Sunday, 30 August 2015

साई से मांगते क्या हो..

साई बाबा के चमत्कारों से चमत्कृत उनके भक्त साई बाबा को भगवान ही मानते हैं. भगवान के रूप में सद्गुरु. भगवान के रूप में मित्र या सखा. भगवान के रूप में ही रक्षक. भगवान के रूप में एक अवतार.

भगवान की व्याख्या करने बैठें तो महसूस होगा कि भगवान आमतौर पर हम उन्हें मानते हैं जो सर्वशक्तिमान हैं और जिन्हें पूजने से बिगड़ी परिस्थितियां बन जाती है. अपने मतलब की बात हमें बड़ी जल्दी समझ में आती है. हम अपनी महत्त्व बुद्धि के चलते ये भी समझ जाते हैं कि किसे पूजने में हमारा फायदा है, कौन हमारी जल्दी सुन लेगा और इसी कारण से हम उन्हें पूजने भी लगते हैं. वो तो दयालु हैं. सुनते ही प्रेम और करुणावश पसीज जाते हैं. लेकिन फिर जब कभी ऐसा भी हो कि हमारे मन की उन्होंने नहीं सुनी या फिर हमारी मन-मर्ज़ी के हिसाब से हमारा काम नहीं बनाया तो फिर हम कोई दूसरा आराध्य ढूंढ लेते हैं.


पूजा का स्वार्थ से गहरा नाता है. स्वार्थ जितना दुष्कर, पूजा उतनी ही लम्बी. हमारी हथेलियाँ जुडती भी हैं तो लब पर दुआ होती है और दिल में चाहत. हे भगवान! या ख़ुदा! ओ’ गॉड! वाहेगुरु! मेरा काम बना दे. और क्यों न हो! हमारी अपनी सीमाएं होती हैं, अपनी कमज़ोरिया हम अच्छे से समझते हैं. इसीलिए तो ज़्यादातर भक्त भगवान से धन-दौलत, संतान, भौतिक सम्पदा, कोर्ट-कचहरी में सफलता, विवाह, नौकरी, इत्यादि ऐसी ही चीज़ों की मांग करते हैं. हम में से कुछ समझदार तो भगवान से सौदेबाज़ी भी कर लेते हैं. “इतने गुरुवार उपवास रखूँगा”, “सवा रुपये का प्रसाद अर्पण करूंगी”, “मेरा काम हो जाए तो इतने पैसे तेरे खजाने में डालूँगा”, “इतने सोमवार जल चढ़ाने आऊँगी”, वगैरह..

क्या मेरा साई, मेरा भगवान इन सब का भूखा है? क्या वो सौदेबाज़ है कि आप अगर उसे कुछ चढ़ा देंगे तो वो आपका ऐसा काम भी कर देगा जो अनीतिगत है या कुछ ऐसा भी आपको दे देगा जिस पर आपका कोई अधिकार ही नहीं है? साई तो भाव का भूखा है. वो तो आपके भाव देखता है. कभी ऐसा भी कह कर देखिएगा साई से कि आपका काम हो या न हो आप उसके दर पर माथा टेकेंगे, या आप इतने बेबस और लाचारों की मदद करेंगे. साई से शर्त मत लगाओ. काम हो या न हो, जो संकल्प मन से किया है, उसे पूर्ण करना. फिर देखो मेरे साई का जलवा. जो तुम्हारी किस्मत में है वो तो मिलकर रहेगा, मेरे साई ने कृपा बरसा दी तो वो भी मिल जायेगा जो तुम्हारी किस्मत में नहीं है. वो तुम्हारा समर्पण देखता है.
जो पैसे तुम चढ़ाने की बात कर रहे हो, मत भूलो कि, वो तो तुम्हे उसकी कृपा से ही मिले हैं. तुम उसे क्या दोगे और कितना दोगे? जब उसकी कृपा मिल जाती है तो वो हमें हमारी औकात से कहीं ज़्यादा देता है. हमारी झोलियाँ छोटी पड़ जाती हैं. हमारे साथ दिक्कत ये है कि हम अपने हिसाब से मांगते हैं और वो अपने हिसाब से देने को आतुर बैठा है. जो वो देना चाहता है, हम मांगते ही कब है!  

बार-बार कुछ तुच्छ मांगने से अच्छा है कि उससे सिर्फ इतना ही कहें कि साई, तुझे मालूम है कि मेरे लिए क्या अच्छा है. जो तुझे ठीक लगे वो कर देना. अगर तकलीफ़ देनी ही हो तो मेरा हाथ मत छोड़ना. वज़न देना ही हो तो पीठ मज़बूत कर देना. अगर तेरी कृपा और साथ से, मैं इन सब से निकलकर एक बेहतर इंसान बन सकता हूँ, तो बेशक मैं तेरी शरणागत हूँ. तू जो चाहे मेरा करे. मेरा साथ कभी मत छोड़ना. तेरा हाथ हमेशा मेरे सिर पर रहे. अपने गले से लगा कर रखना. मैं कभी फिसलूँ भी तो मुझे थाम लेना. तेरी राह मैं कभी न छोडूं.

वो भी तुम्हे छोड़ना नहीं चाहता. कभी उस पर, अपने भाव पर भरोसा तो रखकर देखो! फिर देखो कि साई क्या और कैसे करता है. तुम्हारी चिंताएँ हर लेगा. तुम्हे पलकों में सजाकर रखेगा. बिन मांगे तुम्हे वो सब देगा जिसकी तुमने कल्पना भी नहीं की होगी. और फिर जब वो ये परख लेगा कि उसकी इन सब रहमतों के बाद भी तुम नहीं बदले हो तो वो तुम्हे अपना स्वरुप भी दे देगा. प्रेम, करुणा, विवेक, सदाचरण, परमार्थ की प्रेरणा और सामर्थ्य, धीरे-धीरे तुम्हारी झोली में आकर गिरने लगेंगे. यह सब तो तुमने नहीं माँगा था. स्वार्थी से परमार्थी बन जाओगे. बस अपनी मांगो का स्वरुप बदल दो और उसमें विश्वास रख, सब्र से काम लो.

मेरा साई तो देने के लिए ही बैठा है..

बाबा भली कर रहे..

साई से मांगते क्या हो..




