Thursday 19 March 2015

मन से याद करो; बाबा को वहीं पाओगे..


मन से कुछ भी चाहोगे; पूरी होगी आस ।
बाबा हर पल साथ हैं रखोगे गर विश्वास ।


गुुरु की महिमा के बारे में कितना भी लिखो; बखान करो, कम है। इस ब्रह्मांड में गुरु से बड़ा कोई नहीं। ईश्वर, मात-पिता और दोस्तों के गुण एकसंग जिस व्यक्ति में मिलते हैं, वो गुरु कहलाता है। साई ने गुरु के महत्व को अच्छे से प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने भक्तों को बताया कि, जीवन में गुरु का क्या महत्व है। बाबा ने यह भी बताया कि; जितना एक शिष्य के लिए गुरु की आवश्यकता है, उतनी ही गुरु के लिए एक अच्छे शिष्य की। जब तक एक शिष्य में अपने गुरु के लिए भक्ति न हो; उसकी शिष्यता अथवा भक्ति फलीभूत नहीं होती।


एक बार का किस्सा है। आनंद राव पाटणकर नामक एक व्यक्ति बाबा से मिलने शिर्डी पहुंचे। बाबा अकसर छोटी-छोटी कहानियों में बात करते थे। उनको समझना मुश्किल था। केवल एक-दो शिष्य ही बाबा का आशय पकड़ पाते थे। दरअसल, बाबा की बातों में गूढ़ रहस्य छिपे होते थे। बाबा अंतरयामी है। वे भूत-वर्तमान और भविष्य तीनों के ज्ञाता हैं, लेकिन हम-तुम अपने भूत और वर्तमान के अलावा कुछ नहीं जानते। हमें यह नहीं पता होता कि; हमारा आने वाला कल कैसा होगा? भूत और वर्तमान भी अब सिर्फ अपना जानते हैं, दूसरों की जिंदगी में क्या गुजरा और क्या चल रहा है; यह भी हमें नहीं पता होता। लेकिन बाबा सबके बारे में सबकुछ जानते थे। यही कारण है कि, जब वो कुछ बात करते; तो वे सामने वाली के भूत-वर्तमान और भविष्य तीनों का बखान कर देते। यह बात हर कोई नहीं समझ पाता था।

खैर, आनंद राव जब शिर्डी में बाबा के दर्शन करने मस्जिद पहुंचे, तो बाबा ने बगैर आगे-पीछे कुछ यह बात बोल दी, एक व्यापारी के घोड़े ने यहां 9 जगह लीद कर दी थीं। इस बात का न ओर न छोर, अचानक बाबा ने ऐसा क्यों कहा; आनंदराव को समझ नहीं आया। बाबा के अनन्य भक्त काका साहब दीक्षित वहीं पर हाजिर थे। वे आनंदराव के हैरानी को भाप गए। उन्होंने कहा, 9 लीद से बाबा का अर्थ है नव विधा भक्ति यानी भक्ति के 9 प्रकार। श्रवणम, कीर्तनम, विष्णु स्मरणम, पाद सेवनम, अर्चनम, दास्यम, संख्यम,.... और आत्म निवेदनम। यानी साई की हमसे जो बात चल रही है, वह कथा श्रवणम से शुरू होगी और आत्म निवेदनम पर खत्म होगी। हमारे ऋषियों ने तो बहुत पहले आत्म निवेदनम का जिक्र किया था। 

प्रबंधन यानी मैनेजमेंट (एमबीए) के विद्यार्थियों को मैसलोस हैरारकी ऑफ नीड भी पढ़ाया जाता है। उसमें भी यही लिखा कि; जैसे-जैसे हमारी इच्छाएं तृप्त होती जाती हैं, तो आत्मनिवेदन की स्थिति आती है। बाबा लोगों से कहा करते थे कि, रामायण, भागवत, महाभारत सब पढ़ा करो। जो लोग किसी कारण-अकारण नहीं पढ़ पाते थे; बाबा उनसे कहते कि; तुम सुनो। तुम्हारे कान में यदि हरि का नाम पढ़ जाएगा ना; तो भी तुम भक्त हो गए। श्रवण सबसे आसान प्रकार की भक्ति है। बापू साहब बाबा की आरती उतारा करते थे। एक बार बाबा ने उनसे कहा,तुम एकनाथी भागवत पढ़ा करो और बाकी लोग उसे सुना करेंगे। प्रभु का नाम जैसे-जैसे आपकी जुबान पर आता जाएगा, आपके पाप कटते जाएंगे। जो आपको सुन रहे होंगे, उनका भी उद्धार होगा।

