जैसी करनी, वैसी भरनी; यही जगत की रीत ।
कर भला तो हो भलो; सो करो सभी से प्रीत ।।
लोग
कहते हैं, मरने के बाद कुछ इंसान स्वर्ग में जाते हैं, तो कुछ नर्क में!
गोया; जिनके अच्छे कर्म होते हैं, उन्हें स्वर्ग नसीब होता है और जो जीवनभर
दुष्कर्मों में फंसे रहते हैं, वे नरक के भागीदार बनते हैं। साई स्वर्ग और
नर्क को अपने ढंग से परिभाषित करते हैं। उनके हिसाब से कोई स्वर्ग और नर्क
नहीं होता। अगर हमारे कर्म अच्छे हैं, तो हमारे कई जन्म अच्छे गुजरेंगे।
यदि हमने अपनी गलतियां नहीं सुधारीं; मोह-माया के फेर में पापों को अंजाम
देते रहे, तो एक नहीं; अगले कई जन्मों तक हमें पापों का दुष्परिणाम
भोगेंगे।
तमाम लोग जवानी तक बुरे कर्म करते रहते
हैं और जब बुढ़ापा आता है, तो ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाते हैं। उन्हें
लगता है कि ऐसा करने से उन्हें मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा। वहां अप्सराएं
होंगी, जो उनके आसपास डोलती रहेंगी। स्वर्ग में अच्छे-स्वादिष्ट पकवान खाने
को मिलेंगे। मधुर संगीत सुनने को मिलेगा। यानी आदमी मरने के बाद भी अपना
फायदा नहीं भूलता।
नर्क जाने से लोग इसलिए डरते
हैं क्योंकि उन्हें बचपन से ही यह पढ़ाया जाता रहा है कि; बुरे कर्म करोगे,
तो नर्क जाना पड़ेगा। वहां हैवान सूली पर लटकाते हैं, गर्म तेल की कढ़ाही
में डालते हैं, पिटाई होती है, खाने-पीने को नहीं मिलता। गोया कि;
अंग्रेजों के जमाने की जेल। बाबा कहते थे, यह मत भूलो कि, आप इस जन्म में
जो भी कर्म-दुष्कर्म करते हो, यदि उसका फल ऐनकेन प्रकारेण इस जन्म में नहीं
मिल पाया, तो वो अगले कई जन्मों तक भोगना पड़ सकता है। जब तक कि पाप-पुण्य
का पाई-पाई का हिसाब नहीं हो जाता। यानी अच्छे कर्मों का अच्छा और बुरे का
बुरा फल मिलता रहेगा।
बाबा कर्म
को प्राथमिकता देते थे। इसलिए हमारे लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि
कर्म कितने प्रकार के होते हैं। कर्म तीन प्रकार के होते हैं-क्रियामाण,
संचित और प्रारब्ध। इन्हें आसानी से समझाने के लिए उदाहरण देता हूं। मानों
आपके हाथ में एक धनुष है और उसकी प्रत्यंचा पर तीर चढ़ा हुआ है। क्रियामाण
कर्म याने जो कर्म अभी होने जा रहा है उसके मालिक आप हैं। यह तीर आप किस पर
चलाते हैं, कब चलाते हैं, इसका निर्धारण आप स्वयं करेंगे और जिम्मेदार भी
आप होंगे। ये क्रियामाण है। आपके तूनिर में कुछ तीर रखे हुए हैं, पीछे ये
संचित कर्म है। ऐसे कर्म जिनका फल अभी आपको मिला नहीं है, लेकिन मिलेगा।
तीसरा होता है प्रारब्ध; जिनसे आप छूट नहीं सकते। जिनका निर्धारण हो गया है
और जिन फलों को आपको भोगना ही है।
