Saturday, 28 February 2015

साई की लीला अपरंपार...


स्मरण करके देख लो ऊं साई का नाम।
स्वत: पूरे हो जाएंगे बिगड़े सारे काम।

ईश्वर कौन है? जिंदगी जीने का सही तरीका क्या है? धर्म क्या है; कर्म क्या है? पापा क्या है; पुण्य क्या है? ऐसे कई सारे प्रश्न हैं, जिनका साई ने अपने अलहदा तरीके से उत्तर दिया है। साई के बारे में जितना भी कहो; कम है। उनके बारे में कोई कुछ कह भी नहीं सकता। साई जब तक सशरीर पृश्वी पर मौजूद रहे; लोगों को; भक्तों को उनकी शंकाओं-कुशंकाओं से उबारते रहे।

कुछ लोग कहते हैं कि; साई ईश्वर का अवतार थे। कइयों का मानना है कि; वे चमत्कारिक महापुरुष थे; संत थे, बाबा थे। लेकिन साई क्या थे? उसे समझने के लिए अंतरमन में झाकना होगा; क्योंकि साई सबकुछ थे। वे हमारे मन में बैठी भावनाएं थे; जो हमारी इंद्रियों के जरिये अपनी अभिव्यक्ति करते थे। 

साई के परमभक्त श्री गोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर; जिन्हें बाबा हेमाडपंत कहकर पुकारते थे; ने अपनी पुस्तक श्री साई सच्चरित में बाबा की लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया है। जिन्होंने यह अद्भुत ग्रंथ; पवित्र ग्रंथ पढ़ा है, वे भली-भांति जानते-समझते हैं कि; बाबा ने मानव अवतार क्यों लिया था? 
Shri Hemadpant

हेमाडपंत ने यह यह महाग्रंथ मराठी भाषा में लिखा था, जिसका श्री शिवराम ठाकुर ने हिंदी में अनुवाद किया था। बगैर बाबा की आज्ञा के उन पर एक शब्द भी लिख पाना मुमकिन नहीं। कलम तभी चलेगी; दिमाग तभी काम करेगा, जब बाबा आपको आज्ञा दें। बाबा की आज्ञा थी; उनके भक्तों की अनुग्रह कि; मैं बाबा की कहानी; उनकी लीलाएं; उनकी बातें सरल भाषा में नई पीढ़ी तक पहुंचाऊं। कई बार कोशिश की; हर बार अल्पविराम लगता रहा। लेकिन बाबा ने आज्ञा दी, तब यह पुस्तक लिखने का प्रयास किया।

समय के साथ तमाम चीजें बदलती हैं। जीवनशैली में व्यापक बदलाव आता है। बोलने-चालने के तौर-तरीके बदलते हैं। बाबा के बारे में कौन नहीं जानता? लेकिन सिर्फ जानना ही काफी नहीं है। ईश्वरीय अवतार बाबा किस प्रयोजन से मानव अवतार में आए? वे अपने भक्तों/आमजनों को क्या संदेश देते थे; देना चाहते हैं; इसे ध्यान से समझना भी आवश्यक है। जो नई पौध; युवा पीढ़ी के बीच बाबा के संदेश सरल और सहज भाषा/उदाहरणों के साथ पहुंचे; हमने इस पुस्तक के जरिये बस यही एक छोटा-सा प्रयास किया है।

बाबा के अवतरण; और समाधि 15 अक्टूबर 1918 के दरमियान उनका सान्निध्य पाने वाले लोगों ने जो कुछ देखा/सुना और पाया अथवा महसूस किया; यह पुस्तक उन्हीं सत्य घटनाओं को सरल तरीके से शब्दों में पिरोने की एक छोटी कोशिश है।
बाबा महाराष्ट्र के परभानी जिले के पथरी कस्बे में जन्मे। हालांकि बाबा की लीला अपरंपार है, वे कहां से अवतरित हुए; यह ठीक से कोई नहीं जानता। बाबा ने अपनी जिंदगी की लंबा वक्त; महानिर्वाण तक शिरडी में गुजारा। बाबा के पावन चरणों का प्रतिफल ही है कि; शिरडी आज दुनिया में तीर्थ स्थल के तौर पर जाना-पहचाना जाता है। यहां जो मुराद लेकर आता है, खाली हाथ नहीं जाता। इस पुस्तक की रचना भी हमारे लिए एक मुराद पूरी होने जैसा ही है।

हेमाडपंत ने बाबा की जीवनी को कहानियों के रूप में अपनी पुस्तक श्री साई सच्चरित्र में उतारा है। ये वो सच्ची घटनाएं हैं, जिन्होंने मानव जगत को एक नई दिशा-दशा दी। इस पुस्तक में इन्हीें कहानियों का संक्षिप्त पुट आपको दिखाई पड़ेगा।

Tuesday, 24 February 2015

साई की शरण में जाने का मतलब समझें..


अहंकार न कीजिए लेकर गुरुजन का नाम।
साई-शरण स्वयं तीर्थ है, जैसे चारों धाम।

गुरु यानी ज्ञान; एक सच्चा मित्र; परिजन; मार्गदर्शक; आदि,आदि। गुरु कभी छोटा-बड़ा नहीं होता। गुरु तो सभी के एक समान होते हैं। कई लोग इस अहंकार में पड़ जाते हैं कि, मेरे गुरु का ज्ञान, फलां से कहीं ज्यादा है। मेरे गुरु का नाम, फलां के गुरु से कहीं अधिक है।

अकसर हम लोग बड़े दंभ/अहंकार से कहते हैं कि, मैं आजकल फलाने संत की शरण में हूं। बड़ी मेहरबानी; जो आपने ऐसा कहा कि, आप संत की शरण में हैं! मनुष्य इसी सोच के कारण अपने गुरु के ज्ञान और सामनेवाले के गुरु का आशीर्वाद ढंग से नहीं ले पाता। हमें कहना यह चाहिए कि संत ने आपको शरण में ले रखा। हम कहते हैं कि हमने आजकल फंलाने को अपना गुरु बना रखा है। बड़ी मेहरबानी आपकी, जो आपने सामने वाले को अपना गुरु बनाने लायक समझा!
 
हम आपका उपहास नहीं कर रहे, बल्कि आपको आपके विचारों और भावों की असलियत से रूबरू कराने का प्रयास कर रहे हैं।
गुरु किसी को क्यों बनाना, जब तक हम शिष्य बनने लायक नहीं हैं, हम गुरु पाने के पात्र भी नहीं हैं। शिष्य याने शाशतम योग्य। यानी वो, जो शासन करने योग्य हो, वह शिष्य होता है। शासन से मतलब, गुरु जिन अवगुणों पर विजयी पाने का आदेश दे, हम उनको अपने काबू में कर सकें, उन पर शासन कर सकें। शिष्य वो नहीं; जो गुरु से कहे, मैं आपकी चप्पल ला देता हूं या फर्श साफ कर देता हूं। इन कामों को करने से कोई बेहतर शिष्य नहीं बन सकता। अगर ऐसा होता तो सैकड़ों-हजारों-लाखों लोग रोज मंदिरों-मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों में जाकर साफ-सफाई करते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें जीवन का सही मार्ग नहीं मिल पाता। वे यह काम एक औपचारिकता के तौर पर करते हैं, सच्चे मन से नहीं।..और जो लोग सच्चे मन से यह काम करते हैं, उनका जीवन सफल हो जाता है। 

श्रीमद भगवत गीता अध्याय चार श्लोक नं 34। बाबा ने इसकी व्याख्या चांडोलकरजी के सामने की थी। नाना साहब चांडोलकर बाबा के विशिष्ट भक्त थे। बाबा की ख्याति गांव-गांव तक फैलाने का श्रेय नाना साहब को ही जाता है। किसी लेखक ने, कहीं लिखा था कि, बंबई(अब मुंबई) और उसके आस-पास के क्षेत्र से करीब 2000 लोगों को शिर्डी तक लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। 
 

लोग बाबा को संत मानते हैं। आमतौर पर लोग खुद को संत कहलाने में बड़ा फक्र महसूस करते हैं, लेकिन बाबा के साथ ऐसा कभी नहीं रहा। वे तो लोगों को अपना साथी मानते थे, मित्र बोलते थे। अपनों की तरह प्रेम-वार्तालाप करते थे। वे आज भी हमारे अंदर ऊर्जा बनकर यह प्रभाव छोड़ते हैं।

अगर संत शब्द की व्याख्या करें/परिभाषित करें, तो-स-अंत यानी जो अंत को अपने साथ-साथ लेकर घूमता है, वो होता है संत। संत वो है, जिसे यह अहसास होता है कि सारा जग नश्वर है। मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए। लेकिन मैं किसी के काम आ सकूं, जब यह भावना किसी के अंदर पैदा हो जाती है/जागृत हो उठती है, तो वह संतत्व की ओर अग्रसर हो जाता है।
 
गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-संत संगति सनस्रुति कर अनदार। मतलब संत की संगति से हमारे आस-पास का जगत याने समस्त मोह-माया का अंत होता है। 

