अंदर बहुत अंधकार हो, तो मिले कहां भगवन।
साई तो कण-कण व्याप्त हैं, देखो अपना मन।
ईश्वर
ने कभी अपने भक्तों को ऊंच-नीच; छोटे-बड़े के भेद में नहीं रखा। ईश्वर तो
मित्रवत बर्ताव करते हैं। वे एक सच्चे दोस्त की तरह हमें अच्छी संगत देते
हैं, सही मार्ग प्रशस्त करते हैं। साई बाबा के सान्निध्य में जितने भी
महानुभव रहे; बाबा उनसे हमेशा मित्रवत व्यवहार करते थे।
जब मैं तुम हूं, तुम मेरे अंश हो, फिर काहे का भेद।
न मैं ऊंचा; न तुम नीचे, तो फिर व्यर्थ हैं सारे खेद।
कहने
का तात्पर्य ईश्वर और उसके भक्त के बीच कभी भेद हो नहीं सकता। क्योंकि
मनुष्य ईश्वर का ही तो अंश है यानी जब ईश्वर कण-कण में विराजे हैं, तो
मनुष्य भी ईश्वरतुल्य है। बस आवश्यकता कर्म-दुष्कर्म के बीच का बारीक अंतर
समझने की है। ईश्वर ने जात-पात, धर्म-कर्म के आधार पर कभी भी अपने भक्तों
के बीच भेद नहीं किया। जैसे भगवान राम ने शबरी के जूठे बेर खाकर यह संदेश
दिया कि, जात-पात, धर्म-कर्म से किसी इनसान को ऊंच-नीच में नहीं बांटा जा
सकता है। ठीक वैसे ही साई बाबा भी सभी धर्मों, जात-पात के लोगों को बराबर
का सम्मान देते रहे,प्यार करते रहे।
जस्टिस
खापरडे को बाबा ने अलग-अलग समय में अपने पास प्रवास करने का मौका दिया
था। इसमें एक अल्पकालीन था और एक करीब 11 महीने का।
जस्टिस खापरडे शिर्डी
में बाबा के सान्निध्य में रहे। बाबा जब शिर्डी में लैंडी बाग की तरफ
आते-जाते थे, तो जस्टिस खापरडे से कहते थे-का सरकार कसा-काई (क्यों मालिक
कैसे हो?)। साई की करुणा देखिए, अपनेपन का भाव देखिए। स्वयं जगत के मालिक
होते हुए भी दूसरे से पूछते हैं-का सरकार कसा काई?
हमारे
भीतर यह गुण मालूम नहीं कब आएंगे! लेकिन जिस दिन भी आ गए, मानकर चलिए हम
बाबा के सच्चे भक्तों-अनुयायियों की अगली पंक्ति में शुमार होंगे। उनके
चहेतों में शामिल हो जाएंगे। एक नेकदिल इनसान कहे जाने लगेंगे। जिंदगी में
इससे बड़ा और कोई सुख नहीं, जब दूसरे हमारा आदर करें। प्यार से बोलें। सवाल
यह है कि, जब ईश्वर मनुष्यों के बीच कोई भेद-भाव नहीं करता; तो फिर हम किस
अहंकार में जी रहे हैं?
