मेघा अनपढ़-गंवार। उसे ओम नम: शिवाय के अलावा कुछ नहीं आता था। मेघा
दिन भर ओम नम: शिवाय का जाप करता रहता और साठे जी के यहां भोजन पकाता। उसका
भक्तिभाव देखकर साठेजी को ख्याल आया कि इसे बाबा की शरण में भेज देना
चाहिए।
देखिए कितनी अच्छी बात है। आजकल हम अपने
मुलाजिमों के बारे में कहां सोचते हैं, लेकिन साठे जी ने सोचा। कहीं न कहीं
हम लोग बेहद स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित हो गए हैं। खैर, साठे जी ने मेघा
से बाबा की शरण में जाने को कहा। मेघा जाने को तैयार नहीं हुआ, क्योंकि वो
धर्म को बहुत मानता था। साठे जी ने उसे समझाया-बाबा हिंदू है या मुस्लिम;
यह सब हमको मालूम नहीं, लेकिन वे बेहद चमत्कारी हैं। तुमको उनके पास जाना
पड़ेगा, इससे तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा।
अब
मालिक का आदेश आज के जैसा तो है नहीं! आज तो यदि आप अपने मुलाजिम से कह दो
ऐसी बात, जिसमें उसकी मर्जी शामिल न हो; तो बस हो गया! वो नौकरी छोड़ देगा,
लेकिन आपकी बात नहीं मानेगी। लेकिन मेघा के मामले में ऐसा नहीं था। मेघा
की निष्ठा सराहनीय है। भले ही अनमने मन से लेकनि मेघश्याम शिर्डी गया।
शिर्डी में बाबा ने मेघा का स्वागत कैसे किया, यह भी बड़ा दिलचस्प है।
दादा
केलकर ससुर थे साठे जी के। केलकर मेघा का हाथ पकड़े-पकड़े उसे बाबा के पास
ले जा रहे थे। मेघा ने जैसे ही मस्जिद में अपना पहला कदम रखा, बाबा गुस्से
में बोले-निकालो इस निकम्मे को यहां से! तू एक ऊंचे कुल का ब्राह्मण है,
तू क्या करेगा एक यमन के यहां आकर के? बाबा एक बार इस तरह से गुस्सा हो
जाएं, तो फिर दादा केलकर हो या कोई अन्य; उनके सामने कोई ठहर नहीं सकता था।
दादा केलकर बोले-तू त्रंबकेश्वर चला जा, वहीं तेरे शिव विराजते हैं, लेकिन
यहां मेघा बाबा के चमत्कारिक रूप को देख चुका था। वो सोच में पड़ गया कि
आखिर बाबा को उसके मनोभावों का पता कैसे चला? बाबा को कैसे ज्ञात हुआ कि,
वो हिंदू-मुस्लिम को लेकर संशय में था? खैर, यहां उसके मन में बाबा की
भक्ति की लौ टिमटिमाने लगी थी। वह त्रंबकेश्वर गया और वहां सालभर आराधना
की। साठे साहब उसे हर माह पैसा भेजते थे, लेकिन उसका मन त्रंबकेश्वर में
नहीं लग रहा था। वह वापस बाबा के पास आना चाहता था, लेकिन डरता था कि बाबा
ने जिस तरह उसका पहली बार स्वागत किया था वैसा ही स्वागत उसे दूसरी बार भी न
मिले। वह सालभर बाद हिम्मत करके दोबारा शिर्डी गया।
इस
बार वह दादा केलकर को साथ लेकर नहीं गया, बल्कि अकेला जाकर बाबा के चरणों
में गिरा पड़ा। उसे बाबा में साक्षात अपने शिव नजर आ रहे थे। धीरे-धीरे वह
बाबा के करीब आता गया। मेघा का नियम था कि वह रोज शिर्डी के तमाम मंदिरों
में पूजा करता और उसके बाद आकर बाबा की पूजा करता। शिव मानकर वह बाबा को
बेल पत्र चढ़ाता। वह जंगल में दूर-दूर जाकर बेल पत्र लाता और बाबा को
अर्पित करता। प्रदोष हो शिवरात्रि या फिर शिव का कोई अन्य दिन; वह वहां से
15 किमी दूर कोपर गांव में जाता जहां गोदावरी नदी प्रवाहित होती है। वहां
से पैदल जल लेकर आता था।
एक बार उसने इच्छा