बाबा का जयकारा कहता है-
अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक राजाधिराज योगी राज परमब्रह्म श्री सचितानंद सदगुरु श्री साईनाथ। 
पहला शब्द अनंत है। हम सभी ने थोड़ी-बहुत गणित तो पढ़ी ही होगी। जब किसी अंक को शून्य से विभाजित करते हैं, तो अनंत यानी इनफिनिटी की प्राप्ति होती है। साई बाबा को शून्य से विभाजित करें, तो शून्य अहंकार, शून्य दुर्गुुणों से तो अनंतता वैसे ही मिल जाती है। 
दूसरा शब्द है कोटि। हिंदी में कोटि के दो अर्थ होते हैं करोड़ों और भांति भांति के। साई कोटि कोटि में समाए हुए हैं। 
साई ने अपने जीवनकाल में कहा भी है-
ईशा वास्यविदम सर्वम। यत किन्चित जगत्याम जगत।
अर्थ-सभी प्राणियों में मेरा ही वास देखो। यही कारण है कि जब कभी हम किसी भूखे को भोजन कराते हैं, तो वो सीधा साई को जाता है। उन्हें तृप्त करता है। उन्हें सुकून देता है।...और जब साई सुकून पाते हैं, तो सारे जग का अपने आप भला हो जाता है।

चलिए एक कथा सुनाते हैं। यह उन अंतिम दिनों की बात है, जब बाबा उम्रदराज होने के कारण भिक्षा लेने नहीं जा पाते थे। एक थीं लक्ष्मीबाई। एक दिन बाबा ने उनसे कहा-माई मुझे बहुत भूख लगी है, कुछ खाने को ले आ। माई दौड़ी-दौड़ी गईं और रोटी ले आईं। बाबा के समीप ही बाहर एक कुत्ता बैठा हुआ था। बाबा ने रोटी ली और उसके आगे फेंक दी। लक्ष्मीबाई हैरत से बोलीं-बाबा ये क्या करते हो, मैं इतनी मेहनत से रोटी लाई और तुमने कुत्ते के सामने फेंक दी? बाबा ने मुस्कराते हुए जवाब दिया-लक्ष्मी! जब कोई किसी भूखे को भोजन कराता है, तो इसक मतलब वो मेरी भूख मिटा रहा है। 

इसलिए मित्रों आप सबको भी जब भी ऐसा मौका मिले, इसे छोडि़ए नहीं। भूखे को खाना दीजिए, प्यासे का पानी। वे तृप्त होंगे, तो बाबा को खुशी मिलेगी।
 
साई इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाए,
मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए। 

हम बात कर रहे थे साई की गुरुत्ता की, उनके जयकारे की। 
अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक राजाधिराज योगी राज परमब्रह्म श्री सचितानंद सदगुरु श्री साईनाथ। 

हम बात कर रहे थे। साइं की गुरुता की, उनके जयकारे की। इसमें तीसरा शब्द आता है ब्रह्मांड। ब्रह्मांड क्या है? इस रहस्य को उजागर करने के लिए दुनियाभर में बड़े-बड़े प्रयोग चल रहे हैं। आगे भी चलते रहेंगे, क्योंकि हम ब्रह्मांड का एक रहस्य खोजेंगे, तो दूसरा सामने आ जाएगा। लोग ब्रह्मांड के जनक भगवान को खोजने की बात करते हैं। उन्हें ढूंढने में सारी जिंदगी खपा देते हैं। लेकिन भगवान कोई रहस्य नहीं है, वे तो एक एनर्जी हैं, जो हमारे अंदर मौजूद है। एनर्जी सहज-सुलभ है। यानी भगवान सुलभ हैं। वे तो कण-कण में विद्मान हैं।

भगवान सुलभ हैं। सुलभता ईश्वर का आभूषण है। आप एक बार पूरे मन से, निर्मल मन से, निस्वार्थभाव से साई का नाम पुकारो, देखना वे आपके सामने होंगे। यह जरूरी नहीं कि, साई अपने उस रूप में आपको दर्शन दें, जो तस्वीरों में नजर आते हैं। वे किसी भी रूप में, आकार में आपके सामने अवश्य आएंगे।

साई के जयकारे में एक शब्द आता है नायक। नायक कौन होता है? सब जानते हैं। फिल्मों में देखा होगा। जो बुराई से लड़ता है। अच्छाई के मार्ग पर चलता है। लोगों की भलाई के लिए काम करता है। सबको खुश रखने की कोशिश करता है, वो नायक है। साई भी हमारे नायक हैं। उन्होंने भी कइयों को मुश्किलों से बाहर निकाला है। अब भी निकाल रहे हैं और आगे भी निकालेंगे।
 
सिनेमा में जब नायक बुराइयों पर विजय पा लेता है, तो फिल्म पूरी हो जाती है। यानी क्लाइमेक्स के बाद दि एंड लिखा आ जाता है। लेकिन हमारे असली नायक साई के मामले में ऐसा नहीं है। यहां तो जैसे ही हमारे भीतर का द्वंद्व खत्म होता है, साई जैसे ही द्वंद्व खत्म करते हैं, जिंदगी की फिल्म शुरू हो जाती है। जब हमारे ऊपर साई की कृपा होती है, तो भवसागर तो यूं ही पार हो जाते हैं।
साई के जयकारे में अगला शब्द आता है राजाधिराज। राजाधिराज यानी राजाओं के भी राजा। बड़ा से बड़ा व्यक्ति शिर्डी में बाबा के दर्शन के लिए कतार लगाए खड़ा रहता है। इन कतारों में शामिल होकर सब एक समान हो जाते हैं। कतारों में खड़े व्यक्ति को देखकर यह कह पाना मुश्किल होता है कि कौन राजा और कौन रंक। 

लोग कतारों में लगने से घबराते हैं। कइयों को यह लगता है कि, कतारें तो आम आदमी के लिए होती हैं, वे तो खास हैं। उनके लिए तो रास्ता साफ होना चाहिए। बाबा के दर्शन स्पेशल तरीके से होना चाहिए। लेकिन क्या कभी आपने कतारों के मायने समझे हैं? भगवान के दर्शन के लिए लगने वालीं कतारें एक संदेश देती हैं। ईश्वर के भक्तों में कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा नहीं। ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं। छुआछूत के कोई मायने नहीं। बाबा के दरबार में भी यह होता है। बाबा राजाधिराज हैं। जिसके चरणों में राजा भी अपना सिर झुकाए, वह राजाधिराज होता है। बाबा के चरणों में सिर झुकाने से सारी अकड़ खत्म हो जाती है। वो अकड़, जो धन-दौलत, बाहुबल, अहंकार, अपने-पराये, दुर्विचार जैसी बुराइयों से जन्मती है। बाबा के चरणों में सिर झुकाते ही, सारे पाप धुल जाते हैं।

बाबा के जयकारों को फिर से स्मरण कीजिए...
अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक राजाधिराज योगीराज परमब्रह्म श्री सचितानंद सदगुरु श्री साईनाथ। 

इसमें राजाधिराज के बाद शब्द आता है योगीराज। योग यानी शारीरिक और मानसिक व्याधियों(रोगों) को जड़ से मिटाने का पारंपरिक तरीका। हम योग से अपने हाथ-पैर की अकडऩ मिटा लेते हैं। एक नाक से सांस निकाल कर कहते हैं कि हम योग कर रहे हैं। नए जमाने में तो योग अब योगा हो गया है। योगा भी अब टीवी देखकर होने लगा है। 

योग वह कला है, जिससे हमारा मन भटकने से रुकता है। शास्त्रों के अनुसार जो चित्त की वृत्ति जो रोक दे वो योग है। जो चित्त को विचलित होने से रोके वो योग है। यानी चित्त वृत्ति निरोध। बाबा का चित्त कभी भटकता नहीं था। भक्त उनके पास आते थे और बाबा उन्हें वो सब दे देते थे, जिसकी वो कामना लेकर के आते थे। लेकिन स्वयं उन्होंने किसी से कुछ नहीं मांगा। इसलिए तो वो हुए योगीराज। 

बाबा के जयकारे में एक शब्द आता है परमब्रह्म। साई परमब्रह्म थे। भगवान साई बाबा में लोगों को साक्षात ईश्वर के दर्शन होते थे। किसी को राम; किसी को कृष्ण; तो किसी को महादेव। याने अलग-अलग रूप में बाबा ने दर्शन देकर अपने परमब्रह्म होने का परिचय दिया। 
बाबा के जयकारे में एक शब्द आता है सचितानंद। सचितानंद याने जो हमारे चित को सत्यता का बोध करा दे और फिर उससे हमें आनंद की प्राप्ति हो। वो बाबा के चरणों में जाने से हमें हो ही जाती है। 

जयकारे में एक शब्द है सदगुुरु। सद्गुरु यानी वो व्यक्ति, जो हमारे मन के अंदर के अंधकार को हर लेता है। अंदर उजियाला भर देता है। 

तो बात हो रही थी गुरु ढूंढने की। गुरु मत ढूंढो; अपने आप को योग्य शिष्य साबित करो। मुक्ति की उत्कठा रखो बस आपको सद्गुरु मिल जाएंगे।...और सद्गुरु क्या; भगवान यानी बाबा स्वयं किसी न किसी रूप में आपके सामने होंगे। आपका मार्गदर्शन करने। आपको अच्छाई और बुराई में फर्क बताने। जीवन को आनंदित करने। 

