Tuesday, 31 March 2015

स्वर्ग यही हैं और नरक भी यहीं..



जैसी करनी, वैसी भरनी; यही जगत की रीत ।
कर भला तो हो भलो; सो करो सभी से प्रीत ।।

लोग कहते हैं, मरने के बाद कुछ इंसान स्वर्ग में जाते हैं, तो कुछ नर्क में! गोया; जिनके अच्छे कर्म होते हैं, उन्हें स्वर्ग नसीब होता है और जो जीवनभर दुष्कर्मों में फंसे रहते हैं, वे नरक के भागीदार बनते हैं। साई स्वर्ग और नर्क को अपने ढंग से परिभाषित करते हैं। उनके हिसाब से कोई स्वर्ग और नर्क नहीं होता। अगर हमारे कर्म अच्छे हैं, तो हमारे कई जन्म अच्छे गुजरेंगे। यदि हमने अपनी गलतियां नहीं सुधारीं; मोह-माया के फेर में पापों को अंजाम देते रहे, तो एक नहीं; अगले कई जन्मों तक हमें पापों का दुष्परिणाम भोगेंगे।

तमाम लोग जवानी तक बुरे कर्म करते रहते हैं और जब बुढ़ापा आता है, तो ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से उन्हें मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा। वहां अप्सराएं होंगी, जो उनके आसपास डोलती रहेंगी। स्वर्ग में अच्छे-स्वादिष्ट पकवान खाने को मिलेंगे। मधुर संगीत सुनने को मिलेगा। यानी आदमी मरने के बाद भी अपना फायदा नहीं भूलता।

नर्क जाने से लोग इसलिए डरते हैं क्योंकि उन्हें बचपन से ही यह पढ़ाया जाता रहा है कि; बुरे कर्म करोगे, तो नर्क जाना पड़ेगा। वहां हैवान सूली पर लटकाते हैं, गर्म तेल की कढ़ाही में डालते हैं, पिटाई होती है, खाने-पीने को नहीं मिलता। गोया कि; अंग्रेजों के जमाने की जेल। बाबा कहते थे, यह मत भूलो कि, आप इस जन्म में जो भी कर्म-दुष्कर्म करते हो, यदि उसका फल ऐनकेन प्रकारेण इस जन्म में नहीं मिल पाया, तो वो अगले कई जन्मों तक भोगना पड़ सकता है। जब तक कि पाप-पुण्य का पाई-पाई का हिसाब नहीं हो जाता। यानी अच्छे कर्मों का अच्छा और बुरे का बुरा फल मिलता रहेगा।


बाबा कर्म को प्राथमिकता देते थे। इसलिए हमारे लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि कर्म कितने प्रकार के होते हैं। कर्म तीन प्रकार के होते हैं-क्रियामाण, संचित और प्रारब्ध। इन्हें आसानी से समझाने के लिए उदाहरण देता हूं। मानों आपके हाथ में एक धनुष है और उसकी प्रत्यंचा पर तीर चढ़ा हुआ है। क्रियामाण कर्म याने जो कर्म अभी होने जा रहा है उसके मालिक आप हैं। यह तीर आप किस पर चलाते हैं, कब चलाते हैं, इसका निर्धारण आप स्वयं करेंगे और जिम्मेदार भी आप होंगे। ये क्रियामाण है। आपके तूनिर में कुछ तीर रखे हुए हैं, पीछे ये संचित कर्म है। ऐसे कर्म जिनका फल अभी आपको मिला नहीं है, लेकिन मिलेगा। तीसरा होता है प्रारब्ध; जिनसे आप छूट नहीं सकते। जिनका निर्धारण हो गया है और जिन फलों को आपको भोगना ही है।

आप कैसे भोगते हैं देखिए। आप चलाने जा रहे हैं उस बाण को। आपने एक चिडिय़ा को निशाना बनाया, तभी वहां से एक सांप गुजरा और आपके प्रारब्ध के प्रभाववश वह आपके पांव पर से गुजरा और आपका निशाना चूक गया। आपका तीर किसी इंसान को लग जाता है। यह होते हैं हमारे कर्म। बाबा का कहना था कि अपने कर्मों का फल जब आप भोग रहे हो, जब ऊपर वाला आपके कर्मों का फल अच्छा बुरा जो भी आपको दे रहा है आप भोग लो। सद्गुरु की शरण में जाने का फायद यह होता है कि हमें अपने इच्छित फल की प्राप्ति होने लगती है। 

कैेसे यह देखिए। क्रियामण को देखिए। सद्गुरु की शरण में जाने से हमारी बुद्धि चैतन्य हो जाती है, जिससे हमें अच्छे और बुरे कर्मों का भेद समझ में आने लगता है। हम बुरे कर्म से बचने का प्रयास करने लगते हैं। हालांकि प्रारब्ध जो होना है, सो होना है। उसे कोई नहीं टाल सकता। बारिश यदि आनी है, तो आनी है। उसे कोई नहीं रोक सकता, लेकिन छतरी लगाकर या किसी छत के नीचे आकर हम जरूर भींगने से बच सकते हैं।

अगर हमारे प्रारब्ध में बाढ़ में घिरना लिखा है, तो उससे हमें कोई नहीं बचा सकता; भाग्य भी नहीं। हां, सद्गुरु की कृपा हमें बाढ़ में डूबने से अवश्य बचा लेगी। सद्गुरु की शरण में आने से हमें जो बुद्धिमता मिलती है, हम उसका प्रयोग करते हैं। विपदा के दौरान घबराते नहीं है। यह नहीं सोचते कि, बाढ़ में डूबना तो तय है। अगर हम संघर्ष नहीं करेंगे, तब डूबना वाकई निश्चित है। लेकिन सद्गुरु ने हमें बुद्धि प्रदान की है, इसलिए हम उसका इस्तेमाल करते हैं। जान बचाने के उपाय सोचने लगते हैं। इन प्रयासों के चलते हमें कोई लकड़ी का टुकड़ा मिल जाता है और हम उसे पकड़कर अपनी जिंदगी बचा लेते हैं। यह संचित कर्म कहलाते हैं। यानी वो कर्म; जिनका फल मिलना अभी हमें बाकी था। जैसे बैंक में हम रुपए जमा करते रहते हैं, उसका हमें एक ब्याज मिलता है। वैसे ही हमारे कई कर्म;अच्छे कर्मों का फल हमें मुसीबत के दौरान काम आता है।

तब की एक कहानी....

साई ने कर्म से संबधित कई लीलाएं दिखाई हैं। पूना के करीबी गांव नारायण के भीमजी पाटिल टीबी से पीडि़त थे। पाटिल याने कि जिनके पास पैसा काफी होता है। वह बाबा के पास पहुंचे। जिनके जरिये वे बाबा के पास पहुंचे थे, उनसे बाबा ने कहा, देखो मैं इनकी कोई मदद नहीं कर सकता। यह इनके पूर्व जन्मों का फल है। 

उन्होंने बड़ी इल्तजा की। बाबा ने कहा कर्मों का फल तो भुगतना ही पड़ेगा। फिर बाबा ने कहा, अच्छा, तुम भीमा बाई की कोठरी में जाकर रुको। यहां बाबा की लीला देखिए! भीमजी पाटिल बहुत पैसेवाले। जब उन्होंने यह सुना, तो उन्हें असहज महसूस हुआ। भीमा बाई की कोठी उन्हें रुकने के लिए उचित जगह नहीं लगी। चूंकि आदेश बाबा ने दिया था, लिहाजा वे उसे टाल नहीं सके। बेमन से भीमजी उस कोठरी में रुके। 

एक रोज उन्हें सपना आया। वह स्कूल में पढ़ रहे हैं। उनसे कोई गलती हो गई, तो मास्टरजी बहुत जोर से उन्हें बेंत से पीटने लगे। वे तड़पने लगे। इस तरह सपने में उनका एक बुरा कर्म कट गया। दूसरी रात भीमजी को फिर सपना आया कि उनकी छाती पर बड़ा-सा पत्थर रखा है। कोई उसे जोर-जोर से घुमा रहा है। तकलीफ के कारण भीमजी नींद में ही चिल्लाने लगे। यानी नींद में ही उनके बुरे कर्मों का फल मिल गया। बाबा ने भीमजी के कर्म सपनों में ही काट दिए। इस तरह उनकी बीमारी ठीक हो गई। 

इसके बाद भीमजी बाबा के इतने बड़ा भक्त बन गए कि, जब वापस अपने गांव नारायण गए, तो वहां साई सत्यव्रत पूजा प्रारंभ कर दी। हम लोग अब शिर्डी जाते हैं, तो बाबा के साथ सत्यनारायणजी की भी पूजा होती है। पूरी विधि वही रहती है, लेकिन वह कहलाती है। साई सत्य व्रत पूजा। तो हम जब भी शिर्डी जाएं और साई सत्यव्रत पूजा करें, तो भीमजी पाटिल को जरूर याद करें। 

Shree Sai Satya Vrat
 

एक थे डॉ. पिल्लई। उनकी भी बड़ी गजब कहानी है। उनके पांव में नासूर हो गया था, जिसमें कीड़े पड़ गए थे। वह खुद डॉक्टर थे, लेकिन अपना इलाज नहीं कर पा रहे थे। जब वह शिर्डी पहुंचे और बाबा से मिले, तो रोने लगे। बाबा ने कहा, रोने से कुछ नहीं होगा। रोने से कर्म नहीं कटते। भगवान को भजने से कर्म कट जाते हैं, रोने से नहीं। डॉ. पिल्लई ने गुजारिश की, बाबा प्लीज कुछ ऐसा कर दो कि मेरे ये कर्म दस जन्मों में बंट जाएं। मुझे इनका फल दस जन्मों में मिले, लेकिन अभी तो मैं ठीक हो जाऊं। 
Dr. Pillay

जब भक्ति में हम अपना दिमाग लगाते हैं, तो वहां सब गड़बड़ हो जाती है। बाबा ने कहा, जो तेरे कर्म दस दिनों में पूरे होने वाले हैं, उसके लिए तू दस जनम तक क्यों इंतजार करना चाहता है?? बाबा ने फिर कहा, तू इंतजार कर दसवें दिन एक काला कव्वा तेरे इस नासूर पर चोच मारेगा और तू ठीक हो जाएगा। 

डॉ पिल्लई रोज मस्जिद जाते थे और बाबा उनके जख्म पर रोज उदी लगाते थे। एक दिन डॉ. पिल्लई मस्जिद में बैठे हुए थे। उन्हें ध्यान नहीं था कि उस रोज दसवां दिन था। बाबा के सेवक अब्दुल मस्जिद में झाडू लगा रहे थे। हाजी अब्दुल बाबा झाडू लगाते हुए पीछे-पीछे चलते आ रहे थे और अचानक उनका पैर डॉ. पिल्लई के नासूर पर पड़ गया। डॉ. पिल्लई दर्द से चिल्ला उठे। लेकिन उनके नासूर से सात कीड़े निकल कर बाहर चले गए और उन्हें आराम मिल गया। लोगों ने पूछा, बाबा कौआ कब आया? बाब ने कहा, ये अब्दुल ही तो मेरा कौटा है, यही तो आया था। यानी बाबा दूसरों का दु:ख-तकलीफ ऐसे दूर करते थे।

Friday, 27 March 2015

कसी से झूठा वादा न करो (भाग 2 )..

