खुशियां मन में छुपी हुईं, क्यों ढूंढे संसार।
साई शरण में जाइए, हर्ष मिले अपार।
खुशी के मायने क्या हैं? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका उत्तर सबके लिए अलग-अलग हो सकता है। कोई अपने परिवार में खुशियां ढूंढता है, तो कोई प्यार-मोहब्बत में। कोई किसी चीज को पा कर खुश होता है। लेकिन क्या कभी आपने किसी मानसिक विक्षिप्त व्यक्ति को देखा है? वो अकारण ही खुश होता है। उसे यूं ही हंसता-मुस्कराता देख; हम उसे पागल करार दे देते हैं। लेकिन क्या वाकई ऐसा है? दरअसल, जब हमारा दिमाग चलने लगता है, तो हम हर चीज को; हर बात को नापतौल के देखते हैं, तब यह निर्णय करते हैं कि, हमें कहां और क्यों खुश होना है। लेकिन जब किसी व्यक्ति का दिमाग काम करना बंद कर देता है; यानी जिसे हम पागल बोलने लगते हैं, वो अकारण खुश होता है। उसे इससे कोई सरोकार नहीं होता कि; वो खुशियों के लिए अवसर तलाशे।
तनिक सोचिए; इस दुनिया में कौन सबसे अधिक खुश है? वे जिसके पास चलान के लिए दिमाग है; या वो जिसका अपने दिमाग से नियंत्रण हट गया है, यानी जिसे हम मानसिक विक्षिप्त कहने लगते हैं। मानसिक विक्षिप्तता एक बीमारी, जिसे ठीक किया जा सकता है, लेकिन; वो लोग जिनका अपने दिमाग पर 100 प्रतिशत नियंत्रण होता है; वे खुश रहने के लिए बहाना क्यों ढूंढते हैं?
दरअसल, यह भी एक मानसिक विकार है, जो हमारे और ईश्वर के बीच रोड़ा बनता है। ईश्वर क्या है? ईश्वर ही तो खुशी है। हम मंदिर किसकी तलाश में जाते हैं? यकीनन खुशियों की और किसकी! साई की शरण हमें अपने दिमाग पर नियंत्रण करना सिखा देती है। यानी हम अकारण भी खुश रहना सीख जाते हैं।
क्योंकि खुशियां तलाशने पर नहीं मिलती; वो तो कभी भी, कहीं से भी और किसी भी चीज के तौर पर हमारे जीवन में आ जाती हैं। जो लोग खुशियों के लिए कारण ढूंढते हैं; वे आर्टिफिशियन यानी बनावटी खुशी ही हासिल कर पाते हैं। जैसे हम बनावटी और गंधरहित कागज या अन्य किसी चीज से बने फ्लॉवर खरीदकर अपने घर में सजाकर खुश होते हैं। अपनी खुशी के लिए उन पर इत्र या कोई अन्य खुशबूवाला पदार्थ छिड़क देते हैं। लेकिन असली खुशी असली फूल से मिलती है। लेकिन वो फूल हमारे कहने पर या हमारी इच्छाओं पर नहीं खिलता; वो अपने समय और प्राकृतिक नियमों के अनुसार फलता-फूलता है।
यदि तुम्हारे जीवन में किसी कारण से खुशी है, तो तुम कभी उसका आनंद नहीं उठा सकते। क्योंकि कारण तो आता-जाता रहता है। जो अकारण खुश रहते हैं; वह साई के भक्त हैं। यानी जो हर काल; हर परिस्थिति और हर माहौल में खुश रह लेते हैं, वो साई के भक्त हैं।
दास गणु महाराज कीर्तन करते थे। ये वो व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने कीर्तन के जरिए बाबा की ख्याति पूरे महाराष्ट्र में फैलाई। एक रोज उन्हें प्रेरणा हुई कि; ईशावास उपनिषद पर हिंदी या मराठी में टीका करें। टीका यानी कि उसका भावार्थ लिखना। खैर उन्होंने टीका लिखना शुरू किया, लेकिन एक जगह वह अटक गए, तो साई के पास पहुंचे। बोले, बाबा रास्ता दिखाओ! मैं यहां अटक गया हूं क्या करूं!