जाहिर की-बाबा मैं आपके ऊपर गोदावरी नदी का जल चढ़ाना चाहता हूं। बाबा उसके
भावों को समझने और मानने लगे थे। बाबा ने कहा ठीक है चढ़ा दो, लेकिन जो
सिर होता है वह शरीर का प्रधान अंग होता है। जल केवल मेरे सिर पर डालो,
मेरा बाकी शरीर गीला न हो। अब मेघा तो मेघा हर-हर गंगे करके पूरा का पूरा
जल डाल दिया। पूरा कलश उड़ेल दिया, लेकिन वहां खड़े लोगों ने देखा बाबा का
केवल सिर भीगा, पूरा शरीर सूखा था। यह बाबा का चमत्कार था।
एक
बार मेघा खंडोबा के मंदिर के दर्शन किए बगैर बाबा की पूजा करने आ गया।
बाबा ने कहा-तू आज कुछ चूक कर रहा है। मेघा सीधा-सच्चा दिल का इंसान था। वह
बोला-बाबा मैं खंडोबा के मंदिर गया था, वहां के द्वार बंद थे। इसलिए मैं
तुम्हारी पूजा करने आ गया, क्योंकि तुम फिर लैंडी बाग चले जाते और मेरी
पूजा रह जाती। बाबा ने कहा-तू वापस जाकर वहां पूजा करके आ, तब तक मैं यहीं
तेरी राह देखूंगा। मेघा मंदिर गया; शिवजी पूजा की और जब आया तो देखा बाबा
वहीं बैठे उसका इंतजार कर रहे थे।
आपने भक्त को
भगवान का इंतजार करते सुना होगा, लेकिन क्या कभी भगवान को भक्त का इंतजार
करते देखा है? ऐसे हैं हमारे साई। वे अपने भक्तों की भावनाओं का पूरा ख्याल
रखते हैं। क्योंकि उनमें अहंकार का अंश नहीं है। वे अपने भक्तों को अपना
मित्र समझते हैं।
एक दिन की बाता है, मेघा सोया
हुआ था। उसे स्वप्न आया कि बाबा उसके बाड़े में आए हैं और उसके ऊपर चावल के
कुछ दाने फेंक रहे हैं। इसके बाद बाबा ने मेघा को आज्ञा दी-मुझे त्रिशूल
लगाओ! यह सुनते ही मेघा की नींद उचट गई। वह उठकर बैठ गया। मेघा ने देखा कि,
उसके सिरहाने चावल के दाने पड़े हुए हैं। उसे समझते देर नहीं लगी कि, बाबा
ने कोई चमत्कार किया है। वह उसी समय बाबा के पास गया। बाबा उठ चुके थे।
उन्होंने मेघा से पूछा-क्या हुआ मेघा, तू मुझे बिना त्रिशुल लगाए ही आ गया।
मेघा ने सवाल किया-दरवाजा तो बंद था, फिर तुम अंदर कैसे आए बाबा? साई ने
जवाब दिया-मुझे कहीं आने-जाने के लिए किसी दरवाजे की जरूरत नहीं होती। मेघा
बाबा का आशय समझ चुका था। वह वापस लौटा और बाबा के चित्र के पास लाल
सिंदूर से एक त्रिशूल खेंच दिया। तो ऐसा बर्ताव करते थे बाबा अपने भक्तों
के संग। एकदम अपनों जैसा।
एक अन्य घटना सुनिए।
कालांतर में पुणे से एक भक्त शिर्डी पहुंचे। वो बाबा को शिवलिंग भेंट करना
चाहते थे। सफेद संगमरमर की बनी शिवलिंग। बाबा बोले मुझे ये शिवलिंग भेंट
करने का क्या प्रायोजन है भाई? मेघा पास ही में खड़ा था। बाबा उससे
बोले-इसे तू ले जा! मजे की बात देखिए, उस समय काका दीक्षित बाड़े में ध्यान
लगाए बैठे थे और उनके ध्यान में वहीं शिवलिंग आया। उन्होंने जैसे ही आंखें
खोलीं, मेघा वह शिवलिंग अपने गोद में उठाए-उठाए उनके सामने आया।
मेघा
जब तक जीया, उसने उस शिवलिंग की पूजा तो की, लेकिन नूलकर जी के गुजर जाने
के बाद बाबा ने उसे अपनी आरती का अधिकार भी दे दिया। तात्या साहब नूलकर के
निधन के बाद मेघा ही बाबा की आरती उतारता रहा। और उसके बाद बापू साहेब जोग
को यह सौभाग्य मिला। बापू साहेब वह आखिरी व्यक्ति थे, जिन्होंने बाबा की
आरती सशरीर उतारी।
यह भी कहानी सुनिए!
