बाबा को ज्ञात हो गया कि; नाना साहब को अपनी गलती समझ आ गई है। बाबा
थोड़े नरम हुए और बोले, नाना! अबकी बार तो तुझे बहुत छोटा-सा दंड दिया है,
लेकिन गलती दुहराई, तो समझ लेना बड़ी सजा मिलेगी। बाबा के इस कथन में बड़ा
आशय छिपा हुआ था। गलतियां हर इनसान से होती हैं, लेकिन एक ही गलती बार-बार
दुहराने वाला कभी जिंदगी में आगे नहीं बढ़ सकता। मार्ग चाहे, धार्मिक हो या
सांसारिक।
खैर, ऐसे कईं किस्से
हैं दत्तात्रेय भगवान और बाबा के। एक और ऐसी ही कहानी सुनिए। एक सज्जन जो
गोवा से शिर्डी आए थे, जिनसे बाबा ने पैसे नहीं लिए थे। स्वाभाविक-सी बात
है; जो बाबा सबसे दान-दक्षिणा के तौर पर पैसे मांग लेते थे, जब किसी के साथ
ऐसा न करें, तो सामने वाले को हैरान तो होना ही था। बाबा ने उन सज्जन की
जिज्ञासा कुछ यूं शांत की। बाबा ने उन्हें एक किस्सा सुनाया। इसमें सार
छुपा था कि, बाबा ने उनसे पैसे क्यों नहीं मांगे?
बाबा
ने बताया, मेरा एक रसोइया था। उसने मेरे पैसे चुरा लिए थे। मैं एक बार जब
धर्मशाला में सोया था, तो वह पीछे से आया और दीवार में छेद करके मेरे पैसे
चोरी करके ले गया। जब सुबह मुझे पैसे नहीं मिले, तो मैं दिनभर रोता। उन
पैसों के लिए किलपता रहा। फिर एक बार सड़क चलते साधू ने मुझसे कहा कि; तू
फिकर न कर, तेरी चीज तेरे पास वापस आ जाएगी। उन्होंने कहा, लेकिन तब तक तू
अपनी पसंद की कोई एक चीज खाना छोड़ दे। गोवा वाले सज्जन को याद आया कि, यह
घटना तो उनके साथ हुई थी। उन्होंने बाबा को बताया कि, उसके यहां एक पुराना
ब्राह्मण रसोइया था, जिसने 30 हजार रुपए चुरा लिए थे। गोवा वाले सज्जन आगे
कहने लगे, मैं बहुत परेशान हुआ। एक दिन सच में मुझे गली गुजरते एक संत ने
कहा कि, तुम अपनी मनपसंद चीज खाने की छोड़ दो, पैसे वापस मिल जाएंगे। मैंने
चावल खाना छोड़ दिया। कुछ ही दिन में सचमुच मेरा वह रसोइया वापस आया और
उसने मुझे मेरे पैसे वापस कर दिए। उसने अपने किये पर माफी भी मांगी।
गोवा
वाले सज्जन बताने लगे, जब मैं यहां (शिर्डी) आने के लिए निकला, तो स्टीमर
में जगह नहीं थी। स्टीमर का एक कर्मचारी आया और मैंने उससे इल्तजा की। उसने
मुझे स्टीमर में चढऩे की इजाजत दे दी। मैं बंबई पहुंचा और वहां से शिर्डी आ
गया।
वो सज्जन कहने लगे, बाबा ने मुझसे दक्षिणा
नहीं ली, लेकिन मुझे अपनी मूढ़ी वापस लौटा दी। बहरहाल, उस दिन श्यामा ने
गोवा वाले सज्जन को भोजन में चावल खिलाए।
ऐसी ही
एक ओर कहानी आती है श्रीमान चोलकर की। वे पहले तो बेरोजगार थे और जब काम
मिला, तो आमदनी इतनी नहीं थी कि वे शिर्डी जाकर बाबा के दर्शन कर पाते।