तब बाबा ने एक लीला रची। बाबा ने कहा-तुम मुंबई चले जाओ; काका साहब दीक्षित के घर पे। वहां उनकी नौकरानी तुम्हारी समस्या का समाधान कर देगी। महाराज हतप्रभ रह गए। सोचा नौकरानी और मुझे उपनिषद पर ज्ञान देगी? और फिर अहंकार का भाव उनके मन में कुलबुलाने लगा। बाबा अहंकार के हमेशा खिलाफ रहे हैं। उन्होंने समय-समय पर हर किसी का अहंकार तोड़ा है। खैर बाबा ने उनको रास्ता दिखाया, गुण महाराज को मानना भी पड़ा। क्या करते; टीका में अटक जो गए थे। कोई चारा भी नहीं था उनके पास। वे मुंबई में काका साहब के यहां पहुंचे। वहां रातभर उनके दिमाग में चिंतन-मनन का दौर चलता रहा। अगले दिन सबसे-सबेरे जब उनकी नींद टूटी, तो उनके कानों में मीठी वाणी सुनाई दी जैसे कोई गुनगुना रहा हो। उसके बोल थे-कुछ लाल रंग की साड़ी, जिसका जरीदार किनार है, उससे मिलते-जुलते थे। दास गणु महाराज जब बाहर गए, तो देखा कि नौकरानी रोजमर्रा के काम करते हुए लाल रंग की साड़ी; जिसका जरीदार किनार है, गुनगुना रही थी। वह बहुत खुश होकर अपनी मस्ती में गुनगुनाए जा रही थी।
हालांकि ईशावास उपनिषद के मूल ग्रंथ में और हिंदी अनुवाद में उस नौकरानी का नाम नहीं दिया है। मलकरणी उसका नाम था। बहरहाल, दास गणु महाराज को उस पर दया आ गई और उन्होंने उसे लाल रंग की जरीदार साड़ी मंगाकर दे दी। साड़ी मिलते ही वह बड़ी खुश हो गई। उसने बड़ी तन्मयता से साड़ी पहनी। उसके बाद पूरे दिन उल्लास के साथ घर का कामकाज निपटाया।
अगले दिन दास गणु महाराज ने देखा कि मलकरणी फिर से वही अपनी फटी-पुरानी साड़ी पहनकर काम पर आई थी। दास गणु महाराज ने हैरानी से उससे सवाल किया-मैंने जो साड़ी तुम्हें दी थी, उसे पहनकर क्यों नहीं आई, उसे कहां रख दी? मलकरणी ने कहा-रोज नई साड़ी पहन कर थोड़े ही आऊंगी! उसे तो मैंने संदूक में रख दिया। यह कहकर मलकरणी काम पर लग गई और दूसरा गीत गाने लगी। बस दास गणु महाराज को अपनी जिज्ञासा का समाधान मिल गया कि; खुशी जो है, वो किसी चीज पर आधारित नहीं है। जो खुश रहना चाहता है, वो हमेशा खुश रहता है। कहीं भी; किसी भी चीज और परिस्थति में खुशी ढूंढ निकालता है। ...और जो खुशी की तलाश में तनाव पालता है, उसे साक्षात परमब्रह्म भी खुश नहीं रख सकते। यदि आपकी खुशी किसी चीज पर आधारित है, तो आप भगवान में; अपने साई में विश्वास नहीं रखते। यदि किसी चीज के मिल जाने पर या खो जाने पर आपकी खुशी आती या जाती है, तो आप नुकसान में रहेंगे।
बाबा का भक्त था खुर्द गुजरी नानावली। उसका असली नाम था शंकर नारायण वैद्य। बाबा के शिर्डी में आने से पहले से ही वो वहां था। वह कुछ अलग तरह का व्यक्ति था। कुछ कहते वह सनकी था। कभी वो निर्वस्त्र घूमने लगता, तो कभी अपनी जेब में सांप, बिच्छू रखकर घूमता। हां, नुकसान किसी का नहीं करता था। जब बाबा शिर्डी पहुंचे, मंदिर के पास नानावली अचानक कहीं से आ पहुंचा और बोला-आओ मामा। बाबा को उसने मामा बना लिया था।
समय गुजरता गया। नानावली यूं ही सनकी हरकतें करता रहा। उसका एक ही नारा था। बाबा की फौज करेगी मौज। वो खुद को बाबा की सेना का कमांडर यानी सेनापति कहता। शिर्डी के लोग कहते बाबा का गुंडा है यह। यह बात उस वक्त की है, जब बाबा की ख्याति खूब हो गई थी और लाइन लगती थी उनके दर के सामने।
