Tuesday, 24 February 2015

साई की शरण में जाने का मतलब समझें..


अहंकार न कीजिए लेकर गुरुजन का नाम।
साई-शरण स्वयं तीर्थ है, जैसे चारों धाम।

गुरु यानी ज्ञान; एक सच्चा मित्र; परिजन; मार्गदर्शक; आदि,आदि। गुरु कभी छोटा-बड़ा नहीं होता। गुरु तो सभी के एक समान होते हैं। कई लोग इस अहंकार में पड़ जाते हैं कि, मेरे गुरु का ज्ञान, फलां से कहीं ज्यादा है। मेरे गुरु का नाम, फलां के गुरु से कहीं अधिक है।

अकसर हम लोग बड़े दंभ/अहंकार से कहते हैं कि, मैं आजकल फलाने संत की शरण में हूं। बड़ी मेहरबानी; जो आपने ऐसा कहा कि, आप संत की शरण में हैं! मनुष्य इसी सोच के कारण अपने गुरु के ज्ञान और सामनेवाले के गुरु का आशीर्वाद ढंग से नहीं ले पाता। हमें कहना यह चाहिए कि संत ने आपको शरण में ले रखा। हम कहते हैं कि हमने आजकल फंलाने को अपना गुरु बना रखा है। बड़ी मेहरबानी आपकी, जो आपने सामने वाले को अपना गुरु बनाने लायक समझा!
 
हम आपका उपहास नहीं कर रहे, बल्कि आपको आपके विचारों और भावों की असलियत से रूबरू कराने का प्रयास कर रहे हैं।
गुरु किसी को क्यों बनाना, जब तक हम शिष्य बनने लायक नहीं हैं, हम गुरु पाने के पात्र भी नहीं हैं। शिष्य याने शाशतम योग्य। यानी वो, जो शासन करने योग्य हो, वह शिष्य होता है। शासन से मतलब, गुरु जिन अवगुणों पर विजयी पाने का आदेश दे, हम उनको अपने काबू में कर सकें, उन पर शासन कर सकें। शिष्य वो नहीं; जो गुरु से कहे, मैं आपकी चप्पल ला देता हूं या फर्श साफ कर देता हूं। इन कामों को करने से कोई बेहतर शिष्य नहीं बन सकता। अगर ऐसा होता तो सैकड़ों-हजारों-लाखों लोग रोज मंदिरों-मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों में जाकर साफ-सफाई करते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें जीवन का सही मार्ग नहीं मिल पाता। वे यह काम एक औपचारिकता के तौर पर करते हैं, सच्चे मन से नहीं।..और जो लोग सच्चे मन से यह काम करते हैं, उनका जीवन सफल हो जाता है। 

श्रीमद भगवत गीता अध्याय चार श्लोक नं 34। बाबा ने इसकी व्याख्या चांडोलकरजी के सामने की थी। नाना साहब चांडोलकर बाबा के विशिष्ट भक्त थे। बाबा की ख्याति गांव-गांव तक फैलाने का श्रेय नाना साहब को ही जाता है। किसी लेखक ने, कहीं लिखा था कि, बंबई(अब मुंबई) और उसके आस-पास के क्षेत्र से करीब 2000 लोगों को शिर्डी तक लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। 
 

लोग बाबा को संत मानते हैं। आमतौर पर लोग खुद को संत कहलाने में बड़ा फक्र महसूस करते हैं, लेकिन बाबा के साथ ऐसा कभी नहीं रहा। वे तो लोगों को अपना साथी मानते थे, मित्र बोलते थे। अपनों की तरह प्रेम-वार्तालाप करते थे। वे आज भी हमारे अंदर ऊर्जा बनकर यह प्रभाव छोड़ते हैं।

अगर संत शब्द की व्याख्या करें/परिभाषित करें, तो-स-अंत यानी जो अंत को अपने साथ-साथ लेकर घूमता है, वो होता है संत। संत वो है, जिसे यह अहसास होता है कि सारा जग नश्वर है। मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए। लेकिन मैं किसी के काम आ सकूं, जब यह भावना किसी के अंदर पैदा हो जाती है/जागृत हो उठती है, तो वह संतत्व की ओर अग्रसर हो जाता है।
 
गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-संत संगति सनस्रुति कर अनदार। मतलब संत की संगति से हमारे आस-पास का जगत याने समस्त मोह-माया का अंत होता है। 

बाबा का जयकारा कहता है-
अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक राजाधिराज योगी राज परमब्रह्म श्री सचितानंद सदगुरु श्री साईनाथ। 
पहला शब्द अनंत है। हम सभी ने थोड़ी-बहुत गणित तो पढ़ी ही होगी। जब किसी अंक को शून्य से विभाजित करते हैं, तो अनंत यानी इनफिनिटी की प्राप्ति होती है। साई बाबा को शून्य से विभाजित करें, तो शून्य अहंकार, शून्य दुर्गुुणों से तो अनंतता वैसे ही मिल जाती है। 
दूसरा शब्द है कोटि। हिंदी में कोटि के दो अर्थ होते हैं करोड़ों और भांति भांति के। साई कोटि कोटि में समाए हुए हैं। 
साई ने अपने जीवनकाल में कहा भी है-
ईशा वास्यविदम सर्वम। यत किन्चित जगत्याम जगत।
अर्थ-सभी प्राणियों में मेरा ही वास देखो। यही कारण है कि जब कभी हम किसी भूखे को भोजन कराते हैं, तो वो सीधा साई को जाता है। उन्हें तृप्त करता है। उन्हें सुकून देता है।...और जब साई सुकून पाते हैं, तो सारे जग का अपने आप भला हो जाता है।

चलिए एक कथा सुनाते हैं। यह उन अंतिम दिनों की बात है, जब बाबा उम्रदराज होने के कारण भिक्षा लेने नहीं जा पाते थे। एक थीं लक्ष्मीबाई। एक दिन बाबा ने उनसे कहा-माई मुझे बहुत भूख लगी है, कुछ खाने को ले आ। माई दौड़ी-दौड़ी गईं और रोटी ले आईं। बाबा के समीप ही बाहर एक कुत्ता बैठा हुआ था। बाबा ने रोटी ली और उसके आगे फेंक दी। लक्ष्मीबाई हैरत से बोलीं-बाबा ये क्या करते हो, मैं इतनी मेहनत से रोटी लाई और तुमने कुत्ते के सामने फेंक दी? बाबा ने मुस्कराते हुए जवाब दिया-लक्ष्मी! जब कोई किसी भूखे को भोजन कराता है, तो इसक मतलब वो मेरी भूख मिटा रहा है। 

इसलिए मित्रों आप सबको भी जब भी ऐसा मौका मिले, इसे छोडि़ए नहीं। भूखे को खाना दीजिए, प्यासे का पानी। वे तृप्त होंगे, तो बाबा को खुशी मिलेगी।
 
साई इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाए,
मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए। 

हम बात कर रहे थे साई की गुरुत्ता की, उनके जयकारे की। 
अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक राजाधिराज योगी राज परमब्रह्म श्री सचितानंद सदगुरु श्री साईनाथ। 

हम बात कर रहे थे। साइं की गुरुता की, उनके जयकारे की। इसमें तीसरा शब्द आता है ब्रह्मांड। ब्रह्मांड क्या है? इस रहस्य को उजागर करने के लिए दुनियाभर में बड़े-बड़े प्रयोग चल रहे हैं। आगे भी चलते रहेंगे, क्योंकि हम ब्रह्मांड का एक रहस्य खोजेंगे, तो दूसरा सामने आ जाएगा। लोग ब्रह्मांड के जनक भगवान को खोजने की बात करते हैं। उन्हें ढूंढने में सारी जिंदगी खपा देते हैं। लेकिन भगवान कोई रहस्य नहीं है, वे तो एक एनर्जी हैं, जो हमारे अंदर मौजूद है। एनर्जी सहज-सुलभ है। यानी भगवान सुलभ हैं। वे तो कण-कण में विद्मान हैं।

भगवान सुलभ हैं। सुलभता ईश्वर का आभूषण है। आप एक बार पूरे मन से, निर्मल मन से, निस्वार्थभाव से साई का नाम पुकारो, देखना वे आपके सामने होंगे। यह जरूरी नहीं कि, साई अपने उस रूप में आपको दर्शन दें, जो तस्वीरों में नजर आते हैं। वे किसी भी रूप में, आकार में आपके सामने अवश्य आएंगे।

