श्री साई अमृत कथा में ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा
बताते हैं कि शिरडी के साई बाबा को सद्गुरु कहा जाता है जो कि गुरुओं की श्रेणी
में, गुरु गीता के अनुसार, गुरु का सर्वोच्च प्रकार है. सवाल यह उठता है कि क्यों
साई को गुरुता की सर्वोच्च पायदान माना जाता है. शास्त्रों के अनुसार गुरु का अर्थ
होता है, अन्धकार मिटाने वाला. ‘गु’ मतलब ‘अन्धकार’ और ‘रु’ का मतलब होता है नष्ट
करने की क्रिया. इसी प्रकार दीक्षा का अर्थ होता है, अज्ञान को हटा कर ज्ञान को
स्थापित करना. ‘दी’ मतलब ज्ञान देने की क्रिया और ‘क्षा’ का अर्थ होता है धब्बों
को क्षय.
गुरु वो नहीं जो ज्ञान दे बल्कि गुरु वो होता है
जो अज्ञान में से ‘अ’ रुपी अशुद्धि को हटा कर ज्ञान को उजागर करे. ठीक उसी तरह जिस
तरह दूध में मक्खन तो होता है लेकिन दिखता तब ही है जब दूध को बिलोया जाता है. ठीक
उसी तरह जिस तरह एक बीज में तना, पत्ते, फल, फूल, जड़, जीवन यानि पूरा पेड़ समाहित
होता है लेकिन दिखता वो तब ही है जब उस बीज की पूरी देखभाल हो और उसे उर्वरक दे कर
समयानुसार सींचा जाए. जिस तरह कोयले में हीरा होता है पर दिखाई वो तब ही देता है
जब उसे तराशा जाए. सद्गुरु का काम ठीक यही है.
जब हम पैदा होते हैं तो हमें छल, कपट, बैर,
क्रोध, लालच, वैमनस्य, आसक्ति, इत्यादि इन भावों के बारे में कुछ भी नहीं पता
होता. हम पालने में पड़े-पड़े मुस्कुराते रहते हैं या अप्रिय महसूस या भूख लगने करने
पर रोते हैं, बेवजह खिलखिलाते हैं, भोले-भाले होते हैं लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े
होते जाते हैं, दुनिया से हमारा वास्ता पड़ता है, हम मानुषिक स्वभाव के चलते वो सभी
कुछ सीखते चलते हैं जो हममें दोष लगाता है. हमारा मूल स्वरुप तो स्वच्छ है, दोष तो
हम ओढ़ लेते हैं. मूल स्वरुप से तो हम सुखी ही होते हैं लेकिन इन दोषों के कारण
स्वभाव से दुखी होने लगते हैं. भटकने लगते हैं. अपना पथ छोड़ दते हैं. अच्छाइयों से
विमुख हो जाते हैं. दूसरों को तो तकलीफ देते ही हैं, साथ में खुद को भी दुखी करते
हैं.
इसी अँधेरी राह की गलियों में भटकते हम थक-हार
कर जब निढाल हो बैठते हैं और जब मन ही मन हम अपने अन्दर सुधार कने को प्रबल हो
उठते है तो कहीं से, किसी भी बहाने से, किसी भी रूप में कोई ऐसा सामने आ खड़ा होता
है जो हमारा हाथ पकड़ता है. वह समय भी हो सकता है और कोई हमारा अपना भी या फिर एकदम
ही कोई अपरिचित जो हमें सद्गुरु की राह पर ले चलता है..या फिर धकेल देता है. बस. उसका
काम वहीँ पर समाप्त हो जाता है.
‘अ’ हटाने की राह पर हमें अब अकेला ही चलकर
सद्गुरु तक पहुंचना होता है. प्रेरणा, शक्ति, सामर्थ्य, बल देते हुए स्वयं सद्गुरु
हमें अपनी और खींचता है. रौशनी भी वही देता है, रास्ते भी वही बनाता है. उसके पास
पहुँचते-पहुँचते पश्चाताप, संताप, प्रायश्चित, नयन-नीर के रास्ते हमारे दोष धुलने
लगते हैं. सद्गुरु के सान्निध्य में आकर लगता है जैसे बरसों से प्यासे चातक को
अमृत-बूँद मिल गयी हो, वर्षों से सूखे मरुधर में पानी की नहर फूट पड़ी हो, छालों पर
ठंडक पड़ जाने सा अहसास होता है. सद्गुरु के प्रति प्यार आंसुओं में बहने लगता है,
शरीर में रोमांच भर उठता है, मन में आल्हाद की स्थिति बन जाती है, भाव-विचार-भाषा
बदल जाते हैं, कटुता कटने लगती है, ममता की जगह समता का भाव आने लगता है. मन
सद्गुरु के ख्यालों से भर उठता है. यह सब कुछ साई के मन में उदय होने के लक्षण
हैं.
अहसास होने लगता है कि साई हमसे और हम साई से
जुदा नहीं. वो हमारे अन्दर ही बसता है, हम सिर्फ उसे सुप्त रखते हैं. उसे जागने से
रोकते हैं. शिरडी में विश्राम कर रहा साई कभी चित्र बन कर तो कभी मूर्ती बनकर, कभी
भजन के रास्ते तो कभी वचन के रास्ते, कभी किसी की हँसी बन कर तो कभी मुस्कराहट बन
कर मन में कब समा जाता है, पता ही नहीं चलता.
दूध मक्खन में तब्दील हो जाता है, कोयला हीरा बन
जाता है, बीज पेड़ बन जाता है. सद्गुरु अपना काम कर चुका होता है. हमें वापस अपने
मूल स्वरुप में ले आकर हमें फिर से सुखी कर देता है. यही तो काम है सद्गुरु का.
अपने आप को ख़ुद से मिला देना.
श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.
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