ईश्वर जब अवतार लेता है, तो सीधा आशय होता है कि मनुष्य भटक गया है और उसे सही रास्ता दिखाना है। पृथ्वी पर पाप बढ़ गए हैं और लोगों को पुण्य की महत्ता बताना है। भगवान ने साई के रूप में अवतार लिया। वे अचानक अवतरित हुए थे। भगवान हमारे मन में अचानक ही आते हैं, अकस्मात। कारण; अगर आप पता हो कि; भगवन आपके दरवाजे पर आ रहे हैं, तो आप पहले से ही सारी तैयारियां करके रख लेंगे। अपनी क्षमताओं से कहीं अधिक चीजें जुटा लेंगे। उधार लेकर खान-पान, स्वागत-सत्कार की सामग्री का इंतजाम कर लेंगे। आस-पड़ोस में ढिंढोरा पीट देंगे कि; भगवान आपके घर पधार रहे हैं। यानी आप खुद को भगवान की नजरों में श्रेष्ठ बनाने की दिशा में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। यही तो अहंकार है। भगवान और किसी के घर में नहीं; सिर्फ आपके यहां आ रहे हैं; यही तो गुरूर है। जहां गुरूर; वहां गुरु का वास कभी नहीं हो सकता।

भगवान अचानक इसलिए अवतरित होते हैं, ताकि आप उनके सामने कोई आडंबर न कर सकें, जैसे हैं; वैसी स्थिति में सामने आएं। तभी तो आपमें बदलाव होगा। अगर आप अपनी वास्तविकता गुरु से छिपा लेंगे, तो इसका आशय तो यही हुआ कि; आप बदलना ही नहीं चाहते।
हालांकि ईश्वर से कुछ भी नहीं छुपा है। वे आपके अंदर तक झांक सकते हैं। आपके अंदर पसरे अंधकार में क्या-क्या छुपा है, वे साफ-साफ देख सकते हैं, लेकिन बदलना आपको है, कोशिश आपको करनी है। भगवान तो आपको ऊर्जा दे सकते हैं, बदलाव के लिए। क्योंकि जोर-जबर्दस्ती से किया गया बदलाव किसी काम का नहीं।
इसलिए साई भी अचानक प्रकट हुए। साई को लोगों ने एक नीम के पेड़ के नीचे बैठे देखा था। शायद उस वक्त उनकी उम्र यही कोई 16 साल रही होगी। साई सबसे पहले लोगों को शिर्डी में उसी नीम के पेड़ के नीचे दिखे थे। किसी को उनका नाम नहीं पता था। फकीरों-सी उनकी वेशभूषा थी। वे हवा में कुछ इशारे करते और लोगों से बतियाते। मस्तमौजी स्वभाव। 
 

साई की महिमा पर यह भजन प्रस्तुत है। इसके बाद फिर ढेर-सारी बातें करेंगे साई पर।
एक फकीरा आया शिर्डी गांव में आ बैठा एक नीम की ठंडी छांव में। 
होठों पर मुस्कान है छाले पांव में, आ बैठा एक नीम की .....।।
कभी अल्लाह-अल्लाह बोले, कभी राम नाम गुण गाए। 
कोई कहे संत लगता है, कोई पीर-फकीर बताए। 
जाने किससे बातें करे हवाओं में, आ बैठा एक नीम की....।।

एक फकीरा आया....
हे कौन कोई न जाने कोई उसको न पहचाने
चोला फकीर का पहना देखो जग के राजा ने 
सबकी मांगे खैर वो दुवाओं में, आ बैठा एक...
एक फकीरा.....
वो जिसको हाथ लगाए, उसका हर गम मिट जाए।
वो दे दे जिसे विभूति, उसे हर खुशी मिल जाए।। 
कांटे चुनकर फूल बिछाए राह में, आ बैठा एक नीम की।।
एक फकीरा.....

बाबा हमेशा फक्कड़ मिजाज के रहे। उन्हें दुनिया की भौतिक सुख-सुविधाओं से कोई लेना-देना नहीं रहा। मैले-कुचैले, फटे-पुराने कपड़े कई बार तो वे उन्हें कई कई दिन तक बदलते भी नहीं थे। जैसे बाबा को इन सब चीजों में कोई रुचि थी ही नहीं।

कपड़े बदले, मन न बदला, जीवन में फिर तो क्या बदला?
अगर सिर्फ कपड़े बदलने से मन बदल जाता, नीयत बदल जाती, तो फिर लोग साबुन को पूजते। बाबा अंदर से इतने पाक-पवित्र रहे कि, उनकी चमक मैले-कुचैले कपड़ों के बावजूद भक्तों को ऊर्जित करती रही।

तब की एक कहानी...
उस समय तक बाबा का नामकरण साई नहीं हुआ था। शिर्डी में एक विदुषि महिला थीं बाइसा माई। एक बड़े परिवार से ताल्लुक रखती थीं। बाइसा माई बाबा को अपना बेटा मानती थी। बाबा भी उनसे कहते थे-तू मेरे बहुत जन्मों की रिश्तेदार है। पिछले जन्म में तो तू मेरी बहन थी। 
बाइसा माई बाबा के खाने का ख्याल रखती थी। हालांकि बाबा को खाना खिलाना बेहद टेड़ी खीर थी। वे कभी किसी नाले के पास बैठे मिलते, तो कभी किसी पेड़ के नीचे बैठे दिखते। रात में जंगल में विचरण करते हुए भी उन्हें कभी किसी जानवर से भय नहीं होता था। बाइसा माई रोज बाबा के लिए खाने का डिब्बा बांधकर जंगल-जंगल, नदी-नाले पार कर उन्हें खोजती रहतीं। जैसे ही बाबा कहीं मिलते, तो बाइसा उनका हाथ पकड़कर पास बैठातीं और मुंह में जबरन निवाला डाल देतीं। कभी-कभी प्यार से पूछतीं-क्यों कैसा लग रहा है, ठीक खाना बना लेती हूं न मैं? बाबा हमेशा मुस्करा कर हां में जवाब देते। जबकि उन्हें स्वाद का कोई पता नहीं था। वो इन सब चीजों से ऊपर थे। उनके मुंह में स्वाद या बेस्वाद जैसी कोई बात नहीं थी। 
Bayjamai Ki Sewa

एक दिन अचानक बाबा शिर्डी से अंतरध्यान हो गए। माई परेशान। जगल-जगल, नाले-नाले, पेड़-पौधों के पीछे अपने बेटे को ढूंढतीं। लोग मानते हैं कि शायद बाबा जब शिर्डी में नहीं थे, तो उनका कार्यक्षेत्र कोई और जगह रही थी। खैर, कुछ साल हुए। शायद एक या दो साल। एक व्यक्ति थे चांद पाटिल। धूपगांव के सरकारी मुलाजिम। उसकी घोड़ी कहीं खो गई। वह अपनी घोड़ी की जीन लटकाए गांव- गांव, जंगल-जंगल उसे ढूंढते घूम रहे थे। ऐसे ही एक दिन चांद पाटिल जंगल गुजर रहा था कि, पीछे से आवाज आई-क्यों चांद अपनी घोड़ी ढूंढ रहे हो? चांद पाटिल सकते में, इन महाशय को मेरा नाम कैसे पता और यह भी कैसे पता कि मेरी घोड़ी खो गई है?

फिर आवाज आई-चांद वो उस छोटी वाली पहाड़ी के पीछे चले जाओ। वहीं पड़ोस में एक झरना बह रहा है, वहीं तुम्हारी घोड़ी आराम से पानी पी रही है। चांद पाटिल दोड़े-दौड़े गए। वहां उन्हें अपनी घोड़ी मिल गई। चांद पाटिल ने उसे जी भरकर प्यार किया। घोड़ी को जीन पहनाई और उसे लेकर ओलिया के पास आ गए। उनकी वेशभूषा देखकर चांद ने सवाल किया-आप मुसलमान है? ओलिया ने कोई जवाब नहीं दिया मुस्कुरा दिए। चांद को लगा, शायद ये हिंदू है। उसने कहा-आप हिंदू है? उसे फिर जवाब नहीं मिला। ओलिया फिर से मुस्कुराए। ओलिया ने पूछा-चांद चिलम पिओगे? चांद ने कहा-हां बाबा जरूर। 

उस ओलिया ने अपने पास रखे चिमटे को उठाया और जोर से जमीन पर दे मारा। वहां से एक जलता अंगारा निकल आया। औलिया ने चिमटे से वो अंगारा चिलम पर रख दिया। अब पानी कहां से आएगा? चिलम पर जो साफी लगती है न उसे गीला करने के लिए। इसके लिए औलिया ने अपना सटका उठाया और जमीन पर दे मारा, वहां से पानी की धार फूट पड़ी। चिलम तैयार। चांद पाटिल समझ गया कि ये कोई साधारण मनुष्य नहीं। चांद पाटिल ने कहा-मैं आपका नाम नहीं जानता। ओलिया ने कहा-मुझे किसी ने कोई नाम दिया नहीं है। चांद ने कहा-बाबा आप मेरे साथ धूप गांव चलिए। दरसअल, वो ओलिया कोई और नहीं साई ही थे। 

