Wednesday 17 August 2016

साई बाबा का छठा वचन


मेरी शरण आ ख़ाली जाए, हो तो कोई मुझे बताये
[Copyrighted article. This article is covered under the intellectual rights. Any part or content of this article must not be reproduced with out the written consent of Shri Sumeet Ponda. सर्वाधिकार सुरक्षित. यह लेख श्री साई अमृत कथा और श्री सुमीत पोंदा 'भाईजी' की निजी निधि है. इसे या इसके किशी भी अंश को निधिधारी की लिखित अनुमति के बिना उपयोग किया जाना दंडनीय अपराध होगा.]                                         
श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से छठे वचन के बारे में बताते हुएभाईजीसुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा का यह छठा वचन मेरी शरण ख़ाली जाए, हो तो कोई मुझे बताये साई के शरणागत को साई की महिमा के बारे में बताता है. यह कि उनकी शरण में आने वाला कभी ख़ाली हाथ नहीं लौटता. साई का यह वचन एक प्रकार से साई के विराट चरित्र को उजागर भी करता है जिसमें साई में भरोसा रखने वाले को साई ने इस बात की छूट भी दी है कि वो साई की शरण में जाने के बाद अगर मन की मुराद नहीं पाता तो इस बात की फ़रियाद साई से कर सकता है. इसी तरह, इस वचन को सुनने वाले के मन में साई के सर्वशक्तिमान राजाधिराज स्वरुप का उदय होता है. मानो कोई राजा अपनी प्रजा से कह रहा है कि तुम मेरी शरण में आ जाने के बाद ख़ाली कभी नहीं जा सकते.
दूसरी तरफ़ इस वचन में साई की करुणा भी उजागर होती है जिसमें वो बड़े ही प्रेम से इच्छा करने वाले को यह भी कहते समझ में आते हैं कि अगर उनकी शरण में आकर कोई अपने मन की नहीं पा सका है तो वह ज़रूर अपने साई से इस बात की फ़रियाद भी कर सकता है.
इस वचन को समझने के लिए समझना होगा कि साई की शरण क्या है? उनकी शरण पाने के लिए एक भक्त में क्या योग्यता होनी चाहिए? शरण में जाकर भक्त को क्या साई से मिल जाता है? मन का नहीं मिल पाने पर कोई भी भक्त साई से क्या फ़रियाद कर सकता है?
शरण में आने की शुरुआत चरणों से होती है और भक्ति की पहली सीढ़ी याचना बनती है.

 याचना में इच्छाएं छिपी होती है. पहले-पहल हम साई के समक्ष याचक बन कर ही तो आते हैं. उनसे चमत्कारों की उम्मीद रखते हैं. यहीँ से साई से हमारे प्यार-भरे रिश्ते की शुरुआत होती है. जीवन के इम्तिहान में जो पर्चा हमारी समझ में नहीं आता है, उसका हल मांगने हम साई के पास पहुँचते हैं. मांगते हैं और इतनी तीव्रता से मांगते हैं कि साई करुणावश हमें वो दे देते हैं जो हम उससे चाहते हैं. लोभ और मोह में फंस कर हम साई से सुख के आवरण में दुःख मांग लेते हैं. आज जो सुख समझ में आता है वो कल का दुःख ही होगा क्योंकि हम साई से सभी कुछ वही मांगते हैं जो नाशवान हैं. वस्तु को आज पाना और कल उसका नाश दुखी ही करता है. साई देना कुछ और चाहते हैं लेकिन रुक जाते हैं क्योंकि हमें तैयार नहीं पाते हैं. उसका भण्डार तो अमूल्य वस्तुओं और अहसासों से लबरेज़ हैं लेकिन हम ही निरर्थक चीज़ें उससे मांगते रहते हैं तभी हम पाकर और मांगते हैं. साई और भी दे देते है. मांगने का और पाने का यह सिलसिला चलता ही रहता है जब तक हम मांगते-मांगते शर्मिंदा नहीं हो जाते. वो हमारी मांगने की आदत से दुखी भी हो जाता है..वो तो दातार है. देना बंद ही नहीं करता. लेकिन इस पूरे क्रम में वो हमें सुधारता, संवारता चलता है.
[Copyrighted article. This article is covered under the intellectual rights. Any part or content of this article must not be reproduced with out the written consent of Shri Sumeet Ponda. सर्वाधिकार सुरक्षित. यह लेख श्री साई अमृत कथा और श्री सुमीत पोंदा 'भाईजी' की निजी निधि है. इसे या इसके किशी भी अंश को निधिधारी की लिखित अनुमति के बिना उपयोग किया जाना दंडनीय अपराध होगा.]                            जब हमारे पास अपनी ही ज़िद और साई की कृपा से नाशवान चीज़ों का अम्बार लग जाता है तो उनके खो जाने का डर भी मन में बैठ जाता है. तब साई हमें वो देना शुरू करता है जो वो हमेशा से ही हमें देना चाहता था. अब उसका काम शुरू होता है.