एक बार की बात है, नानावती अचानक दनदनाते हुए मंदिर में आ घुसा। जो लोग बाबा के लिए पूजा की थाली लाए थे, वो गिर गईं। लोगों के हाथों से बाबा के लिए लाए उपहार भी गिर गए। भक्तों में अफरा-तफरी मच गई। नाना ने बाबा से जाकर कहा-चल उठ अपने आसन से। बाबा उठे, तो नानावली खुद बाबा के आसन पर जाकर बैठ गया। बाबा ने कुछ नहीं कहा, बगल में खड़े हो गए। नानावली ने प्रश्न किया-क्यूं नवाब कैसे हो? बाबा ने कहा-एक दम मजे में हूं। नाना ने फिर पूछा-अब दुनिया कैसी लग रही है? बाबा ने कहा-वैसी ही जैसे पहले लगती थी।
बाबा से यह उत्तर सुनते ही नानावली आसन से उठा और बाबा के कदमों में जा गिरा। फिर वहां से भाग गया। शिर्डी वाले कहते हैं कि नानावली के अंदर कोई पहुंची हुई आत्मा थी, जिसने बाबा की परीक्षा लेने के लिए यह प्रपंच रचा था। वह जानना चाहता था कि यदि बाबा को उनके स्थान से हटा दिया जाए, तो क्या वह पहले की तरह ही रहेंगे।
मलकरणी की साड़ी और नानावली के उदाहरण से यही साबित होता है कि यदि हमारी खुशी किसी कारण पर आश्रित है, तो हम अभी ईश्वर से दूर हैं। साई जो हैं, वो जन्मजन्मांतर के बंधन में बेहद यकीन रखते थे। नाना साहब चांदोलकर को उन्होंने कैसे बुलवाया इसकी कथा भी रोचक है। नाना साहब डिप्टी कलेक्टर थे शिर्डी से करीब 15 किमी पर कोपर गांव में वह सीमांकन करने आए हुए थे। अप्पा कुलकर्णी शिर्डी के ही रहने वाले थे उनके रैवेन्यू डिपार्टमेंट में थे। तो नाना साहब ने अपनी मदद के लिए अप्पा को बुलवाया। अप्पा कुलकर्णी ने बाबा से अनुमति ली, क्योंकि शिर्डी से बिना बाबा की अनुमति लिए कोई जा नहीं सकता था और बिना बाबा की अनुमति के कोई कोई भी द्वारकामाई की सीढ़ी चढ़ नहीं सकता था।
यदि आप में से कोई भी वहां गया है, तो यकीन मानिए उसे बाबा ने खुद अनुमति दी है, वरना बिना अनुमति आप वहां जा ही नहीं सकते थे। बहरहाल, अप्पा कुलकर्णी बाबा के पास गए। बाबा ने कहा-ठीक है। जाओ और वहां नाना से कहना कि मैंने उसे बुलाया है। अप्पा कुलकर्णी हतप्रभ; यह नाना कौन हैं? बाबा ने कुलकर्णी के चेहरे के भाव पढ़ लिए। वे फिर बोले-अरे जाओ भई वहां तुम्हारा एक अफसर है उसका नाम है नाना। अप्पा कुलकर्णी तो ठहरे मुलाजिम बेचारे; उनको क्या मालूम साहिब का नाम। वहां गए, तो पता चला नारायण गोविंद चांदोरकर को नाना साहब के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने बाबा का संदेश नाना साहब को दे दिया। नाना साहब ने अहंकार में सवाल किया, वह फकीर क्यों मिलना चाहता है मुझसे? मैं ऐसे फकीरों से नहीं मिलता। कुलकर्णी ने बाबा को संदेश पहुंचा दिया कि नाना ने तो स्पष्ट मना कर दिया आपसे मिलने को। बाबा ने कहा, कोई बात नहीं। बाबा ने सवाल किया, अगली बार जामाबंदी याने कि सीमांकन कब होने जा रहा है। अप्पा ने कहा-बाबा कोई छह महीने बाद होगा; अब तो। बाबा ने कहा-ठीक है तुम जाओ तो मुझसे पूछ के जाना और नाना को साथ लेकर ही आना।
अप्पा अगली बार भी गए, बाबा ने फिर वहीं बात दोहराई। अप्पा फिर नाना के पास पहुंचे और साई की बात दुहराई। नाना ने फिर जाने से मना कर दिया। इस तरह तीन साल बीत गए। बाबा ने बुलाना नहीं छोड़ा और नाना न आने की जिद पर अड़े रहे। तीन साल बाद फिर अप्पा बाबा के पास गए। बाबा ने उन्हें फिर से नाना को बुलाने भेजा। इस बार नाना के मन में भाव जगे, उन्हें लगा कि ये फकीर मुझे क्यों बुला रहा है मेरा नाम भी जानता है ये तो? लिहाजा मन में कई सवाल लिए आखिरकार इस बार नाना जा पहुंचे बाबा के दरबार में। नाना ने जाते ही प्रश्न किया-आपने मुझे क्यूं बुलाया! बाबा ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-मेरा और तेरा चार जन्मों का रिश्ता है। दुनिया में कई नाना हैं, मैंने तुझे ही क्यों बुलाया; सोच जरा?