चांद पाटिल बाबा को लेकरगांव पहुंचे। कुछ वक्त बाद चांद पाटिल की पत्नी के भाई के बेटे की शादी तय हो गई शिर्डी में। चांद पाटिल ने बाबा से बराती बनकर चलने को कहा। बाबा तुरंत तैयार हो गए। उस जमाने में होटल तो होते नहीं थे। बारात शिर्डी आई और एक बरगद के पेड़ के नीचे खंडोबा के मंदिर के पास उनके रहने का स्थान तय हुआ। 

देखिए बाबा कितने त्रिकाल ज्ञाता थे। जिस शिर्डी में पहले वो एक नीम के पेड़ के नीचे मिले, वहीं दूसरी बार एक बरगद के पेड़ के नीचे उतरे। जब उनके शारीरिक रूप का अंत समय निकट आ रहा था, तो उन्होंने अपने भक्तों से कहां था कि, शिर्डी में बड़ी-बड़ी इमारतें बन जाएंगी। लोग, जिनमें बड़े-बड़े सेठ और राजे-महाराजे भी शामिल होंगे, वाहनों से यहां आया करेंगे। तब सभी ने उनका मजाक उड़ाया था। सबने कहा कि क्या कह रहे हो आप? शिर्डी तो ऐसा ही रहेगा। खैर बाबा बरगद के पेड़ के नीचे उतरे। एक और संयोग देखिए। पास ही खंडोबा का मंदिर था। खंडोबा याने शिव। शिव किस का अवतार हैं। एक जमाने में मल और मणि नाम के दो राक्षसों ने लोगों का जीना मुश्किल कर रखा था तब देवता पहले इंद्र और फिर विष्णु जी के पास गए और उनसे मदद मांगी। लेकिन उन्हें मदद मिली शिव से। शिव ने जो अवतार लेकर उन दोनों राक्षसों का वध किया था, उस अवतार को खंडोबा के नाम से जाना जाता है। शिव ने विष्णु को आत्मज्ञान कराया था। और आज साई आप सबको आत्मज्ञान करा रहे हैं। 

खंडोबा के उस मंदिर का एक पुजारी था मालसापति चिमनलाल नागरे। बाबा बैलगाड़ी से उतरे। मालसापति अल्पशिक्षित थे। शिर्डी बेहद छोटा सा गांव था, जहां मालसापति ज्यादा शिक्षा या यूं कहिए की ना के बराबर शिक्षा ही प्राप्त कर पाए थे। बाबा की लीला देखिए उन्हें अपने लिए एक नाम चुनना था और मालसापति ने उन्हें वह नाम दिया और जो नाम दिया वह शब्द अरबी भाषा में सूफी संतों के लिए इस्तेमाल किया जाता है साई। बाबा का बैलगाड़ी से उतरना हुआ मालसापति जो उसी वक्त खंडोबा मंदिर से अर्चना करके बाहर आ रहे थे। पता नहीं उन्होंने क्या सोचकर कह दिया या बाबा ने उनसे कहलवा दिया कि, आओ ओ साई। बस पड़ गया नाम उस फकीर का...साई।


जात न पूछो साधू की...
बाबा ने कहा कि इसने(चांद पाटिल) मुझे बुला तो लिया है, लेकिन मेरे रहने का तो कोई ठिकाना नहीं। बारात में तो बस ऐसे ही आना था, सो मै आ गया। इसके बाद बाबा ने इच्छा जाहिर की, मैं रात यहीं इसी मंदिर में रहूंगा। बाबा की यह इच्छा सुनकर मालसापति के माथे पर तनाव के बल उभर आए। दरअसल, मालसापति थे रूढि़वादी। उन्हें लगा कि यदि इस मुसलमान से दिखने वाले बाबा को यदि मैंने खंडोबा मंदिर में रहने दिया, तो शिर्डी के लोग क्या कहेंगे?

बाबा ने उसके मन के भाव पढ़ लिए। बाबा मुस्कराए और बोले-कोई बात नहीं मैं अपने लिए कोई दूसरा ठिकाना ढूंढ लूंगा। इसके बाद बाबा गांव के अंदर आए। वहां उन्हें एक पुरानी टूटी-फूटी मस्जिद दिखाई दी। उसमें अब इबादत बंद हो चुकी थी। बाबा ने उसी में डेरा जमा लिया। आज हम उसी मस्जिद को द्वारका माई के नाम से जानते हैं। साई मस्जिद में आ गए। बाइसा माई भी खुश हो गईं। उन्होंने आगे बढ़ कर अपने बेटे को गले लगा लिया और रोने लगीं। थोड़ी झिड़की भी। बोलीं, ऐसे बिना बताए कहां चले जाते हो? बाबा ने कहा-माई जाना पड़ा कुछ काम था। बाबा ने उस मस्जिद को अपना घर बना लिया। 

बाबा के भिक्षा मांगने का तरीका भी बेहद अलग था। वे जिससे भी भिक्षा मांगते उससे कहते-मेरा और तुम्हारा पिछले जनम का कुछ लेन-देन है। बाबा जितने साल शिर्डी में रहे, उन्होंने भिक्षाटन करके ही अपना गुजारा किया। लोग कहते हैं इतना बड़ा संत, जिसके लिए कहा जाता है कि वह लोगों की झोली भर देता है, उसे भिक्षा की क्या आवश्यकता? वह तो जरा हाथ ऊपर उठाता तो छप्पन भोग सामने आ जाते, लेकिन बााबा के खेल बड़े निराले हैं। मानव अवतार, जिसमें वो आए थे उसकी कुछ बंदिशें भी थीं। उस मानव अवतार में उनकी हथेली में शायद लिखा था कि उन्हें भिक्षा से ही गुजारा करना है। या शायद वो लोगों को बताना चाहते थे कि, किसी के सामने हाथ फैलाने में कोई बुराई नहीं है। 
आप स्वयं देखिए। बिजनेसमैन भी क्या करते हैं, वो भी तो भिक्षा ही मांगते हैं न। अपने मार्केटिंग वालों से कहते हैं कि, जाकर आर्डर ले आओ फलां से। टारगेट पूरा कर ले यार, वरना मेरी नौकरी भी जाएगी तेरी जाएगी सो तो जाएगी ही।
 
हेमाडपंत ने जब बाबा की भिक्षा पर अपना अध्याय लिखा तो बताया कि जो व्यक्ति कांचन,कामिनी और कीर्ति से दूर हो, भिक्षा मांगना उसका प्रारब्ध हो जाता है। बाबा को रुपए पैसे का मोह था नहीं, अपनी प्रसिद्धि का भी उन्हें कोई शौक नहीं था। ...और कामिनी? तो वो इतने सधे हुए थे और सबसे दूर रहते थे। उन्होंने पूरे जीवन में किसी की ओर बुरी नजर से नहीं देखा। ब्रह्मचर्य का पालन किया। 

हेमाडपंत आगे लिखते हैं-खाना बनाने की क्रिया में पांच प्रकार के पाप हमसे होते हैं, पीसना, दलना, बर्तन मांजना, बर्तन धोना और चूल्हा जलाना। इसमें अनेक जीवाणु मर जाते हैं। जो मनुष्य यह खाना खाते हैं, उन्हें पाप लग जाता है। बाबा ने उन लोगों को पाप से बचाने के लिए उनके यहां भिक्षा मांगने का क्रम शुरू किया। मात्र पांच घर हैं शिर्डी में, जहां से बाबा भिक्षा लेते थे। इनमें एक है बाइजा माई, दूसरा बयाजी अप्पा कोते पाटिल, जिनकी बाहों में बाबा ने अपनी आखिरी सांस ली। तीसरे वामन गोंदकर चौथे सखाराम शिरके और पांचवें नंदू मारवाड़ी।

Bapu Saheb Buti
बाइजा माई के घर जाकर बाबा जोर से चिल्लाते-आबादी आबाद, बाइसा माई रोटी ला। हक से मांगते थे। सखाराम के घर जाकर कहते-ए सखिया रोटी आण। नंदू मारवाड़ी की पत्नी हकलाकर बोलती थी। बाबा उन्हें बोपेड़ी बाई कहते थे। वे उन्हें पुकारते-ए बोपेड़ी बाई, आज दीवाली है, कुछ मीठा बनाकर खिला दे। ऐसे थे बाबा। आखिरी दिनों में जब वे चल-फिर नहीं पाते थे, तो कभी श्यामा बाई, कभी प्रो. नारके तो कभी उपासनी महाराज को अपनी ओर से भिक्षा लेने भेजते थे। लेकिन भिक्षा का क्रम उन्होंने कभी नहीं तोड़ा। उन दिनों भी नहीं जब 1908 से शिर्डी में लोगों का तांता लगना शुरू हो गया था। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी। गरीब-अमीर सब तरह के भक्त उनके चरणों में आने लगे थे, तब भी बाबा ने मांगकर ही अपना गुजारा किया। साई सूट-बूट में आने वालों को भी अपने लिए भिक्षा लेने भेज देते थे। 

प्रो. जीजी नारके, इतने पढ़े-लिखे थे और बापू साहब बूटी, जो उस जमाने के मल्टीमिलयनेयर थे। बाबा उन्हें भी भिक्षा लाने भेजते थे। एक बार बाबा ने प्रो. जीजी नारके को सूट में भिक्षा लाने भेज दिया।
G G Narke
वो शर्म से पानी-पानी हो गए। बोले-बाबा ये क्या कराते हो? बाबा झिड़क कर बोले-तुझे भिक्षा मांगने में शर्म आती है? लोगों से लेगा, तभी लोगों को दे पाएगा। बाबा के शब्द कितने सारगंर्भित थे। प्रो. जीजी नारके को यूनिवर्सिटी ऑफ पुणे में टीचर के रूप में काम करने का मौका मिला। उन्होंने लिया कुछ और था, दिया किसी और रूप में। 

दरअसल, कर्म कोई भी बुरा नहीं होता; अगर वो निष्पाप हो, लोगों की भलाई में काम आने वाला हो। जो लोग यह समझते हैं कि, वे अपने पैसों से बड़ा-सा मंदिर बनवाकर भगवान को अपने पास ला सकते हैं, तो यह भूल है। पैसों से मंदिर बनावाया जा सकता है, लेकिन ईश्वर को उसमें नहीं बैठाया जा सकता। ईश्वर तो कण-कण में व्याप्त हैं। वे गरीब-अमीर में भेद नहीं करते। इसलिए साई बाबा यही संदेश देते रहे कि, सबका मालिक एक। यानी ईश्वर सबके के लिए एक-से हैं।

Sunday, 22 February 2015

साई मन में विराजे हैं..


