पुण्य करो निस्वार्थ से; न करो कोई अहंकार।
लेखा-जोखा व्यर्थ है, करके कोई उपकार।।
जीवन को अच्छा और बुरा बनाने में संगत का बहुत असर पड़ता है। आप जैसी संगत में रहेंगे; आपके मन में वैसे ही विचार जन्म लेंगे। आपका आचरण वैसा ही होता चला जाएगा। लुटेरों के हाथों हुई मारपीट से मरणासन्न अवस्था में पहुंचे काशीनाथ दर्जी के मामले में भी ऐसा ही हो रहा था। बाबा ने कभी भी उससे मुफ्त में कफनी नहीं सिलवाईं। बाबा आदमी की मेहनत का पूरा-पूरा सम्मान करते थे। कहावत है घोड़ा घास से यारी करेगा, तो खाएगा क्या? कपड़े सिलना ही काशीनाथ का पेशा था। अगर बाबा उससे नि:शुल्क कफनी सिलवाते; तो वो अपने और अपने परिवार के लिए दाना-पानी का प्रबंध कैसे कर पाता।
...और अगर बाबा की देखादेखी उनकी संगत में रहने वाले दूसरे लोग भी बाबा की धौंस दिखाकर या उनके बिहाफ में मुफ्त में कपड़े सिलवाने लग जाते; तो बेचारे काशीनाथ की जिंदगी का क्या होता? जब कड़ी मेहनत के बावजूद उसे भूखे मरने के लाले पड़ जाते, तो निश्चय ही वो पैसा अर्जित करने कोई तिकड़में लड़ाता। हो सकता था कि; वो गलत राह पर चल पड़ता।
बहरहाल, काशीनाथ को भी अहंकार ने जकड़ लिया। पैसे के अहंकार ने। वो अकसर बाबा को दक्षिणा देने की कोशिश करता। वो भी इसलिए ताकि देखने वालों को लगे कि; बाबा की फिक्र में काशीनाथ कितना धन खर्च करता है। यह बात 1890 के आसपास की हो सकती है। हालांकि बाबा तो ठहरे अंतरयामी। उन्हें सबके मन की बात पता था कि; कौन किस प्रयोजन से कोई काम कर रहा है। इसलिए बाबा काशीनाथ को मना करते थे कि; उन्हें दक्षिणा की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन काशीनाथ अपने अहंकार के कारण बाबा की बात मानने से इनकार कर देता और नित्य बाबा से कहता, मुझसे आप दक्षिणा ले लो। मैं आपके दीप के लिए तेल ले आऊं, आपके कपड़े बनवा दूं? आखिरकार बाबा उससे दक्षिणा ले लेते; और वो इसलिए ताकि वक्त आने पर काशीनाथ का अहंकार दूर किया जा सके। बाबा उसके पैसों को हाथ भी नहीं लगाते थे। बाबा ने काशीनाथ का दिल रखने के लिए कभी उससे एक आना; तो कभी दो आना लेना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे यह नियम हो गया कि काशीनाथ से वह कुछ न कुछ दक्षिणा जरूर लेते। पर देखिए बाबा की संगत में रहने के बाद भी काशीनाथ का दिल अहंकार से खाली नहीं हुआ। उसके दिल में यह आ गया कि मैं दाता और बाबा पाता।
आखिकार एक दिन बाबा ने काशीनाथ का गुरूर तोडऩे की लीला रची। बाबा ने काशीनाथ से दक्षिणा मांगना शुरू कर दिया; वो भी अपनी इच्छा के अनुरूप। शुरुआत में काशीनाथ को बेहद खुशी हुई कि; यह तो बहुत बढिय़ा हुआ! बाबा खुद उससे दक्षिणा मांग रहे हैं। यानी उससे बड़ा कोई दानी नहीं! लेकिन उसे क्या पता था कि; बाबा दक्षिणा मांगने के जरिये उसे क्या पाठ पढ़ाने जा रहे हैं। काशीनाथ से बाबा अब स्वयं दक्षिणा मांगते रहे और वो उन्हें गुुरूर के साथ देता