श्री साई अमृत कथा
में ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा बताते हैं कि हमारा जीवन मुख्यतः तीन हिस्सों में बंटा
होता है. कल, आज और कल. वो कल जो गुज़र गया और हल पल गुज़रता जा रहा है. वो आज जो हम
जी रहे हैं और वो कल जिसमें हम प्रतिक्षण जा रहे हैं.
कल जो गुज़र गया है,
वो हमारी स्मृतियों में स्थिर हो जाता है, हमारे अनुभव के अनुसार, अच्छी या बुरी
तस्वीर बन कर. यह स्मृतियाँ अक्सर दुखदायी ही होती हैं. किसी ने हमारा अपमान कर
दिया है तो उस अपमान को हम याद करते ही रहते हैं. किसी ने तो हमारा अपमान एक बार
किया है लेकिन उस अपमान को रोज़ याद करके हम ख़ुद को रोज़ अपमानित करते रहते हैं.
किसी ने अगर हमें दुःख दिया है तो हम रोज़-रोज़ उस को याद कर दुखी होते रहते हैं. मन
ही मन यह मनाते हैं कि कब हमें भी मौका मिले और हम उस अपमान का, उस दुख का, उस
अनुभव का हिसाब बराबर कर सकें. माफ़ करना इतना सरल अगर होता तो यह नहीं कहा जाता कि
क्षमा तो वीरों का आभूषण है. उस दुखदायी घड़ी का बोझ अपने सर पर लादे-लादे निराश,
निढाल घूमते रहते हैं, शोक मानते रहते हैं. यह भूल जाते हैं कि यह उस पल, जो गुज़र
गया है, को हम चाह कर भी नहीं बदल सकते. इसी शोक को रोज़-रोज़ जीते-जीत हम अपने आज
और आने वाले कल में भी रीस कर आने का अवसर दे देते हैं. यह दुःख, शोक हमारे सुख का
रास्ता रोक देता है, यह याद रखना होगा.
इसी तरह, वर्तमान की
चिंता हमें उस घड़ी का आनंद मनाने से रोक देती है जो वाकई हमारी पकड़ में है. वर्तमान
ही वो पल है जिसको हम जैसे चाहे लिख सकते हैं क्योंकि जो बीत गयी, सो बात गयी. जो
आने वाला कल है वो अनिश्चित है. उसे चाह कर भी हम नियंत्रित नहीं कर सकते. शायद
इसीलिए इस पल को ‘प्रेज़ेंट’ भी कहते हैं – ईश्वर का तोहफा. लेकिन इस पल में हमें,
वो सब जिसको हम अपना समझते हैं – अपना परिवार, नौकरी, कारोबार, सम्पत्ति,
गाड़ी-घोड़े, पद, मान, कुर्सी, शक्ति, शरीर, इत्यादि – इसको सहेज कर रखने की चिंता
में बिता देते हैं. यह जानते हुए भी कि इस संसार में हर चीज़, हर पल बदलती रहती है,
उसे पकड़कर रखने की चाहत में हम अपना आज गंवा देते हैं. ‘मैं’ और ‘हूँ’ के बीच आने
वाली हर चीज़ की चाह हमारे वर्तमान को कष्टप्रद बना देती है.
आने वाला कल, हम सब
जानते हैं, कि किसी के बस में नहीं है. और बात तो छोडिये, हमारी सांसें भी हमारे
बस में नहीं हैं. सफ़र का पता नहीं और सामान सदियों का! आने वाले कल की अनिश्चितता
हमारे मन में भय बन कर समा जाती है. यह भली-भांति जानते हुए भी कि हम भविष्य को
नियंत्रित नहीं कर सकते, हम उस स्थिति का आनंद उठाने के स्थान पर भयभीत होते रहते
हैं. भूल जाते हैं कि जब कुछ भी तय नहीं तो सभी कुछ संभव है. सवाल कौंधते रहते
हैं. जो आज है अगर वो कल ना हुआ तो? ये कुर्सी कल चली गई तो? ये गाड़ी कल ना रही
तो? ऐसे ही और ना जाने कितने ही प्रश्न!! मज़े की बात तो है कि हम स्वयं इन का कोई
भी उत्तर कभी नहीं दे सकते लेकिन फिर भी नादानी करते ही रहते हैं. यह भय शांति का
रास्ता रोक देता है.
इस दुःख, चिंता और भय
से हम परे नहीं रह सकते क्योंकि यह मनुष्य योनी में जन्म का आशीर्वाद भी है जिसे
हम श्राप बनाकर जीते रहते हैं. मनुष्य योनी में जन्म का आशीर्वाद है जिसे हम भूल
जाते हैं और वो है सुख, आनंद और शांति में जीने का.
साई जैसे सद्गुरु की
शरण में जाकर इस व्याधि का उपचार मिल जाता है. साई का चोला ओढने की देर है. मन में
असीम शांति का अनुभव होने लगता है. कडवे अनुभव माफ़ी की लौ में पिघलने लगते हैं.
दुश्मन को माफ़ कर हम खुद अपने आप को उसके नियंत्रण से आज़ाद कर देते हैं. दुखदायी
स्मृतियाँ क्षीण होने लगती हैं. अतीत का काँटा साई के दुलार से खुद ही निकल जाता
है. अपना रिमोट कंट्रोल हम परिस्थितियों के हाथों से छीन साई के हाथों में दे देते
हैं.
आज की और अपनों की
चिंता से मुक्त हो जाते हैं जब सारी चिंताएं हम साई पर छोड़ देते हैं. साई में
भक्ति ऐसा ही अभयत्व प्रदान करती है. हमें यह महसूस होने लगता है कि जो कुछ भी हम
अपना या अपना कमाया हुआ समझते थे, वह दरअसल साई की कृपा और उसके कारण किये गए
हमारे अच्छे कर्मों से प्राप्त हुआ है और इसीलिए जो साई का दिया है, उसकी रक्षा
खुद साई की ज़िम्मेदारी है. हमें को सिर्फ निर्लिप्त भाव से कर्म करते जाना है और
उसे साई को समर्पित करते जाना है. साई खुद ही सम्हालेंगे.
भविष्य साई को सौपने
से हम निश्चिन्त हो जाते हैं. यह निश्चिंतता हमें निश्चित की ओर ले जाती है जिससे
भय का निवारण हो जाता है. साई के चरणों में कैसा भय?
हम अनुभव करने लगते
हैं नित्य सुख, नित्य शांति और नित्य आनंद का और यही नित्य सुख, नित्य शांति और
नित्य आनंद साई है. साई ही नित्य है और यही सत्य है.
श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.
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