साई के जयकारे में एक शब्द आता है नायक। नायक कौन होता है? सब जानते हैं। फिल्मों में देखा होगा। जो बुराई से लड़ता है। अच्छाई के मार्ग पर चलता है। लोगों की भलाई के लिए काम करता है। सबको खुश रखने की कोशिश करता है, वो नायक है। साई भी हमारे नायक हैं। उन्होंने भी कइयों को मुश्किलों से बाहर निकाला है। अब भी निकाल रहे हैं और आगे भी निकालेंगे।
 
सिनेमा में जब नायक बुराइयों पर विजय पा लेता है, तो फिल्म पूरी हो जाती है। यानी क्लाइमेक्स के बाद दि एंड लिखा आ जाता है। लेकिन हमारे असली नायक साई के मामले में ऐसा नहीं है। यहां तो जैसे ही हमारे भीतर का द्वंद्व खत्म होता है, साई जैसे ही द्वंद्व खत्म करते हैं, जिंदगी की फिल्म शुरू हो जाती है। जब हमारे ऊपर साई की कृपा होती है, तो भवसागर तो यूं ही पार हो जाते हैं।
साई के जयकारे में अगला शब्द आता है राजाधिराज। राजाधिराज यानी राजाओं के भी राजा। बड़ा से बड़ा व्यक्ति शिर्डी में बाबा के दर्शन के लिए कतार लगाए खड़ा रहता है। इन कतारों में शामिल होकर सब एक समान हो जाते हैं। कतारों में खड़े व्यक्ति को देखकर यह कह पाना मुश्किल होता है कि कौन राजा और कौन रंक। 

लोग कतारों में लगने से घबराते हैं। कइयों को यह लगता है कि, कतारें तो आम आदमी के लिए होती हैं, वे तो खास हैं। उनके लिए तो रास्ता साफ होना चाहिए। बाबा के दर्शन स्पेशल तरीके से होना चाहिए। लेकिन क्या कभी आपने कतारों के मायने समझे हैं? भगवान के दर्शन के लिए लगने वालीं कतारें एक संदेश देती हैं। ईश्वर के भक्तों में कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा नहीं। ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं। छुआछूत के कोई मायने नहीं। बाबा के दरबार में भी यह होता है। बाबा राजाधिराज हैं। जिसके चरणों में राजा भी अपना सिर झुकाए, वह राजाधिराज होता है। बाबा के चरणों में सिर झुकाने से सारी अकड़ खत्म हो जाती है। वो अकड़, जो धन-दौलत, बाहुबल, अहंकार, अपने-पराये, दुर्विचार जैसी बुराइयों से जन्मती है। बाबा के चरणों में सिर झुकाते ही, सारे पाप धुल जाते हैं।

बाबा के जयकारों को फिर से स्मरण कीजिए...
अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक राजाधिराज योगीराज परमब्रह्म श्री सचितानंद सदगुरु श्री साईनाथ। 

इसमें राजाधिराज के बाद शब्द आता है योगीराज। योग यानी शारीरिक और मानसिक व्याधियों(रोगों) को जड़ से मिटाने का पारंपरिक तरीका। हम योग से अपने हाथ-पैर की अकडऩ मिटा लेते हैं। एक नाक से सांस निकाल कर कहते हैं कि हम योग कर रहे हैं। नए जमाने में तो योग अब योगा हो गया है। योगा भी अब टीवी देखकर होने लगा है। 

योग वह कला है, जिससे हमारा मन भटकने से रुकता है। शास्त्रों के अनुसार जो चित्त की वृत्ति जो रोक दे वो योग है। जो चित्त को विचलित होने से रोके वो योग है। यानी चित्त वृत्ति निरोध। बाबा का चित्त कभी भटकता नहीं था। भक्त उनके पास आते थे और बाबा उन्हें वो सब दे देते थे, जिसकी वो कामना लेकर के आते थे। लेकिन स्वयं उन्होंने किसी से कुछ नहीं मांगा। इसलिए तो वो हुए योगीराज। 