वो हमारे ही मांगे हुए दुःख का अहसास मिटाने लगता है. हमारे कर्मों की गति के अनुसार हम पर दुःख तो पड़ता है लेकिन हम दुखी नहीं होते. हमें दुःख प्रभावित नहीं करता. हम संवर रहे होते हैं. दुःख के अहसास के मिटने के बाद साई की कृपा से हमें सुख के पंख लग तो जाते हैं लेकिन अब हम बेलौस उड़ने नहीं लगते. संवरने से जीवन में संतुलन आ जाता है. स्थायित्व आ जाता है. साई के सही स्वरुप की पहचान होने लगती है. विश्वास होने लगता है कि जो साई कर रहे हैं वो हमारे भले का ही तो है.   
साई अनंतता का स्वरुप हैं. हर कण में, हर मन में, हर जीवन में, नभ-तल में साई हैं. यूं कहें कि यह सभी कुछ जो अस्तित्व में है, वह सभी कुछ साई में है या प्रत्येक विद्यमान जड़ और चेतन वस्तु में साई समाया हुआ है. बात एक ही है. साई परम सत्ता हैं. सर्वव्यापी हैं. सर्वज्ञाता हैं. सर्वशक्तिमान हैं. सर्वज्ञ साई हैं या साई सर्वज्ञ हैं इसमें भेद कर पाना मुश्किल है.
साई की शरण पाने के लिए या उसमें समाने के लिए किसी को कोई विशेष जतन या प्रयत्न नहीं करना पड़ता. किसी विशेष स्थान पर जाने की आवश्यकता भी नहीं है. अनुष्ठान करने, आहुति देने की भी कोई ज़रुरत नहीं होती है.
साई की शरण पाने के लिए भक्त को किसी प्रकार की विशेष योग्यता भी प्राप्त नहीं करनी होती. कोई पोथी या पुराण का अध्ययन नहीं करना है. कोई मंत्र नहीं रटना है और न ही कोई तंत्र साधना है. न कोई विशेष वस्त्र धारण करने हैं और न ही कोई भूषा. कोई हार-फूल, अगरबत्ती, चादर या फिर कोई भी महंगी वस्तु नहीं चढ़ानी है! कुछ भी साई को दरकार नहीं है. जो हमें देता है, उसे हम लौटा ही क्या सकते हैं? ये तो सोचना भी बेईमानी हुई. उसी का तो सब दिया हुआ है और इन चीज़ों से हमारा रिश्ता तभी तक है जब तक उसका दिया हुआ यह शरीर है. शरीर नाशवान है और उसके सारे रिश्ते भी. यही शाश्वत सत्य भी है. साई तो अजर-अमर हैं और उनका-हमारा साथ भी. इस साथ को बाँधने के लिए तो कोई भी नाशवान सेतु नहीं बन सकती.    
साई की शरण को पाने के लिए नाम रटन करने जैसी भी कोई साधारण क्रिया नहीं करनी होती. जीभ और होंठ को हिलाना भी नहीं है. सिर्फ़ साफ़ मन से साई का स्मरण मात्र कर लो. वही काफ़ी है. मन साफ़ है और साई में पूर्ण विश्वास है तो साई अपनी शरण में ले लेते हैं. पर मन साफ़ कैसे होगा?
[Copyrighted article. This article is covered under the intellectual rights. Any part or content of this article must not be reproduced with out the written consent of Shri Sumeet Ponda. सर्वाधिकार सुरक्षित. यह लेख श्री साई अमृत कथा और श्री सुमीत पोंदा 'भाईजी' की निजी निधि है. इसे या इसके किशी भी अंश को निधिधारी की लिखित अनुमति के बिना उपयोग किया जाना दंडनीय अपराध होगा.]                           मन को तो हम ने दुर्भावना, बैर, अहंकार, वैमनस्य, इर्ष्या, मत्सर से मैला कर रखा है. सुधार करना होगा. यह चुनौती स्वीकार करनी होगी कि साई को मन में बिठाना है और मन को साफ़ भी करना है. आप साधै, सब सधै. ख़ुद को साध लो, सब को साध लोगे. अपने आप को साधने का प्रयत्न भी जब सच्चे मन से प्रारम्भ कर लोगे तो साई को पाने का अहसास होने लगेगा. उनकी शरण मिल जाएगी. इस अहसास के बढ़ते ही उनसे प्रेम की अनुभूति होने लगेगी.
याचना से शुरू हुई भक्ति का चरम प्रेम है. जब साई के बिना, उनकी बातों के बिना, उनके दर्शन किये बिना जो अधूरापन लगे और जब वही अधूरापन पूरा भी लगने लगे तो समझो साई से प्रेम हो गया है. इस प्रेम को समझने के लिए मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम समझना होगा. प्रेम में तो विष को अमृत में बदलने की शक्ति होती है.