बाबा को ज्ञात हो गया कि; नाना साहब को अपनी गलती समझ आ गई है। बाबा थोड़े नरम हुए और बोले, नाना! अबकी बार तो तुझे बहुत छोटा-सा दंड दिया है, लेकिन गलती दुहराई, तो समझ लेना बड़ी सजा मिलेगी। बाबा के इस कथन में बड़ा आशय छिपा हुआ था। गलतियां हर इनसान से होती हैं, लेकिन एक ही गलती बार-बार दुहराने वाला कभी जिंदगी में आगे नहीं बढ़ सकता। मार्ग चाहे, धार्मिक हो या सांसारिक।


खैर, ऐसे कईं किस्से हैं दत्तात्रेय भगवान और बाबा के। एक और ऐसी ही कहानी सुनिए। एक सज्जन जो गोवा से शिर्डी आए थे, जिनसे बाबा ने पैसे नहीं लिए थे। स्वाभाविक-सी बात है; जो बाबा सबसे दान-दक्षिणा के तौर पर पैसे मांग लेते थे, जब किसी के साथ ऐसा न करें, तो सामने वाले को हैरान तो होना ही था। बाबा ने उन सज्जन की जिज्ञासा कुछ यूं शांत की। बाबा ने उन्हें एक किस्सा सुनाया। इसमें सार छुपा था कि, बाबा ने उनसे पैसे क्यों नहीं मांगे? 

 

बाबा ने बताया, मेरा एक रसोइया था। उसने मेरे पैसे चुरा लिए थे। मैं एक बार जब धर्मशाला में सोया था, तो वह पीछे से आया और दीवार में छेद करके मेरे पैसे चोरी करके ले गया। जब सुबह मुझे पैसे नहीं मिले, तो मैं दिनभर रोता। उन पैसों के लिए किलपता रहा। फिर एक बार सड़क चलते साधू ने मुझसे कहा कि; तू फिकर न कर, तेरी चीज तेरे पास वापस आ जाएगी। उन्होंने कहा, लेकिन तब तक तू अपनी पसंद की कोई एक चीज खाना छोड़ दे। गोवा वाले सज्जन को याद आया कि, यह घटना तो उनके साथ हुई थी। उन्होंने बाबा को बताया कि, उसके यहां एक पुराना ब्राह्मण रसोइया था, जिसने 30 हजार रुपए चुरा लिए थे। गोवा वाले सज्जन आगे कहने लगे, मैं बहुत परेशान हुआ। एक दिन सच में मुझे गली गुजरते एक संत ने कहा कि, तुम अपनी मनपसंद चीज खाने की छोड़ दो, पैसे वापस मिल जाएंगे। मैंने चावल खाना छोड़ दिया। कुछ ही दिन में सचमुच मेरा वह रसोइया वापस आया और उसने मुझे मेरे पैसे वापस कर दिए। उसने अपने किये पर माफी भी मांगी। 

गोवा वाले सज्जन बताने लगे, जब मैं यहां (शिर्डी) आने के लिए निकला, तो स्टीमर में जगह नहीं थी। स्टीमर का एक कर्मचारी आया और मैंने उससे इल्तजा की। उसने मुझे स्टीमर में चढऩे की इजाजत दे दी। मैं बंबई पहुंचा और वहां से शिर्डी आ गया। 

वो सज्जन कहने लगे, बाबा ने मुझसे दक्षिणा नहीं ली, लेकिन मुझे अपनी मूढ़ी वापस लौटा दी। बहरहाल, उस दिन श्यामा ने गोवा वाले सज्जन को भोजन में चावल खिलाए। 

ऐसी ही एक ओर कहानी आती है श्रीमान चोलकर की। वे पहले तो बेरोजगार थे और जब काम मिला, तो आमदनी इतनी नहीं थी कि वे शिर्डी जाकर बाबा के दर्शन कर पाते। घर-परिवार भी बहुत बड़ा था। एक दिन चोलकर ने मन में बाबा से इल्तजा की, बाबा मुझे शिर्डी बुला लो। जब तक मैं तुम्हारे दर्शन नहीं कर लेता, चाय में शक्कर नहीं डालूंगा, फीकी चाय ही पीयूंगा। उन्होंने एक-एक चम्मच शक्कर बचाकर इतना पैसा जोड़ लिया कि, शिर्डी जा सकें। जब श्रीमान चोलकर बाबा के पास शिर्डी पहुंचे, तो बाबा ने समीप खड़े बापू साहेब जोक से कहा, जोक इधर आ! ये जो हमारे अतिथि आए हैं न; इन्हें चाय में शक्कर जरूर डालकर पिलाना। 

कितनी ही लीलाएं हैं बाबा की। कितनी ही बातें। बाबा अन्न का कभी निरादर नहीं करते थे। और न ही उन्होंने अन्न को धर्म-सम्प्रदाय जातिगत आधार पर बांटा। वे सबको बराबर खिलाते थे, सबके साथ खाते थे और किसी से भी मांगने में उन्हें झिझक नहीं होती थी। जो मिले, वो ले लेते थे। बाबा को जो भी भिक्षा में मिलता, वो सबसे पहले मस्जिद में आकर उसे धुनी को अर्पित करते; फिर एक-दो निवाले खुद खाते और बाकी एक बड़े मटके; जिसे वह कुडम्बा कहा करते थे उसमें डाल देते थे। उसके बाद वह कुडम्बा सबके लिए खुला था। जमादारनी आती, तो वह उससे भोजन लेती, कोई भक्त आता तो उससे निवाला लेता या कोई फकीर आता तो भी बाबा उसमें से उसे भोजन लेने को कहते थे। यहां तक कि कुत्ते-बिल्ली को भी उसमें मुंह डालकर खाने की इजाजत थी। बाबा किसी से कुछ नहीं कहते थे। वे मानते थे कि, किसी को खाने से रोकना अन्न का अपमान है। 


बाबा ने एक बार कहानी सुनाई। इस कहानी में वो स्वयं भी थे। उन्होंने कहा, हम चार दोस्त थेे। हममें से एक महाज्ञानी था। वह समझता था कि उसने ब्रहम ज्ञान प्राप्त कर लिया है। उसे अब किसी गुरु की आवश्यकता नहीं है। दूसरा दोस्त महान कर्मकांडी था। उसके हिसाब से कर्म ही सबकुछ था। तीसरा दोस्त बेहद बुद्धिमान था और वह चातुर्य को ही सबकुछ समझता था। चौथा मैं स्वयं। बाबा ने आगे कहा, हमें अपना कर्म करते जाना चाहिए। हर कर्म को सद्गुरुको समर्पित करते जाना चाहिए। बाकी आगे हमारी सुध सदगुरु लेगा। बाबा आगे सुनाते हैं, हम चार दोस्त सत्य की खोज में निकले। वन-वन भटकते रहे। तभी कहीं से कोई भील आ गया। भील ने कहा, तुम इस वन में भटक रहे हो, रास्ता भूल जाओगे? चलो मैं तुम्हें सही रास्ते पर ले जाऊं। लेकिन इन चारों ने उसकी बात नहीं मानी। तब बाबा ने मध्यम सुर में कहा, हम भील की बात मान लेते हैं। हमें पथ प्रदर्शक मिल जाएगा, लेकिन बाकी तीनों बिल्कुल राजी नहीं थे। तीनों ने उनकी बात टाल दी। 

तीनों भील की अनसुनी कर आगे बढ़ गए। बाबा मजबूरी में उनके पीछे हो लिए। कुछ देर बाद चारों रास्ता भटक गए और भूख-प्यास से बेहाल हो गए। वो भील कुछ दूरी पर फिर उन्हें मिला। उसने अपनी पोटली आगे बढ़ाते हुए कहा, आप लोग भोजन कर लीजिए। बाबा के अलावा बाकी तीनों ने फिर उसकी बात नहीं मानी। बाबा ने तीनों को समझाया कि, जब भी कोई प्रेमपूर्वक भोजन का आग्रह करें उसे ठुकराना नहीं चाहिए। आखिरकार बाबा की बात मानकर सभी ने भील का दिया भोजन ग्रहण किया। जैसे ही अन्न पेट में पहुंचा, उनकी क्षुधा का निवारण हो गया। 

बाबा के अनुसार उसी समय उनके सामने सद्गुरुप्रकट हुए बोले, चल मैं तुझे ज्ञान देता हूं। वह तीनों तो ऐसे ही भटक रहे हैं। बाबा के ही शब्दों में, मेरे सद्गुरु मुझे पकड़कर ले गए। मुझे एक रस्सी से बांधा और कुएं में उल्टा लटका दिया। मैं कुएं के अंदर पानी से इतनी दूरी पर था कि, बस मुंह न डूबे और न ही मैं अपने हाथों से चुल्लूभर पानी पी सकूं। चार-पांच घंटे तक मैं ऐसे ही कुएं में लटका रहा। 

बाबा यह कहानी अपने भक्तों को इसलिए सुना रहे थे ताकि, उन्हें मालूम चले कि, दुनिया में सबको अपनी शक्ति, भक्ति और विश्वास की परीक्षा देनी होती है। बाबा की यह कहानी काल्पनिक भी हो सकती थी, लेकिन उसमें गूढ़ रहस्य छुपा हुआ था। सिर्फ कर्म, धर्म और ज्ञान से ही ब्रहमज्ञान हासिल नहीं होता। अगर हम धैर्य नहीं रखेंगे, तो सारे जतन और हमारे कर्म-ज्ञान बेकार हैं।

हेमाडपंत ने सद्चरित्र में लिखा है कि, इतने घंटे कुंए के ऊपर बंधे रहना कोई आसान काम नहीं था। बाबा कहते हैं, मुझे लटका कर मेरे गुरु वहां से चले गए। 4-5 घंटे बाद वे लौटे और पूछने लगे, कैसा लग रहा है? मैंने कहा कि मैं परम आनंद का अनुभव कर रहा हूं। 
Shri Hemadpant

यह तो थी बाबा की लीला, लेकिन क्या हम ऐसा कर पाते हैं? जब ऊपर वाला हमारी परीक्षा लेता है, जब कठिनाई के मार्ग पर भेजकर परखता है, तो हम बिल्कुल ऐसा नहीं कह पाते। संयम खो बैठते हैं और ईश्वर से हमारा विश्वास उठने लगता है। गुरु की बातें बेकार लगने लगती हैं और हम नये गुरु की तलाश में निकल पड़ते हैं। सोचने लगते हैं कि, शिव मंदिर में कुछ नहीं हो पा रहा है, तो अब हम गणेश मंदिर में लड्डू चढ़ाकर देखते हैं, शायद बुरे दिन चले जाएं! 
बाबा आगे कहानी सुनाते हैं, मेरे सद्गुरु ने मुझे रस्सी से नीचे उतारा। मैं 12 साल उनके साथ रहा। उन्होंने मुझे बहुत प्यार दिया। मैं एकटक उन्हें देखता रहता था। वह मुझे इतना प्यार करते जितना कि एक कछुयी नदी के एक ओर खड़ी रहकर अपने बच्चों को प्रेम भरी निगाह से ताकती रहती है।

Tuesday, 24 March 2015

कसी से झूठा वादा न करो (भाग १ )..