बाबा की बातें करते-करते, श्री साई अमृत कथा में सुमीत पोन्दा ‘भाईजी’ बताते हैं कि साई बाबा के चमत्कारों से चमत्कृत उनके भक्त साई बाबा को भगवान ही मानते हैं. भगवान के रूप में सद्गुरु. भगवान के रूप में मित्र या सखा. भगवान के रूप में ही रक्षक. भगवान के रूप में एक अवतार.

भगवान की व्याख्या करने बैठें तो महसूस होगा कि भगवान आमतौर पर हम उन्हें मानते हैं जो सर्वशक्तिमान हैं और जिन्हें पूजने से बिगड़ी परिस्थितियां बन जाती है. अपने मतलब की बात हमें बड़ी जल्दी समझ में आती है. हम अपनी महत्त्व बुद्धि के चलते ये भी समझ जाते हैं कि किसे पूजने में हमारा फायदा है, कौन हमारी जल्दी सुन लेगा और इसी कारण से हम उन्हें पूजने भी लगते हैं. वो तो दयालु हैं. सुनते ही प्रेम और करुणावश पसीज जाते हैं. लेकिन फिर जब कभी ऐसा भी हो कि हमारे मन की उन्होंने नहीं सुनी या फिर हमारी मन-मर्ज़ी के हिसाब से हमारा काम नहीं बनाया तो फिर हम कोई दूसरा आराध्य ढूंढ लेते हैं.


पूजा का स्वार्थ से गहरा नाता है. स्वार्थ जितना दुष्कर, पूजा उतनी ही लम्बी. हमारी हथेलियाँ जुडती भी हैं तो लब पर दुआ होती है और दिल में चाहत. हे भगवान! या ख़ुदा! ओ’ गॉड! वाहेगुरु! मेरा काम बना दे. और क्यों न हो! हमारी अपनी सीमाएं होती हैं, अपनी कमज़ोरिया हम अच्छे से समझते हैं. इसीलिए तो ज़्यादातर भक्त भगवान से धन-दौलत, संतान, भौतिक सम्पदा, कोर्ट-कचहरी में सफलता, विवाह, नौकरी, इत्यादि ऐसी ही चीज़ों की मांग करते हैं. हम में से कुछ समझदार तो भगवान से सौदेबाज़ी भी कर लेते हैं. “इतने गुरुवार उपवास रखूँगा”, “सवा रुपये का प्रसाद अर्पण करूंगी”, “मेरा काम हो जाए तो इतने पैसे तेरे खजाने में डालूँगा”, “इतने सोमवार जल चढ़ाने आऊँगी”, वगैरह..

क्या मेरा साई, मेरा भगवान इन सब का भूखा है? क्या वो सौदेबाज़ है कि आप अगर उसे कुछ चढ़ा देंगे तो वो आपका ऐसा काम भी कर देगा जो अनीतिगत है या कुछ ऐसा भी आपको दे देगा जिस पर आपका कोई अधिकार ही नहीं है? साई तो भाव का भूखा है. वो तो आपके भाव देखता है. कभी ऐसा भी कह कर देखिएगा साई से कि आपका काम हो या न हो आप उसके दर पर माथा टेकेंगे, या आप इतने बेबस और लाचारों की मदद करेंगे. साई से शर्त मत लगाओ. काम हो या न हो, जो संकल्प मन से किया है, उसे पूर्ण करना. फिर देखो मेरे साई का जलवा. जो तुम्हारी किस्मत में है वो तो मिलकर रहेगा, मेरे साई ने कृपा बरसा दी तो वो भी मिल जायेगा जो तुम्हारी किस्मत में नहीं है. वो तुम्हारा समर्पण देखता है.
जो पैसे तुम चढ़ाने की बात कर रहे हो, मत भूलो कि, वो तो तुम्हे उसकी कृपा से ही मिले हैं. तुम उसे क्या दोगे और कितना दोगे? जब उसकी कृपा मिल जाती है तो वो हमें हमारी औकात से कहीं ज़्यादा देता है. हमारी झोलियाँ छोटी पड़ जाती हैं. हमारे साथ दिक्कत ये है कि हम अपने हिसाब से मांगते हैं और वो अपने हिसाब से देने को आतुर बैठा है. जो वो देना चाहता है, हम मांगते ही कब है!  

बार-बार कुछ तुच्छ मांगने से अच्छा है कि उससे सिर्फ इतना ही कहें कि साई, तुझे मालूम है कि मेरे लिए क्या अच्छा है. जो तुझे ठीक लगे वो कर देना. अगर तकलीफ़ देनी ही हो तो मेरा हाथ मत छोड़ना. वज़न देना ही हो तो पीठ मज़बूत कर देना. अगर तेरी कृपा और साथ से, मैं इन सब से निकलकर एक बेहतर इंसान बन सकता हूँ, तो बेशक मैं तेरी शरणागत हूँ. तू जो चाहे मेरा करे. मेरा साथ कभी मत छोड़ना. तेरा हाथ हमेशा मेरे सिर पर रहे. अपने गले से लगा कर रखना. मैं कभी फिसलूँ भी तो मुझे थाम लेना. तेरी राह मैं कभी न छोडूं.

वो भी तुम्हे छोड़ना नहीं चाहता. कभी उस पर, अपने भाव पर भरोसा तो रखकर देखो! फिर देखो कि साई क्या और कैसे करता है. तुम्हारी चिंताएँ हर लेगा. तुम्हे पलकों में सजाकर रखेगा. बिन मांगे तुम्हे वो सब देगा जिसकी तुमने कल्पना भी नहीं की होगी. और फिर जब वो ये परख लेगा कि उसकी इन सब रहमतों के बाद भी तुम नहीं बदले हो तो वो तुम्हे अपना स्वरुप भी दे देगा. प्रेम, करुणा, विवेक, सदाचरण, परमार्थ की प्रेरणा और सामर्थ्य, धीरे-धीरे तुम्हारी झोली में आकर गिरने लगेंगे. यह सब तो तुमने नहीं माँगा था. स्वार्थी से परमार्थी बन जाओगे. बस अपनी मांगो का स्वरुप बदल दो और उसमें विश्वास रख, सब्र से काम लो.

मेरा साई तो देने के लिए ही बैठा है..

बाबा भली कर रहे..

व्यर्थ है खोज गुरु की..


