Sunday 30 August 2015

व्यर्थ है खोज गुरु की..


“जाना है तो ऊपर जाओ. मार्ग दुर्गम है. रास्ते में सिंह और भेड़िये भी मिलते हैं
लेकिन अगर पथ-प्रदर्शक साथ में हो तो फिर चिंता की कोई बात नहीं.
वह तुम्हे गड्ढों से बचाते हुए अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचा देता है.”

उपरोक्त बातें बाबा ने श्री दाभोलकर की उपस्थिति में एक अन्य भक्त से तब कहीं थीं जब अपने ज्ञान, पद और उपलब्धियों के अहंकार में चूर, श्री दाभोलकर बालासाहेब भाटे से गुरु की आवश्यकता विषय पर व्यर्थ विवाद करने के बाद उनके साथ मस्जिद में आरती हेतु गए थे. प्रश्न गुरु की खोज का नहीं है. गुरु की खोज करने से तब तक कोई भी लाभ नहीं होता जब तक हम शिष्य बनने के लिए तत्पर न हों. आवश्यकता तो है अपने अन्दर शिष्यत्व पैदा करने की. किसी पथ-प्रदर्शक के अधीन हो जाने की इच्छा को स्वयं से प्रगट करना ये शिष्यत्व का मूल है. स्वतंत्र होने के लिए पराधीन होने की इच्छा होनी चाहिए. जब हम यह मान लेते हैं कि हमें कुछ नहीं पता और हम बिन पतवार की नांव की तरह भटक रहे हैं और हमें किसी ऐसे हाथ की, मांझी की ज़रुरत है जो हमें किनारे लगा दे, तब हम यह मान सकते हैं कि हमारे अन्दर शिष्यत्व का भाव पैदा हो रहा है और हम अपना अहंकार और दंभ छोड़कर किसी गुरु के अधीन हो जाने के लिए अब तैयार हैं, तब हमें अवश्य ही गुरु मिल जाते हैं. जब हम अपने संशयों, अभिमान, अहंकार, हेंकड़ी से मुक्त होने के लिए अपने आप को तैयार कर लेते हैं तब गुरु मिल ही नहीं जाते हैं, भगवान स्वयं सद्गुरु का रूप लेकर हमारे सामने आ खड़े होते हैं.

गुरु ऐसे अपने अन्दर हमें ऐसे समो लेता है जैसे एक माँ अपने बच्चों को अपने आँचल में छुपा लेती है. उसके विशाल पंखों के नीचे हमें एक नया आसमान मिलता है. उसके बताये हुए रास्ते पर चलने से हम नित नए कीर्तिमान रचते हैं. उसकी करुणा को अपने अन्दर समाहित कर लेने से हम अपने साथ-साथ दूसरों का भी उद्धार करने को तत्पर हो उठते हैं. उसकी ऊँगली के एक इशारे से जीवन को एक नयी दिशा मिल जाती है. उसकी आँखों में प्रतिपल उमड़ता वात्सल्य हमारे असंवेदनशील हो चुके मानस में नए प्राण फूंकता है. उसके दुलार से हमारा विवेक फिर स्पंदन करने लगता है. उसकी सुरक्षा में हम हर पल अपने आप को आविष्कृत करते रहते हैं. दिने-दिने नवं-नवं.. हर रोज़ नए-नए. इतने सुन्दर कि अपना काया-कल्प देख हम अपने गुरु की शक्ति पर मोहित हो उठें. गुरु हमें बदल डालते हैं. साई हमें इस हद तक बदल डालते हैं कि हमें अपने ही बदले स्वरूप पर आश्चर्य हो उठता है. फिर एक समय ऐसा भी आता है जब हम गुरु के गुणों को अपने अन्दर इतना समाहित कर लेते हैं कि उनसे भिन्नता संभव ही नहीं होती.

क्यों चाहिए गुरु? पैदा होने के बाद हम हमेशा हर कार्य कभी न कभी पहली बार करते हैं. सही गुरु के अभाव में उस कार्य को करते हुए हम अपने आप को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं. गुरु समय-समय पर अलग-अलग रूपों में हमारे सामने आता है. कभी माता तो कभी पिता बन कर. कभी भाई या बहन तो कभी पत्नी या मित्र बनकर. कृष्ण ने तो राधा को भी गुरु के समतुल्य माना है. हमारे आचार्य, शिक्षक सभी हमारे गुरु ही हैं. हमारे बच्चे भी हमारे गुरु बन सकते हैं तो हमारे अधीनस्थ काम करने वाला भी हमें सही राह दिखा सकता है. ज़रुरत है कि हम जिज्ञासु बने. अपने ऊपर चढ़े हुए तमाम खोलों को निकाल फेंकने का साहस रखें. यह मानने के लिए तैयार रहें कि हमें सीखने की ज़रुरत है. हाथ में आपके प्रश्न का उत्तर लेकर गुरु आपके सामने होगा. जीवन के अलग-अलग पड़ावों पर गुरु अलग-अलग स्वरुप में हमारी सहायता के लिए हमेशा खड़ा मिलेगा लेकिन जहाँ शिष्य ने गुरु की काबिलियत पर संदेह किया या अपने आप को उससे बेहतर मानने या दिखाने की कोशिश भी की तो हम अपना शिष्यत्व खो बैठते हैं. गुरु चला जाता है. ज्ञान-रुपी पानी का बहाव रुक जाता है और रुके हुए पानी में काई जमा होने लगती है. बदबू उठने लगती है. स्वरुप बिगड़ जाता है. फिसलन होने लगती है, पतन का डर पैदा हो जाता है.

श्री साई सच्चरित्र में बाबा ने श्री दाभोलकर के माध्यम से लिखा है कि शिष्य तीन प्रकार के होते हैं. साधारण शिष्य वो जो पग-पग पर गुरु की अवहेलना करते हैं और जीवन में दुखी होते हैं. मध्यम शिष्य वो जो गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए आगे बढ़ते चलते हैं और उत्तम शिष्य वो जो गुरु की मंशा को बिन बोले ही समझ लेते हैं और विश्व को नयी दिशा देते हैं.

शिष्य ही गुरु को परिभाषित करते हैं और उसे महान बनाते हैं क्योंकि गुरु में तो ख़ुद महान बनने की कोई लालसा होती ही नहीं है. विश्वमित्र ने राम को, सान्दिपनी ने कृष्ण को और अनजान, अनाम गुरु ने साई को गढ़ा और अपने शिष्य की महानता की रौशनी में ऐसे खो गए जैसे माचिस की तीलि यज्ञ की अग्नि को प्रज्ज्वलित करते हुए अपना अस्तित्व खो देती है.

विनम्र शिष्यत्व ही महान गुरुत्व को सच्ची आदरांजलि है. 

                      बाबा भली कर रहे..
                  www.saiamritkatha.com

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