घर-परिवार भी बहुत बड़ा था। एक दिन चोलकर ने मन में बाबा से इल्तजा की,
बाबा मुझे शिर्डी बुला लो। जब तक मैं तुम्हारे दर्शन नहीं कर लेता, चाय में
शक्कर नहीं डालूंगा, फीकी चाय ही पीयूंगा। उन्होंने एक-एक चम्मच शक्कर
बचाकर इतना पैसा जोड़ लिया कि, शिर्डी जा सकें। जब श्रीमान चोलकर बाबा के
पास शिर्डी पहुंचे, तो बाबा ने समीप खड़े बापू साहेब जोक से कहा, जोक इधर
आ! ये जो हमारे अतिथि आए हैं न; इन्हें चाय में शक्कर जरूर डालकर पिलाना।
कितनी
ही लीलाएं हैं बाबा की। कितनी ही बातें। बाबा अन्न का कभी निरादर नहीं
करते थे। और न ही उन्होंने अन्न को धर्म-सम्प्रदाय जातिगत आधार पर बांटा।
वे सबको बराबर खिलाते थे, सबके साथ खाते थे और किसी से भी मांगने में
उन्हें झिझक नहीं होती थी। जो मिले, वो ले लेते थे। बाबा को जो भी भिक्षा
में मिलता, वो सबसे पहले मस्जिद में आकर उसे धुनी को अर्पित करते; फिर
एक-दो निवाले खुद खाते और बाकी एक बड़े मटके; जिसे वह कुडम्बा कहा करते थे
उसमें डाल देते थे। उसके बाद वह कुडम्बा सबके लिए खुला था। जमादारनी आती,
तो वह उससे भोजन लेती, कोई भक्त आता तो उससे निवाला लेता या कोई फकीर आता
तो भी बाबा उसमें से उसे भोजन लेने को कहते थे। यहां तक कि कुत्ते-बिल्ली
को भी उसमें मुंह डालकर खाने की इजाजत थी। बाबा किसी से कुछ नहीं कहते थे।
वे मानते थे कि, किसी को खाने से रोकना अन्न का अपमान है।
बाबा
ने एक बार कहानी सुनाई। इस कहानी में वो स्वयं भी थे। उन्होंने कहा, हम
चार दोस्त थेे। हममें से एक महाज्ञानी था। वह समझता था कि उसने ब्रहम ज्ञान
प्राप्त कर लिया है। उसे अब किसी गुरु की आवश्यकता नहीं है। दूसरा दोस्त
महान कर्मकांडी था। उसके हिसाब से कर्म ही सबकुछ था। तीसरा दोस्त बेहद
बुद्धिमान था और वह चातुर्य को ही सबकुछ समझता था। चौथा मैं स्वयं। बाबा ने
आगे कहा, हमें अपना कर्म करते जाना चाहिए। हर कर्म को सद्गुरुको समर्पित
करते जाना चाहिए। बाकी आगे हमारी सुध सदगुरु लेगा। बाबा आगे सुनाते हैं, हम
चार दोस्त सत्य की खोज में निकले। वन-वन भटकते रहे। तभी कहीं से कोई भील आ
गया। भील ने कहा, तुम इस वन में भटक रहे हो, रास्ता भूल जाओगे? चलो मैं
तुम्हें सही रास्ते पर ले जाऊं। लेकिन इन चारों ने उसकी बात नहीं मानी। तब
बाबा ने मध्यम सुर में कहा, हम भील की बात मान लेते हैं। हमें पथ प्रदर्शक
मिल जाएगा, लेकिन बाकी तीनों बिल्कुल राजी नहीं थे। तीनों ने उनकी बात टाल
दी।
तीनों भील की अनसुनी कर आगे बढ़ गए। बाबा
मजबूरी में उनके पीछे हो लिए। कुछ देर बाद चारों रास्ता भटक गए और
भूख-प्यास से बेहाल हो गए। वो भील कुछ दूरी पर फिर उन्हें मिला। उसने अपनी