“जाना है तो ऊपर जाओ. मार्ग दुर्गम है. रास्ते में सिंह और भेड़िये भी मिलते हैं
लेकिन अगर पथ-प्रदर्शक साथ में हो तो फिर चिंता की कोई बात नहीं.
वह तुम्हे गड्ढों से बचाते हुए अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचा देता है.”

उपरोक्त बातें बाबा ने श्री दाभोलकर की उपस्थिति में एक अन्य भक्त से तब कहीं थीं जब अपने ज्ञान, पद और उपलब्धियों के अहंकार में चूर, श्री दाभोलकर बालासाहेब भाटे से गुरु की आवश्यकता विषय पर व्यर्थ विवाद करने के बाद उनके साथ मस्जिद में आरती हेतु गए थे. प्रश्न गुरु की खोज का नहीं है. गुरु की खोज करने से तब तक कोई भी लाभ नहीं होता जब तक हम शिष्य बनने के लिए तत्पर न हों. आवश्यकता तो है अपने अन्दर शिष्यत्व पैदा करने की. किसी पथ-प्रदर्शक के अधीन हो जाने की इच्छा को स्वयं से प्रगट करना ये शिष्यत्व का मूल है. स्वतंत्र होने के लिए पराधीन होने की इच्छा होनी चाहिए. जब हम यह मान लेते हैं कि हमें कुछ नहीं पता और हम बिन पतवार की नांव की तरह भटक रहे हैं और हमें किसी ऐसे हाथ की, मांझी की ज़रुरत है जो हमें किनारे लगा दे, तब हम यह मान सकते हैं कि हमारे अन्दर शिष्यत्व का भाव पैदा हो रहा है और हम अपना अहंकार और दंभ छोड़कर किसी गुरु के अधीन हो जाने के लिए अब तैयार हैं, तब हमें अवश्य ही गुरु मिल जाते हैं. जब हम अपने संशयों, अभिमान, अहंकार, हेंकड़ी से मुक्त होने के लिए अपने आप को तैयार कर लेते हैं तब गुरु मिल ही नहीं जाते हैं, भगवान स्वयं सद्गुरु का रूप लेकर हमारे सामने आ खड़े होते हैं.

गुरु ऐसे अपने अन्दर हमें ऐसे समो लेता है जैसे एक माँ अपने बच्चों को अपने आँचल में छुपा लेती है. उसके विशाल पंखों के नीचे हमें एक नया आसमान मिलता है. उसके बताये हुए रास्ते पर चलने से हम नित नए कीर्तिमान रचते हैं. उसकी करुणा को अपने अन्दर समाहित कर लेने से हम अपने साथ-साथ दूसरों का भी उद्धार करने को तत्पर हो उठते हैं. उसकी ऊँगली के एक इशारे से जीवन को एक नयी दिशा मिल जाती है. उसकी आँखों में प्रतिपल उमड़ता वात्सल्य हमारे असंवेदनशील हो चुके मानस में नए प्राण फूंकता है. उसके दुलार से हमारा विवेक फिर स्पंदन करने लगता है. उसकी सुरक्षा में हम हर पल अपने आप को आविष्कृत करते रहते हैं. दिने-दिने नवं-नवं.. हर रोज़ नए-नए. इतने सुन्दर कि अपना काया-कल्प देख हम अपने गुरु की शक्ति पर मोहित हो उठें. गुरु हमें बदल डालते हैं. साई हमें इस हद तक बदल डालते हैं कि हमें अपने ही बदले स्वरूप पर आश्चर्य हो उठता है. फिर एक समय ऐसा भी आता है जब हम गुरु के गुणों को अपने अन्दर इतना समाहित कर लेते हैं कि उनसे भिन्नता संभव ही नहीं होती.

क्यों चाहिए गुरु? पैदा होने के बाद हम हमेशा हर कार्य कभी न कभी पहली बार करते हैं. सही गुरु के अभाव में उस कार्य को करते हुए हम अपने आप को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं. गुरु समय-समय पर अलग-अलग रूपों में हमारे सामने आता है. कभी माता तो कभी पिता बन कर. कभी भाई या बहन तो कभी पत्नी या मित्र बनकर. कृष्ण ने तो राधा को भी गुरु के समतुल्य माना है. हमारे आचार्य, शिक्षक सभी हमारे गुरु ही हैं. हमारे बच्चे भी हमारे गुरु बन सकते हैं तो हमारे अधीनस्थ काम करने वाला भी हमें सही राह दिखा सकता है. ज़रुरत है कि हम जिज्ञासु बने. अपने ऊपर चढ़े हुए तमाम खोलों को निकाल फेंकने का साहस रखें. यह मानने के लिए तैयार रहें कि हमें सीखने की ज़रुरत है. हाथ में आपके प्रश्न का उत्तर लेकर गुरु आपके सामने होगा. जीवन के अलग-अलग पड़ावों पर गुरु अलग-अलग स्वरुप में हमारी सहायता के लिए हमेशा खड़ा मिलेगा लेकिन जहाँ शिष्य ने गुरु की काबिलियत पर संदेह किया या अपने आप को उससे बेहतर मानने या दिखाने की कोशिश भी की तो हम अपना शिष्यत्व खो बैठते हैं. गुरु चला जाता है. ज्ञान-रुपी पानी का बहाव रुक जाता है और रुके हुए पानी में काई जमा होने लगती है. बदबू उठने लगती है. स्वरुप बिगड़ जाता है. फिसलन होने लगती है, पतन का डर पैदा हो जाता है.

श्री साई सच्चरित्र में बाबा ने श्री दाभोलकर के माध्यम से लिखा है कि शिष्य तीन प्रकार के होते हैं. साधारण शिष्य वो जो पग-पग पर गुरु की अवहेलना करते हैं और जीवन में दुखी होते हैं. मध्यम शिष्य वो जो गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए आगे बढ़ते चलते हैं और उत्तम शिष्य वो जो गुरु की मंशा को बिन बोले ही समझ लेते हैं और विश्व को नयी दिशा देते हैं.

शिष्य ही गुरु को परिभाषित करते हैं और उसे महान बनाते हैं क्योंकि गुरु में तो ख़ुद महान बनने की कोई लालसा होती ही नहीं है. विश्वमित्र ने राम को, सान्दिपनी ने कृष्ण को और अनजान, अनाम गुरु ने साई को गढ़ा और अपने शिष्य की महानता की रौशनी में ऐसे खो गए जैसे माचिस की तीलि यज्ञ की अग्नि को प्रज्ज्वलित करते हुए अपना अस्तित्व खो देती है.