झूठ-फरेब की नींव पर न पुख्ता बने मकान।
जो भी करो निष्पाप हो; तभी बढ़ेगी शान।

 साई को दत्रातेय भगवान का चौथा अवतार माना गया है। ईश्वर कोई भी अवतार यूं ही नहीं। जब तक कोई विशेष प्रयोजन नहीं होता; तब तक ईश्वर पृथ्वी पर नहीं आते। हम पहले भी इस बात का जिक्र कर चुके हैं कि, ऊर्जा ही ईश्वर है। सूरज की रोशनी भी ईश्वर है। सूरज की किरणों का पृथ्वी तक आना भी एक विशेष प्रायोजन की वजह है। अगर हमें सूरज से ऊर्जा नहीं मिले, तो जीवन संभव नहीं है। मानव संरचना के लिए ऊर्जा आवश्यक है और ईश्वर ने ऊर्जा के रूप में पृथ्वी पर पर्दापण किया। इसीलिए कहते हैं कि, ईश्वर तो कण-कण में व्याप्त है।

 
भगवान दत्रातेय

 बाबा का भी पृथ्वी पर आना कोई साधारण बात नहीं थी। वे भी खास मकसद से मानव अवतार के रूप में हमारे बीच आए थे। दरअसल, मोह-माया और न-न प्रकार कर बुराइयों के पनपने से इनसान की मति भ्रष्ट हो जाती है। दिमाग घूमा, तो दुनिया चकरघन्नी बनने लगती है। अराजक स्थिति पैदा हो जाती है। किस्म-किस्म की बीमारियां पैर पसारने लगती हैं। इन्हीं सबसे इनसान को उबारने-बाहर निकालने दत्तात्रेय भगवान को साई के रूप में हमारे बीच आना पड़ा।

निश्चय ही आपके मन में एक सवाल उमड़-घुमड़ रहा होगा कि, दत्तात्रेय कौन? दत्रातेय भगवान; जिनमें ब्रहमा, विष्णु और महेश तीनों समाये हुए हैं। भगवान दत्तात्रेय के साथ 4 स्वान(डॉग) भी हैं। कहा जाता है कि ये चार वेद हैं। और इनके पीछे एक गाय माता; जो इस धरा का प्रतीक है। मराठी में दत्त का मतलब होता है, दिया हुआ। त्रेय उनके पिता महान त्रषि अत्रि थे। 

ब्रहमा, विष्णु और महेश ने मिलकर माता अनसुया और त्रषि अत्रि को यह पुत्र दिया था। इसलिए नाम मिला दत्तात्रेय। दरअसल, ये तीनों देवों का रूप है। बाबा को दत्तात्रेय का चौथा अवतार इसलिए माना जाता है, क्योंकि उन्होंने समय-समय पर अपने भक्तों को ब्रहमा, विष्णु और महेश तीनों रूपों में लोगों को दर्शन दिए हैं। कहा तो यह भी जाता है कि श्यामा को बाबा ने स्वयं दत्तात्रेय महाराज के रूप में दर्शन दिए थे। 

दत्तात्रेय भगवान को योगिक क्रियाओं में महारत हासिल थी। अब तक विश्व में योग सामथ्र्य के लिए भगवान दत्तात्रेय का नाम ही सबसे ऊपर आता है। यहां तक कि उनके योग सामथ्र्य से वशीभूत वालों ने उन्हें हमेशा घेरे रखने का प्रयास भी शुरू कर दिया था। और वह लोगों की भीड़ से पेरशान रहते थे। एक बार उन्होंने सरोवर के अंदर जाकर तीन दिन की समाधि ले ली थी। बाबा ने भी एक बार ठीक ऐसा ही किया था। 

खैर जब दत्तात्रेय सरोवर से बाहर आए, तो उन्होंने देखा कि, बाहर भीड़ यथावत वही जमी थी। दत्तात्रेय फिर से सरोवर में गए और इस बार वे अंदर से सुरा और सुंदरी लेकर वापस आए। जैसा कि उन्होंने सोचा था, वही हुआ। लोगों ने कहा, अरे यह तो भ्रष्ट हो गया है? देखते ही देखते लोग उन्हें छोड़कर चले गए। भगवान दत्तात्रेय को सुकून मिला। इसके बाद वे पूर्ण रूप से दिंगबर होकर जंगल-जंगल विचरण करने लगे और लोगों के दु:ख दूर करते। ऐसा ही आचरण साई का रहा। इसलिए उन्हें दत्तात्रेय का चौथ अवतार कहा जाता है। 

यह भी एक कहानी...
नाना साहब चांदोरकर का नियम था। वह जब शिर्डी आने के लिए कोपर गांव स्टेशन पर उतरते, तो भगवान दत्तात्रेय के मंदिर में माथा टेंकना न भूलते। एक बार वह लहूलुहान होकर शिर्डी पहुंचे। कपड़े फटे हुए, पांवों में कांटे। नाना साहब ने देखा कि, वे बुरी हालत के बावजूद बाबा के दर्शन करने आए, लेकिन बाबा हैं कि, उनसे बात ही नहीं कर रहे। नाना साहब ने दु:खी होकर पूछा, ऐसा क्यूं कर रहे हो बाबा? बाबा ने जवाब दिया, जब तुम में सामथ्र्य नहीं है वादा निभाने की, तो तुम वादा करते क्यूं हो? क्या जरूरत थी तुम्हें कि तुम दत्तात्रेय के दर्शन किए बिना यहां आ गए?

दरअसल, नाना साहब ने दत्तात्रेय मंदिर के पुजारी से वादा किया था कि जब भी वे अगली बार आएंगे, तो 300 रुपए मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए देकर जाएंगे। लेकिन इस बार विधि का विधान ऐसा हुआ कि, नाना साहब इतने पैसे इकठ्ठा नहीं कर पाए, किन्हीं कारणों से। अब उन्हें लगा कि मैं क्या मुंह लेकर उस पुजारी के सामने जाएंगे। सो वह छिपते-छिपाते कंटीली झाडिय़ों में गिरते-पड़ते सीधे शिर्डी पहुंचे। नाना साहब को अपनी भूल का अहसास हो गया था।

Monday, 23 March 2015

मन से याद करो; बाबा को वहीं पाओगे..(पार्ट २)

मेघा अनपढ़-गंवार। उसे ओम नम: शिवाय के अलावा कुछ नहीं आता था। मेघा दिन भर ओम नम: शिवाय का जाप करता रहता और साठे जी के यहां भोजन पकाता। उसका भक्तिभाव देखकर साठेजी को ख्याल आया कि इसे बाबा की शरण में भेज देना चाहिए। 
 
देखिए कितनी अच्छी बात है। आजकल हम अपने मुलाजिमों के बारे में कहां सोचते हैं, लेकिन साठे जी ने सोचा। कहीं न कहीं हम लोग बेहद स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित हो गए हैं। खैर, साठे जी ने मेघा से बाबा की शरण में जाने को कहा। मेघा जाने को तैयार नहीं हुआ, क्योंकि वो धर्म को बहुत मानता था। साठे जी ने उसे समझाया-बाबा हिंदू है या मुस्लिम; यह सब हमको मालूम नहीं, लेकिन वे बेहद चमत्कारी हैं। तुमको उनके पास जाना पड़ेगा, इससे तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा।

अब मालिक का आदेश आज के जैसा तो है नहीं! आज तो यदि आप अपने मुलाजिम से कह दो ऐसी बात, जिसमें उसकी मर्जी शामिल न हो; तो बस हो गया! वो नौकरी छोड़ देगा, लेकिन आपकी बात नहीं मानेगी। लेकिन मेघा के मामले में ऐसा नहीं था। मेघा की निष्ठा सराहनीय है। भले ही अनमने मन से लेकनि मेघश्याम शिर्डी गया। शिर्डी में बाबा ने मेघा का स्वागत कैसे किया, यह भी बड़ा दिलचस्प है। 

दादा केलकर ससुर थे साठे जी के। केलकर मेघा का हाथ पकड़े-पकड़े उसे बाबा के पास ले जा रहे थे। मेघा ने जैसे ही मस्जिद में अपना पहला कदम रखा, बाबा गुस्से में बोले-निकालो इस निकम्मे को यहां से!  तू एक ऊंचे कुल का ब्राह्मण है, तू क्या करेगा एक यमन के यहां आकर के? बाबा एक बार इस तरह से गुस्सा हो जाएं, तो फिर दादा केलकर हो या कोई अन्य; उनके सामने कोई ठहर नहीं सकता था। दादा केलकर बोले-तू त्रंबकेश्वर चला जा, वहीं तेरे शिव विराजते हैं, लेकिन यहां मेघा बाबा के चमत्कारिक रूप को देख चुका था। वो सोच में पड़ गया कि आखिर बाबा को उसके मनोभावों का पता कैसे चला? बाबा को कैसे ज्ञात हुआ कि, वो हिंदू-मुस्लिम को लेकर संशय में था? खैर, यहां उसके मन में बाबा की भक्ति की लौ टिमटिमाने लगी थी। वह त्रंबकेश्वर गया और वहां सालभर आराधना की। साठे साहब उसे हर माह पैसा भेजते थे, लेकिन उसका मन त्रंबकेश्वर में नहीं लग रहा था। वह वापस बाबा के पास आना चाहता था, लेकिन डरता था कि बाबा ने जिस तरह उसका पहली बार स्वागत किया था वैसा ही स्वागत उसे दूसरी बार भी न मिले। वह सालभर बाद हिम्मत करके दोबारा शिर्डी गया। 

इस बार वह दादा केलकर को साथ लेकर नहीं गया, बल्कि अकेला जाकर बाबा के चरणों में गिरा पड़ा। उसे बाबा में साक्षात अपने शिव नजर आ रहे थे। धीरे-धीरे वह बाबा के करीब आता गया। मेघा का नियम था कि वह रोज शिर्डी के तमाम मंदिरों में पूजा करता और उसके बाद आकर बाबा की पूजा करता। शिव मानकर वह बाबा को बेल पत्र चढ़ाता। वह जंगल में दूर-दूर जाकर बेल पत्र लाता और बाबा को अर्पित करता। प्रदोष हो शिवरात्रि या फिर शिव का कोई अन्य दिन; वह वहां से 15 किमी दूर कोपर गांव में जाता जहां गोदावरी नदी प्रवाहित होती है। वहां से पैदल जल लेकर आता था। 

एक बार उसने इच्छा जाहिर की-बाबा मैं आपके ऊपर गोदावरी नदी का जल चढ़ाना चाहता हूं। बाबा उसके भावों को समझने और मानने लगे थे। बाबा ने कहा ठीक है चढ़ा दो, लेकिन जो सिर होता है वह शरीर का प्रधान अंग होता है। जल केवल मेरे सिर पर डालो, मेरा बाकी शरीर गीला न हो। अब मेघा तो मेघा हर-हर गंगे करके पूरा का पूरा जल डाल दिया। पूरा कलश उड़ेल दिया, लेकिन वहां खड़े लोगों ने देखा बाबा का केवल सिर भीगा, पूरा शरीर सूखा था। यह बाबा का चमत्कार था।