आप कैसे भोगते
हैं देखिए। आप चलाने जा रहे हैं उस बाण को। आपने एक चिडिय़ा को निशाना
बनाया, तभी वहां से एक सांप गुजरा और आपके प्रारब्ध के प्रभाववश वह आपके
पांव पर से गुजरा और आपका निशाना चूक गया। आपका तीर किसी इंसान को लग जाता
है। यह होते हैं हमारे कर्म। बाबा का कहना था कि अपने कर्मों का फल जब आप
भोग रहे हो, जब ऊपर वाला आपके कर्मों का फल अच्छा बुरा जो भी आपको दे रहा
है आप भोग लो। सद्गुरु की शरण में जाने का फायद यह होता है कि हमें अपने
इच्छित फल की प्राप्ति होने लगती है।
कैेसे यह
देखिए। क्रियामण को देखिए। सद्गुरु की शरण में जाने से हमारी बुद्धि चैतन्य
हो जाती है, जिससे हमें अच्छे और बुरे कर्मों का भेद समझ में आने लगता है।
हम बुरे कर्म से बचने का प्रयास करने लगते हैं। हालांकि प्रारब्ध जो होना
है, सो होना है। उसे कोई नहीं टाल सकता। बारिश यदि आनी है, तो आनी है। उसे
कोई नहीं रोक सकता, लेकिन छतरी लगाकर या किसी छत के नीचे आकर हम जरूर
भींगने से बच सकते हैं।
अगर हमारे प्रारब्ध में
बाढ़ में घिरना लिखा है, तो उससे हमें कोई नहीं बचा सकता; भाग्य भी नहीं।
हां, सद्गुरु की कृपा हमें बाढ़ में डूबने से अवश्य बचा लेगी। सद्गुरु की
शरण में आने से हमें जो बुद्धिमता मिलती है, हम उसका प्रयोग करते हैं।
विपदा के दौरान घबराते नहीं है। यह नहीं सोचते कि, बाढ़ में डूबना तो तय
है। अगर हम संघर्ष नहीं करेंगे, तब डूबना वाकई निश्चित है। लेकिन सद्गुरु
ने हमें बुद्धि प्रदान की है, इसलिए हम उसका इस्तेमाल करते हैं। जान बचाने
के उपाय सोचने लगते हैं। इन प्रयासों के चलते हमें कोई लकड़ी का टुकड़ा मिल
जाता है और हम उसे पकड़कर अपनी जिंदगी बचा लेते हैं। यह संचित कर्म कहलाते
हैं। यानी वो कर्म; जिनका फल मिलना अभी हमें बाकी था। जैसे बैंक में हम
रुपए जमा करते रहते हैं, उसका हमें एक ब्याज मिलता है। वैसे ही हमारे कई
कर्म;अच्छे कर्मों का फल हमें मुसीबत के दौरान काम आता है।
तब की एक कहानी....
साई
ने कर्म से संबधित कई लीलाएं दिखाई हैं। पूना के करीबी गांव नारायण के
भीमजी पाटिल टीबी से पीडि़त थे। पाटिल याने कि जिनके पास पैसा काफी होता
है। वह बाबा के पास पहुंचे। जिनके जरिये वे बाबा के पास पहुंचे थे, उनसे
बाबा ने कहा, देखो मैं इनकी कोई मदद नहीं कर सकता। यह इनके पूर्व जन्मों का
फल है।
उन्होंने बड़ी इल्तजा की। बाबा ने कहा
कर्मों का फल तो भुगतना ही पड़ेगा। फिर बाबा ने कहा, अच्छा, तुम भीमा बाई
की कोठरी में जाकर रुको। यहां बाबा की लीला देखिए! भीमजी पाटिल बहुत
पैसेवाले। जब उन्होंने यह सुना, तो उन्हें असहज महसूस हुआ। भीमा बाई की