अंदर बहुत अंधकार हो, तो मिले कहां भगवन।
साई तो कण-कण व्याप्त हैं, देखो अपना मन।

ईश्वर ने कभी अपने भक्तों को ऊंच-नीच; छोटे-बड़े के भेद में नहीं रखा। ईश्वर तो मित्रवत बर्ताव करते हैं। वे एक सच्चे दोस्त की तरह हमें अच्छी संगत देते हैं, सही मार्ग प्रशस्त करते हैं। साई बाबा के सान्निध्य में जितने भी महानुभव रहे; बाबा उनसे हमेशा मित्रवत व्यवहार करते थे।

जब मैं तुम हूं, तुम मेरे अंश हो, फिर काहे का भेद।
न मैं ऊंचा; न तुम नीचे, तो फिर व्यर्थ हैं सारे खेद।

कहने का तात्पर्य ईश्वर और उसके भक्त के बीच कभी भेद हो नहीं सकता। क्योंकि मनुष्य ईश्वर का ही तो अंश है यानी जब ईश्वर कण-कण में विराजे हैं, तो मनुष्य भी ईश्वरतुल्य है। बस आवश्यकता कर्म-दुष्कर्म के बीच का बारीक अंतर समझने की है। ईश्वर ने जात-पात, धर्म-कर्म के आधार पर कभी भी अपने भक्तों के बीच भेद नहीं किया। जैसे भगवान राम ने शबरी के जूठे बेर खाकर यह संदेश दिया कि, जात-पात, धर्म-कर्म से किसी इनसान को ऊंच-नीच में नहीं बांटा जा सकता है। ठीक वैसे ही साई बाबा भी सभी धर्मों, जात-पात के लोगों को बराबर का सम्मान देते रहे,प्यार करते रहे।
 जस्टिस खापरडे को बाबा ने अलग-अलग समय में अपने पास प्रवास करने का मौका दिया था। इसमें एक अल्पकालीन था और एक करीब 11 महीने का।
जस्टिस खापरडे शिर्डी में बाबा के सान्निध्य में रहे। बाबा जब शिर्डी में लैंडी बाग की तरफ आते-जाते थे, तो जस्टिस खापरडे से कहते थे-का सरकार कसा-काई (क्यों मालिक कैसे हो?)। साई की करुणा देखिए, अपनेपन का भाव देखिए। स्वयं जगत के मालिक होते हुए भी दूसरे से पूछते हैं-का सरकार कसा काई? 

हमारे भीतर यह गुण मालूम नहीं कब आएंगे! लेकिन जिस दिन भी आ गए, मानकर चलिए हम बाबा के सच्चे भक्तों-अनुयायियों की अगली पंक्ति में शुमार होंगे। उनके चहेतों में शामिल हो जाएंगे। एक नेकदिल इनसान कहे जाने लगेंगे। जिंदगी में इससे बड़ा और कोई सुख नहीं, जब दूसरे हमारा आदर करें। प्यार से बोलें। सवाल यह है कि, जब ईश्वर मनुष्यों के बीच कोई भेद-भाव नहीं करता; तो फिर हम किस अहंकार में जी रहे हैं?

खाली हाथ सब आए जग में, क्या लेकर के जाएंगे।
तुम अमीर हो या गरीब, सब माटी में मिल जाएंगे।

अगर हमें कुछ मिल जाता है, तो फूल कर कुप्पा हो जाते हैं। दास गणु से एक बार बाबा ने कहा था-दासानु दास; मैं तुम्हारा ऋणि हूं। वो खुद को दासानु दास कहते थे। वे कहते थे-मैं अल्लाह का ऋणि हूं, मैं दास हूं। तुम मेरे गुण गाते हो, इसलिए दास गुण दासानु दास, मैं तुम्हारा ऋणि हूं। 

प्रकृति की देन, ईश्वर यानी बाबा की भक्ति के अलावा सारी भौतिक सुख-सुविधाएं नश्वर हैं। बाबा जब हमें नश्वरता का अहसास करा देते हैं, तो हमें उनसे अनुराग हो जाता है। हम उनके भक्त बन जाते हैं। उनसे प्रीति करने लगते हैं। हमारे भीतर से कुछ खोने का डर निकल जाता है। भगवान में प्रीति याने भक्ति। अपने इष्ट से जब आप प्रेम करते हैं, तो आप धीरे-धीरे एकाकार हो जाते हैं। तब आप साई बन जाते हैं। यानी बाबा आपको आप से हर लेते हैं। मैं का भाव खत्म कर देते हैं और अपने का भाव जगा देते हैं। साई हो जाने का आशय यही है कि मैं यानी अहम का नाश और हम यानी एकजुटता, अपनत्व का उदय।

मन में समाये साई, उन्हें जगाइए।

बाबा की तलाश में लोग वर्षों गुजार देते हैं। धन-दौलत और समय लुटा देते हैं, लेकिन फिर भी जब उन्हें बाबा के दर्शन नहीं होते, तो वे निराश हो जाते हैं। लेकिन सच क्या है, यह जान लीजिए। जैसे कस्तूरी मृग अपनी नाभि में ही कस्तूरी होने के बावजूद खुशबू के भ्रम में उसे यहां-वहां ढूंढते हुए भटकता है, ठीक वैसी ही मनोस्थिति हमारी है। साई हमारे दिल में बैठे हैं, लेकिन हम उन्हें यहां-वहां तलाशते फिरते हैं। दरसअल, हमने कभी उन्हें जगाने की कोशिश नहीं की। वे सुप्त अवस्था में अंदर विराजे हैं। हम जब उन्हें जागृत करेंगे, तब ही तो उनकी आहट होगी। उनकी हलचल हमें नये मार्ग पर ले जाएगी। भ्रम से निकालेगी।

मेरे एक मित्र हैं। जैसे दोस्तों में टांग खिंचाई होती है, एक दिन उन्होंने वही किया। वो आए और बोले-यार सुमित तू बड़ा साई-साई करता है, एक बार हमें भी तो साई से मिलवा दे। अब जब मस्ती की बात चल रही थी, तो मैंने भी कहा-हां, तू बैठ बाहर, वो अंदर बैठे हैं। मैं पूछ कर आता हूं, वो तुझसे मिलेंगे या नहीं मिलेंगे। फिर मैंने उससे कहा-अच्छा तू है कौन, जरा ये तो बता? तेरा क्या परिचय दूं। 

उसने हैरानी से पूछा-अरे यार तू कैसा है? हम सालों से इतने अच्छे दोस्त हैं और तू मुझसे पूछ रहा है कि मैं कौन हूं? मैंने कहा-अरे यार तू मेरा दोस्त है; साई का दोस्त थोड़े ही है। उसने मुझे घूरते हुए जेब से एक विजिटिंग कार्ड निकाला। मुझे देते हुए कहा-अच्छा ये मेरा कार्ड ले। मैंने कहा-ठीक है। 
कार्ड में उसका नाम छपा था अमोलक चंद चौधरी। मैंने कहा-बाबा से क्या बताऊं, कौन आया है? वो थोड़ा परेशान हो उठा-अरे बताना कि अमोलक चंद चौधरी आया है। अब बात थोड़ी-सी सीरियस हो चली थी। मैंने कहा-देख ये तेरा नाम है, ऐसा तू कहता है। लेकिन असल में तू कौन है? 
वो चिढ़ते हुए बोला-मैं, वही अमोलक चंद चौधरी। मैंने फिर सवाल किया-जिस गाड़ी में तू आया वो तेरी है, तो तू क्या गाड़ी हो गया? फिर मैंने पूछा- अच्छा चल यह बता, तू रहता कहां हैं? अब तो उसे गुस्सा आने लगा था। वो कहने लगा-देखना, कार्ड पर सब लिखा हैं। पता भी लिखा है मेरे घर का। 