विनम्र शिष्यत्व ही महान गुरुत्व को सच्ची आदरांजलि है. 

                      बाबा भली कर रहे..
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Saturday, 29 August 2015

हर हार में जीत होती है..

जीवन में हार और जीत साथ-साथ चलते हैं. हार के बाद जीत और जीत के साथ हार लगे ही रहते हैं. जीवन के हर पहलू में ये दोनों साथ-साथ या फिर आगे-पीछे तो ज़रूर मिलते, चलते हैं. जीवन हर पल बदलता रहता है. स्याह अँधेरे के बाद उजाला होता है यह सृष्टि का नियम है और जब रात बहुत गहरी हो जाए तो मानना चाहिए कि उजाला पास ही है; सूरज बस उगने ही वाला है. प्रकृति का नियम है कि सूरज उगने पर सवेरा होता है न कि सवेरा होने पर सूरज उगता है. ठीक वैसे ही जैसे उत्कंठा के उत्पन्न होने पर ही ज्ञान प्रकट होता है न कि ज्ञान के प्रकट होने पर उत्कंठा उत्पन्न होती है. प्यास लगने पर ही हम पानी को खोजते हैं.

रात और सुबह का जो संधिकाल होता है उसे ‘कल्य’ कहा जाता है. इसी से बना है शब्द ‘कल्याण’. इसी तरह अँधेरे से उजाले की ओर हमारे सफ़र की शुरुआत ही हमारे कल्याण के मार्ग को खोलती है. हमारा भला होने की शुरुआत यहीं से होती है. अपनी ही लगाई हुई बाज़ी में अपने ही हाथों हुई अपनी हार को जीत में बदलने की कोशिश यहीं से शुरू होती है. वो पल, जब हमें यह अहसास होता है कि अब हमें अँधेरे से निकलना है और उजाले की ओर बढ़ना है, यही वो समय होता है जब हम अपने आप को खोजने की शुरुआत करते हैं.


क्या होती है ये हार और जीत? जब हम किसी भी काम के अंजाम को, उसके परिणाम को अपनी सोच या चाहे अनुसार पा लेते हैं तो हमें जीत का अहसास होता है. और जब ये परिणाम हमारी सोच के उलट आता है तब हमें हार का अहसास होता है. कर्म का मूल सिद्धांत हम बार-बार भूल जाते हैं कि हमारा अधिकार केवल कर्म पर है, उसके परिणाम पर हमारा कोई अधिकार नहीं है और इसीलिए हमें आसक्ति रखनी हो तो सिर्फ कर्म तक ही रखें, परिणाम में आसक्ति रखने से हम दुःख की बुनियाद रख रहे होते हैं. हमारे किसी भी कर्म का परिणाम हमारे लाख सर पटकने से भी हमेशा हमारे चाहे अनुसार आये ये कतई संभव नहीं है.

कहा भी तो गया है, “मन का हो तो अच्छा. न हो तो और भी अच्छा!” क्योंकि जो तब होता है वो हमारे मन का न होकर के साई के मन का होता है और वो कभी भी हमारा बुरा नहीं चाहता या होने देता. सिर्फ उसमें पूर्ण श्रद्धा रख, सब्र से काम लेना चाहिए. इससे हार होने पर दुःख की अनुभूति आहत कर, दुखी नहीं करेगी और जीत होने पर हमें अहंकार के पंख नहीं लग जायेंगे. हार होने पर भी जब हम उसका शुक्र मनाते हैं तब हम हार को हराते हैं. इसी तरह, जब हम अपनी जीत में ख़ुद श्रेय न लेकर कर साई का शुक्रिया अदा करते हैं तो हम अपनी जीत उसे समर्पित कर रहे होते हैं. तब हम जीत को जीत लेते हैं. हार को हराना और जीत को जीत लेने में ही जीवन के अँधेरे से उजाले के सफ़र का सार है.

पराजय जिसे तोड़ नहीं सकती और विजय जिसको डिगा नहीं सकती वो साई का सच्चा भक्त होता है. साई ने भी तो हार का स्वाद चखा था. श्री साई सच्चरित्र में उल्लेख आता है कि शिरडी में अपने शुरूआती दिनों में बाबा एक पहलवान की तरह रहते थे. उनके लम्बे बाल थे और शरीर बलिष्ठ. उन्हें मोहिनुद्दीन नाम के एक पहलवान ने कुश्ती के लिए ललकारा. लिखा है कि बाबा इस कुश्ती में हार गए थे. इस हार के बाद बाबा की जीवन शैली बदल गई थी. अब वो लम्बी कफनी पहनने लगे थे. बाल छोटे हो गए थे. अब वो अपनी अनोखी चिकत्सीय विधा से शिरडीवासियों की सेवा में लग गए थे. यहीं से उन्होंने आमजन को अपनी सेवा का साधन बनाया.

सवाल यह उठता है कि जब बाबा ईश्वर हैं और उनके पास तो हमारे जैसे भक्तों के सितारे बदलने की भी अदम्य शक्ति है तो यह कैसे संभव हैं कि वो एक आम पहलवान से हार जायें! यहाँ हमें यह समझना होगा कि बाबा शिलधि (शिरडी का मूल नाम) नाम के इस स्थान के बल से मनुष्य योनी में यहाँ खिंचे चले आये और इस पुण्य-भूमि को उन्होंने संवारने का काम शुरू कर दिया. यह उनका प्रारब्ध था. इस मानव रूप में उनकी तपस्या शुरू हो गयी थी जिसमे उनको एक साधारण मनुष्य की तरह तप कर, एक मिसाल अपने भक्तों के सामने रखनी थी. कुश्ती में हुई उनकी यह हार उनके इस मानव रूपी जीवन का निर्णायक मोड़ बनी जहां से उनकी आध्यात्मिक उन्नति के द्वार खुले और इसीसे हमारे और आपके जैसे साधारण मानव आलोकित होने लगे. इस अवतार में कुश्ती में मिली हार उनका मनोबल तोड़ नहीं पायी बल्कि इसी हार ने उनके जीवन को एक नयी दिशा दी. मोहिनुद्दीन से हारे इस शरीर को अब वो परमपिता के ध्येय, मानव जाती के उत्थान में लगा चुके थे. उन्होंने हार को हरा दिया था. अब वो जीत को जीतने चल पड़े थे.

