श्री साई
अमृत कथा में
बाबा की बातें
करते हुए कथा
के माध्यम सुमीत
पोंदा ‘भाईजी’
साई बाबा के
जीवन चरित्र पर
आधारित घटनाओं का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि साई बाबा का भक्तों के भाव में रहने का उल्लेख जब भी किया जाता है तो चावड़ी महोत्सव का माहत्म्य उभर कर सामने आ जाता है.
यह सबको पता है कि शिर्डी में अपने दूसरे प्रवास के दौरान, म्हालसापति की अव्यक्त अनिच्छा के चलते साई बाबा को जब खंडोबा मंदिर में प्राश्रय नहीं मिल पाया था तो उन्होंने कुछ दिन नीम के पेड़ के नीचे और कुछ दिन जंगलों में बिताने के बाद जिस टूटे-फूटे भवन को अपना आशियाना बनाया, वह एक पुरानी मस्जिद थी जिसमें सालों पहले इबादत होना बंद हो गयी थी. इस मस्जिद में छत के नाम लकड़ी के कुछ, कभी भी टूट सकने वाले मोटे जर्जर लठ्ठों पर कुछ पत्थर की फर्शियां टिकी थीं और फर्श के नाम पर कच्ची मिट्टी थी जो बारिश के दिनों में बहुत परेशान करती थी. बाबा न तो ठीक से बैठ पाते और न ही सो पाते. रात करवटें लेते-लेते निकलती.
उस वक़्त उस फ़क़ीर को जानता तो शिर्डी गाँव था लेकिन पहचानने वाले कम ही थे. वो फ़क़ीर उसी रिसती-भीगती-भिगाती मस्जिद से ही शिर्डी की तक़दीर बदलने बैठा था. कुछ कदम पर शिर्डी गाँव का टूटा-फूटा सभा कक्ष भी था. यह मस्जिद से तो बेहतर स्थिति में था. गाँव के लोग इसे चावड़ी कहते थे. यह चावड़ी मानों बाबा की प्रयोगशाला थी. किसी को एकांतवास के लिए बाबा यहाँ भेजते तो किसी को अहंकार से मुक्ति के लिए तो किसी को रोगों से मुक्ति के लिए. किसी को समझ में नहीं आता कि बाबा जो काम मस्जिद में भी कर सकते थे, उस काम के लिए उन्हें चावड़ी की ज़रुरत क्यों पड़ी! फ़क़ीर के भेद निराले, वही जानता है कि वो क्यों कुछ करता है. अलग-अलग गुरु भी तो शिष्य को शिक्षा अपने ही ख़ास ढंग से देते हैं. कुछ समझाते हैं तो कुछ सज़ा भी देते हैं लेकिन दोनों ही परिस्थितियों में फ़ायदा शिष्य का ही होता है.
समय गुज़रता गया. उस फ़क़ीर की साख और उसका चरित्र शिर्डीवासियों को समझ में आने लगा. उन्हें कहीं अहसास होने लगा था कि उनके भाग्य में इस हीरे के माध्यम से सकारात्मक फेर आने वाला है. अब बारिश हुई तो लोग बाबा को चावड़ी में रहने को कहने लगे. भाव से भीने होने वाले शिर्डी के इस भगवान् ने अपने गांव वालों की यह बात भी मान ली लेकिन मस्जिद में रहना नहीं छोड़ा. चाहे जैसा मौसम हो, एक रात मस्जिद में तो एक रात चावड़ी में बाबा रहने लगे.
मस्जिद में तो उनके साथ रात में सोने वालों में तात्या पाटिल और भक्त म्हालसापति थे लेकिन चावड़ी में बाबा अकेले सोते. नानासाहेब डेंगले द्वारा एक हथेली चौढ़े और ढाई हाथ चिंदियों से लटका कर रखे लकड़ी के तख्ते पर सोने का क्रम यहीं का माना जाता है. इस लकड़ी पर चारों कोनों में बाबा एक-एक दीपक भी जला लिया करते थे. क्या ये क्रिया महज बाबा के योग सिध्धियों पर नियंत्रण को बताती हैं या एक फ़क़ीर का उस अनुभव लेने को दर्शाती हैं जिसे साधारण मनुष्य जीते हैं? जीवन भी तो इसी तरह रिश्तों की कच्ची डोर से बंधे एक पतले, संकरे रास्ते जैसा ही है, जिसमें होश खोकर संतुलन खोया तो पतन की आशंका बनी रहती है. इस रास्ते पर हर दिशा से प्रकाश आने देना चाहिए, ऐसा यह चार दिए बताते हैं. जीवन में हर पल, हर दम जागरूक और संवेदनशील रहना चाहिए, शायद बाबा की यह अद्भुत क्रिया यही बताती है.