मैंने फिर सवाल किया-सुन भाई, यहां तो तेरा घर है, लेकिन तू कहां रहता है? वो बोला-कार्ड को पलट दूसरी तरफ मेरा ऑफिशियल एड्रेस भी है। सुबह 10 से देर शाम तक मैं वहीं रहता हूं। मैंने कहा-भाई आगे जो पता है, वहां तेरा घर और पीछे वाले पते पर तेरा दफ्तर है। लेकिन तू कौन है, तुझे पता नहीं! कहां रहता है, वह भी पता नहीं और तू चलने निकला है साई को ढूंढने? एक काम कर यह ले अपना कार्ड। पहले अपने आप को ढूंढ। तू कौन है ये तू पता कर। कहां रहता है, पता कर। जिस दिन तूझे ये पता चल जाएगा, तुझे मेरा पास नहीं आना पड़ेगा साई को ढूंढने। वो तुझे अपने आप मिल जाएंगे।

ढूंढा सकल जहां में तेरा पता नहीं,
और जो पता मिला है, तेरा तो मेरा पता नहीं। 
दिल में रहती है तस्वीरें नजर झुकाई और देख ली। 

दरअसल, हम बाबा को ढूंढने बहुत जतन करते हैं, लेकिन कभी अपने अंदर झांककर नहीं देखते। वे तो हमारे दिल में विराजे हैं। लेकिन हम उन्हें सोता हुआ रखते हैं। जगाने की कोशिश नहीं करते। जिस दिन हमारे अंदर विराजे साई जाग उठेंगेे, देखना हमारे मन से असुरक्षा, डर, वैमनस्य, अपने-तेरे का भाव सबकुछ निकल जाएगा। हम बाबा के रंग में रंग जाएंगे। एक ऐसा रंग, जिसमें कोई भेदभाव नहीं होता। जैसे पानी। उसमें जो भी रंग मिलाओ, वो उसके जैसा हो जाता है। जब हमारे अंदर के साई जाग उठेंगे, तो हम भी सबको बाबा की तरह एक नजर से देखने लगेंगे।
तब की एक कहानी...
बाबा हमेशा भिक्षा पर जीवनयापन करते रहे। वे भिक्षुक के रूप में किसी के भी दरवाजे पर खड़े होकर पुकारते थे-ओ माई, एक रोटी का टुकड़ा मिले। एक रोटी का टुकड़ा प्राप्त करने वे अपने दोनों हाथ फैलाते थे। उन्हें सूखी-रूखी रोटी, जो भी मिल जाता, वे उसे बड़े चाव के साथ खाते। थोड़ा खुद खाते और बाकी का एक कुंडी में डाल देते, ताकि वहां के कुत्ते, बिल्लियां, कौवे आदि का पेट भर सके। एक स्त्री; मस्जिद में झाडू लगाती थी, वो भी कुछ टुकड़े उठाकर अपने साथ ले जाती थी।

जब कोई व्यक्ति ऐसा करते दिखेगा, तो दुनियावाले उसे पागल ही समझेंगे। क्योंकि; हमारी आंखों पर अपने-पराये, ऊंच-नीच, जात-पात का पर्दा जो पड़ा है। जीव-जन्तु हमारे मनुष्य समान कैसे हो सकते हैं? हम उनके साथ भोजन कैसे कर सकते हैं? अहंकार हमारे अंदर इतना प्रबल है कि; हम किसी के आगे हाथ क्यों फैलाएं? ...और हर किसी के घर का खाना कैसे खा सकते हैं; क्योंकि हम तो महान जाति के हैं? घर में पैसे न हुए तो क्या, चोरी-चकारी करके पेट भर लेंगे, लेकिन किसी के आगे हाथ क्यों फैलाएं?
ऐसा ही होता है न???? 

लेकिन ईश्वर कभी इस भ्रम में नहीं पड़ता। यह मनुष्य की नीयती है; आदत है कि, जब तक पत्थर को मंदिर में न रखा जाए, वो उसे नहीं पूजता। एक कहावत है, अकल पर पत्थर पड़े रहना। इसका आशय होता है कि मस्तिष्क में सोचने-समझने की क्षमता न होना। लेकिन जब यह पत्थर मंदिर में विराजमान होता है, तो हम उसके आगे सिर झुकाते हैं, मस्तिष्क तब भी उससे टकराते हैं, छूते हैं, झुकाते हैं, लेकिन तब यह कहावत बदल जाती है। क्योंकि, तब वो पत्थर भगवान बन चुका होता है और हम उससे अपना मस्तिष्क इसलिए टकराते हैं, ताकि उसके घर्षण से हमारी बुद्धि की मशीन चल पड़े।

बाबा को लोग शुरुआत में पागल समझने लगे, लेकिन जब उन्हें बाबा की लीला समझ आई, तो वे नतमस्तक हो गए। बाबा ने सबके हाथ से खाना खाया, क्योंकि वे संदेश देना चाहते थे कि; हाथ बदलने से आटा-रोटी का स्वरूप नहीं बदल जाता। उसका स्वाद तो एक-सा रहता है। हां, अगर रोटी बनाने वाला निपुण हो, निष्पाप होकर, अच्छे मन से आटा गूंथे, तो स्वाद बेहतर हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे एक भक्ति में निपुण मनुष्य सबकी भलाई सोचता है।

Friday, 20 February 2015

साई का सान्निध्य मतलब अंदर से बदलाव का संकेत..


बिन गुरु ज्ञान मिले नहीं, चाहे कर लो लाख जतन।
साई नाम बदल दे जीवन, क्या तन और क्या मन।

बदलाव जिंदगी की धुरी है। जैसे समय कभी स्थिर नहीं होता; ठीक वैसे ही जिंदगी का हर कभी भी एक-समान नहीं हो सकता। जो इस बदलाव के साथ खुद का ढाले;सकारात्मक सोच और कर्मों के साथ खुद को आगे ले जाए, वही साई का सच्चा भक्त है। साई बाबा अपने भक्तों को इस बदलाव के लिए हमेशा तैयार करते हैं। आप शिर्डी क्यों जाते हैं; क्योंकि आपको बाबा में पूर्ण विश्वास है कि; वो आपके अंदर गहराई से दबे-छुपे, बैठे विकारों और पापों को धो डालेंगे-दूर कर देंगे। बाबा के प्रभाव में आते ही, आपकी बुरी आदतों और बुरी सोच में सकारात्मक बदलाव आ जाएगा।

प्रकृति भी समय के साथ-साथ बदलती है। क्योंकि उसे पता है कि अगर मौसम एक-सा रहा; तो आपके जीवन में कोई रस नहीं रह जाएगा। आपके अंदर ऊब पैदा होने लगेगी और आपको अपना जीवन नीरस लगने लगेगा। जैसे उत्तरी धु्रव पर छह-छह महीने दिन और रात रहते हैं। क्या कोई सारी जिंदगी खुशी-खुशी वहां रह सकता है? कतई नहीं; वैज्ञानिक वहां मनुष्य के लिए कुछ नये शोध के लिए वहां जाने का जोखिम उठाते हैं। उन्हें वहां शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की बीमारियों घेरती हैं। कल्पना कीजिए यदि आपको एक गुफा में 6 महीने के लिए बंद कर दिया जाए, जहां रोशनी न पहुंचती हो, तो आपका जीवन कैसा होगा?

प्रकृति ने इसीलिए ऋतुएं बनाई हैं, ताकि आपके अंदर नीरसता न आए। आप जीवन को आनंद से जी सकें। बाबा आपके अंदर यही प्रयास करते हैं। वे आपके अंदर  बदलाव लाते हैं। लेकिन क्या वाकई कहीं कोई बदलाव होता है? सूर्य तो अपनी जगह स्थिर है, चांद तो अपनी जगह से कभी कहीं हिला भी नहीं? दरअसल, जो कुछ परिवर्तन होता है, वो पृथ्वी के घूमने से है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और बदलाव होते हैं। ठीक वैसे ही जब हमारे मन की धुरी घूमती है, तो हमें अंदर से बदलाव महसूस होता है। बाबा उस धुरी को घुमाते हैं। जैसे एक कुम्हार चक्के को घुमाकर अमूर्त माटी को मूर्त रूप दे देता है। बाबा वही करते हैं। हमारे अंदर के विचारों को एक खूबसूरत रूप देते हैं।

सक्रांति के पर्व पर कहा जाता है कि सूर्य अपनी दिशा बदल रहा है। यानी बदलाव का संकेत। सूर्य के इर्द-गिर्द अपनी धुरी पर गोल-गोल घूमते हुए पृथ्वी अपना कोण बदल लेती है, तो हमें लगता है सूर्य ने दिशा बदल ली है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। सूर्य तो वहीं विराजा है, घूम तो पृथ्वी रही है। कहने का तात्पर्य वर्षों तपस्या करने, परोपकार करने के बावजूद जब हमें वांछित फल नहीं मिलता, तो हमें लगता है कि, ईश्वर बदल गए हैं। वे हमारे लिए कुछ नहीं सोच रहे। कई मंदिरों, साधु-संतों, महात्माओं के मामले में ऐसा होता है। हम वर्षों उनकी सेवा-चाकरी करते हैं, लेकिन जब उनसे हमें मनचाहा परिणाम नहीं मिलता, तो हमें किसी दूसरे मंदिर की राह पकड़ लेते हैं। हमें किसी अन्य महात्मा, साधु-संत की शरण में चले जाते हैं। यानी हम अपनी दृष्टि ओर कोण दोनों बदल लेते हैं, लेकिन क्या कभी हमने यह सोचा कि, ऐसा आखिर हुआ क्यों?