रहा। आखिरकार एक दिन ऐसा आया; जब काशीनाथ के पास कुछ न बचा। घर में खाने-पीने के लाले पड़ गए। काशीनाथ को अब कुछ समझ नहीं आ रहा था कि, वो क्या करे? घर में कुछ बचा नहीं; और यदि बाबा ऐसे ही दक्षिणा मांगते रहे, तो फिर तो उसके भीख मांगने की नौबत आ जाएगी। चिंताओं ने काशीनाथ को घेर लिया। वो परेशान हो उठा, लेकिन अहंकारवश वो बाबा के सामने अपनी व्यथा नहीं बता सका। हालांकि बाबा ने उसके माथे की सलवटें पढ़कर उसके अंदर मची हलचल का आकलन कर लिया। बाबा तो ठहरे अंतरयामी; भला उनसे क्या छुपा था। वैसे भी यह लीला तो उन्होंने स्वयं रची थी, ताकि काशीनाथ का अहंकार दूर हो और वो सद्मार्ग पर चल पड़े।
अंतत: एक दिन बाबा ने उससे कहा, काशीनाथ जब तू दक्षिणा देता है, तब अहंकार क्यों करता है रे? मैं तो ठहरा फकीर। तू कितना भी कुछ मुझे दे दे; मेरे पास तेरा दिया कुछ नहीं बचेगा। तू तो घर गृहस्थी वाला है रे, अहंकार अपने अंदर मत ला। काशीनाथ को समझते देर नहीं लगी कि; बाबा पहले उसे दक्षिणा लेने से मना करते थे, लेकिन बाद में क्यों मांगने लग गए थे। काशीनाथ बाबा के पैरों में गिर पड़ा। उसे अपनी गलती का अहसास हो चुका था। बाबा के चरणों में गिरते ही काशीनाथ का अहंकार काफूर हो गया। उस दिन के बाद से काशीनाथ की किस्मत ने फिर पलटा खाया। शिर्डी वाले तो कहते हैं कि, काशीनाथ की किस्मत ऐसी चमकी कि; वो पहले से ज्यादा धनवान हो गया।
बाबा ने यह लीला सिर्फ काशीनाथ के अहंकार को तोडऩे के लिए नहीं रची थी; बल्कि इसके जरिये वे दूसरे लोगों को भी एक सीख देना चाहते थे। बाबा ने कई मौकों पर कहा, यदि हम किसी को दान-दक्षिणा या उपकार में कुछ चीजें देते हैं या विकट परिस्थितियों में किसी की मदद करते हैं, तो आंखों में आंखें डालकर अपने धनवान-बलवान होने का दंभ न भरें। क्योंकि जो आपसे लेता है; उसकी आंखों में हमेशा शर्म होती है, धन्यवाद का भाव होता है। उसकी आंखों में नमी होती है। लेकिन अगर आप अहंकारवश उसे कुछ दे रहे होते हैं, तो आपकी आंखों में खुद के महान होने का भाव झलकता है। आपकी महानता का बखान किसी और को करने दीजिए; स्वयं न करें। एक बड़ा आदमी, अच्छा आदमी वो है, जिसकी तारीफ लोग करें, न कि वो स्वयं।
एक दिन की बात है बाबा से किसी ने सवाल पूछ लिया, सारी दुनिया ईश्वर को पूजती है, लेकिन वो तो दिखता ही नही है? जवाब मिला, तुम्हें जो चांद-सूरज, पृथ्वी, हवा-पानी आदि मिले हैं, वो किसने दिए? तुम्हारी रगो में जो खून बहता है, वो कैसे बनता है? तुम्हारी धड़कनों को सांसें किसने दीं? घर-गृहस्थी बसाने की तरकीब किसने सिखाई? रोजी-रोटी की समझ कहां से आई? सवाल करने वाला निरुत्तर।