बाबा के जयकारे में एक शब्द आता है परमब्रह्म। साई परमब्रह्म थे। भगवान साई बाबा में लोगों को साक्षात ईश्वर के दर्शन होते थे। किसी को राम; किसी को कृष्ण; तो किसी को महादेव। याने अलग-अलग रूप में बाबा ने दर्शन देकर अपने परमब्रह्म होने का परिचय दिया। 
बाबा के जयकारे में एक शब्द आता है सचितानंद। सचितानंद याने जो हमारे चित को सत्यता का बोध करा दे और फिर उससे हमें आनंद की प्राप्ति हो। वो बाबा के चरणों में जाने से हमें हो ही जाती है। 

जयकारे में एक शब्द है सदगुुरु। सद्गुरु यानी वो व्यक्ति, जो हमारे मन के अंदर के अंधकार को हर लेता है। अंदर उजियाला भर देता है। 

तो बात हो रही थी गुरु ढूंढने की। गुरु मत ढूंढो; अपने आप को योग्य शिष्य साबित करो। मुक्ति की उत्कठा रखो बस आपको सद्गुरु मिल जाएंगे।...और सद्गुरु क्या; भगवान यानी बाबा स्वयं किसी न किसी रूप में आपके सामने होंगे। आपका मार्गदर्शन करने। आपको अच्छाई और बुराई में फर्क बताने। जीवन को आनंदित करने। 

ईश्वर जब अवतार लेता है, तो सीधा आशय होता है कि मनुष्य भटक गया है और उसे सही रास्ता दिखाना है। पृथ्वी पर पाप बढ़ गए हैं और लोगों को पुण्य की महत्ता बताना है। भगवान ने साई के रूप में अवतार लिया। वे अचानक अवतरित हुए थे। भगवान हमारे मन में अचानक ही आते हैं, अकस्मात। कारण; अगर आप पता हो कि; भगवन आपके दरवाजे पर आ रहे हैं, तो आप पहले से ही सारी तैयारियां करके रख लेंगे। अपनी क्षमताओं से कहीं अधिक चीजें जुटा लेंगे। उधार लेकर खान-पान, स्वागत-सत्कार की सामग्री का इंतजाम कर लेंगे। आस-पड़ोस में ढिंढोरा पीट देंगे कि; भगवान आपके घर पधार रहे हैं। यानी आप खुद को भगवान की नजरों में श्रेष्ठ बनाने की दिशा में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। यही तो अहंकार है। भगवान और किसी के घर में नहीं; सिर्फ आपके यहां आ रहे हैं; यही तो गुरूर है। जहां गुरूर; वहां गुरु का वास कभी नहीं हो सकता।

भगवान अचानक इसलिए अवतरित होते हैं, ताकि आप उनके सामने कोई आडंबर न कर सकें, जैसे हैं; वैसी स्थिति में सामने आएं। तभी तो आपमें बदलाव होगा। अगर आप अपनी वास्तविकता गुरु से छिपा लेंगे, तो इसका आशय तो यही हुआ कि; आप बदलना ही नहीं चाहते।
हालांकि ईश्वर से कुछ भी नहीं छुपा है। वे आपके अंदर तक झांक सकते हैं। आपके अंदर पसरे अंधकार में क्या-क्या छुपा है, वे साफ-साफ देख सकते हैं, लेकिन बदलना आपको है, कोशिश आपको करनी है। भगवान तो आपको ऊर्जा दे सकते हैं, बदलाव के लिए। क्योंकि जोर-जबर्दस्ती से किया गया बदलाव किसी काम का नहीं।
इसलिए साई भी अचानक प्रकट हुए। साई को लोगों ने एक नीम के पेड़ के नीचे बैठे देखा था। शायद उस वक्त उनकी उम्र यही कोई 16 साल रही होगी। साई सबसे पहले लोगों को शिर्डी में उसी नीम के पेड़ के नीचे दिखे थे। किसी को उनका नाम नहीं पता था। फकीरों-सी उनकी वेशभूषा थी। वे हवा में कुछ इशारे करते और लोगों से बतियाते। मस्तमौजी स्वभाव। 
 

साई की महिमा पर यह भजन प्रस्तुत है। इसके बाद फिर ढेर-सारी बातें करेंगे साई पर।
एक फकीरा आया शिर्डी गांव में आ बैठा एक नीम की ठंडी छांव में। 
होठों पर मुस्कान है छाले पांव में, आ बैठा एक नीम की .....।।
कभी अल्लाह-अल्लाह बोले, कभी राम नाम गुण गाए। 
कोई कहे संत लगता है, कोई पीर-फकीर बताए। 
जाने किससे बातें करे हवाओं में, आ बैठा एक नीम की....।।