बाबा के नाम में जो विश्वास रखते हैं उन्हें यह भरोसा होना चाहिए कि उनकी हर हार में जीत है. ग़म के बादल छाए तो हम मुस्कुराते रहें. अपने मन में आशाओं के दीप हमेशा प्रज्ज्वलित रखें. आज जो बिगड़ा है, वो कल जरूर बनेगा. जो आज रूठा बैठा है, वो नसीब कल ज़रूर मनेगा. साई के नाम में प्रगाढ़ विश्वास रखो. हर हार एक नयी जीत की इबारत है. हर अँधेरा उजाले की निशानी है.         
 


                      बाबा भली कर रहे..

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सम्हाल लेते हैं साई..



सदेह रहते हुए साई ने लोगों के दुखों को दूर कर उन्हे सुख के मार्ग पर डाला, उनके पापों का क्षय किया, उन्हें सत्य के मार्ग पर प्रशस्त किया. समाधि लेने के बाद उन्होंने अपने में विश्वास करने वालों को इस दुनिया की दुःख-तकलीफों के अहसास से दूर किया और ऐसी मनोस्थिति में ला कर रख दिया जहाँ दुःख होने पर भी उनका भक्त दुखी नहीं होता और सुख होने पर आसमान में उड़ने नहीं लगता. साई आज भी जीवित हैं. साई को इसीलिए तारणहार भी कहा जाता है क्योंकि उनका सान्निध्य, उनका साथ, उनकी छत्र-छाया हमें अपने बुज़ुर्ग-सी लगती है जिनके मन में हमारे लिए सिर्फ प्रेम और सद्भावना भरी रहती है. वे सिर्फ और सिर्फ हमारे उद्धार के लिए ही चिंतित होते हैं. उन्हें हमेशा हमारे भले की चिंता रहती है. 

बाबा ने कहा भी तो है..
मुझे सदा जीवित ही जानो,
अनुभव करो, सत्य पहचानो.

साई निरंतर, नित्य और शाश्वत सत्य हैं. ऐसा सत्य जो किसी भी कोण से, कहीं से भी, देखने पर बदलता नहीं है. साई तब भी थे जब हम और आप नहीं थे. आज जब हम और आप हैं तो भी साई हैं. कल जब हम न होंगे तब भी साई होंगे.  जब मेरे और आपके पास कुछ भी नहीं था तब भी साई थे और अगर कुछ ना होता तो भी साई होते. आज जब सब कुछ है तो भी साई हैं क्योंकि साई मेरे और आपके विश्वास में बसते हैं. चीज़ों और अहसासों के होने या मिटने से साई रहने और मिटने वाले नहीं हैं.

पहले थोडा-बहुत, फिर कुछ और, और उसके बाद बहुत कुछ मांगने और पाने के फेर में हम यह भूल जाते हैं कि हम साई से तो मांग रहे हैं लेकिन साई से दूर होते जा रहे हैं. दूर.. हम होते हैं. साई तो वहीँ हमारे विश्वास में, हमारे अवचेतन में बैठे मुस्कुराकर हमारे बचपने को देखते रहते हैं. हम साई का सिंहासन बदल डालते हैं उन्हें विश्वास से उठाकर अपनी मांगो पर बिठा देते हैं. अब साई को हम अपने विश्वास में न देखकर अपनी मांगो में देखते हैं. साई से मांगते-मांगते हम भूल जाते हैं कि उससे पाने की चाहत में हम उसे ही खोते जा रहे हैं. हम साई को तो मानते हैं लेकिन साई की सुनना बंद कर देते हैं. जानबूझ कर अनजान बनते जाते हैं. खुली आँखों से वही देखते हैं जो हमें देखना होता है लेकिन वो नहीं जो साई हमें दिखाना चाहते हैं. साई से दूर होते-होते हम न जाने कब ख़ुद से भी दूर हो जाते हैं. ख़ुद को पहचानना बंद कर देते हैं.

फिर शुरू होता है दर्द का अहसास जो महसूस तो होता है पर समझ में नहीं आता. दुःख, संशय, डर, शोक, चिंताएं घेर लेते हैं. अनजाने और अनकहे के प्रश्नचिह्न हम ओढ़ लेते हैं. इसके बाद घुप्प अँधेरा.. सोच को लकवा मार जाता है, विवेक हांफता, गिरता-सा लगता है, करुणा से नाता टूट जाता है. हम ज़िन्दा तो होते हैं लेकिन जीवन-विहीन. स्पंदन तो चल रहा होता हैं लेकिन सांस को आस नहीं होती. आँखें बंद तो रहती हैं लेकिन सपने कहीं बहुत पीछे छूट गए होते हैं. नींद में होते हैं या बेसुध, यह पता ही नहीं चलता. असंवेदनशील हो जाते हैं. कब तक मांगेंगे और कितना मांगेंगे? वो तो देते-देते नहीं थकता, हम ही लेते-लेते थक जाते हैं. शायद अब मांगने में थोड़ी झिझक, शर्म महसूस भी होने लगती है.

तब उस फ़क़ीर का असली खेल शुरू हो जाता है. हमें उससे जो कुछ भी मिला है उसके खो जाने का डर, उसके नष्ट हो जाने की अनुभूति फिर हमें उस साई के पास ले आती है. उसे वापस हमारे विश्वास में ढूँढने लगते हैं.


वो तो वहीँ मिलता है जहाँ से हम अपना हाथ छुड़ा कर उससे दूर चले गए थे. हमारी पत्थर हो चुकी आँखों से पश्चाताप के आंसू झरने लगते हैं. पहले हमें भिगोते हैं और फिर हमारे मृत हो चुके अंतर्मन को. संवेदना फिर जागने लगती है, करुणा के पुष्प विवेक की सुगंध से भर उठते हैं. जान जाते हैं कि वो तो हमारा है ही, हम ही उसके न हो पाए. अब हम उसके हो जाना चाहते हैं. वो तो बाहें खोले खड़ा है. समाने में तो हमने देर कर दी. उसमें समाने भर की देर है, दुःख कब सुख बन जाता है पता ही नहीं चलता. चिंता शांति में तब्दील हो जाती है. भय आनंद बन जाता है. पहले दूसरों के सुख से दुखी और उनके दुःख से सुखी होने वाले हम अब दूसरों की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी ढूँढने लगते हैं और उनके दुखों में उनको उबारने की कोशिश करते हैं.