खाली हाथ सब आए जग में, क्या लेकर के जाएंगे।
तुम अमीर हो या गरीब, सब माटी में मिल जाएंगे।
अगर
हमें कुछ मिल जाता है, तो फूल कर कुप्पा हो जाते हैं। दास गणु से एक बार
बाबा ने कहा था-दासानु दास; मैं तुम्हारा ऋणि हूं। वो खुद को दासानु दास
कहते थे। वे कहते थे-मैं अल्लाह का ऋणि हूं, मैं दास हूं। तुम मेरे गुण
गाते हो, इसलिए दास गुण दासानु दास, मैं तुम्हारा ऋणि हूं।
प्रकृति
की देन, ईश्वर यानी बाबा की भक्ति के अलावा सारी भौतिक सुख-सुविधाएं नश्वर
हैं। बाबा जब हमें नश्वरता का अहसास करा देते हैं, तो हमें उनसे अनुराग हो
जाता है। हम उनके भक्त बन जाते हैं। उनसे प्रीति करने लगते हैं। हमारे
भीतर से कुछ खोने का डर निकल जाता है। भगवान में प्रीति याने भक्ति। अपने
इष्ट से जब आप प्रेम करते हैं, तो आप धीरे-धीरे एकाकार हो जाते हैं। तब आप
साई बन जाते हैं। यानी बाबा आपको आप से हर लेते हैं। मैं का भाव खत्म कर
देते हैं और अपने का भाव जगा देते हैं। साई हो जाने का आशय यही है कि मैं
यानी अहम का नाश और हम यानी एकजुटता, अपनत्व का उदय।
मन में समाये साई, उन्हें जगाइए।
बाबा
की तलाश में लोग वर्षों गुजार देते हैं। धन-दौलत और समय लुटा देते हैं,
लेकिन फिर भी जब उन्हें बाबा के दर्शन नहीं होते, तो वे निराश हो जाते हैं।
लेकिन सच क्या है, यह जान लीजिए। जैसे कस्तूरी मृग अपनी नाभि में ही
कस्तूरी होने के बावजूद खुशबू के भ्रम में उसे यहां-वहां ढूंढते हुए भटकता
है, ठीक वैसी ही मनोस्थिति हमारी है। साई हमारे दिल में बैठे हैं, लेकिन हम
उन्हें यहां-वहां तलाशते फिरते हैं। दरसअल, हमने कभी उन्हें जगाने की
कोशिश नहीं की। वे सुप्त अवस्था में अंदर विराजे हैं। हम जब उन्हें जागृत
करेंगे, तब ही तो उनकी आहट होगी। उनकी हलचल हमें नये मार्ग पर ले जाएगी।
भ्रम से निकालेगी।
मेरे एक मित्र हैं। जैसे
दोस्तों में टांग खिंचाई होती है, एक दिन उन्होंने वही किया। वो आए और
बोले-यार सुमित तू बड़ा साई-साई करता है, एक बार हमें भी तो साई से मिलवा
दे। अब जब मस्ती की बात चल रही थी, तो मैंने भी कहा-हां, तू बैठ बाहर, वो
अंदर बैठे हैं। मैं पूछ कर आता हूं, वो तुझसे मिलेंगे या नहीं मिलेंगे। फिर
मैंने उससे कहा-अच्छा तू है कौन, जरा ये तो बता? तेरा क्या परिचय दूं।
उसने
हैरानी से पूछा-अरे यार तू कैसा है? हम सालों से इतने अच्छे दोस्त हैं और
तू मुझसे पूछ रहा है कि मैं कौन हूं? मैंने कहा-अरे यार तू मेरा दोस्त है;
साई का दोस्त थोड़े ही है। उसने मुझे घूरते हुए जेब से एक विजिटिंग कार्ड
निकाला। मुझे देते हुए कहा-अच्छा ये मेरा कार्ड ले। मैंने कहा-ठीक है।
कार्ड
में उसका नाम छपा था अमोलक चंद चौधरी। मैंने कहा-बाबा से क्या बताऊं, कौन
आया है? वो थोड़ा परेशान हो उठा-अरे बताना कि अमोलक चंद चौधरी आया है। अब
बात थोड़ी-सी सीरियस हो चली थी। मैंने कहा-देख ये तेरा नाम है, ऐसा तू कहता
है। लेकिन असल में तू कौन है?
वो चिढ़ते हुए बोला-मैं, वही
अमोलक चंद चौधरी। मैंने फिर सवाल किया-जिस गाड़ी में तू आया वो तेरी है, तो
तू क्या गाड़ी हो गया? फिर मैंने पूछा- अच्छा चल यह बता, तू रहता कहां
हैं? अब तो उसे गुस्सा आने लगा था। वो कहने लगा-देखना, कार्ड पर सब लिखा
हैं। पता भी लिखा है मेरे घर का।
मैंने फिर सवाल
किया-सुन भाई, यहां तो तेरा घर है, लेकिन तू कहां रहता है? वो बोला-कार्ड
को पलट दूसरी तरफ मेरा ऑफिशियल एड्रेस भी है। सुबह 10 से देर शाम तक मैं
वहीं रहता हूं। मैंने कहा-भाई आगे जो पता है, वहां तेरा घर और पीछे वाले
पते पर तेरा दफ्तर है। लेकिन तू कौन है, तुझे पता नहीं! कहां रहता है, वह
भी पता नहीं और तू चलने निकला है साई को ढूंढने? एक काम कर यह ले अपना
कार्ड। पहले अपने आप को ढूंढ। तू कौन है ये तू पता कर। कहां रहता है, पता
कर। जिस दिन तूझे ये पता चल जाएगा, तुझे मेरा पास नहीं आना पड़ेगा साई को
ढूंढने। वो तुझे अपने आप मिल जाएंगे।
ढूंढा सकल जहां में तेरा पता नहीं,
और जो पता मिला है, तेरा तो मेरा पता नहीं।
दिल में रहती है तस्वीरें नजर झुकाई और देख ली।
दरअसल,
हम बाबा को ढूंढने बहुत जतन करते हैं, लेकिन कभी अपने अंदर झांककर नहीं
देखते। वे तो हमारे दिल में विराजे हैं। लेकिन हम उन्हें सोता हुआ रखते
हैं। जगाने की कोशिश नहीं करते। जिस दिन हमारे अंदर विराजे साई जाग
उठेंगेे, देखना हमारे मन से असुरक्षा, डर, वैमनस्य, अपने-तेरे का भाव सबकुछ
निकल जाएगा। हम बाबा के रंग में रंग जाएंगे। एक ऐसा रंग, जिसमें कोई
भेदभाव नहीं होता। जैसे पानी। उसमें जो भी रंग मिलाओ, वो उसके जैसा हो जाता
है। जब हमारे अंदर के साई जाग उठेंगे, तो हम भी सबको बाबा की तरह एक नजर
से देखने लगेंगे।
तब की एक कहानी...