एक बार मेघा खंडोबा के मंदिर के दर्शन किए बगैर बाबा की पूजा करने आ गया। बाबा ने कहा-तू आज कुछ चूक कर रहा है। मेघा सीधा-सच्चा दिल का इंसान था। वह बोला-बाबा मैं खंडोबा के मंदिर गया था, वहां के द्वार बंद थे। इसलिए मैं तुम्हारी पूजा करने आ गया, क्योंकि तुम फिर लैंडी बाग चले जाते और मेरी पूजा रह जाती। बाबा ने कहा-तू वापस जाकर वहां पूजा करके आ, तब तक मैं यहीं तेरी राह देखूंगा। मेघा मंदिर गया; शिवजी पूजा की और जब आया तो देखा बाबा वहीं बैठे उसका इंतजार कर रहे थे। 

आपने भक्त को भगवान का इंतजार करते सुना होगा, लेकिन क्या कभी भगवान को भक्त का इंतजार करते देखा है? ऐसे हैं हमारे साई। वे अपने भक्तों की भावनाओं का पूरा ख्याल रखते हैं। क्योंकि उनमें अहंकार का अंश नहीं है। वे अपने भक्तों को अपना मित्र समझते हैं।

एक दिन की बाता है, मेघा सोया हुआ था। उसे स्वप्न आया कि बाबा उसके बाड़े में आए हैं और उसके ऊपर चावल के कुछ दाने फेंक रहे हैं। इसके बाद बाबा ने मेघा को आज्ञा दी-मुझे त्रिशूल लगाओ! यह सुनते ही मेघा की नींद उचट गई। वह उठकर बैठ गया। मेघा ने देखा कि, उसके सिरहाने चावल के दाने पड़े हुए हैं। उसे समझते देर नहीं लगी कि, बाबा ने कोई चमत्कार किया है। वह उसी समय बाबा के पास गया। बाबा उठ चुके थे। उन्होंने मेघा से पूछा-क्या हुआ मेघा, तू मुझे बिना त्रिशुल लगाए ही आ गया। मेघा ने सवाल किया-दरवाजा तो बंद था, फिर तुम अंदर कैसे आए बाबा? साई ने जवाब दिया-मुझे कहीं आने-जाने के लिए किसी दरवाजे की जरूरत नहीं होती। मेघा बाबा का आशय समझ चुका था। वह वापस लौटा और बाबा के चित्र के पास लाल सिंदूर से एक त्रिशूल खेंच दिया। तो ऐसा बर्ताव करते थे बाबा अपने भक्तों के संग। एकदम अपनों जैसा। 

एक अन्य घटना सुनिए। कालांतर में पुणे से एक भक्त शिर्डी पहुंचे। वो बाबा को शिवलिंग भेंट करना चाहते थे। सफेद संगमरमर की बनी शिवलिंग। बाबा बोले मुझे ये शिवलिंग भेंट करने का क्या प्रायोजन है भाई? मेघा पास ही में खड़ा था। बाबा उससे बोले-इसे तू ले जा! मजे की बात देखिए, उस समय काका दीक्षित बाड़े में ध्यान लगाए बैठे थे और उनके ध्यान में वहीं शिवलिंग आया। उन्होंने जैसे ही आंखें खोलीं, मेघा वह शिवलिंग अपने गोद में उठाए-उठाए उनके सामने आया। 

मेघा जब तक जीया, उसने उस शिवलिंग की पूजा तो की, लेकिन नूलकर जी के गुजर जाने के बाद बाबा ने उसे अपनी आरती का अधिकार भी दे दिया। तात्या साहब नूलकर के निधन के बाद मेघा ही बाबा की आरती उतारता रहा। और उसके बाद बापू साहेब जोग को यह सौभाग्य मिला। बापू साहेब वह आखिरी व्यक्ति थे, जिन्होंने बाबा की आरती सशरीर उतारी। 

यह भी कहानी सुनिए!
यह ...मुले शास्त्री की कथा है। नासिक के प्रगाढ़ पंडित, अग्रिहोत्र ब्राह्मण, हस्तरेखा विशेषज्ञ। मुड़े को बापू साहब बूटी शिर्डी लेकर आए थे। अमीर लोग अपने साथ ज्योतिषी को जरूर रखते हैं। दरअसल, उनमें अविश्वास की भावना होती है कि पता नहीं कब क्या हो जाए? पैसा बढऩे के साथ-साथ प्रभु में भक्ति कम और ज्योतिषियों-तांत्रिकों में विश्वास अधिक बढ़ जाता है। खैर, मुड़े शास्त्री ने बाबा से निवेदन किया कि, बाबा अपने हाथों की रेखाएं मुझे पढऩे दीजिए। बाबा ने कहा-नहीं; तुम मेरे हाथों की रेखाएं नहीं पढ़ सकते। मुड़े शास्त्री अपने बाड़े में लौटे और फिर पूजा में लीन हो गए। 

उधर, मस्जिद में आरती का वक्त हो गया था। जैसे ही आरती शुरू हुई, तभी बाबा ने बापू साहब से कहा-जाओ उस ब्राह्मण(मुड़े) को बाड़े से बुला लाओ; मुझे उससे दक्षिणा लेनी है। मुड़े के पास जब यह संदेशा पहुंचा, तो वे हतप्रभ रह गए कि, वो एक ब्राह्मण और बाबा यवन; फिर उनसे दक्षिणा कैसे ले सकते हैं? देखिए विधि का विधान! बाबा जैसा संत दक्षिणा मांग रहा है और बापू साहब बूटी जैसा करोड़पति सेठ मुड़े से दक्षिणा लेने आया है। घोर आश्चर्य में घिरे मुड़े शास्त्री बोले-चलिए बापू साहब मैं चलता हूं, लेकिन दक्षिणा तो मैं दे नहीं सकता। दोनों बाड़े से रवाना हुए। वे मस्जिद की सीढ़ी तक जैसे ही पहुंचे, आरती शुरू हो गई। बाबा के चेहरे की लौ देखने लायक थी। आभा से उनका चेहरा चमक रहा था। अचानक लोगों ने देखा कि मुड़े शास्त्री बाबा के चरणों में गिरे हुए उनकी वंदना कर रहे है। दरअसल बाबा की लीला ऐसी ही थी। मुड़े शास्त्री को बाबा में अपने गुरु घोड़क स्वामी के दर्शन हुए थे। 

उसी दिन के सुबह की बात है। सबेरे जब बाबा लैंडीबाग जा रहे थे, तो उन्होंने भक्तों से कहा-गेरूआ लाना आज भगवा रंगेंगे। उस समय तो किसी को कुछ समझ नहीं आया कि, बाबा किसे भगवा रंग में रंगने की बात कह रहे हैं, लेकिन शाम को सारा माजरा स्पष्ट हो गया। जब लोगों ने मुड़े शास्त्री को बाबा के चरणों में पड़ा देखा, तो वे समझ गए कि, बाबा किसे रंगने की बात कह रहे थे? 

दास्यम भगवा यानी अपने भगवन का दास हो जाना। राधा-कृष्ण माई, हाजी अब्दुल बाबा ये सब बाबा के उस श्रेणी के भक्त थे, जिन्होंने बाबा को अपना स्वामी मान लिया था और उनके दास बन गए थे। राधा कृष्ण माई, उनका असली नाम था सुंदरा बाई क्षीरसागर। वे बाल विधवा थीं। 17 वर्ष की उम्र में उनके पति का निधन हो गया था। वे पंढरपुर की रहने वाली थीं। उनसे किसी ने कहा कि शिर्डी के साई बाबा स्वयं पंढरपुर के स्वामी हैं, तुम वहां चली जाओ। राधा कृष्णा माई शिर्डी पहुंचीं और वहीं की होकर रह गईं। वह बाबा की गैरहाजिरी में मस्जिद जाती थीं। धुनी सरकातीं। धुनी से काली पड़ गई दीवारों को साफ करतीं। बाबा जिस राह से लैडी बाग जाते; उसे बुहारती। कभी किसी ओर भक्त ने यह काम कर दिया तो कुछ देर बाद वह देखता कि, सड़क फिर से गंदी हो गई है और राधाकृष्ण माई झाड़ू लगा रही हैं। क्योंकि राधाकृष्ण माई स्वयं वहां कचरा फैला देती थीं, ताकि सड़क साफ करने का सौभाग्य उन्हें ही मिले। 
Radha Krishna Mai sweeping in front of Dwarakamai

कुछ समय तक यह काम बालाजी निवासकर ने भी किया। हाजी अब्दुल बाबा; जिसे बाबा अपना कौवा कहते थे, उन्होंने बाबा के कपड़े भी धोए। दीयों में तेल भी भरा। ये भक्ति का चरमोत्कर्ष होता है कि, आप प्रभु के दास हो जाएं। जैसेे-जैसे आप भक्ति के चरम पर पहुंचते जाते हैं, भक्ति की सीढ़ी चढ़ते जाते हैं, तो प्रभु के दोस्त बन जाते हैं, जैसा श्यामा था। आप अधिकार पूर्वक प्रभु से कुछ भी करा लेते हैं। श्यामा भी बाबा पर ऐसा ही अधिकार रखता था। क्योंकि वह बाबा को यार-दिलदार भी कहता था और देव भी मानता था। 

भक्ति का आखिरी प्रकार है आत्म निवेदनम। आप ईश्वर के हो जाते हो; अपना संपूर्ण उनको दे देते हो। यह 1906 की बात है। काका साहब दीक्षित एक दुर्घटना का शिकार हो गए। उनका पांव टूट गया। वह लंगड़ा कर चलते थे। नाना साहब चांदोरकर ने काका साहब से कहा कि, चलो मैं तुम्हे संत से मिलवाता हूं। काका साहेब ने मायूस होकर उत्तर दिया, अपने संत से निवेदन करो कि पैर की पंगुता की बजाय वह मेरे दिल की पंगुता को दूर कर दें। 
 
काका साहेब लोनावला में रहते थे। इंग्लैड से लौटने के बाद काका साहब ऐसे व्यक्ति थे, जिनके घर जो जाता, वो भूखा नहीं लौटता था। यानी लोग यह तक कहने लगे थे कि, लोनावाला में होटलवाले परेशान हैं, क्योंकि काका साहब सबको मुफ्त में भोजन कराते हैं। खैर काका साहेब बाबा से मिले और फिर बाबा के ही होकर रह गए। सबकुछ बेच दिया। एक मुकदमा आया उनके पास राजपरिवार का। बाबा से ऐसी लगन लगी थी कि, उनसे अनुमति मांगी-क्या मैं यह मुकदमा लड़ लूं? बाबा ने कहा-जाओ लड़ो। उस जमाने में काका साहब को वह मुकदमा जीतने पर लाखों रुपए फीस के तौर पर मिले। लेकिन काका साहेब तो बाबा के हो गए थे। उन्होंने नोटों से भरा सूटकेस बाबा के सामने रख दिया। बाबा ने भी उनकी परीक्षा ले डाली। जो भी बाबा के सामने आया, उन्होंने मुक्त हाथों से काका साहेब द्वारा दिए गए पैसे बांट दिए। लेकिन काका साहब के चेहरे पर रत्तीमात्र भी शिकन नहीं आई। वह तो बाबा से एकाकार हो चुके थे। बााब के शरणागत हो गए थे। 

काका साहेब ने बाबा के शरीर छोडऩे के बाद श्री साई बाबा संस्थान शिर्डी की स्थापना की। उसे एक मुकाम तक पहुंचाया। उसमें जितनी भी न्यायिक परेशानियां थीं, केस लड़कर उन्हें दूर किया। बाबा जब देह रूप में थे, तब उन्होंने काका साहेब से कहा था-मैं तुझे लेने के लिए पुष्पक विमान भेजूंगा, तेरा समय आने पर। ऐसा हुआ भी। संस्थान का कामकाज देखते-देखते काका का वक्त बीत रहा था। एक दिन वे कहीं जाते वक्त मनमाड़ से ट्रेन में चढ़े। उनके साथ दो साथी और भी थे। साई की बात करते-करते अचानक काका साहेब ने अपना सिर एक साथी के कंधे पर रख दिया। यानी विमान आ गया था। काका साहब अपने साई के पास चले गए थे। बाबा ने उन्हें आत्मसात कर लिया था अपने अंदर। यही है आत्म निवेदन।

Thursday, 19 March 2015

मन से याद करो; बाबा को वहीं पाओगे..