कोठी उन्हें रुकने के लिए उचित जगह नहीं लगी। चूंकि आदेश बाबा ने दिया था,
लिहाजा वे उसे टाल नहीं सके। बेमन से भीमजी उस कोठरी में रुके।
एक
रोज उन्हें सपना आया। वह स्कूल में पढ़ रहे हैं। उनसे कोई गलती हो गई, तो
मास्टरजी बहुत जोर से उन्हें बेंत से पीटने लगे। वे तड़पने लगे। इस तरह
सपने में उनका एक बुरा कर्म कट गया। दूसरी रात भीमजी को फिर सपना आया कि
उनकी छाती पर बड़ा-सा पत्थर रखा है। कोई उसे जोर-जोर से घुमा रहा है। तकलीफ
के कारण भीमजी नींद में ही चिल्लाने लगे। यानी नींद में ही उनके बुरे
कर्मों का फल मिल गया। बाबा ने भीमजी के कर्म सपनों में ही काट दिए। इस तरह
उनकी बीमारी ठीक हो गई।
इसके बाद भीमजी बाबा के
इतने बड़ा भक्त बन गए कि, जब वापस अपने गांव नारायण गए, तो वहां साई
सत्यव्रत पूजा प्रारंभ कर दी। हम लोग अब शिर्डी जाते हैं, तो बाबा के साथ
सत्यनारायणजी की भी पूजा होती है। पूरी विधि वही रहती है, लेकिन वह कहलाती
है। साई सत्य व्रत पूजा। तो हम जब भी शिर्डी जाएं और साई सत्यव्रत पूजा
करें, तो भीमजी पाटिल को जरूर याद करें।
Shree Sai Satya Vrat |
एक थे
डॉ. पिल्लई। उनकी भी बड़ी गजब कहानी है। उनके पांव में नासूर हो गया था,
जिसमें कीड़े पड़ गए थे। वह खुद डॉक्टर थे, लेकिन अपना इलाज नहीं कर पा रहे
थे। जब वह शिर्डी पहुंचे और बाबा से मिले, तो रोने लगे। बाबा ने कहा, रोने
से कुछ नहीं होगा। रोने से कर्म नहीं कटते। भगवान को भजने से कर्म कट जाते
हैं, रोने से नहीं। डॉ. पिल्लई ने गुजारिश की, बाबा प्लीज कुछ ऐसा कर दो
कि मेरे ये कर्म दस जन्मों में बंट जाएं। मुझे इनका फल दस जन्मों में मिले,
लेकिन अभी तो मैं ठीक हो जाऊं।
Dr. Pillay |
जब भक्ति में हम
अपना दिमाग लगाते हैं, तो वहां सब गड़बड़ हो जाती है। बाबा ने कहा, जो
तेरे कर्म दस दिनों में पूरे होने वाले हैं, उसके लिए तू दस जनम तक क्यों
इंतजार करना चाहता है?? बाबा ने फिर कहा, तू इंतजार कर दसवें दिन एक काला
कव्वा तेरे इस नासूर पर चोच मारेगा और तू ठीक हो जाएगा।
डॉ
पिल्लई रोज मस्जिद जाते थे और बाबा उनके जख्म पर रोज उदी लगाते थे। एक दिन
डॉ. पिल्लई मस्जिद में बैठे हुए थे। उन्हें ध्यान नहीं था कि उस रोज दसवां
दिन था। बाबा के सेवक अब्दुल मस्जिद में झाडू लगा रहे थे। हाजी अब्दुल
बाबा झाडू लगाते हुए पीछे-पीछे चलते आ रहे थे और अचानक उनका पैर डॉ. पिल्लई
के नासूर पर पड़ गया। डॉ. पिल्लई दर्द से चिल्ला उठे। लेकिन उनके नासूर से
सात कीड़े निकल कर बाहर चले गए और उन्हें आराम मिल गया। लोगों ने पूछा,
बाबा कौआ कब आया? बाब ने कहा, ये अब्दुल ही तो मेरा कौटा है, यही तो आया
था। यानी बाबा दूसरों का दु:ख-तकलीफ ऐसे दूर करते थे।