श्री साई
सच्चरित्र में बाबा का तत्त्वों पर नियंत्रण करते हुए उल्लेख है शिरडी में एक बार
जब बादलों ने मर्यादा छोड़ दी और मूसलाधार बारिश होने से पूरा शिरडी गाँव तर-बतर हो
गया, कमर तक पानी भर गया, पशु-पक्षी बेहाल हो गए और नर-नारियों में हाहाकार मच गया
तब बाबा ने क्रोधित होकर गर्जना करते हुए बादलों से होने वाली अतिवृष्टि को रुक
जाने के लिए कहा और बादलों ने तुरंत अपना रुख बदल लिया था. ऐसे ही एक और किस्से का
उल्लेख आता है जब मस्जिद में प्रज्ज्वलित धूनी में अग्नि ने एकदम प्रचण्ड रूप धारण
कर लिया था और उसकी लपटें मस्जिद की छत तक पहुँचने लगी थी. लोगों को लगने लगा था कि
अब बस कुछ ही देर में मस्जिद जल कर ख़ाक हो जायेगी. भयभीत भक्तों ने तब बाबा से कुछ
करने को कहा और बाबा ने अपना सटका ज़मीन पर मारकर ज़ोर से उन लपटों को शांत हो जाने
के लिए कहा और लपटें तुरंत सिमट कर वापस धूनी की मर्यादा में सिमट गयीं. क्या ये
सिर्फ चमत्कार है? क्या बाबा की मंशा इन दो अवसरों पर भक्तों को केवल अपनी अलौकिक
शक्तियों से चमत्कृत कर देने की थी या हममें कुछ संस्कार भी डालने कि थी? अगर देखा
जाये तो हर चमत्कार के पीछे बाबा का उद्देश्य अपने भक्तों को केवल संस्कारित करने
का था जिससे हम अपना व्यक्तित्व निखार सकें और बाबा की राह पर चल सकें.
धर्म का मूल अर्थ है
मर्यादा में रहना. संसार में जितनी भी वस्तुएं – जड़ और चेतन - है वो जब तक अपनी
मर्यादा में रहें तब तक वो धर्म का आचरण कर रहीं मालूम पड़ती है लेकिन जैसे ही वो
अपनी मर्यादा छोड़ देती हैं, अधर्म के पथ पर चल निकलती हैं. धरती अपनी मर्यादा छोड़
दे तो भूकंप आने से जान और संपत्ति की क्षति हो जाती है. नदी अपनी मर्यादा छोड़ दे
तो बाढ़, समुद्र छोड़ दे तो सुनामी, ऋतुएँ छोड़ दे तो अल्पवृष्टि या अतिवृष्टि.
मनुष्य मर्यादा छोड़ दे तो पतन की राह पर चल निकलता है. शिक्षक अपनी सीमाएं छोड़ दे
तो संस्कार टूटने लगते हैं. राजा के धर्म छोड़ने से प्रजा विचलित हो उठती है. हमारे
नेता अगर अपना धर्म छोड़ दें तो भ्रष्टाचार बढ़ जायेगा. न्याय-पालिका के ध्वस्त होने
से व्यवस्थाएं चरमरा जाती हैं. पुलिस अपना कार्य छोड़ दे तो रक्षा तंत्र बिखर जाता
है. अफ़सर के भ्रष्ट होने से काम-काज ठप्प हो जाता है और माता-पिता अगर अपना धर्म
भूल जायेंगे तो पूरी की पूरी पीढ़ी बिखर जाएगी. शरीर अपना धर्म भूल जायेगा तो
बीमारियाँ घेर लेंगी. कुल मिलाकर जहाँ भी धर्म पालन में मर्यादा का उल्लंघन हुआ,
वहीँ पर पूरा तंत्र ध्वस्त हो जाता है.
हम सभी से, चाहे हम राजा
हो या प्रजा, मर्यादा में रहना अपेक्षित है ही. जब भी हममें से कोई इसमें
जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे चूक करता है तो हम किस व्यवस्था को कहाँ तक नुकसान
पहुंचा रहे हैं, इसका आकलन कर पाना बहुत मुश्किल है.
साई बाबा की जीवन लीलाओं
का वाचन-श्रवण और फिर मनन करने से जीवन में अपने पथ से डिगता धर्म मर्यादा के
केंचुल में समा जाता है और फिर जागृत हो उठता है. उसका स्पंदन फिर से प्रारम्भ हो
उठता है. एक गुरु के रूप में साई ने अपने जीवन-सूत्रों से बिना अस्त्र-शस्त्र के
अपने भक्तों में संस्कार रूप में धर्म और मर्यादा के संस्थापन का कार्य किया है.
इसके लिए वे अगर बिना बात के किसी पर क्रोधित भी हुए और अपशब्दों का प्रयोग किया
तो इसका मतलब ये कतई नहीं है कि साई ऐसा द्वेषवश करते थे. गुरु, शिक्षकमाता-पिता
का गुस्सा तो अमृत रूप होता है. इस क्रोध कि मंशा किसी को ठेस पहुँचाने की नहीं
बल्कि सामने वाले को इस बात का अहसास कराने के लिए थी कि कहीं तुम मर्यादा भूल रहे
हो. बाबा का गुस्सा तुरंत शांत भी हो जाता था और अगले ही पल वो विनोद करने लगते
थे. समुद्र की लहरों जैसा था बाबा का गुस्सा. ऊपर हलचल और नीचे अथाह शांति. गुस्से
को अगर गिरह बाँध कर रखोगे तो जल्द ही बीमारियाँ घेर लेंगी.
जब-जब भी जीवन में
उथल-पुथल होती दिखे तो समझो कि हमने कहीं अपनी मर्यादा उलांघी है और बाबा ने हमें
इस बात का संकेत दे दिया है. इस संकेत को पकड़ कर चलो तो फिर जीवन ख़ुश-खुशहाल हो
उठेगा. आनंद के द्वार खुल जायेंगे.
बाबा भली कर रहे..
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