अक्सर लोगों को कहते सुना
जा सकता हैं, “साई को पाना है तो धन से ध्यान हटाना होगा.” श्री साई अमृत कथा में ‘भाईजी’
सुमीत पोंदा बताते हैं कि लेकिन अगर लोग यह समझते हैं कि ईश्वर-प्राप्ति में धन
बाधक है तो यह ग़लत है.
यदि ईश्वर-प्राप्ति में कोई
चीज़ बाधा बनती है तो वह है अनीति और अधर्म के रास्ते कमाया हुआ धन और उस कमाए हुए
धन के प्रति आसक्ति. अधर्म से कमाया हुआ धन मन को संशयों में जीने को मजबूर कर
देता है, असुरक्षा की भावना उठ खड़ी होती है, नींदें उड़ जाती है, स्वास्थ्य बिगड़ने
लगता है, मनोभाव विकृत होने लगते हैं, संतान अय्याशी में पैसे उड़ाने लगती है,
बेकार के कामों में धन ख़र्च होने लगता है, तकलीफ देने वाली बीमारियों से जूझना
पड़ता है. यह धन टिकता नहीं और अधर्म के रास्ते निकल जाता है.
स्वर्ण नगरी बनाने में कोई
हर्ज़ नहीं है. स्वर्ण नगरी रावण की लंका भी थी और कृष्ण की द्वारका भी लेकिन लंका में
मर्यादा नहीं टिक पाई और जल कर ख़ाक हो गयी. वहीँ द्वारका में तो सुदामा जैसे
दीन-हीन व्यक्तियों का स्वागत था – उनके चरण कृष्ण स्वयं अपने हाथों पखारते और
सम्मान देते. नीति का प्रश्न उठने पर द्वारका को कृष्ण ने खुद ही जलमग्न कर दिया.
इसीके विपरीत, धन यदि सही
रास्तों और धर्म से कमाया है तो वह धन अपना रास्ता धर्म में ही ढूंढ लेगा. उस धन
से स्कूल और विद्यार्जन के स्थानों का निर्माण होगा, धर्मशालाएं बनेंगी, अस्पताल
और रोगोपचार केंद्र बनेंगे, निर्धन लोगों के लिए रोज़गार के नीतिगत साधन उपजेंगे,
परमार्थ के कार्य संपन्न होंगे, प्रार्थना-स्थल बनेंगे. ऐसे धन की रक्षण के लिए
रातों की नींद नहीं उड़ानी होगी, स्वास्थ्य ठीक रहता है, सोच सकारात्मक हो जाती है,
संतान सुपात्र होती है और मन शांत रहता है. धन को धर्म के काम में ख़र्च करने से धन
ही ख़र्च होता है, लक्ष्मी स्थाई रहती है. तुलसीदास ने भी लिखा है..
तुलसी पंछिन के पिए, घटे न सरिता नीर.
धर्म किये धन न घटे, सहाय करे रघुबीर.
लक्ष्मी के आगमन को अपने
पूर्व में किये अच्छे कर्मों का प्रतिफल और ईश्वर की कृपा मानो. ऐसा मानने से हमें
अहसास होता है कि जो भी धन हमारे पास है हम उसके मालिक नहीं बल्कि रखवाले हैं और
उसका व्यय ठीक तरीके से करना चाहिए न कि उड़ाना चाहिए. उस धन को समय आने पर योग्य
उद्देश्य के लिए व्यय करना ही ठीक होगा.
नीतिगत रास्ते से ख़ूब अधिक
धन कमाने में भी कोई हर्ज़ नहीं है. हर्ज़ उस धन के प्रति आसक्ति रखने में है. जाल
बुनने से कोई परहेज़ नहीं रखना चाहिए लेकिन जाल मकड़ी जैसा बुनो जो जब चाहे अपने
बनाये जाल से निकल जाती है और रेशम का कीड़ा अपने बनाये जाल में खुद फँस कर मर जाता
है. मिठास का स्वाद लेना है तो गुड़ के ढेले पर बैठी मक्खी की तरह लो जिस पर से जब
चाहो उड़ सकते हो न कि शहद पर, जिसमें अपने पैर चिपक कर रह जाते हैं. ये वैसा ही
किस्सा है जब साई के पास एक धनाढ्य व्यक्ति ब्रह्मज्ञान लेने जाता है और बाबा की
माया में फँस कर जेब में ढाई सौ रुपये होने के बावजूद पांच रुपये भी बाबा को नहीं
दे पाता.
तब बाबा ने कहा था कि जिसे
ब्रह्मज्ञान, जिसे हम आत्म-साक्षात्कार या ईश्वर से मिलन भी कह सकते हैं, चाहिए, उसे
पांच प्राण, पांच इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार का त्याग करने के लिए भी तैयार
रहने चाहिए. इसी किस्से से साबित हो जाता है कि धन में आसक्ति ईश्वर-प्राप्ति से
रोकती है.
जो व्यक्ति जीवन में अपने
कमाए हुए धन को परमार्थ में लगता है, उसे ईश्वर को ढूँढने कहीं जाना नहीं पड़ता,
दूसरों की मासूम मुस्कराहट, उसके आंसुओं में छुपी दुआओं में, उसके कांपते हाथों के
दिए आशीर्वाद में, कंपकंपाते होठों के बीच फंसे शब्दों को तलाश रहे उसके शुक्रिया
में ईश्वर स्वयं उसे ढूंढते हुए आ पहुँचते हैं.
श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु. शुभं भवतु.
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