साई तो प्रेमी हैं ही. अनंत प्रेमी. उनके मन में हमारे लिए अकूत प्रेम का झरना सतत बहता ही रहता है. इस अनंत झरने में डूब कर ही हम अपने आप को साईमय बना लेते हैं. साई में और हम में कोई भेद नहीं रहता. साई की शरण में जाना, उनसे एकाकार हो जाने जैसा ही है. अनंत प्रेम. जब प्रेम अनंत हो जाता है तो रोम-रोम संत हो जाता है. साई का सान्निध्य पाकर हम भी संत हो जाते हैं. प्रेम में प्रेमी जैसा हो जाना सरल भाव है. हमारे रोम-रोम में भी संतत्व का भाव हिलोरे मारने लगता है. ये हमारा बदन मंदिर बन जाता है. साई का मंदिर..जिसमें सदैव साई की ज्योत साई के आगे प्रज्ज्वलित रहती है. अनुपम, अखंड ज्योत. अपने गुरु के प्रति अनंत प्रेम की ऐसी ही ज्योत से साई ने द्वारकामाई में वो धूनी जलाई होगी जो आज भी मानवता का कल्याण करती है. जब रोम-रोम संत हो जाता है, हमारा बदन मंदिर बन जाता है तब हमारा हृदय मन से महंत हो जाता है. साई से विलक्षण प्रेम ही उनकी शरण है. हमारे उद्धार का रास्ता खुलने लगता है.
साई से प्रेम कर और बदले में उनका प्रेम प्राप्त कर कोई भी कभी ख़ाली नहीं रहता. झोलियाँ इतनी भर जाती हैं कि छोटी पड़ने लगती हैं. हाथ उठते बाद में हैं और दुआएं क़ुबूल पहले हो जाती हैं. सजदा में झुका बाद में जाता है, बरकत पहले हो जाती है. साई की करामात है ही ऐसी. उन्हें किसी को ख़ाली हाथ लौटाना आता ही नहीं है.
साई की शरण में नाशवान चीज़ों का मोह सिमट जाता है. उनकी निरर्थकता समझ में आने लगती है. उनमें आसक्ति मिटने लगती है. वासना की आग ठंडी पड़ने लगती है. मोह साई में बन जाता है. साई की शरण सुखकारी लगने लगती है. प्रेम का अर्थ समझ में आने लगता है. आसक्ति का स्वरुप बदल जाता है. आसक्ति अब साई शरण की हो जाती है. उनके बिना चैन नहीं मिलता. मन में साई नाम का रटन बराबर चलता रहता है. साई सदा साथ रहते हैं. मोह आनंद में बदल जाता है. साई के साथ का आनंद.
भविष्य अनिश्चित होता है इसीलिए उसका भय हमेशा हमें सताता ही रहता है. अनिश्चितता की कोख से डर का जन्म होता है. भय का दूसरा अर्थ मृत्यु है. भयभीत व्यक्ति मृत के समान होता है. साई के साथ से भविष्य का यह भय भी मिट जाता है. साई नाम से मन में अभयत्व का भाव जागृत हो उठता है. कोई मेरा बुरा नहीं कर सकता! यह भाव मन में जगह बनाने लगते हैं. निर्भयता का उदय होने लगता है. अनिश्चितता के भंवर में साई के साथ से अभय का कमल खिल उठता है.
साई की शरण मन के भाव बदल देती है. हम जब उसकी शरण में आते हैं तो रिक्तता लेकर आते हैं, याचक बन कर आते हैं लेकिन साई इस रिक्तता में सुख, शांति और आनंद का भाव भर देते हैं. कोई कहे तो सही कि साई की शरण से वो ख़ाली लौटा है. साई ने कभी किसी को ख़ाली नहीं लौटाया.

[Copyrighted article. This article is covered under the intellectual rights. Any part or content of this article must not be reproduced with out the written consent of Shri Sumeet Ponda. सर्वाधिकार सुरक्षित. यह लेख श्री साई अमृत कथा और श्री सुमीत पोंदा 'भाईजी' की निजी निधि है. इसे या इसके किशी भी अंश को निधिधारी की लिखित अनुमति के बिना उपयोग किया जाना दंडनीय अपराध होगा.]                            
बाबा भली कर रहे।।

                    श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु।                                                     www.saiamritkatha.com

No comments:

Post a Comment