यह
...मुले शास्त्री की कथा है। नासिक के प्रगाढ़ पंडित, अग्रिहोत्र
ब्राह्मण, हस्तरेखा विशेषज्ञ। मुड़े को बापू साहब बूटी शिर्डी लेकर आए थे।
अमीर लोग अपने साथ ज्योतिषी को जरूर रखते हैं। दरअसल, उनमें अविश्वास की
भावना होती है कि पता नहीं कब क्या हो जाए? पैसा बढऩे के साथ-साथ प्रभु में
भक्ति कम और ज्योतिषियों-तांत्रिकों में विश्वास अधिक बढ़ जाता है। खैर,
मुड़े शास्त्री ने बाबा से निवेदन किया कि, बाबा अपने हाथों की रेखाएं मुझे
पढऩे दीजिए। बाबा ने कहा-नहीं; तुम मेरे हाथों की रेखाएं नहीं पढ़ सकते।
मुड़े शास्त्री अपने बाड़े में लौटे और फिर पूजा में लीन हो गए।
उधर,
मस्जिद में आरती का वक्त हो गया था। जैसे ही आरती शुरू हुई, तभी बाबा ने
बापू साहब से कहा-जाओ उस ब्राह्मण(मुड़े) को बाड़े से बुला लाओ; मुझे उससे
दक्षिणा लेनी है। मुड़े के पास जब यह संदेशा पहुंचा, तो वे हतप्रभ रह गए
कि, वो एक ब्राह्मण और बाबा यवन; फिर उनसे दक्षिणा कैसे ले सकते हैं? देखिए
विधि का विधान! बाबा जैसा संत दक्षिणा मांग रहा है और बापू साहब बूटी जैसा
करोड़पति सेठ मुड़े से दक्षिणा लेने आया है। घोर आश्चर्य में घिरे मुड़े
शास्त्री बोले-चलिए बापू साहब मैं चलता हूं, लेकिन दक्षिणा तो मैं दे नहीं
सकता। दोनों बाड़े से रवाना हुए। वे मस्जिद की सीढ़ी तक जैसे ही पहुंचे,
आरती शुरू हो गई। बाबा के चेहरे की लौ देखने लायक थी। आभा से उनका चेहरा
चमक रहा था। अचानक लोगों ने देखा कि मुड़े शास्त्री बाबा के चरणों में गिरे
हुए उनकी वंदना कर रहे है। दरअसल बाबा की लीला ऐसी ही थी। मुड़े शास्त्री
को बाबा में अपने गुरु घोड़क स्वामी के दर्शन हुए थे।
उसी
दिन के सुबह की बात है। सबेरे जब बाबा लैंडीबाग जा रहे थे, तो उन्होंने
भक्तों से कहा-गेरूआ लाना आज भगवा रंगेंगे। उस समय तो किसी को कुछ समझ नहीं
आया कि, बाबा किसे भगवा रंग में रंगने की बात कह रहे हैं, लेकिन शाम को
सारा माजरा स्पष्ट हो गया। जब लोगों ने मुड़े शास्त्री को बाबा के चरणों
में पड़ा देखा, तो वे समझ गए कि, बाबा किसे रंगने की बात कह रहे थे?