हम साई को फिर पा चुके होते हैं.       

बाबा भली कर रहे..

Friday, 14 August 2015

धन ईश्वर-प्राप्ति में बाधक नहीं..



अक्सर लोगों को कहते सुना जा सकता हैं, “साई को पाना है तो धन से ध्यान हटाना होगा.” श्री साई अमृत कथा में ‘भाईजी’ सुमीत पोंदा बताते हैं कि लेकिन अगर लोग यह समझते हैं कि ईश्वर-प्राप्ति में धन बाधक है तो यह ग़लत है.

यदि ईश्वर-प्राप्ति में कोई चीज़ बाधा बनती है तो वह है अनीति और अधर्म के रास्ते कमाया हुआ धन और उस कमाए हुए धन के प्रति आसक्ति. अधर्म से कमाया हुआ धन मन को संशयों में जीने को मजबूर कर देता है, असुरक्षा की भावना उठ खड़ी होती है, नींदें उड़ जाती है, स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है, मनोभाव विकृत होने लगते हैं, संतान अय्याशी में पैसे उड़ाने लगती है, बेकार के कामों में धन ख़र्च होने लगता है, तकलीफ देने वाली बीमारियों से जूझना पड़ता है. यह धन टिकता नहीं और अधर्म के रास्ते निकल जाता है.

स्वर्ण नगरी बनाने में कोई हर्ज़ नहीं है. स्वर्ण नगरी रावण की लंका भी थी और कृष्ण की द्वारका भी लेकिन लंका में मर्यादा नहीं टिक पाई और जल कर ख़ाक हो गयी. वहीँ द्वारका में तो सुदामा जैसे दीन-हीन व्यक्तियों का स्वागत था – उनके चरण कृष्ण स्वयं अपने हाथों पखारते और सम्मान देते. नीति का प्रश्न उठने पर द्वारका को कृष्ण ने खुद ही जलमग्न कर दिया.    

इसीके विपरीत, धन यदि सही रास्तों और धर्म से कमाया है तो वह धन अपना रास्ता धर्म में ही ढूंढ लेगा. उस धन से स्कूल और विद्यार्जन के स्थानों का निर्माण होगा, धर्मशालाएं बनेंगी, अस्पताल और रोगोपचार केंद्र बनेंगे, निर्धन लोगों के लिए रोज़गार के नीतिगत साधन उपजेंगे, परमार्थ के कार्य संपन्न होंगे, प्रार्थना-स्थल बनेंगे. ऐसे धन की रक्षण के लिए रातों की नींद नहीं उड़ानी होगी, स्वास्थ्य ठीक रहता है, सोच सकारात्मक हो जाती है, संतान सुपात्र होती है और मन शांत रहता है. धन को धर्म के काम में ख़र्च करने से धन ही ख़र्च होता है, लक्ष्मी स्थाई रहती है. तुलसीदास ने भी लिखा है..

तुलसी पंछिन के पिए, घटे न सरिता नीर.
धर्म किये धन न घटे, सहाय करे रघुबीर.
लक्ष्मी के आगमन को अपने पूर्व में किये अच्छे कर्मों का प्रतिफल और ईश्वर की कृपा मानो. ऐसा मानने से हमें अहसास होता है कि जो भी धन हमारे पास है हम उसके मालिक नहीं बल्कि रखवाले हैं और उसका व्यय ठीक तरीके से करना चाहिए न कि उड़ाना चाहिए. उस धन को समय आने पर योग्य उद्देश्य के लिए व्यय करना ही ठीक होगा.

नीतिगत रास्ते से ख़ूब अधिक धन कमाने में भी कोई हर्ज़ नहीं है. हर्ज़ उस धन के प्रति आसक्ति रखने में है. जाल बुनने से कोई परहेज़ नहीं रखना चाहिए लेकिन जाल मकड़ी जैसा बुनो जो जब चाहे अपने बनाये जाल से निकल जाती है और रेशम का कीड़ा अपने बनाये जाल में खुद फँस कर मर जाता है. मिठास का स्वाद लेना है तो गुड़ के ढेले पर बैठी मक्खी की तरह लो जिस पर से जब चाहो उड़ सकते हो न कि शहद पर, जिसमें अपने पैर चिपक कर रह जाते हैं. ये वैसा ही किस्सा है जब साई के पास एक धनाढ्य व्यक्ति ब्रह्मज्ञान लेने जाता है और बाबा की माया में फँस कर जेब में ढाई सौ रुपये होने के बावजूद पांच रुपये भी बाबा को नहीं दे पाता.

तब बाबा ने कहा था कि जिसे ब्रह्मज्ञान, जिसे हम आत्म-साक्षात्कार या ईश्वर से मिलन भी कह सकते हैं, चाहिए, उसे पांच प्राण, पांच इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार का त्याग करने के लिए भी तैयार रहने चाहिए. इसी किस्से से साबित हो जाता है कि धन में आसक्ति ईश्वर-प्राप्ति से रोकती है.

जो व्यक्ति जीवन में अपने कमाए हुए धन को परमार्थ में लगता है, उसे ईश्वर को ढूँढने कहीं जाना नहीं पड़ता, दूसरों की मासूम मुस्कराहट, उसके आंसुओं में छुपी दुआओं में, उसके कांपते हाथों के दिए आशीर्वाद में, कंपकंपाते होठों के बीच फंसे शब्दों को तलाश रहे उसके शुक्रिया में ईश्वर स्वयं उसे ढूंढते हुए आ पहुँचते हैं.

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.

वाणी का स्वर सुधार लो..