मन से कुछ भी चाहोगे; पूरी होगी आस ।
बाबा हर पल साथ हैं रखोगे गर विश्वास ।


गुुरु की महिमा के बारे में कितना भी लिखो; बखान करो, कम है। इस ब्रह्मांड में गुरु से बड़ा कोई नहीं। ईश्वर, मात-पिता और दोस्तों के गुण एकसंग जिस व्यक्ति में मिलते हैं, वो गुरु कहलाता है। साई ने गुरु के महत्व को अच्छे से प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने भक्तों को बताया कि, जीवन में गुरु का क्या महत्व है। बाबा ने यह भी बताया कि; जितना एक शिष्य के लिए गुरु की आवश्यकता है, उतनी ही गुरु के लिए एक अच्छे शिष्य की। जब तक एक शिष्य में अपने गुरु के लिए भक्ति न हो; उसकी शिष्यता अथवा भक्ति फलीभूत नहीं होती।


एक बार का किस्सा है। आनंद राव पाटणकर नामक एक व्यक्ति बाबा से मिलने शिर्डी पहुंचे। बाबा अकसर छोटी-छोटी कहानियों में बात करते थे। उनको समझना मुश्किल था। केवल एक-दो शिष्य ही बाबा का आशय पकड़ पाते थे। दरअसल, बाबा की बातों में गूढ़ रहस्य छिपे होते थे। बाबा अंतरयामी है। वे भूत-वर्तमान और भविष्य तीनों के ज्ञाता हैं, लेकिन हम-तुम अपने भूत और वर्तमान के अलावा कुछ नहीं जानते। हमें यह नहीं पता होता कि; हमारा आने वाला कल कैसा होगा? भूत और वर्तमान भी अब सिर्फ अपना जानते हैं, दूसरों की जिंदगी में क्या गुजरा और क्या चल रहा है; यह भी हमें नहीं पता होता। लेकिन बाबा सबके बारे में सबकुछ जानते थे। यही कारण है कि, जब वो कुछ बात करते; तो वे सामने वाली के भूत-वर्तमान और भविष्य तीनों का बखान कर देते। यह बात हर कोई नहीं समझ पाता था।

खैर, आनंद राव जब शिर्डी में बाबा के दर्शन करने मस्जिद पहुंचे, तो बाबा ने बगैर आगे-पीछे कुछ यह बात बोल दी, एक व्यापारी के घोड़े ने यहां 9 जगह लीद कर दी थीं। इस बात का न ओर न छोर, अचानक बाबा ने ऐसा क्यों कहा; आनंदराव को समझ नहीं आया। बाबा के अनन्य भक्त काका साहब दीक्षित वहीं पर हाजिर थे। वे आनंदराव के हैरानी को भाप गए। उन्होंने कहा, 9 लीद से बाबा का अर्थ है नव विधा भक्ति यानी भक्ति के 9 प्रकार। श्रवणम, कीर्तनम, विष्णु स्मरणम, पाद सेवनम, अर्चनम, दास्यम, संख्यम,.... और आत्म निवेदनम। यानी साई की हमसे जो बात चल रही है, वह कथा श्रवणम से शुरू होगी और आत्म निवेदनम पर खत्म होगी। हमारे ऋषियों ने तो बहुत पहले आत्म निवेदनम का जिक्र किया था। 

प्रबंधन यानी मैनेजमेंट (एमबीए) के विद्यार्थियों को मैसलोस हैरारकी ऑफ नीड भी पढ़ाया जाता है। उसमें भी यही लिखा कि; जैसे-जैसे हमारी इच्छाएं तृप्त होती जाती हैं, तो आत्मनिवेदन की स्थिति आती है। बाबा लोगों से कहा करते थे कि, रामायण, भागवत, महाभारत सब पढ़ा करो। जो लोग किसी कारण-अकारण नहीं पढ़ पाते थे; बाबा उनसे कहते कि; तुम सुनो। तुम्हारे कान में यदि हरि का नाम पढ़ जाएगा ना; तो भी तुम भक्त हो गए। श्रवण सबसे आसान प्रकार की भक्ति है। बापू साहब बाबा की आरती उतारा करते थे। एक बार बाबा ने उनसे कहा,तुम एकनाथी भागवत पढ़ा करो और बाकी लोग उसे सुना करेंगे। प्रभु का नाम जैसे-जैसे आपकी जुबान पर आता जाएगा, आपके पाप कटते जाएंगे। जो आपको सुन रहे होंगे, उनका भी उद्धार होगा।

बाबा की बातों में गहराई होती थी। ऐसी गहराई; जिसमें डूबकर आदमी के पाप धुल जाएं। अगर आप अच्छे प्रयोजन की कोशिश करते हैं, सफलता कितनी मिलती है; इसकी परवाह किए बगैर, तो आपके हाथ कुछ न कुछ तो अच्छा लगेगा ही। जैसे बाल्मीकि डाकू। उसे किसी ने सलाह दी-तुम राम का नाम लो। उसे बात ठीक से समझ नहीं आई। क्योंकि उसकी जिंदगी तो लूटपाट में गुजर रही थी। उसे इन सब बातों से क्या लेना-देना था? खैर, हर इंसान के अंदर एक अच्छाई भी छुपी होती है, आत्मचिंतन की। उसे बेशक कुछ समझ नहीं आया कि उसे क्या बोलना है? फिर भी उसने प्रयास किए। वह मरा-मरा बोलता रहा। प्रयास उल्टा था, लेकिन जब उसके बोलने की गति तेज हुई, तो उच्चारण राम-राम निकलने लगा। ठीक वैसे ही, जब हम किसी काम को सीखने की कोशिश करते हैं, तो कई बार उल्टी-सीधी बातें हो जाती हैं। लेकिन निरंतर अभ्यास के बाद हम उसमें महारथ हासिल कर लेते हैं। बाल्मीकि के साथ भी ऐसा ही हुआ। वो धीरे-धीरे राममय हो गया और फिर रामायण जैसे अमर महागं्रथ की रचना कर दी। 
जब हम येन-केन-प्रकारेण दु:खी होने लगते हैं, तो बाबा का स्मरणम करने बैठ जाते हैं। बाबा की आरती में भी यही बात है। 
तुमसे नाम ध्याता। इसका आशय यह हुआ कि; बाबा तुम्हारा नाम ध्यान यानी स्मरण मात्र से ही हमारी सारी व्याधियां दूर हो जाती हैं।
अब बात करते हैं पाद सेवनम की! हेमाडपंत ने अपने गं्रथ श्री साई सतचरित्र के अध्याय 22 में बाबा की इस मुद्रा के बारे में लिखा है। उन्होंने बहुत सुंदर तरीके से इसका वर्णन किया है। वे लिखते हैं, बाबा शिला(पत्थर) पर बैठे हैं। उनका बायां पांव नीचे है। दायां पांव घुटने से मुड़ा हुआ बायें पैर के घुटने के ऊपर रखा हैं। उनके बाएं हाथ की उंगलियां पंजे पर रखी हैं। उसमें से उनके अंगूठा स्पष्ट दिखता है। 
Shri Hemadpant

महाराष्ट्र में रिवाज चला आ रहा है। अमावस्या जैसे ही खत्म होती है और दूज का चंद्रमा प्रकट होता है, लोगअपने हाथ में एक सिक्का लेकर टहनी के बीच से चंद्रमा को निहारते हैं। लोग उससे यह प्रार्थना करते कि; जिस तरह तुम्हारे स्वरूप में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाएगी, उसी तरह मेरी सुख-समृद्धि में भी वृद्धि होती जाए। 

हेमाडपंत की कल्पना देखिए! उन्होंने बाबा के बायें पैर के अंगूठे को चंद्रमा के सदृश्य बता दिया। हेमाडपंत ने लिखा-बाबा के चित्र को जो भी ध्यान से देखेगा और इस अंगूठे को ध्यान में रखेगा उसकी सारी व्याधियां नष्ट हो जाएंगी। यही है पाद सेवनम! दरअसल, किसी भी कार्य के लिए एकाग्रचित्त होना अत्यंत आवश्यक है। उदाहरण, जब भी कोई खिलाड़ी खेल शुरू करता है; तो वो अपना सारा ध्यान इधर-उधर से समेटकर खेल पर एकाग्र करता है। ध्यान या पूजन-पाठन में भी एकाग्रचित्त होना आवश्यक है। सम्मोहन के दौरान भी एकाग्रचित्त होना पड़ता है। ठीक वैसे ही बाबा का अंगूठा हमें एकाग्रचित्त होने में सहायक है। हम टकटकी बांधे बाबा का अंगूठा निहारते हैं, तो हमारा सारा ध्यान उसी पर हो जाता है। बाकी; यहां-वहां क्या चल रहा है, हम भूल जाते हैं। जब तक कोई बात या चीज हमारे दिमाग में चलती रहेगी; हम उसे लेकर व्याकुल बने रहेंगे। यानी हमारी तकलीफ दूर नहीं होगी। जब हमें चोट लगती है; जख्म होता है, तो उसकी पीड़ा हमारे तंत्रिका तंत्र के जरिये हमारे दिमाग तक पहुंचती है तंत्रिका तंत्र लगातार अपना काम करता है, जब तक हम अपने मर्ज का इलाज नहीं करा लेते। यानी वो हमारा ध्यान उस पीड़ा पर बराबर बनाए रखता है। जरा-भी नहीं हटने देता। सोचिए; अगर हमारा तंत्रिका तंत्र काम करना बंद कर, तो क्या हम भावनाएं, पीड़ा आदि महसूस कर पाएंगे; बिलकुल नहीं। बाबा का अंगूठा हमारे लिए एक तंत्र का काम करता है। जैसे ही हमारी आंखों उस पर ध्यान गड़ाती हैं, वो हमें बुराइयों से दूर कर अच्छाइयों की ओर एकाग्र कर देता है।