राधाकृष्णमाई के शिर्डी आगमन के कुछ समय बाद तो हर चीज़ मानो एक निश्चित आकार लेने लगी. बाबा के चावड़ी में सोने जाने को एक उत्सव के रूप में मनाने का ख्याल आया. धनी भक्तों से रथ, पालकी, वाद्ययंत्र, बर्तन, इत्यादी का बंदोबस्त करने को कहा गया. कोई चंवर, चिपलिस, ढोल, मंजीरे ले आया तो कोई ध्वजा. बाबा को यह बहुत नागवार गुज़रा. उन्हें इस आन-बान से कोई लेना-देना था ही नहीं. लेकिन भगवान् ने कभी अपने भक्तों की इच्छा टाली है भला?
9 दिसंबर, 1910. पहली बार बाबा की पालकी निकली. भक्तों के बहुत मान-मुनौव्वल के बाद बाबा इस चावड़ी यात्रा के प्रस्ताव पर राज़ी हो गए लेकिन पालकी में बैठने की बात पर राज़ी नहीं हुए. वे इस यात्रा में पैदल ही चलते. पालकी में उनकी छवि और पादुकाएँ रखी जातीं. मस्जिद में कोई ठीक व्यवस्था न होने के कारण, पालकी बाहर सड़क पर ही रखी रहती. एक दिन उसमें से कोई चोर चांदी के हाथी निकल कर ले गए. कोहराम मचने पर उन्होंने कहा कि पूरी पालकी ही क्यों नहीं ले गए! इसी तरह उन्होंने भक्तों के द्वारा अर्पण किये हुए कढ़ाईदार अंगरखे तो पहने लेकिन अपनी फटी-पुरानी कफनी के ऊपर.
मस्जिद में भजन होते. बाबा की षोडशोपचार पूजा के बाद, तात्या के सहारे से उठते बाबा अपने हाथ से मस्जिद से निकलते समय, वहाँ का दीपक बुझा देते. मानो पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देने के लिए. लोगों को मुक्त-हस्त से उदी बांटते. सबसे पहले अपने सजे-संवरे घोड़े, श्यामसुंदर के माथे पर अपने हाथों से बाबा उदी लगाते. ढोल-नगाड़े, गाजे-बाजे, लालटेनों की कतार और रंग-बिरंगी आतिशबाज़ी के बीच बाबा की छतरी पकडे भागोजी शिंदे होते तो उनके एक तरफ काकासाहेब दीक्षित और दूसरी तरफ़ नानासाहेब निमोणकर. तात्या और म्हालसा और उनके जैसे कितने ही भक्त, भक्ति में सराबोर नृत्य करते. कुछ कदम का फासला और यह पालकी यात्रा कोई दो-ढाई घंटे में ख़त्म होती. बीच में मारुती मंदिर के सामने बाबा रुक कर कुछ अबूझ इशारे करते. मानो कोई बातें कर रहे हों. बाबा रहस्य ही तो हैं, हर मतलब से परे! पूरा वातावरण भक्ति से अभामयी हो उठता. चावड़ी पहुँचने पर कोई उनके पाद प्रक्षालन करता तो कोई चिलम सुलगा कर देता. ज्ञानदेव और तुकाराम की आरतियों के समय बाबा सम्मानपूर्वक स्वयं खड़े हो जाते. गद्दियों के ढेर पर जब बाबा रात्रि-विश्राम के लिए जब सोने को होते तो तात्या उन्हें एक गुलाब देते. बाबा उन्हें कहते कि रात में उनकी खबर लेतें रहें.
प्रश्न उठता है कि हमेशा ऐच्छिक दीनता में रहने वाले और करुणा से भरे साई ने इस वैभवपूर्ण चावड़ी यात्रा की अनुमति क्यों दी. क्या केवल भक्तों के बस में रहने वाले साई के पास भक्तों के अनुरोध के सिवा भी कोई कारण था? साई के दर पर मांगने आने वालों में समय के साथ-साथ अत्यधिक शिक्षित, धनाढ्य और उच्च पदों पर सुशोभित लोग आने लगे थे. स्वभावतः इतने संपन्न व्यक्तियों का अहंकार एक फटे कपड़े पहने फ़क़ीर के सामने पूरी तरह झुकने या अपनी झोली फैलाने से उनको रोकता ही होगा. उनका अहंकार घटाने के लिए बाबा ने ऐसी लीला रची जिससे उनका सर्वशक्तिमान, राजाधिराज वाला स्वरुप सामने उभर कर आ सके और साथ में उनकी सादगी भी परिलक्षित होती रहे. किसी के अहंकार को छोटा करना हो तो उसके सामने अपना कद बढ़ा लेना चाहिए.
साई के रंग अनेक और उनके रूप कई हज़ार. कहाँ तक हम थाह पा सकेंगे?
बाबा भली कर रहे।।
श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु।
BABA Pranam 🌹👏👏
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