दास्यम
भगवा यानी अपने भगवन का दास हो जाना। राधा-कृष्ण माई, हाजी अब्दुल बाबा ये
सब बाबा के उस श्रेणी के भक्त थे, जिन्होंने बाबा को अपना स्वामी मान लिया
था और उनके दास बन गए थे। राधा कृष्ण माई, उनका असली नाम था सुंदरा बाई
क्षीरसागर। वे बाल विधवा थीं। 17 वर्ष की उम्र में उनके पति का निधन हो गया
था। वे पंढरपुर की रहने वाली थीं। उनसे किसी ने कहा कि शिर्डी के साई बाबा
स्वयं पंढरपुर के स्वामी हैं, तुम वहां चली जाओ। राधा कृष्णा माई शिर्डी
पहुंचीं और वहीं की होकर रह गईं। वह बाबा की गैरहाजिरी में मस्जिद जाती
थीं। धुनी सरकातीं। धुनी से काली पड़ गई दीवारों को साफ करतीं। बाबा जिस
राह से लैडी बाग जाते; उसे बुहारती। कभी किसी ओर भक्त ने यह काम कर दिया तो
कुछ देर बाद वह देखता कि, सड़क फिर से गंदी हो गई है और राधाकृष्ण माई
झाड़ू लगा रही हैं। क्योंकि राधाकृष्ण माई स्वयं वहां कचरा फैला देती थीं,
ताकि सड़क साफ करने का सौभाग्य उन्हें ही मिले।
Radha Krishna Mai sweeping in front of Dwarakamai |
कुछ
समय तक यह काम बालाजी निवासकर ने भी किया। हाजी अब्दुल बाबा; जिसे बाबा
अपना कौवा कहते थे, उन्होंने बाबा के कपड़े भी धोए। दीयों में तेल भी भरा।
ये भक्ति का चरमोत्कर्ष होता है कि, आप प्रभु के दास हो जाएं। जैसेे-जैसे
आप भक्ति के चरम पर पहुंचते जाते हैं, भक्ति की सीढ़ी चढ़ते जाते हैं, तो
प्रभु के दोस्त बन जाते हैं, जैसा श्यामा था। आप अधिकार पूर्वक प्रभु से
कुछ भी करा लेते हैं। श्यामा भी बाबा पर ऐसा ही अधिकार रखता था। क्योंकि वह
बाबा को यार-दिलदार भी कहता था और देव भी मानता था।
भक्ति
का आखिरी प्रकार है आत्म निवेदनम। आप ईश्वर के हो जाते हो; अपना संपूर्ण
उनको दे देते हो। यह 1906 की बात है। काका साहब दीक्षित एक दुर्घटना का
शिकार हो गए। उनका पांव टूट गया। वह लंगड़ा कर चलते थे। नाना साहब चांदोरकर
ने काका साहब से कहा कि, चलो मैं तुम्हे संत से मिलवाता हूं। काका साहेब
ने मायूस होकर उत्तर दिया, अपने संत से निवेदन करो कि पैर की पंगुता की
बजाय वह मेरे दिल की पंगुता को दूर कर दें।
काका साहेब लोनावला
में रहते थे। इंग्लैड से लौटने के बाद काका साहब ऐसे व्यक्ति थे, जिनके घर
जो जाता, वो भूखा नहीं लौटता था। यानी लोग यह तक कहने लगे थे कि, लोनावाला
में होटलवाले परेशान हैं, क्योंकि काका साहब सबको मुफ्त में भोजन कराते
हैं। खैर काका साहेब बाबा से मिले और फिर बाबा के ही होकर रह गए। सबकुछ बेच
दिया। एक मुकदमा आया उनके पास राजपरिवार का। बाबा से ऐसी लगन लगी थी कि,
उनसे अनुमति मांगी-क्या मैं यह मुकदमा लड़ लूं? बाबा ने कहा-जाओ लड़ो। उस
जमाने में काका साहब को वह मुकदमा जीतने पर लाखों रुपए फीस के तौर पर मिले।
लेकिन काका साहेब तो बाबा के हो गए थे। उन्होंने नोटों से भरा सूटकेस बाबा
के सामने रख दिया। बाबा ने भी उनकी परीक्षा ले डाली। जो भी बाबा के सामने
आया, उन्होंने मुक्त हाथों से काका साहेब द्वारा दिए गए पैसे बांट दिए।
लेकिन काका साहब के चेहरे पर रत्तीमात्र भी शिकन नहीं आई। वह तो बाबा से
एकाकार हो चुके थे। बााब के शरणागत हो गए थे।
काका
साहेब ने बाबा के शरीर छोडऩे के बाद श्री साई बाबा संस्थान शिर्डी की
स्थापना की। उसे एक मुकाम तक पहुंचाया। उसमें जितनी भी न्यायिक परेशानियां
थीं, केस लड़कर उन्हें दूर किया। बाबा जब देह रूप में थे, तब उन्होंने काका
साहेब से कहा था-मैं तुझे लेने के लिए पुष्पक विमान भेजूंगा, तेरा समय आने
पर। ऐसा हुआ भी। संस्थान का कामकाज देखते-देखते काका का वक्त बीत रहा था।
एक दिन वे कहीं जाते वक्त मनमाड़ से ट्रेन में चढ़े। उनके साथ दो साथी और
भी थे। साई की बात करते-करते अचानक काका साहेब ने अपना सिर एक साथी के कंधे
पर रख दिया। यानी विमान आ गया था। काका साहब अपने साई के पास चले गए थे।
बाबा ने उन्हें आत्मसात कर लिया था अपने अंदर। यही है आत्म निवेदन।
Om Sai Ram 👏👏👏
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