 दास गणु महाराज को एक बार प्रयाग स्नान की इच्छा हुई। बिना बाबा की मर्जी के तो वे जा नहीं सकते थे। गणु महाराज ने बाबा से अनुमति मांगी। बाबा ने कहा तू प्रयाग क्यों जा रहा है गणु? गंगा तो यहीं है। यह कहकर उन्होंने दोनों पैर नीचे रख दिए और उसमें से गंगा प्रवाहित हो चली। यह बाबा का चमत्कार था। वे अपने भक्तों को हमेशा अपने पास रखते थे।
Dasganu Maharaj

तब की एक कहानी...
हमारे दिल में हमारे अपने हमेशा मौजूद रहते हैं। वे कहीं भी; कितनी भी दूरी पर रहते हों, जब भी हम उन्हें याद करते हैं, यूं लगता है गोया वे हमारे सामने खड़े हों। बाबा के साथ भी ऐसा ही है। अगर हम उन्हें सच्चे मन से याद करते हैं, तो मानकर चलिए; वे हमारे संग खड़े हैं। बाबा अकसर उन लोगों से कहा करते थे, जो किसी कारणवश शिर्डी से बाहर जा रहे होते थे; या जिन्हें सदा के लिए दूर जाना पड़ रहा होता था कि; तुम क्या समझते हो, मैं क्या सिर्फ शिर्डी में हूं? तुम जहां याद करोगे मैं वहां भी हूं।

सच भी है, बाबा तो हमारे मन के अंदर बैठे हैं। आवश्यकता उन्हें याद करने की है। बाबा का व्यवहार बड़ा विचित्र रहा है। वे अचानक कभी गुस्सा हो जाते थे, तो कभी बड़े प्यार से उनके साथ हंसी-ठिठौली करते थे। दरअसल, यह बाबा का चरित्र था। उनकी हर अदा में कुछ न कुछ विशेष प्रयोजन छुपा होता था। अगर वे किसी भी अचानक ही नाराज हुए हैं, तो इसका मतलब यह था कि; वे सामने वाले की किसी बड़ी गलती से बचाने का प्रयास कर रहे हैं, जो वो जाने-अनजाने भविष्य में करने वाला था। अगर बाबा यकायक विनोदी स्वभाव अख्तियार कर लें, तो जान जाइए कि, वे आसपास के वातावरण को सहज बनाने का प्रयास कर रहे हैं, जो किसी कारण से नीरस हो चला है। 

ऐसा ही एक उदाहरण है, जब बाबा ने विनोदी स्वभाव अपनाया और तात्या साहब नूलकर से अपनी विचित्र तरीके से पूजा-अर्चना कराई। यह 1910 गुरुपूर्णिमा की बात रही होगी। शिर्डी में उस दिन किसी को याद नहीं रहा कि; आज गुरु पूर्णिमा है उस दिन। बाबा ने सबेर-सबेरे श्यामा से कहा-ऐ श्यामा! उस बुड्ढे को बुला ला और कहना कि धूनी के सामने जो खंभा है, वो उसकी पूजा करें। तात्या साहब पेशे से जज थे। बाबा से उनका मन ऐसा मिला की; उन्होंने अपनी नौकरी त्याग दी और शिर्डी आकर बस गए। तात्या आए और खंभा की पूजा करने लगे। बाद में लोगों को पता चला कि; बाबा ने ऐसा क्यों किया? दरअसल, लोगों को याद कराने कि; आज पूर्णिमा है और मस्जिद में विशेष आयोजन होना है। हालांकि साई बाबा अपनी पूजा कराने से बचते थे। खैर, आइए इसके पीछे की पूरी कहानी बताते हैं।
Shri Tatya Saheb Noolkar

तात्या साहब को शिर्डी लाने वाले व्यक्ति थे नाना साहब चांदोरकर। इसका भी किस्सा है। तात्या साहब नूलकर ने शर्त रखी कि; मैं दो ही शर्ता पर शिर्डी चलूंगा, पहली-मुझे अपने लिए बढिय़ा-सा ब्राह्मण रसोइया चाहिए, दूसरी-बाबा को भेंट देने के लिए बढिय़ा से संतरे चाहिए। चूंकि बाबा चाहते थे कि; तात्या उनके पास आएं, इसलिए उन्होंने एक लीला रची। नाना के पास एक व्यक्ति घूमते-घूमते आया। उसे नौकरी की तलाश थी। नाना ने कहा क्या काम करते हो भई? उसने कहा-रसोईयां हूं। नाना ने उसका नाम पूछा, तो वह ब्राह्मण निकला। यानी तात्या की एक शर्त तो पूरी हो गई। उनके साथ जाने के लिए ब्राह्मण रसोइया मिल गया था।

अब सवाल था, दूसरी शर्त पूरी होने का। उसे भी बाबा ने ऐसे पूरा किया। नाना साहब डिप्टी कलेक्टर थे, इसलिए उन्हें गिफ्ट वगैरह खूब मिलती थीं। एक दिन कोई आकर उन्हें संतरे की पेटी भेंट में दे गया। इस तरह तात्या की दूसरी शर्त भी पूरी हो गई। इसके बाद नाना साहब चांदोलकर ने तात्या से कहा-अब शिर्डी चलो! तात्या साहब के पास अब तो कोई चारा ही नहीं बचा था। वह चल पड़े। 

अपने पद के अहंकार में जीने वाले तात्या जैसे ही बाबा के दर्शनों को पहुंचे, बाबा के चेहरे का तेज देखकर भाव-विभोर हो गए। उनका अहंकार आंखों से अश्रु बनकर बह निकला। बाबा के समक्ष आने के बाद तात्या अपनी जजगीरी की अकड़ भूल गए। वे बाबा से मिलकर वापस घर लौटे, तो उसके बाद कहीं मन नहीं रमा। नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और शिर्डी में आकर एक छोटा सा घर लेकर वहीं बस गए। 


तात्या को बाबा प्यार से बुड्ढा कहते थे। इन्हीं के लिए बाबा ने श्यामा से कहा था कि, जा उस बुड्ढे से खंभे की पूजा करने को कह। श्यामा को समझ नहीं आया कि बात क्या है। वह दौड़ा-दौड़ा गया बाबा केलकर के पास। वे पंचाग देखते थे। उन्होंने पंचाग देखा, तो बताया कि आज तो गुरु पूर्णिमा है। आज गुरु की पूजा करते हैं। बाबा खंभे की पूजा नहीं करवाना चाहते थे। वे तो यह चाहते थे कि सब लोग अपने गुरुजनों को याद करें। इस खंभे को प्रतीक मानकर उनकी पूजा करें। श्यामा ने बाबा केलकर से कहा, हमारे गुरु तो हमारे देवा; हमारे साई बाबा हैं, लेकिन बाबा तो अपनी पूजा कराने से पीछे भागते थे? अब बेचारे भक्त क्या करें, शिष्य अपने गुरु यानी बाबा की गुरुपूर्णिमा पर पूजा-अर्चना कैसे करें? श्यामा के दिमाग में यह चल रहा था कि, अब बाबा को मनाया कैसे जाए कि, वे सब उनकी पूजा करना चाहते हैं। 

श्यामा बाबा के पास पहुंचे और अपने मन की बात रखी। बाबा नानुकुर करने लगे, लेकिन श्यामा तो श्यामा थे, अड़ गए कि; बाबा आज तो हम तुम्हारी पूजा जरूर करेंगे। आज तुम मना नहीं कर सकते। हम तो उस खंभे की नहीं तुम्हारी ही पूज करेंगे। श्यामा ने बाबा को जबर्दस्ती; प्रेमपूर्वक; हठपूर्वक उठाया और धूनी के सामने लगे खंभे के पास लेकर बैठा दिया। मालसापति ने बाबा को चंदन लगाया। श्यामा ने पांव पखारे और बाबा केलकर पंखा झलने लगे। इसके बाद शिर्डी में वो हुआ; जो पहले कभी नहीं हुआ था। बाबा की आरती उतारी गई। बाबा की आरती उतारने वाले पहले शख्स थे तात्या साहब नूलकर। 
Shama

आज हम लोग बाबा की आरती उतारने के लिए लालायित रहते हैं, लेकिन सबसे पहले किसने बाबा की आरती उतारी थी; वो शायद किसी को याद भी न हो। बाबा तो सर्वस्त्र और सर्वदा हैं, लेकिन उन्होंने अपने कुछ शिष्यों को भी अमरत्व प्रदान कर दिया। अमरत्व उन्हें ही नसीब होता है, जो पूरी तरह से खुद को बदल देते हैं। अपना सर्वस्थ्य देश और समाज को समर्पित कर देते हैं। लोगों की सेवा में अपना तन-मन-धन अर्पित कर देते हैं। 

इस बात जिक्र यहां इसलिए किया है, ताकि अब जब भी आप बाबा की आरती उतारेंगे; तात्या साहब नूलकर को याद जरूर करेंगे। तात्या के बाद बाबा की आरती किसने उतारी; यह भी जान लीजिए। दरअसल, तात्या साहब नूलकर युवावस्था में स्वर्ग सिधार गए। बाबा ने उन्हें कैसे मोक्ष प्रदान किया; देखिए। 

तात्या साहब अंतिम सांसें भर रहे थे। उन्हें कोई गंभीर रोग हो गया था। अंत समय में उन्होंने श्यामा से यही कहा; मुझे बाबा के चरणो का तीर्थ मिल जाए। उस वक्त रात का 1 बज रहा था। किसी की हिम्मत नहीं थी कि; वह बाबा को नींद से उठाए इस समय। सिर्फ श्यामा ही इसकी जुर्रत कर सकते थे। श्यामा बदहवास; हाथ में कटोरा लेकर मस्जिद की ओर भागे। तेजी से मस्जिद का दरवाजा खोला। खटर-पटर की आवाज से बाबा की नींद टूट गई। बाबा ने गुस्से में पूछा, श्यामा रात को क्यूं आया तू? श्यामा ने तुरंत जवाब दिया-बाबा नूलकर जा रहा है। वह चाहता है कि उसे तुम्हारे चरणों का तीर्थ मिल मिले। बाबा ने कहा, क्या करूं मैं? श्यामा ने कहा-कुछ मत करो। ये कटोरा लाया हूं। उसके अंदर कुणम्बा से पानी भर रहा हूं उसमें अपने पैर रखो। यह कहने की हिम्मत और किसी में नहीं थी। यह केवल श्यामा कह सकते थे। श्यामा ने पास में रखे मटके याने कुणम्बा से पानी लिया और बाबा ने उसमें अपने पैर रख दिए। श्यामा ने ले जाकर वह तीर्थ नूलकर को पिला दिया। नूलकर ने साई-साई कहते हुए अपने प्राण त्याग दिए। मस्जिद में बाबा के साथ मालसा भी सोते थे। जैसे ही तात्या ने प्राण त्यागे; उसी वक्त बाबा ने मालसा से कहा, नूलकर भगवान में मिल गया। 

इस किस्से का जिक्र करना इसलिए लाजिमी था; ताकि जब बाबा की आरती उतारें, तो उनके पहले भक्त का स्मरण करें। बाबा ने जो भी लीलाएं रचीं; वो अपने भक्तों के माध्यम से ही रची। मेघश्याम गुजरात से था। वीरन गांव से। राय बहादुर हरि विनायक साठे, जिन्होंने पहली बार शिर्डी में भक्तों के रहने के लिए बाड़ा बनवाया। मेघा उनके यहां रसोइयां का काम करता था। 

संगत का असर..