कहते है, “जिसने जीभ जीत ली, उसने जग जीत लिया. जीभ में ज़हर हो तो दुनिया से बैर हो जाता है.” श्री साई अमृत कथा में ‘भाईजी’ सुमीत पोंदा बताते हैं कि साई की प्राप्ति में जीभ ही हमारा साधन है और जीभ ही बाधक. मॉरल साइंस की क्लास में हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि कमान से निकला तीर और मुंह से निकले शब्द कभी वापस नहीं लिए जा सकते लेकिन मज़े की बात तो यह है कि बोलना सीखने में तो हमें सिर्फ दो साल ही लगते हैं लेकिन कब और क्या बोलना है यह सीखने में हम लोगों का जीवन निकल जाता है. हमारे उपनिषदों में भी लिखा है कि सत्य बोलो, प्रिय बोलो लेकिन सत्य अगर अप्रिय है तो उसे इस तरह से बोलो कि वह घाव ना करे. शरीर के घाव तो जल्द या देर से भर ही जायेंगे लेकिन जीभ के माध्यम से दिल पर हुआ घाव कभी नहीं भरेगा. कई बार तो ऐसा भी होता है कि हम कोई ठीक बात भी कर रहे होते हैं लेकिन हमारा लहजा, हमारा बात कहने का तरीका, हमारी वाणी का स्वर इतना ख़राब, तल्ख़ और बेरुखी से भरा होता है कि अच्छी बात भी चुभती-सी लगती है. 

श्री साई सच्चरित्र में उल्लेख आता है कि एक दफ़े जब बाबा लेंडी बाग़ सैर के लिए गए हुए थे तब एक भक्त ने उनकी अनुपस्थिति में अपने भाई के लिए जी-भर कर अपशब्दों का प्रयोग किया. इतने बुरे शब्द कि सुनने वालों को भी उसके शब्दों से घृणा होने लगी. बाबा वापस आये और भिक्षाटन हेतु जब निकले तो उसे भी साथ ले गए. कुछ ही दूर पर एक सूअर दिखा जो विष्ठा खा रहा था. बाबा ने उस भक्त को सूअर दिखाते हुए कहा कि देखो कितने चाव से विष्ठा खा रहा है. आगे उन्होंने जोड़ा कि तुम्हारा आचरण भी उस सूअर के जैसे ही है और अगर तुम ऐसा ही आचरण करोगे तो यह द्वारिकमायी तुम्हारी मदद ही क्या कर सकेगी. ज़ाहिर है, बाबा का इशारा उन बातों की ओर था जो उस भक्त ने अपने भाई के लिए प्रयुक्त की थीं. इस किस्से से स्पष्ट है कि यदि हमारी बोली गन्दी और भद्दी है तो ईश्वर भी हमारी सहायता नहीं कर सकते. ऐसी ही सलाह उन्होंने उस रामदासी को भी दी थी जो अपनी विष्णु सहस्रनाम पुस्तक बाबा द्वारा शामा को देने पर अपना आपा खो बैठा था.

किसी की बात में किसी और का बेवजह दख़ल देना भी बाबा को नागवार गुज़रता था. एक बार मौशी बाई नाम की महिला बाबा के पैर दबा रही थी और अन्ना चिंचणीकर ने ऐसे ही कह दिया कि वो ज़रा धीरे दबाये तो बाबा को इतना गुस्सा आ गया कि उन्होंने अपना चिमटा उठाया और उसको ज़मीन पर लगाकर अपने पेट को दबाना शुरू कर दिया. लोग आशंकित हो गए कि बाबा आवेश में अपना नुकसान न कर लें लेकिन बाबा का गुस्सा शांत हो गया और सब ठीक. किसी अन्य के कार्यों में बेवजह दखलंदाज़ी करना फसाद की बड़ी वजह बन सकता है.    

दरअसल, जो लोग अपने भावों पर नियंत्रण करना सीख जाते हैं, वो अपनी जीभ को भी क़ाबू में रख सकते हैं. भाव विचारों को जन्म देते हैं और विचार शब्द बनकर जुबां से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढते हैं. भावों को अगर जीतना हो तो साई में भक्ति सबसे सुदृढ़ माध्यम है. साई का करुणामयी जीवन हमें अपने भावों पर नियंत्रण का साधन दे देता है. कितनी सादगी उनमें भरी हुई थी! जब वो सवेरे-सवेरे सैर को निकलते तो रास्ते में खड़े दादासाहेब खापर्डे को पूछते, “काय सरकार! कसा काय?” (क्यों सरकार! कैसे हो?) ख़ुद दुनिया को चलाने वाले और दूसरे को सरकार कहते! वहीँ दूसरी ओर दासगणु से प्रेमपूर्वक कहते, “दासानुदास, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ.” अपने भजन गाने वाले के प्रति इतना आदर भाव कि स्वयं को उसका दास कहते थे! क्या हम अपने अन्दर कभी किसी के लिए इतना आदर भाव जगा पाते हैं? ख़ास तौर पर तब जब हमें अपने कर्मों से और ईश्वर की कृपा से कुछ हासिल हो जाए! इसके उलट हम लोग सांतवे आसमान पर चढ़कर घमंड में चूर हो जाते हैं और जुबां से घमंड शब्दों के रूप में बाहर निकलने लगता है.

क्या इतना ही बेहतर नहीं होगा कि अपना अहंकार, घमंड और अपना रुतबा सभी कुछ साई को समर्पित कर दें और हर शब्द मुख से निकलने से पहले उसकी इजाज़त ले लें?

कटुता का साथ छोड़ दो,
मीठे वचन कहो,
वाणी का स्वर सुधार लो,
लो हो गया भजन..

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.
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साईनाथ हैं मैनेजमेंट सद्गुरु



“मेरे भक्तों के घर कभी अन्न और वस्त्र का अभाव नहीं होगा.
जो अंतःकरण से मेरे पास आएगा, उसका कल्याण होगा.”

साई बाबा के कहे हुए इन शब्दों का बड़ा गहरा अर्थ है. यह समझाते हुए श्री साई अमृत कथा के मार्फ़त ‘भाईजी’ सुमीत पोंदा बताते हैं कि साई के समय-समय पर साई के भक्तों ने यह अनुभव किया है कि यह वचन पूर्णतः सत्य साबित होते हैं और भक्तगण यह स्वयं जान लेते हैं कि बाबा के बोले हुए शब्द थोथे-पोचे नहीं बल्कि सत्य होते हैं. यह वचन साई के भक्तों में साई के प्रति महत्त्व-बुद्धि को प्रगाढ़ करते हैं, साई के चरणों में आस्था को बढ़ाते हैं और साथ ही स्वयं को आत्म-बोध या आत्म-अनुभूति की ओर खेंच लाते हैं.