बाबा की बातों में गहराई होती थी। ऐसी गहराई; जिसमें डूबकर आदमी के पाप धुल जाएं। अगर आप अच्छे प्रयोजन की कोशिश करते हैं, सफलता कितनी मिलती है; इसकी परवाह किए बगैर, तो आपके हाथ कुछ न कुछ तो अच्छा लगेगा ही। जैसे बाल्मीकि डाकू। उसे किसी ने सलाह दी-तुम राम का नाम लो। उसे बात ठीक से समझ नहीं आई। क्योंकि उसकी जिंदगी तो लूटपाट में गुजर रही थी। उसे इन सब बातों से क्या लेना-देना था? खैर, हर इंसान के अंदर एक अच्छाई भी छुपी होती है, आत्मचिंतन की। उसे बेशक कुछ समझ नहीं आया कि उसे क्या बोलना है? फिर भी उसने प्रयास किए। वह मरा-मरा बोलता रहा। प्रयास उल्टा था, लेकिन जब उसके बोलने की गति तेज हुई, तो उच्चारण राम-राम निकलने लगा। ठीक वैसे ही, जब हम किसी काम को सीखने की कोशिश करते हैं, तो कई बार उल्टी-सीधी बातें हो जाती हैं। लेकिन निरंतर अभ्यास के बाद हम उसमें महारथ हासिल कर लेते हैं। बाल्मीकि के साथ भी ऐसा ही हुआ। वो धीरे-धीरे राममय हो गया और फिर रामायण जैसे अमर महागं्रथ की रचना कर दी। 
जब हम येन-केन-प्रकारेण दु:खी होने लगते हैं, तो बाबा का स्मरणम करने बैठ जाते हैं। बाबा की आरती में भी यही बात है। 
तुमसे नाम ध्याता। इसका आशय यह हुआ कि; बाबा तुम्हारा नाम ध्यान यानी स्मरण मात्र से ही हमारी सारी व्याधियां दूर हो जाती हैं।
अब बात करते हैं पाद सेवनम की! हेमाडपंत ने अपने गं्रथ श्री साई सतचरित्र के अध्याय 22 में बाबा की इस मुद्रा के बारे में लिखा है। उन्होंने बहुत सुंदर तरीके से इसका वर्णन किया है। वे लिखते हैं, बाबा शिला(पत्थर) पर बैठे हैं। उनका बायां पांव नीचे है। दायां पांव घुटने से मुड़ा हुआ बायें पैर के घुटने के ऊपर रखा हैं। उनके बाएं हाथ की उंगलियां पंजे पर रखी हैं। उसमें से उनके अंगूठा स्पष्ट दिखता है। 
Shri Hemadpant

महाराष्ट्र में रिवाज चला आ रहा है। अमावस्या जैसे ही खत्म होती है और दूज का चंद्रमा प्रकट होता है, लोगअपने हाथ में एक सिक्का लेकर टहनी के बीच से चंद्रमा को निहारते हैं। लोग उससे यह प्रार्थना करते कि; जिस तरह तुम्हारे स्वरूप में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाएगी, उसी तरह मेरी सुख-समृद्धि में भी वृद्धि होती जाए। 