पुण्य करो निस्वार्थ से; न करो कोई अहंकार।
लेखा-जोखा व्यर्थ है, करके कोई उपकार।।

जीवन को अच्छा और बुरा बनाने में संगत का बहुत असर पड़ता है। आप जैसी संगत में रहेंगे; आपके मन में वैसे ही विचार जन्म लेंगे। आपका आचरण वैसा ही होता चला जाएगा। लुटेरों के हाथों हुई मारपीट से मरणासन्न अवस्था में पहुंचे काशीनाथ दर्जी के मामले में भी ऐसा ही हो रहा था। बाबा ने कभी भी उससे मुफ्त में कफनी नहीं सिलवाईं। बाबा आदमी की मेहनत का पूरा-पूरा सम्मान करते थे। कहावत है घोड़ा घास से यारी करेगा, तो खाएगा क्या? कपड़े सिलना ही काशीनाथ का पेशा था। अगर बाबा उससे नि:शुल्क कफनी सिलवाते; तो वो अपने और अपने परिवार के लिए दाना-पानी का प्रबंध कैसे कर पाता। 

...और अगर बाबा की देखादेखी उनकी संगत में रहने वाले दूसरे लोग भी बाबा की धौंस दिखाकर या उनके बिहाफ में मुफ्त में कपड़े सिलवाने लग जाते; तो बेचारे काशीनाथ की जिंदगी का क्या होता? जब कड़ी मेहनत के बावजूद उसे भूखे मरने के लाले पड़ जाते, तो निश्चय ही वो पैसा अर्जित करने कोई तिकड़में लड़ाता। हो सकता था कि; वो गलत राह पर चल पड़ता।

बहरहाल, काशीनाथ को भी अहंकार ने जकड़ लिया। पैसे के अहंकार ने। वो अकसर बाबा को दक्षिणा देने की कोशिश करता। वो भी इसलिए ताकि देखने वालों को लगे कि; बाबा की फिक्र में काशीनाथ कितना धन खर्च करता है। यह बात 1890 के आसपास की हो सकती है। हालांकि बाबा तो ठहरे अंतरयामी। उन्हें सबके मन की बात पता था कि; कौन किस प्रयोजन से कोई काम कर रहा है। इसलिए बाबा काशीनाथ को मना करते थे कि; उन्हें दक्षिणा की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन काशीनाथ अपने अहंकार के कारण बाबा की बात मानने से इनकार कर देता और नित्य बाबा से कहता, मुझसे आप दक्षिणा ले लो। मैं आपके दीप के लिए तेल ले आऊं, आपके कपड़े बनवा दूं? आखिरकार बाबा उससे दक्षिणा ले लेते; और वो इसलिए ताकि वक्त आने पर काशीनाथ का अहंकार दूर किया जा सके। बाबा उसके पैसों को हाथ भी नहीं लगाते थे। बाबा ने काशीनाथ का दिल रखने के लिए कभी उससे एक आना; तो कभी दो आना लेना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे यह नियम हो गया कि काशीनाथ से वह कुछ न कुछ दक्षिणा जरूर लेते। पर देखिए बाबा की संगत में रहने के बाद भी काशीनाथ का दिल अहंकार से खाली नहीं हुआ। उसके दिल में यह आ गया कि मैं दाता और बाबा पाता।


आखिकार एक दिन बाबा ने काशीनाथ का गुरूर तोडऩे की लीला रची। बाबा ने काशीनाथ से दक्षिणा मांगना शुरू कर दिया; वो भी अपनी इच्छा के अनुरूप। शुरुआत में काशीनाथ को बेहद खुशी हुई कि; यह तो बहुत बढिय़ा हुआ! बाबा खुद उससे दक्षिणा मांग रहे हैं। यानी उससे बड़ा कोई दानी नहीं! लेकिन उसे क्या पता था कि; बाबा दक्षिणा मांगने के जरिये उसे क्या पाठ पढ़ाने जा रहे हैं। काशीनाथ से बाबा अब स्वयं दक्षिणा मांगते रहे और वो उन्हें गुुरूर के साथ देता रहा। आखिरकार एक दिन ऐसा आया; जब काशीनाथ के पास कुछ न बचा। घर में खाने-पीने के लाले पड़ गए। काशीनाथ को अब कुछ समझ नहीं आ रहा था कि, वो क्या करे? घर में कुछ बचा नहीं; और यदि बाबा ऐसे ही दक्षिणा मांगते रहे, तो फिर तो उसके भीख मांगने की नौबत आ जाएगी। चिंताओं ने काशीनाथ को घेर लिया। वो परेशान हो उठा, लेकिन अहंकारवश वो बाबा के सामने अपनी व्यथा नहीं बता सका। हालांकि बाबा ने उसके माथे की सलवटें पढ़कर उसके अंदर मची हलचल का आकलन कर लिया। बाबा तो ठहरे अंतरयामी; भला उनसे क्या छुपा था। वैसे भी यह लीला तो उन्होंने स्वयं रची थी, ताकि काशीनाथ का अहंकार दूर हो और वो सद्मार्ग पर चल पड़े।

अंतत: एक दिन बाबा ने उससे कहा, काशीनाथ जब तू दक्षिणा देता है, तब अहंकार क्यों करता है रे? मैं तो ठहरा फकीर। तू कितना भी कुछ मुझे दे दे; मेरे पास तेरा दिया कुछ नहीं बचेगा। तू तो घर गृहस्थी वाला है रे, अहंकार अपने अंदर मत ला। काशीनाथ को समझते देर नहीं लगी कि; बाबा पहले उसे दक्षिणा लेने से मना करते थे, लेकिन बाद में क्यों मांगने लग गए थे। काशीनाथ बाबा के पैरों में गिर पड़ा। उसे अपनी गलती का अहसास हो चुका था। बाबा के चरणों में गिरते ही काशीनाथ का अहंकार काफूर हो गया। उस दिन के बाद से काशीनाथ की किस्मत ने फिर पलटा खाया। शिर्डी वाले तो कहते हैं कि, काशीनाथ की किस्मत ऐसी चमकी कि; वो पहले से ज्यादा धनवान हो गया। 

बाबा ने यह लीला सिर्फ काशीनाथ के अहंकार को तोडऩे के लिए नहीं रची थी; बल्कि इसके जरिये वे दूसरे लोगों को भी एक सीख देना चाहते थे। बाबा ने कई मौकों पर कहा, यदि हम किसी को दान-दक्षिणा या उपकार में कुछ चीजें देते हैं या विकट परिस्थितियों में किसी की मदद करते हैं, तो आंखों में आंखें डालकर अपने धनवान-बलवान होने का दंभ न भरें। क्योंकि जो आपसे लेता है; उसकी आंखों में हमेशा शर्म होती है, धन्यवाद का भाव होता है। उसकी आंखों में नमी होती है। लेकिन अगर आप अहंकारवश उसे कुछ दे रहे होते हैं, तो आपकी आंखों में खुद के महान होने का भाव झलकता है। आपकी महानता का बखान किसी और को करने दीजिए; स्वयं न करें। एक बड़ा आदमी, अच्छा आदमी वो है, जिसकी तारीफ लोग करें, न कि वो स्वयं।

एक दिन की बात है बाबा से किसी ने सवाल पूछ लिया, सारी दुनिया ईश्वर को पूजती है, लेकिन वो तो दिखता ही नही है? जवाब मिला, तुम्हें जो चांद-सूरज, पृथ्वी, हवा-पानी आदि मिले हैं, वो किसने दिए? तुम्हारी रगो में जो खून बहता है, वो कैसे बनता है? तुम्हारी धड़कनों को सांसें किसने दीं? घर-गृहस्थी बसाने की तरकीब किसने सिखाई? रोजी-रोटी की समझ कहां से आई? सवाल करने वाला निरुत्तर।

दरअसल, बाबा का यही मानना रहा कि; जो चीज दिखती नहीं है, इसका मतलब यह नहीं कि, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। हवा हमें कहां नजर आती है? हमारे दिल को कौन धड़का रहा है, क्या कभी किसी ने देखा? हमारी आंखों में जो रोशनी है, वो किसने दी? यही सब तो ईश्वर है। ऊर्जा ही तो ईश्वर है। इस संसार में जो कुछ है, वो सभी ईश्वर की ही तो देन है। ईश्वर बड़ा विनम्र है। हमें इतना सब देने के बाद वह यह नहीं देखना चाहता कि हम लेते-लेते कितने शर्मसार हैं, इसीलिए वह सामने नहीं आता।

एक सज्जन ने प्रश्न उठाया, कहते हैं कि; ईश्वर हमारे मन में बसता है, फिर बुराइयां कैसे जन्म ले जाती हैं? उत्तर मिला, एक अकेले दूध से कितनी चीजें बनती हैं, लेकिन क्या कच्चे दूध में वो सब दिखाई देती हैं। उदाहरण, मक्खन भी दूध से बनता है। लेकिन जब तक दूध को मथा नहीं जाए, वो बाहर नहीं निकलता। जब हम मक्खन के लिए दूध को मथते हैं, तो उसे मठा भी निकलता है। दोनों के गुण-दोष अलग-अलग होते हैं। उपयोग करने का तौर-तरीका भी अलग-अलग। किसे कब और कैसे इस्तेमाल करना है, यही सूझबूझ व्यक्ति को इनसान बनाती है। जैसे; जो व्यक्ति मोटा है, अगर वो रोज खूब-खूब मक्खन खाए, तो उसकी चर्बी बढ़ती जाएगी और उसकी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है। वहीं; जब गला खराब हो और सीधे कच्चा म_ा पी लिया जाए, तो तबीयत और नासाज हो सकती है। लेकिन दोनों को सही वक्त और सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए, तो फायदेमंद भी है। जैसे म_ा की कढ़ी बनाकर गर्म-गर्म सर्दी होने पर खाई जाए, तो आराम मिलता है। गर्मियों में म_ा ठंडक पहुंचता है।

ठीक वैसी ही स्थिति हमारे मन के अंदर बैठे ईश्वर की है। अगर हम अपने मन को ठीक से मथेंगे, तो ईश्वर किसी न किसी रूप में हमारे सामने आ जाएंगे। हमारी मदद करेंगे। अगर हमने मथते वक्त अहंकार का भाव रखा, तो दूध खराब भी हो सकता है। मतलब; हमें अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे।

तब की एक कहानी...
शिरडी में रहते थे रघु पाटील। एक बार वे नेवासे में रहने वाले बालाजी पाटील के घर गए। दिन अच्छा बीता। ढेरों बातें हुईं। शाम को अचानक उन्होंने देखा कि; गौशाला में एक सर्प घुस आया है। सभी पशु डर के मारे यहां-वहां भागने लगे। लेकिन बालाजी के मन में आया कहीं यह साई तो नहीं? क्योंकि बाबा लोगों को सीख देने नये-नये तौर-तरीके अपनाते थे। वे फौरन दौड़े और घर से एक प्याला दूध ले आए। फिर विनम्र भाव से बोले, बाबा आप डराइए मत, दूध पीजिए। कुछ देर बाद सर्प वहां से चला गया। वो सर्प बाबा भी हो सकते थे और असली सर्प भी। 

दरअसल, यह ईश्वर के होने का आभास था। जैसे अगर हम सर्प को मारने की कोशिश करते, तो निश्चय ही वो भी फुफकारता, पलटवार करता। लेकिन बालाजी ने उसे दूध पिलाया, तो वो चला गया। ठीक वैसी ही स्थिति हमारे मन की है। अगर हम मन में बैठे विकारों को जबरन मारने की कोशिश करेंगे, तो वे और बलशाली होंगे। उन्हें तो बस प्यार से; सहज भाव से दूर किया जा सकता है। 

Monday, 16 March 2015

सोच पवित्र हो, तो बाबा हर मुराद पूरी करते हैं..

