भर उठता है. यह सब कुछ साई के मन में उदय होने के लक्षण हैं.

अहसास होने लगता है कि साई हमसे और हम साई से जुदा नहीं. वो हमारे अन्दर ही बसता है, हम सिर्फ उसे सुप्त रखते हैं. उसे जागने से रोकते हैं. शिरडी में विश्राम कर रहा साई कभी चित्र बन कर तो कभी मूर्ती बनकर, कभी भजन के रास्ते तो कभी वचन के रास्ते, कभी किसी की हँसी बन कर तो कभी मुस्कराहट बन कर मन में कब समा जाता है, पता ही नहीं चलता.

दूध मक्खन में तब्दील हो जाता है, कोयला हीरा बन जाता है, बीज पेड़ बन जाता है. सद्गुरु अपना काम कर चुका होता है. हमें वापस अपने मूल स्वरुप में ले आकर हमें फिर से सुखी कर देता है. यही तो काम है सद्गुरु का. अपने आप को ख़ुद से मिला देना.

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.