बाबा हमेशा भिक्षा
पर जीवनयापन करते रहे। वे भिक्षुक के रूप में किसी के भी दरवाजे पर खड़े
होकर पुकारते थे-ओ माई, एक रोटी का टुकड़ा मिले। एक रोटी का टुकड़ा प्राप्त
करने वे अपने दोनों हाथ फैलाते थे। उन्हें सूखी-रूखी रोटी, जो भी मिल
जाता, वे उसे बड़े चाव के साथ खाते। थोड़ा खुद खाते और बाकी का एक कुंडी
में डाल देते, ताकि वहां के कुत्ते, बिल्लियां, कौवे आदि का पेट भर सके। एक
स्त्री; मस्जिद में झाडू लगाती थी, वो भी कुछ टुकड़े उठाकर अपने साथ ले
जाती थी।
जब कोई व्यक्ति ऐसा करते दिखेगा, तो
दुनियावाले उसे पागल ही समझेंगे। क्योंकि; हमारी आंखों पर अपने-पराये,
ऊंच-नीच, जात-पात का पर्दा जो पड़ा है। जीव-जन्तु हमारे मनुष्य समान कैसे
हो सकते हैं? हम उनके साथ भोजन कैसे कर सकते हैं? अहंकार हमारे अंदर इतना
प्रबल है कि; हम किसी के आगे हाथ क्यों फैलाएं? ...और हर किसी के घर का
खाना कैसे खा सकते हैं; क्योंकि हम तो महान जाति के हैं? घर में पैसे न हुए
तो क्या, चोरी-चकारी करके पेट भर लेंगे, लेकिन किसी के आगे हाथ क्यों
फैलाएं?
ऐसा ही होता है न????
लेकिन
ईश्वर कभी इस भ्रम में नहीं पड़ता। यह मनुष्य की नीयती है; आदत है कि, जब
तक पत्थर को मंदिर में न रखा जाए, वो उसे नहीं पूजता। एक कहावत है, अकल पर
पत्थर पड़े रहना। इसका आशय होता है कि मस्तिष्क में सोचने-समझने की क्षमता न
होना। लेकिन जब यह पत्थर मंदिर में विराजमान होता है, तो हम उसके आगे सिर
झुकाते हैं, मस्तिष्क तब भी उससे टकराते हैं, छूते हैं, झुकाते हैं, लेकिन
तब यह कहावत बदल जाती है। क्योंकि, तब वो पत्थर भगवान बन चुका होता है और
हम उससे अपना मस्तिष्क इसलिए टकराते हैं, ताकि उसके घर्षण से हमारी बुद्धि
की मशीन चल पड़े।
बाबा को लोग शुरुआत में पागल
समझने लगे, लेकिन जब उन्हें बाबा की लीला समझ आई, तो वे नतमस्तक हो गए।
बाबा ने सबके हाथ से खाना खाया, क्योंकि वे संदेश देना चाहते थे कि; हाथ
बदलने से आटा-रोटी का स्वरूप नहीं बदल जाता। उसका स्वाद तो एक-सा रहता है।
हां, अगर रोटी बनाने वाला निपुण हो, निष्पाप होकर, अच्छे मन से आटा गूंथे,
तो स्वाद बेहतर हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे एक भक्ति में निपुण मनुष्य
सबकी भलाई सोचता है।
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