इसके बाद देखिए नाना साहब ने बाबा के संदेश वाहक का कार्य किया। संपूर्ण महाराष्ट्र, विदर्भ और खान देश में बाबा की ख्याति फैलाई। बाबा के वे भक्त जो बाद में खुद भी अपने-अपने कर्मों के कारण प्रसिद्ध हुए; उन सभी को नाना साहब शिर्डी लाए थे।
तब की एक कहानी...
बाबा के परमभक्त थे श्यामा। एक बार बाबा उनसे बोले; मेरा-तेरा 72 जन्म का साथ है। श्यामा मुस्कराते हुए बाबा की सेवा में लगे रहे। अचानक बाबा ने उनके गाल पर चिकोटी काट ली। श्यामा तो कभी बाबा से नाराज होते नहीं थे, लेकिन उस दिन उन्होंने बाबा से कहा- बाबा तुम कैसे देव हो; ये सब हरकते मत करो हमारे साथ; हमें पसंद नहीं। बाब ने हंसते हुए कहा-तुम्हें कैसा देव चाहिए? श्यामा ने कहा-ऐसा देव जो रोज हमें मीठा-मीठा और अच्छा-अच्छा खाने को दे। रोज नए कपड़े दे और आखिर में बोल पड़े-हमें सुख से रखें। बाबा ने तुरंत कहा-इसीलिए तो मैं यहां आया हूं। श्यामा! मेरा-तेरा 72 जन्मों का नाता है।
Shama |
ठीक ऐसा ही किस्सा श्रीमती खापरडे के साथ हुआ। बाबा रोज दोपहर में ही खाना खाते थे। एक बार यदि पर्दे गिर जाएं, तो फिर किसी को भी बाबा के कक्ष में जाने की अनुमति नहीं होती थी। कुछ खास जैसे तात्या, श्यामा ही बाबा के साथ भोजन करते थे। एक दिन श्रीमती खापरडे ने अचानक परदा हटा दिया। दरअसल, उन्हें बहुत इच्छा थी बाबा को नैवेद्य चढ़ाने की। पर्दा हटाकर उन्होंने थाली बाबा के सामने रख दी। बाबा ने बाकी सारा भोजन अलग रख दिया और उसी थाली से स्वाद लेकर खाने लगे। इस पर श्यामा ने उनसे पूछा- बाबा यह क्या है? बाकी भक्त इतने प्यार से तुम्हारे लिए भोजन लेकर आए और तुमने सब परे कर इस बाई की थाली में से ही खाना पसंद किया? बाबा ने तात्या और श्यामा की ओर देखते हुए श्रीमती खापरडे को जवाब दिया-मेरा इसका कई जन्मों का नाता है। यह कुछ जन्मों पहले साहूकार के यहां मोटी गाया थी। फिर इसका जन्म एक क्षत्रिय परिवार में हुआ और अब ब्राहमण परिवार में यह जन्मी है। हर जन्म में मेरा इसका नाता रहा है।
बाबा का मानना था कि यदि तुम्हारे पास कोई आता है तो तुम्हारा उसका जरूर कोई पुराना ऋणबंध है। यदि सड़क पर भी कोई भिखारी आता है, तो उसका भी तुमसे पुराने जन्म को कोई ऋण रहा है जिससे वह तुम्हें मुक्त करने आया है। यदि तुम उसकी मदद न भी करना चाहो, तो उसे दुत्कारों मत। कितनी अच्छी सीख देते हैं बाबा। यदि कोई हमारे पास मदद के लिए आया है, तो इसे खुदा की नेमत समझें कि; उसने हमें इस लायक बनाया है। हम उसकी मदद करें या न करें ये हमारी सद्बुद्धि पर निर्भर करता है।
No comments:
Post a Comment