हेमाडपंत की कल्पना देखिए! उन्होंने बाबा के बायें पैर के अंगूठे को चंद्रमा के सदृश्य बता दिया। हेमाडपंत ने लिखा-बाबा के चित्र को जो भी ध्यान से देखेगा और इस अंगूठे को ध्यान में रखेगा उसकी सारी व्याधियां नष्ट हो जाएंगी। यही है पाद सेवनम! दरअसल, किसी भी कार्य के लिए एकाग्रचित्त होना अत्यंत आवश्यक है। उदाहरण, जब भी कोई खिलाड़ी खेल शुरू करता है; तो वो अपना सारा ध्यान इधर-उधर से समेटकर खेल पर एकाग्र करता है। ध्यान या पूजन-पाठन में भी एकाग्रचित्त होना आवश्यक है। सम्मोहन के दौरान भी एकाग्रचित्त होना पड़ता है। ठीक वैसे ही बाबा का अंगूठा हमें एकाग्रचित्त होने में सहायक है। हम टकटकी बांधे बाबा का अंगूठा निहारते हैं, तो हमारा सारा ध्यान उसी पर हो जाता है। बाकी; यहां-वहां क्या चल रहा है, हम भूल जाते हैं। जब तक कोई बात या चीज हमारे दिमाग में चलती रहेगी; हम उसे लेकर व्याकुल बने रहेंगे। यानी हमारी तकलीफ दूर नहीं होगी। जब हमें चोट लगती है; जख्म होता है, तो उसकी पीड़ा हमारे तंत्रिका तंत्र के जरिये हमारे दिमाग तक पहुंचती है तंत्रिका तंत्र लगातार अपना काम करता है, जब तक हम अपने मर्ज का इलाज नहीं करा लेते। यानी वो हमारा ध्यान उस पीड़ा पर बराबर बनाए रखता है। जरा-भी नहीं हटने देता। सोचिए; अगर हमारा तंत्रिका तंत्र काम करना बंद कर, तो क्या हम भावनाएं, पीड़ा आदि महसूस कर पाएंगे; बिलकुल नहीं। बाबा का अंगूठा हमारे लिए एक तंत्र का काम करता है। जैसे ही हमारी आंखों उस पर ध्यान गड़ाती हैं, वो हमें बुराइयों से दूर कर अच्छाइयों की ओर एकाग्र कर देता है।

 दास गणु महाराज को एक बार प्रयाग स्नान की इच्छा हुई। बिना बाबा की मर्जी के तो वे जा नहीं सकते थे। गणु महाराज ने बाबा से अनुमति मांगी। बाबा ने कहा तू प्रयाग क्यों जा रहा है गणु? गंगा तो यहीं है। यह कहकर उन्होंने दोनों पैर नीचे रख दिए और उसमें से गंगा प्रवाहित हो चली। यह बाबा का चमत्कार था। वे अपने भक्तों को हमेशा अपने पास रखते थे।
Dasganu Maharaj

तब की एक कहानी...
हमारे दिल में हमारे अपने हमेशा मौजूद रहते हैं। वे कहीं भी; कितनी भी दूरी पर रहते हों, जब भी हम उन्हें याद करते हैं, यूं लगता है गोया वे हमारे सामने खड़े हों। बाबा के साथ भी ऐसा ही है। अगर हम उन्हें सच्चे मन से याद करते हैं, तो मानकर चलिए; वे हमारे संग खड़े हैं। बाबा अकसर उन लोगों से कहा करते थे, जो किसी कारणवश शिर्डी से बाहर जा रहे होते थे; या जिन्हें सदा के लिए दूर जाना पड़ रहा होता था कि; तुम क्या समझते हो, मैं क्या सिर्फ शिर्डी में हूं? तुम जहां याद करोगे मैं वहां भी हूं।

सच भी है, बाबा तो हमारे मन के अंदर बैठे हैं। आवश्यकता उन्हें याद करने की है। बाबा का व्यवहार बड़ा विचित्र रहा है। वे अचानक कभी गुस्सा हो जाते थे, तो कभी बड़े प्यार से उनके साथ हंसी-ठिठौली करते थे। दरअसल, यह बाबा का चरित्र था। उनकी हर अदा में कुछ न कुछ विशेष प्रयोजन छुपा होता था। अगर वे किसी भी अचानक ही नाराज हुए हैं, तो इसका मतलब यह था कि; वे सामने वाले की किसी बड़ी गलती से बचाने का प्रयास कर रहे हैं, जो वो जाने-अनजाने भविष्य में करने वाला था। अगर बाबा यकायक विनोदी स्वभाव अख्तियार कर लें, तो जान जाइए कि, वे आसपास के वातावरण को सहज बनाने का प्रयास कर रहे हैं, जो किसी कारण से नीरस हो चला है। 