सच ही तो है, व्यक्ति में यदि अन्न और वस्त्र की चिंता ख़त्म हो जाती है तो वह, धीरे-धीरे ही सही, आत्मोन्नति की सीढ़ी चढ़ने लगता है. मैनेजमेंट एक्सपर्ट एब्राहम मास्लो द्वारा दी गयी और मैनेजमेंट के कोर्स में पढ़ाई जाने वाली ‘Maslow’s Hierarchy of Needs’ नाम के सिद्धांत को पढ़ाते समय मैनेजमेंट गुरु भी बताते हैं कि इंसान की मूलभूत ज़रूरतों जैसे कि रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्णता के बगैर उसकी प्रगति self-actualisation यानि आत्म-अनुभूति की ओर संभव ही नहीं है.

इन पहली और अंतिम सीढ़ी के बीच तीन और सीढ़ियाँ होती है. दूसरी सीढ़ी के रूप में सुरक्षा की आवश्यकता का उल्लेख हुआ है. यह भी साई में भक्ति पूरी करती है. साई के भक्तों ने ख़ुद ही महसूस किया है कि साई-साई का सुमिरन मात्र करने से तमाम सुरक्षा मिल जाती है और भय दूर हो जाते हैं.

तीसरी सीढ़ी पर एक इंसान को चाहिए होती है समाज में स्वीकार्यता अपने और अपने परिवार के लिए, अपने कार्यों के लिए. यहाँ भी साई कहाँ पीछे रहते हैं! साई की कृपा से जब मन में साई का उदय होना प्रारम्भ होता है तब से हमारे विचारों में जो पर्तिवर्तन आता है वह हमारे कार्यों का स्वरूप बदल देता है. कार्य सद्कार्यों में तब्दील होने लगते हैं, उनकी प्रशंसा होने लगती है और समाज में मान-सम्मान मिलने लगता है. इन्ही कार्यों के चलते परिवार को पहचान भी मिलती है.

अगली सीढ़ी पर स्वाभिमान, आत्म-विश्वास, सम्मान पाने की ललक और सम्मान देने की इच्छा, पराक्रम, इत्यादी आता है. साई के भक्तों को आत्म-सम्मान कहीं भी लेने नहीं जाना पड़ता. छोटा हो या बड़ा, साई ने सभी को हरदम, हमेशा सम्मान दिया उनका भाग्य बदल कर या कहें कि उन्हें अपनाकर बाबा ने उनकी जीवन-गति ही बदल दी.

भक्त-वत्सल सुनार और खंडोबा मंदिर के पुजारी, म्हालसापति जो कि बाबा के पहले भक्त के रूप में जाने गए, बाबा को माँ जैसा प्यार देने वाली बायाज़ामाई के बेटे तात्या पाटिल की मृत्यु हर ली, स्कूल मास्टर शामा को जो प्रतिष्ठित लोगों के हाथों जो मान-सम्मान दिलवाया, बाबा को भोजन कराने वालीं लक्ष्मीबाई शिंदे, राधाकृष्णमाई को जो सम्मान दिया, कोढ़ी भागोजी शिंदे की सेवा क़ुबूल की, नौटंकियों में अश्लील गीत लिखने वाला पुलिस का हवलदार गणपत सहस्त्रबुद्धे जो बाद में बाबा के कीर्तनकार दासगणु के नाम से जाने गए और साई बाबा संस्थान का कार्यभार सम्हाला, बड़ी माता के टीके से डरने वाले और बाद में बाबा की कृपा से असंख्य दिव्य अनुभव प्राप्त कर बाबा की ख्याति को चारों दिशाओं में फ़ैलाने वाले नानासाहेब चांदोरकर या फिर ज्ञानेश्वरी को समझने के बदले बाबा की डांट खाकर बाद में सम्हलने वाले बी.वी. देव, या फिर अहंकार को त्याग कर बाबा की कृपा प्राप्त करने वाले, श्री साई सच्चरित्र की रचना कर और श्री साई बाबा संस्थान की उचित व्यवस्था कर अमरत्व प्राप्त करने वाले गोविन्द रघुनाथ उर्फ़ अन्नासाहेब दाभोलकर, बाबा की समाधि लेने के बाद अपनी धर्म-पत्नी में भी बाबा के दर्शन करने वाले नानासाहेब निमोणकर और सबसे महत्त्वपूर्ण, शरीर की पंगुता के बदले मन की पंगुता को दूर करने की इच्छा रखने वाले ‘बावन-कसी सुवर्ण’ के रूप में जाने गए परम दानी हरी सीताराम उर्फ़ काकासाहेब दीक्षित जिन्होंने साई बाबा संस्थान को आज का स्वरुप दिया. उनकी भक्ति इस कदर महक गयी थी कि उन्हें आत्म-साक्षात्कार भी हो गया था.  

ये तो उनमें रहे जो बाबा के समकालीन थे. उनके समाधि लेने के बाद तो हमारे और आपके जैसे साई की कृपा-प्राप्त लोगों के चलते ऐसी गिनती बढ़ती ही चली जाएगी ऐसे भक्तों की जिनको बाबा ने पराक्रम के रास्ते पर डाल, आत्म-सम्मान से सराबोर कर, सम्मानित कर, उनकी आत्म-अनुभूति की राह प्रशस्त की.
    
यह बात तो मैनेजमेंट का सिद्धांत की है लेकिन बाबा ने यह सिद्धांत वर्षों पहले बिना कुछ औपचारिक शिक्षा लिए और बिना किसी मैनेजमेंट डिग्री के न सिर्फ समझ लिया था बल्कि इसको अपने भक्तों पर लागू कर उनका जीवन भी संवार दिया. उन्हें न सिर्फ जीवन के सर्वोच्च शिखर पर ले गए बल्कि साधारण से समझ आने वाले लोगों को उन्होंने अमरत्व भी प्रदान कर दिया है.

ज़रुरत है साई नाम तो आत्मसात कर लेने की जिनके नाम-स्मरण से ही जीवन की दिशा और गति बदलने लगती है. साई तो हुए ही इसलिए हैं कि हम सबको आत्म-बोध की कठिन राह पर आसानी से निकाल के जाएँ. वो तो एक बहता झरना है. चुल्लू में भर कर उस अमृत को हमें पीना होगा.

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.