क्योंकि हम जहां भी गए, जिस मंदिर गए, साधु-संतों, ऋषि-मुनियों के पास गए, पहले से ही यह तय कर लिया था कि, हमें इस भक्ति-सेवा के बदले फलां चीज चाहिए। बस, इसी कारण हमारे मन में खोट नजर आने लगती है। जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर ही घूमते हुए दिशा बदलती है, उसी प्रकार हम अपने भाव बदल लेंगे, तो दुनिया जो हमें अभी आड़ी-टेढ़ी, उल्टी-सीधी दिखती है, वो सीधी और सरल नजर आने लगेगी। 

भगवान यानी साई हमारे अंदर हमेशा मौजूद हैं, लेकिन अपने लालच में इतने मगन हैं, कि हमने अभी उनसे हाथ नहीं मिलाया (शेक हेंड) नहीं किया है। साई की अमृत कथा उनसे शेक हेंड करने का एक प्रयोजन/आयोजन ही तो है। एक जरिया ही तो है। अगर हम उनके चरण पखारेंगे और उनके चरणों की धूल अपने माथे पर लगाएंगे। वो चरण गंगा, जिसमें दास गणु महाराज(शक संवत 1800 में दासगणु को बाबा का सान्निध्य मिला। इन्होंने बाबा पर कई मधुर कविताओं की रचना की।) को बाबा ने प्रयाग स्नान कराया था, वो चरण गंगा, जो हर साई अमृत कथा में बहती है, हम उसमें डुबकी लगाएंगे, तो सब पवित्र हो जाएगा।
 
साई बाबा अजब फनकार हैं। वे बेहद दयालु, बड़े कृपालु हैं। कृपा करते ही रहते हैं। ...और जो साई की अमृत कथा में आते हैं, वे बाबा की कृपा से बाबस्ता हो चुके हैं, तभी तो आते हैं। हम साई के पास जाते हैं। उनसे कुछ मांगते हैं। वेे मुस्कुराते हुए हमें दे देते हैं। बस, हमारा लालच बढ़ जाता है। हम फिर मांगने जाते हैं, बाबा फिर से हमारी झोली भर देते हैं। हम मांगते जाते हैं, बस मांगते ही जाते हैं। बाबा भी हमें देते चले जाते हैं। एक वक्त ऐसा आता है जब हम मांगते-मांगते थक जाते हैं, लेकिन बाबा देते-देते कभी नहीं थकते। 

बाबा से हमने जो मांगा, वो पाया। कुछ हमने अपने लिए लिया, तो कुछ अपनों के लिए। अपने आस-पड़ोसी, समाज, देश, दुनिया में शांति, सद्भावना, प्रगति, आर्थिक-सामाजिक सम्पन्नता के लिए भी हम बाबा के आगे झोली फैलाते हैं। बाबा कभी मना नहीं करते। क्योंकि इनकार शब्द बाबा की शब्दावली में नहीं है। वे मुस्कराते हुए हमारे ऊपर परोपकार बरसाते जाते हैं।
जो हमें मांगने पर मिलता जाता है, उसे हम चमत्कार कहने लगते हैं। बाबा वही चमत्कार करते हैं। यह उनकी एक लीला है। वो हमको इतना कुछ देते जाते हैं कि, एक स्थिति ऐसी आती है जब, हमारे भीतर डर बैठ जाता है। बाबा ने हमें जो दिया, कहीं वो किसी ने छीन लिया तो? हर चीज की नश्वरता का अहसास होने लगता है। 

कुछ लोग साई पर अपना एकल अधिकार समझने लगते हैं। उन्हें यहां तक डर लगने लगता कि, कहीं साई कृपा उनसे कोई छीन न ले। लेकिन ऐसा नहीं है। साई तो रोशनी है, पानी हैं, हवा हैं, जिन पर सबका अधिकार है। वे सर्वव्यापी हैं। सबका हित सोचते हैं। जैसे हवा, पानी और रोशनी को मु_ी में कैद करके नहीं रखा जा सकता, ठीक वैसे ही बाबा को बंदी नहीं बनाया जा सकता। हां, अगर हम उन्हें मन में उतार लें, तो वे सदा के लिए वहां विराजे रहेंगे। हमेशा हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। उनकी कृपा हमेशा हमारे ऊपर बनी रहेगी। क्योंकि साई की दी गईं चीजें नश्वर नहीं है। पानी, हवा और रोशनी अपना रूप बदलती है, लेकिन नष्ट नहीं होती। पानी भाप बनकर आकाश में उड़ जाता है, लेकिन पु:न बादलों के जरिये बारिश बनकर हमें तरबतर कर देता है। हवा और रोशनी का व्यवहार और चरित्र भी ऐसा ही है।

इसलिए अपने मन से यह डर निकाल दो, भ्रम से बाहर आ जाओ। क्योंकि, साई कृपा कभी नहीं छिन सकती। जो छिन सकता है, वो तो नश्वर विलासिता की चीजें हैं। जो साई की कृपा से उनके चरणों में विराजा है, वो यह दावा कर सकता है कि, हम भले ही बाबा से विमुख हो जाएं, लेकिन यदि उसने एक बार हम पर बाबा ने कृपा की है, तो वो जिंदगीभर बनी रहेगी।

एक बहुत बड़े वकील रहे हैं जस्टिस खापरडे। उन्होंने अपनी डायरी में कुछ यूं लिखा है-बाबा ने उनसे एक बार कहा था कि द गिफ्ट्स ऑफ मैन आर टेम्पररी, बट द गिफ्ट्स ऑफ द गॉड विल रिमेन फॉर इवर।

बाबा की कृपा क्यों कभी खत्म नहीं होगी, क्यों कोई हमसे नहीं छीन सकता? वो सारे उत्तर इस वाक्य में मिल जाते हैं। यानी मनुष्य को मनुष्य के जरिये प्राप्त सारी चीजें नश्वर हैं, लेकिन जो भगवान की देन है, वो कभी खत्म नहीं होगी। जैसे हवा, पानी और रोशनी। बाबा इन्हीं चीजों के मेल से चमत्कार करते हैं। यानी उनके सान्निध्य से हमें जो भी मिलेगा, वो हमेशा हमारे साथ रहेगा। उनके आशीर्वाद के रूप में। 

क्या कभी हमने सूर्य को खत्म होते देखा है या कभी देख पाएंगे? सूर्य नित्य एक छोर से अस्त होता है, तो दूसरे छोर पर उदय होता है। सूरज और चांद डूबते नहीं हैं, वो केवल हमें दिखना बंद हो जाते हैं। क्योंकि हम जिस छोर पर बैठे हैं, वहां से दूसरा छोर नहीं दिखता। ठीक वैसे ही बाबा का दिया कभी नश्वर नहीं होता। उसके छीने जाने या नष्ट हो जाने का भ्रम ही हमें चिंतित करने लगता है। यह चिंताएं, भ्रम हमारा लालच है। हम अपने घर की रोशनी, पानी और यहां तक कि हवा तक किसी से बांटना नहीं चाहते।
हमारा वश चले, तो हम अपनी गलियों, चौबारों से गुजरने वाली हवा, रोशनी और पानी को भी दूसरों की पहुंच से दूर कर दें। एकछत्र राज्य की सोच ही हमारे मन में डर पैदा करती है। अपना साम्राज्य बिखर जाने, छीने जाने का भय पैदा हो जाता है।

तब की एक कहानी...
बाबा मस्जिद में सदा दिया जलाए रखते थे। दीया यानी रोशनी का प्रतीक। एक छोटा-सा दिया बड़े से बड़े अंधकार को चीर सकाता है। बाबा शाम को दुकानदारों से भिक्षा में तेल मांगकर लाते थे और दीया जलाते थे। मनुष्य के मन में ईष्र्या और लालच बहुत जल्द घर कर जाता है। ऐसा हुआ भी। दुकानदारों ने सोचा कि; यह फकीर तो रोज-रोज मुफ्त में तेल मांगने आ जाता है, ऐसा कब तक चलेगा? आखिरकार उन्होंने बाबा को तेल देने से मना कर दिया।

बाबा कुछ नहीं बोले। मस्जिद आए और सूखी बत्तियां दीयों में डाल दीं। फिर टमरेल उठाया, जिसमें न मात्र को तेल बचा था। बाबा ने उसमें पानी मिलाया और दीयों में उड़ेल दिया। दीये पूर्व की भांति टिमटिमाने लगे। पानी से दीये जलते देख दुकानदारों की आंखें फटी रह गईं। वे बाबा का चमत्कार देखकर शर्मिंदा हो गए।
 

बाबा ने पानी को तेल बनाकर दुकानदारों की आंखों में शर्मिंदगी का पानी ला दिया था। यह बदलाव का संकेत था। वैसे सोचिए बाबा को टूटी-फूटी मस्जिद में दीये मिलकाने की क्या आवश्यकता थी? और एक फकीर को अंतर भी क्या पड़ता है अंधेरा रहे या उजाला? लेकिन बाबा हमेशा दीया जलाते रहे, ताकि मस्जिद में कोईआए, तो उसे ठोकर न लगे। वो अंधेरे से डरे बगैर, तसल्ली से वहां बैठ सके। दुकानदारों ने सोचा कि; यह फकीर आज तेल मांग रहा, कल कुछ और मांगेगा! बस इसी सोच ने उनके अंदर से परोपकार, सहायता, इनसानियत की भावना खत्म कर दी। उन्होंने यह नहीं सोचा कि, उनकी थोड़ी-सी मदद से दीया जल रहा है, प्रकाश हो रहा है। बाबा ने इस चमत्कार के जरिये दुकानदारों के भीतर पैदा हुए अंधकार को उजाले की ओर लाया था। बाबा का सान्निध्य हमारे अंदर उजाला पैदा करता है, जो तमाम किस्म के अंधकार को दूर करता है।

Wednesday, 18 February 2015

साई गंगा हैं, जिनके स्मरण से दूर होते हैं सारे पाप...