ऐसा ही एक उदाहरण है, जब बाबा ने विनोदी स्वभाव अपनाया और तात्या साहब नूलकर से अपनी विचित्र तरीके से पूजा-अर्चना कराई। यह 1910 गुरुपूर्णिमा की बात रही होगी। शिर्डी में उस दिन किसी को याद नहीं रहा कि; आज गुरु पूर्णिमा है उस दिन। बाबा ने सबेर-सबेरे श्यामा से कहा-ऐ श्यामा! उस बुड्ढे को बुला ला और कहना कि धूनी के सामने जो खंभा है, वो उसकी पूजा करें। तात्या साहब पेशे से जज थे। बाबा से उनका मन ऐसा मिला की; उन्होंने अपनी नौकरी त्याग दी और शिर्डी आकर बस गए। तात्या आए और खंभा की पूजा करने लगे। बाद में लोगों को पता चला कि; बाबा ने ऐसा क्यों किया? दरअसल, लोगों को याद कराने कि; आज पूर्णिमा है और मस्जिद में विशेष आयोजन होना है। हालांकि साई बाबा अपनी पूजा कराने से बचते थे। खैर, आइए इसके पीछे की पूरी कहानी बताते हैं।
Shri Tatya Saheb Noolkar

तात्या साहब को शिर्डी लाने वाले व्यक्ति थे नाना साहब चांदोरकर। इसका भी किस्सा है। तात्या साहब नूलकर ने शर्त रखी कि; मैं दो ही शर्ता पर शिर्डी चलूंगा, पहली-मुझे अपने लिए बढिय़ा-सा ब्राह्मण रसोइया चाहिए, दूसरी-बाबा को भेंट देने के लिए बढिय़ा से संतरे चाहिए। चूंकि बाबा चाहते थे कि; तात्या उनके पास आएं, इसलिए उन्होंने एक लीला रची। नाना के पास एक व्यक्ति घूमते-घूमते आया। उसे नौकरी की तलाश थी। नाना ने कहा क्या काम करते हो भई? उसने कहा-रसोईयां हूं। नाना ने उसका नाम पूछा, तो वह ब्राह्मण निकला। यानी तात्या की एक शर्त तो पूरी हो गई। उनके साथ जाने के लिए ब्राह्मण रसोइया मिल गया था।

अब सवाल था, दूसरी शर्त पूरी होने का। उसे भी बाबा ने ऐसे पूरा किया। नाना साहब डिप्टी कलेक्टर थे, इसलिए उन्हें गिफ्ट वगैरह खूब मिलती थीं। एक दिन कोई आकर उन्हें संतरे की पेटी भेंट में दे गया। इस तरह तात्या की दूसरी शर्त भी पूरी हो गई। इसके बाद नाना साहब चांदोलकर ने तात्या से कहा-अब शिर्डी चलो! तात्या साहब के पास अब तो कोई चारा ही नहीं बचा था। वह चल पड़े। 

अपने पद के अहंकार में जीने वाले तात्या जैसे ही बाबा के दर्शनों को पहुंचे, बाबा के चेहरे का तेज देखकर भाव-विभोर हो गए। उनका अहंकार आंखों से अश्रु बनकर बह निकला। बाबा के समक्ष आने के बाद तात्या अपनी जजगीरी की अकड़ भूल गए। वे बाबा से मिलकर वापस घर लौटे, तो उसके बाद कहीं मन नहीं रमा। नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और शिर्डी में आकर एक छोटा सा घर लेकर वहीं बस गए। 


तात्या को बाबा प्यार से बुड्ढा कहते थे। इन्हीं के लिए बाबा ने श्यामा से कहा था कि, जा उस बुड्ढे से खंभे की पूजा करने को कह। श्यामा को समझ नहीं आया कि बात क्या है। वह दौड़ा-दौड़ा गया बाबा केलकर के पास। वे पंचाग देखते थे। उन्होंने पंचाग देखा, तो बताया कि आज तो गुरु पूर्णिमा है। आज गुरु की पूजा करते हैं। बाबा खंभे की पूजा नहीं करवाना चाहते थे। वे तो यह चाहते थे कि सब लोग अपने गुरुजनों को याद करें। इस खंभे को प्रतीक मानकर उनकी पूजा करें। श्यामा ने बाबा केलकर से कहा, हमारे गुरु तो हमारे देवा; हमारे साई बाबा हैं, लेकिन बाबा तो अपनी पूजा कराने से पीछे भागते थे? अब बेचारे भक्त क्या करें, शिष्य अपने गुरु यानी बाबा की गुरुपूर्णिमा पर पूजा-अर्चना कैसे करें? श्यामा के दिमाग में यह चल रहा था कि, अब बाबा को मनाया कैसे जाए कि, वे सब उनकी पूजा करना चाहते हैं। 

