Friday 14 August 2015

वाणी का स्वर सुधार लो..



कहते है, “जिसने जीभ जीत ली, उसने जग जीत लिया. जीभ में ज़हर हो तो दुनिया से बैर हो जाता है.” श्री साई अमृत कथा में ‘भाईजी’ सुमीत पोंदा बताते हैं कि साई की प्राप्ति में जीभ ही हमारा साधन है और जीभ ही बाधक. मॉरल साइंस की क्लास में हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि कमान से निकला तीर और मुंह से निकले शब्द कभी वापस नहीं लिए जा सकते लेकिन मज़े की बात तो यह है कि बोलना सीखने में तो हमें सिर्फ दो साल ही लगते हैं लेकिन कब और क्या बोलना है यह सीखने में हम लोगों का जीवन निकल जाता है. हमारे उपनिषदों में भी लिखा है कि सत्य बोलो, प्रिय बोलो लेकिन सत्य अगर अप्रिय है तो उसे इस तरह से बोलो कि वह घाव ना करे. शरीर के घाव तो जल्द या देर से भर ही जायेंगे लेकिन जीभ के माध्यम से दिल पर हुआ घाव कभी नहीं भरेगा. कई बार तो ऐसा भी होता है कि हम कोई ठीक बात भी कर रहे होते हैं लेकिन हमारा लहजा, हमारा बात कहने का तरीका, हमारी वाणी का स्वर इतना ख़राब, तल्ख़ और बेरुखी से भरा होता है कि अच्छी बात भी चुभती-सी लगती है. 

श्री साई सच्चरित्र में उल्लेख आता है कि एक दफ़े जब बाबा लेंडी बाग़ सैर के लिए गए हुए थे तब एक भक्त ने उनकी अनुपस्थिति में अपने भाई के लिए जी-भर कर अपशब्दों का प्रयोग किया. इतने बुरे शब्द कि सुनने वालों को भी उसके शब्दों से घृणा होने लगी. बाबा वापस आये और भिक्षाटन हेतु जब निकले तो उसे भी साथ ले गए. कुछ ही दूर पर एक सूअर दिखा जो विष्ठा खा रहा था. बाबा ने उस भक्त को सूअर दिखाते हुए कहा कि देखो कितने चाव से विष्ठा खा रहा है. आगे उन्होंने जोड़ा कि तुम्हारा आचरण भी उस सूअर के जैसे ही है और अगर तुम ऐसा ही आचरण करोगे तो यह द्वारिकमायी तुम्हारी मदद ही क्या कर सकेगी. ज़ाहिर है, बाबा का इशारा उन बातों की ओर था जो उस भक्त ने अपने भाई के लिए प्रयुक्त की थीं. इस किस्से से स्पष्ट है कि यदि हमारी बोली गन्दी और भद्दी है तो ईश्वर भी हमारी सहायता नहीं कर सकते. ऐसी ही सलाह उन्होंने उस रामदासी को भी दी थी जो अपनी विष्णु सहस्रनाम पुस्तक बाबा द्वारा शामा को देने पर अपना आपा खो बैठा था.

किसी की बात में किसी और का बेवजह दख़ल देना भी बाबा को नागवार गुज़रता था. एक बार मौशी बाई नाम की महिला बाबा के पैर दबा रही थी और अन्ना चिंचणीकर ने ऐसे ही कह दिया कि वो ज़रा धीरे दबाये तो बाबा को इतना गुस्सा आ गया कि उन्होंने अपना चिमटा उठाया और उसको ज़मीन पर लगाकर अपने पेट को दबाना शुरू कर दिया. लोग आशंकित हो गए कि बाबा आवेश में अपना नुकसान न कर लें लेकिन बाबा का गुस्सा शांत हो गया और सब ठीक. किसी अन्य के कार्यों में बेवजह दखलंदाज़ी करना फसाद की बड़ी वजह बन सकता है.    

दरअसल, जो लोग अपने भावों पर नियंत्रण करना सीख जाते हैं, वो अपनी जीभ को भी क़ाबू में रख सकते हैं. भाव विचारों को जन्म देते हैं और विचार शब्द बनकर जुबां से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढते हैं. भावों को अगर जीतना हो तो साई में भक्ति सबसे सुदृढ़ माध्यम है. साई का करुणामयी जीवन हमें अपने भावों पर नियंत्रण का साधन दे देता है. कितनी सादगी उनमें भरी हुई थी! जब वो सवेरे-सवेरे सैर को निकलते तो रास्ते में खड़े दादासाहेब खापर्डे को पूछते, “काय सरकार! कसा काय?” (क्यों सरकार! कैसे हो?) ख़ुद दुनिया को चलाने वाले और दूसरे को सरकार कहते! वहीँ दूसरी ओर दासगणु से प्रेमपूर्वक कहते, “दासानुदास, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ.” अपने भजन गाने वाले के प्रति इतना आदर भाव कि स्वयं को उसका दास कहते थे! क्या हम अपने अन्दर कभी किसी के लिए इतना आदर भाव जगा पाते हैं? ख़ास तौर पर तब जब हमें अपने कर्मों से और ईश्वर की कृपा से कुछ हासिल हो जाए! इसके उलट हम लोग सांतवे आसमान पर चढ़कर घमंड में चूर हो जाते हैं और जुबां से घमंड शब्दों के रूप में बाहर निकलने लगता है.

क्या इतना ही बेहतर नहीं होगा कि अपना अहंकार, घमंड और अपना रुतबा सभी कुछ साई को समर्पित कर दें और हर शब्द मुख से निकलने से पहले उसकी इजाज़त ले लें?

कटुता का साथ छोड़ दो,
मीठे वचन कहो,
वाणी का स्वर सुधार लो,
लो हो गया भजन..

श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.
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