एक फकीरा आया....
हे कौन कोई न जाने कोई उसको न पहचाने
चोला फकीर का पहना देखो जग के राजा ने 
सबकी मांगे खैर वो दुवाओं में, आ बैठा एक...
एक फकीरा.....
वो जिसको हाथ लगाए, उसका हर गम मिट जाए।
वो दे दे जिसे विभूति, उसे हर खुशी मिल जाए।। 
कांटे चुनकर फूल बिछाए राह में, आ बैठा एक नीम की।।
एक फकीरा.....

बाबा हमेशा फक्कड़ मिजाज के रहे। उन्हें दुनिया की भौतिक सुख-सुविधाओं से कोई लेना-देना नहीं रहा। मैले-कुचैले, फटे-पुराने कपड़े कई बार तो वे उन्हें कई कई दिन तक बदलते भी नहीं थे। जैसे बाबा को इन सब चीजों में कोई रुचि थी ही नहीं।

कपड़े बदले, मन न बदला, जीवन में फिर तो क्या बदला?
अगर सिर्फ कपड़े बदलने से मन बदल जाता, नीयत बदल जाती, तो फिर लोग साबुन को पूजते। बाबा अंदर से इतने पाक-पवित्र रहे कि, उनकी चमक मैले-कुचैले कपड़ों के बावजूद भक्तों को ऊर्जित करती रही।

तब की एक कहानी...
उस समय तक बाबा का नामकरण साई नहीं हुआ था। शिर्डी में एक विदुषि महिला थीं बाइसा माई। एक बड़े परिवार से ताल्लुक रखती थीं। बाइसा माई बाबा को अपना बेटा मानती थी। बाबा भी उनसे कहते थे-तू मेरे बहुत जन्मों की रिश्तेदार है। पिछले जन्म में तो तू मेरी बहन थी। 
बाइसा माई बाबा के खाने का ख्याल रखती थी। हालांकि बाबा को खाना खिलाना बेहद टेड़ी खीर थी। वे कभी किसी नाले के पास बैठे मिलते, तो कभी किसी पेड़ के नीचे बैठे दिखते। रात में जंगल में विचरण करते हुए भी उन्हें कभी किसी जानवर से भय नहीं होता था। बाइसा माई रोज बाबा के लिए खाने का डिब्बा बांधकर जंगल-जंगल, नदी-नाले पार कर उन्हें खोजती रहतीं। जैसे ही बाबा कहीं मिलते, तो बाइसा उनका हाथ पकड़कर पास बैठातीं और मुंह में जबरन निवाला डाल देतीं। कभी-कभी प्यार से पूछतीं-क्यों कैसा लग रहा है, ठीक खाना बना लेती हूं न मैं? बाबा हमेशा मुस्करा कर हां में जवाब देते। जबकि उन्हें स्वाद का कोई पता नहीं था। वो इन सब चीजों से ऊपर थे। उनके मुंह में स्वाद या बेस्वाद जैसी कोई बात नहीं थी। 
Bayjamai Ki Sewa

एक दिन अचानक बाबा शिर्डी से अंतरध्यान हो गए। माई परेशान। जगल-जगल, नाले-नाले, पेड़-पौधों के पीछे अपने बेटे को ढूंढतीं। लोग मानते हैं कि शायद बाबा जब शिर्डी में नहीं थे, तो उनका कार्यक्षेत्र कोई और जगह रही थी। खैर, कुछ साल हुए। शायद एक या दो साल। एक व्यक्ति थे चांद पाटिल। धूपगांव के सरकारी मुलाजिम। उसकी घोड़ी कहीं खो गई। वह अपनी घोड़ी की जीन लटकाए गांव- गांव, जंगल-जंगल उसे ढूंढते घूम रहे थे। ऐसे ही एक दिन चांद पाटिल जंगल गुजर रहा था कि, पीछे से आवाज आई-क्यों चांद अपनी घोड़ी ढूंढ रहे हो? चांद पाटिल सकते में, इन महाशय को मेरा नाम कैसे पता और यह भी कैसे पता कि मेरी घोड़ी खो गई है?