बुरे कर्म से दूर करे साई तेरा जाप।
ज्यों गंगा निर्मल करे, मन के सारे पाप।

हमारे पाप, बुरे इरादे, बुरे कर्म जो हमे भगवान यानी सद्मार्ग पर जाने से रोकते हैं, मंगलाचरण से वे सारे विकार भस्म हो जाते हैं। कोई भी अच्छा काम करने से पहले हम अपने मन को स्वच्छ बनाने की कोशिश करते हैं। साई हमारे इसी प्रयास को सफल बनाने का जरिया हैं। 
साई गंगा का प्रतीक हैं, जिनमें अपना ध्यान यानी गोते लगाने से मन-तन निर्मल हो जाता है। लेकिन इसका बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि, जब हम गंगा में गोते लगाने उतरते हैं या ईश्वर के आराधना में लीन होने की तैयारी करते हैं, तो सबसे पहले अपने मन से सारी दुविधाएं, विकार, ईष्र्या-घृणा आदि को स्वत: दूर करने की कोशिश करते हैं। यानी साई गंगा में उतरने से पहले हमें खुद के प्रयासों से स्वयं को पवित्र करने का जतन करना चाहिए।

इसे कुछ उदाहरण से समझ सकते हैं। गंगा मैली क्यों हुई? वो इसलिए क्योंकि लोगों ने अपने आर्थिक मुनाफे के लिए उसमें अपने उद्योगों की गंदगी बहाना शुरू कर दी। जाने-अनजाने लोगों ने उसमें कचरा फेंकना शुरू कर दिया। अब गंगा को पहले जैसा निर्मल करने की मुहिम शुरू हुई है। गंगा में स्नान के मायने यही माने जाते हैं कि हमारे सारे पाप धुल जाएंगे। लेकिन अगर सोचिए अगर हम मैली गंगा में डुबकी लगाएंगे, तो क्या होगा? निश्चय ही हमें चर्म रोग हो सकता है। और भी कई बीमारियां हो सकती हैं।

यानी हम नहाने के लिए भी साफ पानी की दरकार रखते हैं। यदि हम कीचड़ में सने होकर नहाने पहुंचते हैं, तो सबसे पहले थोड़े-थोड़े पानी से कीचड़ साफ करते हैं उसके बाद नहाते हैं। ऐसा नहीं करते कि, कीचड़ में सने होकर सीधे बॉथ टब में उतर जाते हैं या पूरा पानी खराब कर देते हैं। हमारी कोशिश रहती है कि, पहले अपने प्रयासों से जितना हो सके खुद को साफ कर लिया जाए।

जब हम गंगा मैया में डुबकी लगाने जलधारा में उतरते हैं, तो सबसे पहले सूर्य देवता/अपने अराध्य देवता आदि की स्तुति करते हैं कि, वो हमारे प्रयासों को सफल बनाए, हमारे मन-तन को निर्मल कर दे। 

एक और उदाहरण है। जब हमें कीचड़ में से होकर अपने घर पहुंचते हैं, तो अंदर प्रवेश करने से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर दरवाजे पर बिछे पैरदान से पौंछते हैं-साफ करते हैं। उद्देश्य यही होता है कि, हमारा घर मैला हो जाए।

साई गंगा का प्रतीक हैं, पवित्रता का सूचक हैं। वे एक स्वच्छ जल का पर्याय हैं। इसलिए साई स्तुति में गोते लगाने से पहले हमें खुद भी प्रयास करने हैं साफ-सुथरा रहने के। मंगलाचरण यही हमारा प्रयास है। इससे हमारी अगली राह आसान हो जाती है। जैसे घर में पानी से पौंछा लगाने से पहले हम झाड़ू से साफ-सफाई करते हैं, ताकि पौंछा लगाने में आसानी रहे। कंकड़-पत्थर आदि साफ हो जाएं। वे पौंछा लगाने में रोड़ा बनें।

ये कंकड़-पत्थर कुछ और नहीं, हमारे भीतर के विकार हैं। अगर हम बुरे इरादों-भावों से ईश्वर की प्रार्थना करेंगे, तो उनके चाहते हुए भी हमारा भला नहीं होगा। इसे ऐसे समझें। एक कांच/स्टील/अलमारी आदि किसी को भी साफ करने से पहले उस पर कंकड़-पत्थर डाल दीजिए, फिर उसे कपड़े से रगडि़ए। परिणाम अच्छे नहीं मिलेंगे। धातु साफ तो होगी, लेकिन कंकड़-पत्थर के घर्षण से उसमें रगड़ के निशान जाएंगे, उसकी खूबसूरती पर बुरा असर पड़ेगा। वो चटक भी सकता है।

ठीक वैसी ही स्थिति हमारी है। अगर हम घृणा-तृष्णा, स्वार्थ, ईष्र्या, दुर्भावना रूपी कंकड़-पत्थर अपने मन में लेकर ईश्वर की प्रार्थना करेंगे, साई नाम में गोते लगाएंगे, तो भगवान/साई अपने पौंछे से हमारा मन साफ करने में कोई कोताही नहीं बरतेंगे, लेकिन उनके पौंछे की रगड़ से ये कंकड़-पत्थर हमारे मन में निशान छोड़ देंगे। इसलिए अपने मन को हमेशा दोषमुक्त रखने की कोशिश करते रहना चाहिए।

बाबा अपने भक्तों को सही राह पर लाने अकसर ऐसे उदाहरण भी देते थे; जो उस वक्त गले नहीं उतरते थे, या अचरज पैदा करते थे, लेकिन बाद में पता चलता था कि, उनमें कितना गूढ़ रहस्य छुपा था। जैसे एक डाक्टर जब बच्चे को कड़वी दवाई देता है, तो वो उससे झूठ बोल देता है कि; बच्चा यह दवाई को बड़ी मीठी है। डाक्टर की बातों में आकर बच्चा कड़वी दवाई एक झटके में गटक जाता है, लेकिन जैसे ही दवा उसके कंठ को तर करती है, वो बुरा-सा मुंह बना देता है। बाबा भी अपने भक्तों के भीतर जमी गंदगी/बुराइयों/पाप को दूर करने कड़वे वचन बोलते रहे, लेकिन इसके पीछे उनकी मंशा हमेशा भक्तों की भलाई रही।

तब की एक कहानी...
एक बार की बात है। बाबा के एक भक्त ने दूसरे भक्त को अपशब्द बोल दिए। बाबा तो ठहरे अंतरयामी; उन्होंने वहां मौजूद रहते हुए सबकुछ भांप लिया। शाम के वक्त बाबा लेंडी बाग घूमने निकले। वहां बाबा का वो भक्त भी था; जिसने अपशब्द बोले थे। बाबा ने समीप विष्ठा खाते हुए एक सुअर की ओर इशारा किया-देखो वह कितने प्रेम के साथ विष्ठा खा रहा है। उस भक्त को पहले यह बात समझ नहीं आई कि; बाबा ने बगैर किसी प्रयोजन के सुअर की बात क्यों छेड़ी। लेकिन बाद में वो समझ गया कि; बाबा का इशारा उसी की ओर है।

दरअसल, हम दूसरों की निंदा करके ऐसा महसूस करने की कोशिश करते हैं; मानों हमारे मन को सुकून पहुंचा हो, लेकिन ऐसा होता नहीं। जैसे, सिगरेट-शराब जैसी आदतें शुरू में तो आनंद देती हैं, लेकिन बाद में यह हमारे जीवन को नरक बना देती हैं। ठीक वैसी ही स्थिति हमारे भीतर छुपी बुराइयों की है। ड्रग की आदत छुड़ाने के लिए व्यक्ति को जब नशामुक्ति केंद्र में रखा जाता है, तो शुरुआत में उसे तकलीफ होती है। क्योंकि उसे जब अपनी आदत के अनुसार ड्रग नहीं मिलता, तो वो तड़पता है। उसे लगता है कि; उसके साथ ऐसा दुव्यर्वहार क्यों किया जा रहा है, उसे कष्ट क्यों पहुंचाया जा रहा है? लेकिन बाद में जब वो नशे से मुक्त हो जाता है, तब उसे आभास होता है कि; पीड़ा में तो वो तब था, अब तो आनंद में लौटा है। ठीक वैसे ही बाबा कई बार भक्तों को सही राह पर लाने कड़वे वचन बोल देते थे।

जैसा कि; हमने कहा है कि,बाबा तो गंगा हैं। अगर हम अच्छी नीयत के साथ उनके सान्निध्य में रहेंगे, गोते लगाएंगे, तो तन-मन दोनों निर्मल हो जाएंगे।...और अगर मन में मैल लेकर गंगा में डुबकी लगाएंगे, तो कुछ भी भला होने से रहा।