पोटली आगे बढ़ाते हुए कहा, आप लोग भोजन कर लीजिए। बाबा के अलावा बाकी तीनों
ने फिर उसकी बात नहीं मानी। बाबा ने तीनों को समझाया कि, जब भी कोई
प्रेमपूर्वक भोजन का आग्रह करें उसे ठुकराना नहीं चाहिए। आखिरकार बाबा की
बात मानकर सभी ने भील का दिया भोजन ग्रहण किया। जैसे ही अन्न पेट में
पहुंचा, उनकी क्षुधा का निवारण हो गया।
बाबा के
अनुसार उसी समय उनके सामने सद्गुरुप्रकट हुए बोले, चल मैं तुझे ज्ञान देता
हूं। वह तीनों तो ऐसे ही भटक रहे हैं। बाबा के ही शब्दों में, मेरे सद्गुरु
मुझे पकड़कर ले गए। मुझे एक रस्सी से बांधा और कुएं में उल्टा लटका दिया।
मैं कुएं के अंदर पानी से इतनी दूरी पर था कि, बस मुंह न डूबे और न ही मैं
अपने हाथों से चुल्लूभर पानी पी सकूं। चार-पांच घंटे तक मैं ऐसे ही कुएं
में लटका रहा।
बाबा यह कहानी अपने भक्तों को
इसलिए सुना रहे थे ताकि, उन्हें मालूम चले कि, दुनिया में सबको अपनी शक्ति,
भक्ति और विश्वास की परीक्षा देनी होती है। बाबा की यह कहानी काल्पनिक भी
हो सकती थी, लेकिन उसमें गूढ़ रहस्य छुपा हुआ था। सिर्फ कर्म, धर्म और
ज्ञान से ही ब्रहमज्ञान हासिल नहीं होता। अगर हम धैर्य नहीं रखेंगे, तो
सारे जतन और हमारे कर्म-ज्ञान बेकार हैं।
हेमाडपंत
ने सद्चरित्र में लिखा है कि, इतने घंटे कुंए के ऊपर बंधे रहना कोई आसान
काम नहीं था। बाबा कहते हैं, मुझे लटका कर मेरे गुरु वहां से चले गए। 4-5
घंटे बाद वे लौटे और पूछने लगे, कैसा लग रहा है? मैंने कहा कि मैं परम आनंद
का अनुभव कर रहा हूं।
Shri Hemadpant |
यह तो थी बाबा की लीला,
लेकिन क्या हम ऐसा कर पाते हैं? जब ऊपर वाला हमारी परीक्षा लेता है, जब
कठिनाई के मार्ग पर भेजकर परखता है, तो हम बिल्कुल ऐसा नहीं कह पाते। संयम
खो बैठते हैं और ईश्वर से हमारा विश्वास उठने लगता है। गुरु की बातें बेकार
लगने लगती हैं और हम नये गुरु की तलाश में निकल पड़ते हैं। सोचने लगते हैं
कि, शिव मंदिर में कुछ नहीं हो पा रहा है, तो अब हम गणेश मंदिर में लड्डू
चढ़ाकर देखते हैं, शायद बुरे दिन चले जाएं!
बाबा आगे कहानी
सुनाते हैं, मेरे सद्गुरु ने मुझे रस्सी से नीचे उतारा। मैं 12 साल उनके
साथ रहा। उन्होंने मुझे बहुत प्यार दिया। मैं एकटक उन्हें देखता रहता था।
वह मुझे इतना प्यार करते जितना कि एक कछुयी नदी के एक ओर खड़ी रहकर अपने
बच्चों को प्रेम भरी निगाह से ताकती रहती है।
Promise once made must be kept. It's important to think and make one
ReplyDeleteOm Shri Sai Nathay Namah
ReplyDeleteOm Sai Ram
Om sai ram
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