फिर आवाज आई-चांद वो उस छोटी वाली पहाड़ी के पीछे चले जाओ। वहीं पड़ोस में एक झरना बह रहा है, वहीं तुम्हारी घोड़ी आराम से पानी पी रही है। चांद पाटिल दोड़े-दौड़े गए। वहां उन्हें अपनी घोड़ी मिल गई। चांद पाटिल ने उसे जी भरकर प्यार किया। घोड़ी को जीन पहनाई और उसे लेकर ओलिया के पास आ गए। उनकी वेशभूषा देखकर चांद ने सवाल किया-आप मुसलमान है? ओलिया ने कोई जवाब नहीं दिया मुस्कुरा दिए। चांद को लगा, शायद ये हिंदू है। उसने कहा-आप हिंदू है? उसे फिर जवाब नहीं मिला। ओलिया फिर से मुस्कुराए। ओलिया ने पूछा-चांद चिलम पिओगे? चांद ने कहा-हां बाबा जरूर। 

उस ओलिया ने अपने पास रखे चिमटे को उठाया और जोर से जमीन पर दे मारा। वहां से एक जलता अंगारा निकल आया। औलिया ने चिमटे से वो अंगारा चिलम पर रख दिया। अब पानी कहां से आएगा? चिलम पर जो साफी लगती है न उसे गीला करने के लिए। इसके लिए औलिया ने अपना सटका उठाया और जमीन पर दे मारा, वहां से पानी की धार फूट पड़ी। चिलम तैयार। चांद पाटिल समझ गया कि ये कोई साधारण मनुष्य नहीं। चांद पाटिल ने कहा-मैं आपका नाम नहीं जानता। ओलिया ने कहा-मुझे किसी ने कोई नाम दिया नहीं है। चांद ने कहा-बाबा आप मेरे साथ धूप गांव चलिए। दरसअल, वो ओलिया कोई और नहीं साई ही थे। 

चांद पाटिल बाबा को लेकरगांव पहुंचे। कुछ वक्त बाद चांद पाटिल की पत्नी के भाई के बेटे की शादी तय हो गई शिर्डी में। चांद पाटिल ने बाबा से बराती बनकर चलने को कहा। बाबा तुरंत तैयार हो गए। उस जमाने में होटल तो होते नहीं थे। बारात शिर्डी आई और एक बरगद के पेड़ के नीचे खंडोबा के मंदिर के पास उनके रहने का स्थान तय हुआ। 

देखिए बाबा कितने त्रिकाल ज्ञाता थे। जिस शिर्डी में पहले वो एक नीम के पेड़ के नीचे मिले, वहीं दूसरी बार एक बरगद के पेड़ के नीचे उतरे। जब उनके शारीरिक रूप का अंत समय निकट आ रहा था, तो उन्होंने अपने भक्तों से कहां था कि, शिर्डी में बड़ी-बड़ी इमारतें बन जाएंगी। लोग, जिनमें बड़े-बड़े सेठ और राजे-महाराजे भी शामिल होंगे, वाहनों से यहां आया करेंगे। तब सभी ने उनका मजाक उड़ाया था। सबने कहा कि क्या कह रहे हो आप? शिर्डी तो ऐसा ही रहेगा। खैर बाबा बरगद के पेड़ के नीचे उतरे। एक और संयोग देखिए। पास ही खंडोबा का मंदिर था। खंडोबा याने शिव। शिव किस का अवतार हैं। एक जमाने में मल और मणि नाम के दो राक्षसों ने लोगों का जीना मुश्किल कर रखा था तब देवता पहले इंद्र और फिर विष्णु जी के पास गए और उनसे मदद मांगी। लेकिन उन्हें मदद मिली शिव से। शिव ने जो अवतार लेकर उन दोनों राक्षसों का वध किया था, उस अवतार को खंडोबा के नाम से जाना जाता है। शिव ने विष्णु को आत्मज्ञान कराया था। और आज साई आप सबको आत्मज्ञान करा रहे हैं। 