श्यामा बाबा के पास पहुंचे और अपने मन की बात रखी। बाबा नानुकुर करने लगे, लेकिन श्यामा तो श्यामा थे, अड़ गए कि; बाबा आज तो हम तुम्हारी पूजा जरूर करेंगे। आज तुम मना नहीं कर सकते। हम तो उस खंभे की नहीं तुम्हारी ही पूज करेंगे। श्यामा ने बाबा को जबर्दस्ती; प्रेमपूर्वक; हठपूर्वक उठाया और धूनी के सामने लगे खंभे के पास लेकर बैठा दिया। मालसापति ने बाबा को चंदन लगाया। श्यामा ने पांव पखारे और बाबा केलकर पंखा झलने लगे। इसके बाद शिर्डी में वो हुआ; जो पहले कभी नहीं हुआ था। बाबा की आरती उतारी गई। बाबा की आरती उतारने वाले पहले शख्स थे तात्या साहब नूलकर। 
Shama

आज हम लोग बाबा की आरती उतारने के लिए लालायित रहते हैं, लेकिन सबसे पहले किसने बाबा की आरती उतारी थी; वो शायद किसी को याद भी न हो। बाबा तो सर्वस्त्र और सर्वदा हैं, लेकिन उन्होंने अपने कुछ शिष्यों को भी अमरत्व प्रदान कर दिया। अमरत्व उन्हें ही नसीब होता है, जो पूरी तरह से खुद को बदल देते हैं। अपना सर्वस्थ्य देश और समाज को समर्पित कर देते हैं। लोगों की सेवा में अपना तन-मन-धन अर्पित कर देते हैं। 

इस बात जिक्र यहां इसलिए किया है, ताकि अब जब भी आप बाबा की आरती उतारेंगे; तात्या साहब नूलकर को याद जरूर करेंगे। तात्या के बाद बाबा की आरती किसने उतारी; यह भी जान लीजिए। दरअसल, तात्या साहब नूलकर युवावस्था में स्वर्ग सिधार गए। बाबा ने उन्हें कैसे मोक्ष प्रदान किया; देखिए। 

तात्या साहब अंतिम सांसें भर रहे थे। उन्हें कोई गंभीर रोग हो गया था। अंत समय में उन्होंने श्यामा से यही कहा; मुझे बाबा के चरणो का तीर्थ मिल जाए। उस वक्त रात का 1 बज रहा था। किसी की हिम्मत नहीं थी कि; वह बाबा को नींद से उठाए इस समय। सिर्फ श्यामा ही इसकी जुर्रत कर सकते थे। श्यामा बदहवास; हाथ में कटोरा लेकर मस्जिद की ओर भागे। तेजी से मस्जिद का दरवाजा खोला। खटर-पटर की आवाज से बाबा की नींद टूट गई। बाबा ने गुस्से में पूछा, श्यामा रात को क्यूं आया तू? श्यामा ने तुरंत जवाब दिया-बाबा नूलकर जा रहा है। वह चाहता है कि उसे तुम्हारे चरणों का तीर्थ मिल मिले। बाबा ने कहा, क्या करूं मैं? श्यामा ने कहा-कुछ मत करो। ये कटोरा लाया हूं। उसके अंदर कुणम्बा से पानी भर रहा हूं उसमें अपने पैर रखो। यह कहने की हिम्मत और किसी में नहीं थी। यह केवल श्यामा कह सकते थे। श्यामा ने पास में रखे मटके याने कुणम्बा से पानी लिया और बाबा ने उसमें अपने पैर रख दिए। श्यामा ने ले जाकर वह तीर्थ नूलकर को पिला दिया। नूलकर ने साई-साई कहते हुए अपने प्राण त्याग दिए। मस्जिद में बाबा के साथ मालसा भी सोते थे। जैसे ही तात्या ने प्राण त्यागे; उसी वक्त बाबा ने मालसा से कहा, नूलकर भगवान में मिल गया। 

इस किस्से का जिक्र करना इसलिए लाजिमी था; ताकि जब बाबा की आरती उतारें, तो उनके पहले भक्त का स्मरण करें। बाबा ने जो भी लीलाएं रचीं; वो अपने भक्तों के माध्यम से ही रची। मेघश्याम गुजरात से था। वीरन गांव से। राय बहादुर हरि विनायक साठे, जिन्होंने पहली बार शिर्डी में भक्तों के रहने के लिए बाड़ा बनवाया। मेघा उनके यहां रसोइयां का काम करता था। 

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