दरअसल, बाबा का यही मानना रहा कि; जो चीज दिखती नहीं है, इसका मतलब यह नहीं कि, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। हवा हमें कहां नजर आती है? हमारे दिल को कौन धड़का रहा है, क्या कभी किसी ने देखा? हमारी आंखों में जो रोशनी है, वो किसने दी? यही सब तो ईश्वर है। ऊर्जा ही तो ईश्वर है। इस संसार में जो कुछ है, वो सभी ईश्वर की ही तो देन है। ईश्वर बड़ा विनम्र है। हमें इतना सब देने के बाद वह यह नहीं देखना चाहता कि हम लेते-लेते कितने शर्मसार हैं, इसीलिए वह सामने नहीं आता।
एक सज्जन ने प्रश्न उठाया, कहते हैं कि; ईश्वर हमारे मन में बसता है, फिर बुराइयां कैसे जन्म ले जाती हैं? उत्तर मिला, एक अकेले दूध से कितनी चीजें बनती हैं, लेकिन क्या कच्चे दूध में वो सब दिखाई देती हैं। उदाहरण, मक्खन भी दूध से बनता है। लेकिन जब तक दूध को मथा नहीं जाए, वो बाहर नहीं निकलता। जब हम मक्खन के लिए दूध को मथते हैं, तो उसे मठा भी निकलता है। दोनों के गुण-दोष अलग-अलग होते हैं। उपयोग करने का तौर-तरीका भी अलग-अलग। किसे कब और कैसे इस्तेमाल करना है, यही सूझबूझ व्यक्ति को इनसान बनाती है। जैसे; जो व्यक्ति मोटा है, अगर वो रोज खूब-खूब मक्खन खाए, तो उसकी चर्बी बढ़ती जाएगी और उसकी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है। वहीं; जब गला खराब हो और सीधे कच्चा म_ा पी लिया जाए, तो तबीयत और नासाज हो सकती है। लेकिन दोनों को सही वक्त और सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए, तो फायदेमंद भी है। जैसे म_ा की कढ़ी बनाकर गर्म-गर्म सर्दी होने पर खाई जाए, तो आराम मिलता है। गर्मियों में म_ा ठंडक पहुंचता है।
ठीक वैसी ही स्थिति हमारे मन के अंदर बैठे ईश्वर की है। अगर हम अपने मन को ठीक से मथेंगे, तो ईश्वर किसी न किसी रूप में हमारे सामने आ जाएंगे। हमारी मदद करेंगे। अगर हमने मथते वक्त अहंकार का भाव रखा, तो दूध खराब भी हो सकता है। मतलब; हमें अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे।
तब की एक कहानी...
शिरडी में रहते थे रघु पाटील। एक बार वे नेवासे में रहने वाले बालाजी पाटील के घर गए। दिन अच्छा बीता। ढेरों बातें हुईं। शाम को अचानक उन्होंने देखा कि; गौशाला में एक सर्प घुस आया है। सभी पशु डर के मारे यहां-वहां भागने लगे। लेकिन बालाजी के मन में आया कहीं यह साई तो नहीं? क्योंकि बाबा लोगों को सीख देने नये-नये तौर-तरीके अपनाते थे। वे फौरन दौड़े और घर से एक प्याला दूध ले आए। फिर विनम्र भाव से बोले, बाबा आप डराइए मत, दूध पीजिए। कुछ देर बाद सर्प वहां से चला गया। वो सर्प बाबा भी हो सकते थे और असली सर्प भी।
दरअसल, यह ईश्वर के होने का आभास था। जैसे अगर हम सर्प को मारने की कोशिश करते, तो निश्चय ही वो भी फुफकारता, पलटवार करता। लेकिन बालाजी ने उसे दूध पिलाया, तो वो चला गया। ठीक वैसी ही स्थिति हमारे मन की है। अगर हम मन में बैठे विकारों को जबरन मारने की कोशिश करेंगे, तो वे और बलशाली होंगे। उन्हें तो बस प्यार से; सहज भाव से दूर किया जा सकता है।
It’s a great learning, Sairam
ReplyDeleteOm Sai Ram 🌹👏👏👏
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