खंडोबा के उस मंदिर का एक पुजारी था मालसापति चिमनलाल नागरे। बाबा बैलगाड़ी से उतरे। मालसापति अल्पशिक्षित थे। शिर्डी बेहद छोटा सा गांव था, जहां मालसापति ज्यादा शिक्षा या यूं कहिए की ना के बराबर शिक्षा ही प्राप्त कर पाए थे। बाबा की लीला देखिए उन्हें अपने लिए एक नाम चुनना था और मालसापति ने उन्हें वह नाम दिया और जो नाम दिया वह शब्द अरबी भाषा में सूफी संतों के लिए इस्तेमाल किया जाता है साई। बाबा का बैलगाड़ी से उतरना हुआ मालसापति जो उसी वक्त खंडोबा मंदिर से अर्चना करके बाहर आ रहे थे। पता नहीं उन्होंने क्या सोचकर कह दिया या बाबा ने उनसे कहलवा दिया कि, आओ ओ साई। बस पड़ गया नाम उस फकीर का...साई।


जात न पूछो साधू की...
बाबा ने कहा कि इसने(चांद पाटिल) मुझे बुला तो लिया है, लेकिन मेरे रहने का तो कोई ठिकाना नहीं। बारात में तो बस ऐसे ही आना था, सो मै आ गया। इसके बाद बाबा ने इच्छा जाहिर की, मैं रात यहीं इसी मंदिर में रहूंगा। बाबा की यह इच्छा सुनकर मालसापति के माथे पर तनाव के बल उभर आए। दरअसल, मालसापति थे रूढि़वादी। उन्हें लगा कि यदि इस मुसलमान से दिखने वाले बाबा को यदि मैंने खंडोबा मंदिर में रहने दिया, तो शिर्डी के लोग क्या कहेंगे?

बाबा ने उसके मन के भाव पढ़ लिए। बाबा मुस्कराए और बोले-कोई बात नहीं मैं अपने लिए कोई दूसरा ठिकाना ढूंढ लूंगा। इसके बाद बाबा गांव के अंदर आए। वहां उन्हें एक पुरानी टूटी-फूटी मस्जिद दिखाई दी। उसमें अब इबादत बंद हो चुकी थी। बाबा ने उसी में डेरा जमा लिया। आज हम उसी मस्जिद को द्वारका माई के नाम से जानते हैं। साई मस्जिद में आ गए। बाइसा माई भी खुश हो गईं। उन्होंने आगे बढ़ कर अपने बेटे को गले लगा लिया और रोने लगीं। थोड़ी झिड़की भी। बोलीं, ऐसे बिना बताए कहां चले जाते हो? बाबा ने कहा-माई जाना पड़ा कुछ काम था। बाबा ने उस मस्जिद को अपना घर बना लिया। 

बाबा के भिक्षा मांगने का तरीका भी बेहद अलग था। वे जिससे भी भिक्षा मांगते उससे कहते-मेरा और तुम्हारा पिछले जनम का कुछ लेन-देन है। बाबा जितने साल शिर्डी में रहे, उन्होंने भिक्षाटन करके ही अपना गुजारा किया। लोग कहते हैं इतना बड़ा संत, जिसके लिए कहा जाता है कि वह लोगों की झोली भर देता है, उसे भिक्षा की क्या आवश्यकता? वह तो जरा हाथ ऊपर उठाता तो छप्पन भोग सामने आ जाते, लेकिन बााबा के खेल बड़े निराले हैं। मानव अवतार, जिसमें वो आए थे उसकी कुछ बंदिशें भी थीं। उस मानव अवतार में उनकी हथेली में शायद लिखा था कि उन्हें भिक्षा से ही गुजारा करना है। या शायद वो लोगों को बताना चाहते थे कि, किसी के सामने हाथ फैलाने में कोई बुराई नहीं है। 
आप स्वयं देखिए। बिजनेसमैन भी क्या करते हैं, वो भी तो भिक्षा ही मांगते हैं न। अपने मार्केटिंग वालों से कहते हैं कि, जाकर आर्डर ले आओ फलां से। टारगेट पूरा कर ले यार, वरना मेरी नौकरी भी जाएगी तेरी जाएगी सो तो जाएगी ही।
 