मन से मांगो सब मिले; और जीवन बने सफल।
बाबा का उपकार हो, मन माफिक मिलता फल।

जो सपने देखते हैं और उन्हें साकार करने की दिशा में अग्रसर हो जाते हैं, वे जीवन में सफल हैं। अगर आपकी नीयत साफ है नियति भी अच्छी ही होगी। हम मंदिर जाते हैं क्यों? ताकि हमारा मन दूषित भावनाओं से बचा रहे। बाबा के पास भी हजारों/लाखों लोग इसी उद्देश्य को लेकर पहुंचते रहे और आज भी शिर्डी रहे हैं। साई की महिमा अपंरपार है। वे अपने भक्तों से ऐसे मिलते हैं, ऐसा बर्ताव करते हैं, जैसे जन्म-जन्मांतर का रिश्ता हो। बाबा के दरबार से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा। अगर आप सच्चे मन से बाबा से कुछ मांगते हैं, तो यकीनन आपकी मनोरथ पूरी होगी। ऐसे ही कुछेक किस्से आपसे शेयर करता हूं।

एक थे होलकर, जो औरंगाबाद में रहते थे। उनकी पहली पत्नी से एक बेटा था। दूसरी शादी को करीब 20 साल होने को आए थे, लेकिन संतान का सुख नहीं था। उन्हें एक बच्चे की और कामना थी। एक रोज उनकी पत्नी सौतेले बेटे के साथ बाबा के दर्शन करने आईं। कई दिन वह शिर्डी में रहीं, लेकिन बाबा से इल्तजा नहीं कर पाईं। दरअसल, बाबा के दरबार में भीड़ ही इतनी रहती थी। आखिरकार उन्होंने श्यामा से कहा, बाबा से दरख्वास्त कर दो कि, मेरी गोद भर जाए। श्यामा तो बाबा पर जैसे अधिकार-सा रखते थे। श्यामा ने श्रीमती होलकर ने कहा, चलो मेरे साथ बाबा के पास ऊपर चलो। वे उन्हें मस्जिद में ले गए।
 
Shama
श्रीमती होलकर पूजा की थाली में एक नारियल भी लेकर आई थीं, जो बाबा को अर्पण कर दिया। बाबा ने सहजता भाव से नारियल उठाया और उसे कान के पास बजाया। उसमें पानी था। बाबा ने कहा, यह तो गुडगुड करता है। श्यामा ने तुरंत कहा, बाबा इस बाई के पेट में भी बच्चा ऐसे ही गुडगुड़ करना चाहिए। बाबा ठहरे अंतरयामी। उन्हें श्यामा से ऐसे ही जवाब मिलेगा, ठीक से पता था। लेकिन उन्होंने अपने चिरपरिचित अंदाज में श्यामा को झिड़कते हुए कहा, चल हट! कोई फकीर को आकर नारियल चड़ा देता है, तो क्या उसको बच्चा होने लगता है?

श्यामा यह अच्छे से जानते थे कि बाबा का स्वभाव ऐसा ही है। वे हठी बच्चे की तरह बोले, बाबा तुम्हें इस बाई की मुराद पूरी करनी होगी। बाबा ने कहा, मैं तो तोड़ के खाऊंगा नारियल। श्यामा बोले, नहीं; मैं तोडऩे नहीं दूंगा, जब तक तुम इस बाई की मुराद पूरी नहीं करते। बाबा मुस्कराए, ठीक है भई एक साल के अंदर इस बाई की मुराद पूरी हो जाएगी। श्यामा का बाबा पर अधिकार देखिए; उन्होंने मुस्कराते हुए श्रीमती होलकर से कहा, अगर एक साल में तुझे औलाद नहीं हुई, तो मैं यह नारियल इसी बाबा के सिर पर तोड़ दूंगा। इस बात को धीरे-धीरे समय होता गया। एक साल बाद श्रीमती होलकर अपने बच्चे के साथ बाबा का आशीर्वाद लेने पहुंची। बाबा ने उनकी मुराद पूरी कर दी थी।

बाबा कभी भी अपने भक्तों को निराश नहीं करते। बाबा इस बात से भली-भांति वाकिफ हैं कि उनके पास कौन; किस मंशा से उनके पास आया है। बाबा उनका मन परख लेते हैं। अगर सामने वाली की मनोरथ बाजिब है; नीयत साफ है; तो वे उसकी झोली में खुशियां अवश्य भरते हैं। श्रीमती होलकर अपनी गोद में बच्चे की आस को लेकर व्याकुल थीं। बाबा ने उनकी आस पूरी की; क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि; श्रीमती होलकर का मन साफ है।

अगर मन साफ हो; तो फटे-पुराने कपड़े-लत्तों में भी आपका तेज चमकेगा

साधू-संत; ऋषि-मुनी अपने बाहरी आवरण पर नहीं; आचरण को साफ-सुथरा बनाने में प्रयासरत रहते हैं। बाबा को जिस-जिसने भी पहली मर्तबा देखा; उसे ख्याल आया-अरे यह तो संत तो फटे-पुराने कपड़ों में रहता है? बाद में जब वो बाबा के सानिध्य में जाता, तो भाव बदल जाता-कितनी अद्भुत लीला है, इस संत की; जो खुद फटे कपड़ों में रहता है, लेकिन दूसरों की फिक्र हमेशा बनी रहती है। जब बाबा की कफनी में जगह-जगह छिद्र हो जाते, तब भी वे उसे बदलने में कोई रुचि नहीं दिखाते थे। तात्या; जो बाबा के प्रिय थे, वे बाबा के फटे कपड़ों में उंगली डालकर उसे चीर देते थे। इसके बाद बाबा के पास कोई चारा नहीं बचता था। यानी नई कफनी बनवानी ही पड़ेगी। 
 
Baba Ki Kafni
काशीराम शिंपी बाबा की कफनियां सिलता था। मोटे खद्दर जैसे कपड़े की कफनियां सिलवाते थे बाबा; वो भी एक नहीं; एक साथ 4-5 लेकिन कभी भी उन्होंने काशीराम से मुफ्त में काम नहीं कराया। कभी उन्होंने यह नहीं कहा, शिंपी मैं तुझे मेहनताना नहीं दूंगा। कफनी आती और शिंपी जो मांगता; बाबा उसे वह मेहनताना दे देते। 
Shri Kashiram Shimpi

तब की एक कहानी...
इसी काशीनाथ से जुड़ीं कई और भी कहानियां हैं, जो बाबा के चमत्कार के रूप में सामने आईं। काशीनाथ पेशे से दर्जी था, इसलिए उसके नाम के पीछे दर्जी भी लगता था। ये कहानियां हिमाडपंत के ग्रंथ श्री साई सदचरित के हिंदी अनुवाद में नहीं है, जिसे श्री शिवराम ठाकुर ने किया है। मालसापति काअभिन्न मित्र था काशीनाथ। शिर्डी के पास एक गांव में नियमित हाट लगती थी। काशीनाथ वहीं से सिलने के लिए कपड़े खरीदकर लाता था। एक बार उसे काशीनाथ हाट से लौट रहा था। उसके पास खूब-सारा माल था, जो उसने अपने घोड़ों पर लाद रखा।

काशीनाथ अपनी मस्ती में चला रहा था, अचानक लुटेरों ने हमला कर दिया। लुटेरों ने डरा-धमकाकर काशीनाथ से सबकुछ छीन लिया जो वह हाट से ला रहा था, लेकिन वो एक पोटली देने को तैयार नहीं था। पोटली उसने अपने हाथों में कसकर पकड़ी हुई थी। उस पोटली में कोई कीमती चीज नहीं थी, फिर भी काशीनाथ ने उसके लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी। पोटली में तो शक्कर का बुरादा था, जिसे वो चीटियों को डालने लाया था। काशीनाथ ने लुटेरों से कहा, मैंने तुमको सबकुछ दे दिया, लेकिन इस पोटली को हाथ नहीं लगाने दूंगा। 

लुटेरों को लालच गया कि; जरूर पोटली में कोई बेशकीमती चीज होगी, वर्ना यह आदमी अपनी जिंदगी दांव पर क्यों लगाता? लुटेरों ने काशीनाथ से पोटली छीननी चाही, लेकिन वो अड़ गया। लुटेरों ने उसे मारना-पीटना शुरू कर दिया। काशीनाथ अधमरा हो गया। तभी एक लुटेरे ने उसके सिर पर कुल्हाड़ी दे मारी। काशीनाथ सारी रात मरणासन्न वहीं पड़ा रहा। सबेरा हुआ, तो गांववालों की दृष्टि उस पर पड़ी। वे उसे उठाकर वैद्य के पास ले जाने लगे। काशीनाथ उस वक्त थोड़े-से होश में था। वो बोला, मुझे तो मेरे बाबा के पास ले चलो। गांववालों को कुछ समझ नहीं आया, लेकिन जब घायल काशीनाथ अपनी बात पर अड़ा रहा, तो मजबूरन लोग उसे बाबा के पास ले आए। लुटेरों ने काशीनाथ को बुरा मारा-पीटा था। खासकर कुल्हाड़ी का वार काफी गहरा था। बहुत खून बह चुका था। बाबा ने तुरंत उसका देसी इलाज शुरू किया। कु दिनों में काशीनाथ के जख्म भर गए और वो चलने-फिरने लगा।

लोग बताते हैं कि, जिस रात लुटेरे काशीनाथ को पीट रहे थे, मस्जिद में लेटे बाबा चिल्ला रहे थे, मुझे मत मारो। मत मारो। यह बाबा का चमत्कार ही था कि, आखिरकार लुटेरे काशीनाथ को जिंदा छोड़कर चले गए। इतने गहरे जख्म होने के बावजूद काशीनाथ जिंदा बच गया, यह भी बाबा का ही चमत्कार था।

कहते हैं कि; होनी को कोई नहीं टाल सकता; ईश्वर भी नहीं। ईश्वर के हाथ में सबकुछ है, वो चाहे तो वक्त रोक दे, लेकिन वो ऐसा नहीं करता। अगर ऐसा कर दिया, तो सारे चक्र रुक जाएंगे। इसलिए बाबा ने काशीनाथ के साथ होने वाली घटना तो नहीं टाली, क्योंकि वो उसकी किस्मत में लिखी थी, लेकिन उसे बचा जरूर लिया। अगर बाबा का प्रताप होता, तो काशीनाथ का बचना नामुमकिन था। बाबा उसकी ऊपर सुरक्षा कवच बनकर जा लेटे थे,इसलिए बाबा रात में चिल्ला रहे थे, मुझे मत मारो।