सदेह रहते हुए साई ने लोगों के दुखों को दूर कर
उन्हे सुख के मार्ग पर डाला, उनके पापों का क्षय किया, उन्हें सत्य के मार्ग पर
प्रशस्त किया. समाधि लेने के बाद उन्होंने अपने में विश्वास करने वालों को इस
दुनिया की दुःख-तकलीफों के अहसास से दूर किया और ऐसी मनोस्थिति में ला कर रख दिया
जहाँ दुःख होने पर भी उनका भक्त दुखी नहीं होता और सुख होने पर आसमान में उड़ने
नहीं लगता. साई आज भी जीवित हैं. साई को इसीलिए तारणहार भी कहा जाता है क्योंकि
उनका सान्निध्य, उनका साथ, उनकी छत्र-छाया हमें अपने बुज़ुर्ग-सी लगती है जिनके मन
में हमारे लिए सिर्फ प्रेम और सद्भावना भरी रहती है. वे सिर्फ और सिर्फ हमारे
उद्धार के लिए ही चिंतित होते हैं. उन्हें हमेशा हमारे भले की चिंता रहती है.
बाबा
ने कहा भी तो है..
”मुझे
सदा जीवित ही जानो,
अनुभव करो, सत्य पहचानो.”
साई निरंतर, नित्य और शाश्वत सत्य हैं. ऐसा सत्य
जो किसी भी कोण से, कहीं से भी, देखने पर बदलता नहीं है. साई तब भी थे जब हम और आप
नहीं थे. आज जब हम और आप हैं तो भी साई हैं. कल जब हम न होंगे तब भी साई होंगे. जब मेरे
और आपके पास कुछ भी नहीं था तब भी साई थे और अगर कुछ ना होता तो भी साई होते. आज जब
सब कुछ है तो भी साई हैं क्योंकि साई मेरे और आपके विश्वास में बसते हैं. चीज़ों और
अहसासों के होने या मिटने से साई रहने और मिटने वाले नहीं हैं.
पहले थोडा-बहुत, फिर कुछ और, और उसके बाद बहुत
कुछ मांगने और पाने के फेर में हम यह भूल जाते हैं कि हम साई से तो मांग रहे हैं
लेकिन साई से दूर होते जा रहे हैं. दूर.. हम होते हैं. साई तो वहीँ हमारे विश्वास
में, हमारे अवचेतन में बैठे मुस्कुराकर हमारे बचपने को देखते रहते हैं. हम साई का
सिंहासन बदल डालते हैं उन्हें विश्वास से उठाकर अपनी मांगो पर बिठा देते हैं. अब
साई को हम अपने विश्वास में न देखकर अपनी मांगो में देखते हैं. साई से
मांगते-मांगते हम भूल जाते हैं कि उससे पाने की चाहत में हम उसे ही खोते जा रहे
हैं. हम साई को तो मानते हैं लेकिन साई की सुनना बंद कर देते हैं. जानबूझ कर अनजान
बनते जाते हैं. खुली आँखों से वही देखते हैं जो हमें देखना होता है लेकिन वो नहीं
जो साई हमें दिखाना चाहते हैं. साई से दूर होते-होते हम न जाने कब ख़ुद से भी दूर
हो जाते हैं. ख़ुद को पहचानना बंद कर देते हैं.
फिर शुरू होता है दर्द का अहसास जो महसूस तो
होता है पर समझ में नहीं आता. दुःख, संशय, डर, शोक, चिंताएं घेर लेते हैं. अनजाने
और अनकहे के प्रश्नचिह्न हम ओढ़ लेते हैं. इसके बाद घुप्प अँधेरा.. सोच को लकवा मार
जाता है, विवेक हांफता, गिरता-सा लगता है, करुणा से नाता टूट जाता है. हम ज़िन्दा
तो होते हैं लेकिन जीवन-विहीन. स्पंदन तो चल रहा होता हैं लेकिन सांस को आस नहीं
होती. आँखें बंद तो रहती हैं लेकिन सपने कहीं बहुत पीछे छूट गए होते हैं. नींद में
होते हैं या बेसुध, यह पता ही नहीं चलता. असंवेदनशील हो जाते हैं. कब तक मांगेंगे
और कितना मांगेंगे? वो तो देते-देते नहीं थकता, हम ही लेते-लेते थक जाते हैं. शायद
अब मांगने में थोड़ी झिझक, शर्म महसूस भी होने लगती है.
तब उस फ़क़ीर का असली खेल शुरू हो जाता है. हमें
उससे जो कुछ भी मिला है उसके खो जाने का डर, उसके नष्ट हो जाने की अनुभूति फिर
हमें उस साई के पास ले आती है. उसे वापस हमारे विश्वास में ढूँढने लगते हैं.
वो तो वहीँ मिलता है जहाँ से हम अपना हाथ छुड़ा
कर उससे दूर चले गए थे. हमारी पत्थर हो चुकी आँखों से पश्चाताप के आंसू झरने लगते
हैं. पहले हमें भिगोते हैं और फिर हमारे मृत हो चुके अंतर्मन को. संवेदना फिर
जागने लगती है, करुणा के पुष्प विवेक की सुगंध से भर उठते हैं. जान जाते हैं कि वो
तो हमारा है ही, हम ही उसके न हो पाए. अब हम उसके हो जाना चाहते हैं. वो तो बाहें
खोले खड़ा है. समाने में तो हमने देर कर दी. उसमें समाने भर की देर है, दुःख कब सुख
बन जाता है पता ही नहीं चलता. चिंता शांति में तब्दील हो जाती है. भय आनंद बन जाता
है. पहले दूसरों के सुख से दुखी और उनके दुःख से सुखी होने वाले हम अब दूसरों की
ख़ुशी में अपनी ख़ुशी ढूँढने लगते हैं और उनके दुखों में उनको उबारने की कोशिश करते
हैं.
हम साई को फिर पा चुके होते हैं.
बाबा भली कर रहे..
Om Sai Ram.........
ReplyDeleteJai Sai Ram
ReplyDeleteॐ सांई राम
ReplyDeleteOm Sai Ram
DeleteOm Sai Ram 🙏
ReplyDeleteJindgi ka sach bahut sadgi se samjhaya hai.
Om Sai Ram
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