हेमाडपंत ने जब बाबा की भिक्षा पर अपना अध्याय लिखा तो बताया कि जो व्यक्ति कांचन,कामिनी और कीर्ति से दूर हो, भिक्षा मांगना उसका प्रारब्ध हो जाता है। बाबा को रुपए पैसे का मोह था नहीं, अपनी प्रसिद्धि का भी उन्हें कोई शौक नहीं था। ...और कामिनी? तो वो इतने सधे हुए थे और सबसे दूर रहते थे। उन्होंने पूरे जीवन में किसी की ओर बुरी नजर से नहीं देखा। ब्रह्मचर्य का पालन किया। 

हेमाडपंत आगे लिखते हैं-खाना बनाने की क्रिया में पांच प्रकार के पाप हमसे होते हैं, पीसना, दलना, बर्तन मांजना, बर्तन धोना और चूल्हा जलाना। इसमें अनेक जीवाणु मर जाते हैं। जो मनुष्य यह खाना खाते हैं, उन्हें पाप लग जाता है। बाबा ने उन लोगों को पाप से बचाने के लिए उनके यहां भिक्षा मांगने का क्रम शुरू किया। मात्र पांच घर हैं शिर्डी में, जहां से बाबा भिक्षा लेते थे। इनमें एक है बाइजा माई, दूसरा बयाजी अप्पा कोते पाटिल, जिनकी बाहों में बाबा ने अपनी आखिरी सांस ली। तीसरे वामन गोंदकर चौथे सखाराम शिरके और पांचवें नंदू मारवाड़ी।

Bapu Saheb Buti
बाइजा माई के घर जाकर बाबा जोर से चिल्लाते-आबादी आबाद, बाइसा माई रोटी ला। हक से मांगते थे। सखाराम के घर जाकर कहते-ए सखिया रोटी आण। नंदू मारवाड़ी की पत्नी हकलाकर बोलती थी। बाबा उन्हें बोपेड़ी बाई कहते थे। वे उन्हें पुकारते-ए बोपेड़ी बाई, आज दीवाली है, कुछ मीठा बनाकर खिला दे। ऐसे थे बाबा। आखिरी दिनों में जब वे चल-फिर नहीं पाते थे, तो कभी श्यामा बाई, कभी प्रो. नारके तो कभी उपासनी महाराज को अपनी ओर से भिक्षा लेने भेजते थे। लेकिन भिक्षा का क्रम उन्होंने कभी नहीं तोड़ा। उन दिनों भी नहीं जब 1908 से शिर्डी में लोगों का तांता लगना शुरू हो गया था। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी। गरीब-अमीर सब तरह के भक्त उनके चरणों में आने लगे थे, तब भी बाबा ने मांगकर ही अपना गुजारा किया। साई सूट-बूट में आने वालों को भी अपने लिए भिक्षा लेने भेज देते थे। 

प्रो. जीजी नारके, इतने पढ़े-लिखे थे और बापू साहब बूटी, जो उस जमाने के मल्टीमिलयनेयर थे। बाबा उन्हें भी भिक्षा लाने भेजते थे। एक बार बाबा ने प्रो. जीजी नारके को सूट में भिक्षा लाने भेज दिया।
G G Narke
वो शर्म से पानी-पानी हो गए। बोले-बाबा ये क्या कराते हो? बाबा झिड़क कर बोले-तुझे भिक्षा मांगने में शर्म आती है? लोगों से लेगा, तभी लोगों को दे पाएगा। बाबा के शब्द कितने सारगंर्भित थे। प्रो. जीजी नारके को यूनिवर्सिटी ऑफ पुणे में टीचर के रूप में काम करने का मौका मिला। उन्होंने लिया कुछ और था, दिया किसी और रूप में। 

दरअसल, कर्म कोई भी बुरा नहीं होता; अगर वो निष्पाप हो, लोगों की भलाई में काम आने वाला हो। जो लोग यह समझते हैं कि, वे अपने पैसों से बड़ा-सा मंदिर बनवाकर भगवान को अपने पास ला सकते हैं, तो यह भूल है। पैसों से मंदिर बनावाया जा सकता है, लेकिन ईश्वर को उसमें नहीं बैठाया जा सकता। ईश्वर तो कण-कण में व्याप्त हैं। वे गरीब-अमीर में भेद नहीं करते। इसलिए साई बाबा यही संदेश देते रहे कि, सबका मालिक एक। यानी ईश्वर सबके के लिए एक-से हैं।

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