Tuesday 16 February 2016

साई बाबा का दूसरा वचन


चढ़े समाधि की सीढ़ी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर


श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से दूसरे वचन के बारे में बताते हुए ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा के दूसरे वचन, “चढ़े समाधि की सीढ़ी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर” के भी बहुत ही गहरे आध्यात्मिक मायने हैं. यह वचन साई का परोपकारी वचन है.
पहला वचन यदि साई की राह में किसी भक्त की यात्रा की शुरुआत है तो यह दूसरा वचन साई के शरणागत को एक नयी ऊँचाई पर ले जाता है. इस भक्त को साई के और क़रीब ले कर आता है. किसी भी साई-भक्त की साई यात्रा में साई की समाधि की यह पहली सीढ़ी अति-महत्त्वपूर्ण है.
अगर इस वचन को थोथे शाब्दिक रूप से समझा जाए तो साई की समाधि की सीढ़ी पर पैर रखने या चढ़ने-मात्र से ही भक्तों के दुखों का नाश हो जाना चाहिए. ऐसा हो भी जाता है. विश्वास हमेशा फलीभूत होता है. यह आश्रित के कर्मों और भक्त की भक्ति पर निर्भर करता है कि साई की समाधि की ड्योढ़ी पर पैर रखते ही दुखों का नाश हो जाता है या दुःख कम हो जाते हैं या फिर बिलकुल ही कम नहीं होते. किसी को भी अपने ऊपर पैर रखने देने के पूर्व यह समाधि कड़े इम्तिहान लेती है. भक्त की भक्ति की परीक्षा और उसके कर्मों का लेखा यहीं पर परखे जाते हैं.
इस वचन की महत्ता को समझने के लिए यह समझना होगा कि समाधि क्या है? चढ़ना क्या है? चढ़ने वाले की योग्यता क्या होना चाहिए? दुःख क्या हैं? दुःख पैरों तले कैसे आयेंगे?

समाधि मन, तन और चित्त की वो एक अवस्था है जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य – तीनों एक साथ, एक ही स्थान पर, ‘अभी’ और ‘यहीं’ संजोये रहते हैं. जो कुछ भी होता है, वो बस ‘अभी’ और ‘यहाँ’ होता है. जिसने ‘समय’ पर नियंत्रण पा लिया, उसने ‘तब’ और ‘कब’ पर विजय प्राप्त कर ‘अब’ को पा लिया. इसी तरह जिसने ‘स्थान’ पर क़ाबू पा लिया, उसने ‘कहाँ’ और ‘वहाँ’ पर विजय प्राप्त कर ली, उसने ‘यहाँ’ को जीत लिया. साई के साथ सब कुछ ऐसा ही था. वो समय और स्थान से परे लोगों को उबार लेने का काम करते थे और आज भी कर रहे हैं. दरअसल, समाधि अवस्था योग की सर्वोच्च स्थिति है जिसमे समय और स्थान निर्मूल हो जाते हैं. सभी कुछ एक साथ, एक ही जगह, एक ही समय पर घटित होता है.
यह अवस्था शारीरिक ताप-संताप, इच्छाओं-वासनाओं से परे है. इस अवस्था में शरीर, दूसरे के रोगों को अपनी भी इच्छा से हर भी लेता है और नष्ट भी कर देता है. श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 7 में उल्लेखित है कि बाबा ने दादासाहेब खापर्डे के पुत्र के प्लेग की गांठे अपने शरीर पर ले ली थीं. यह भी माना जाता है कि बाबा ने अपनी इच्छा से बायज़ामाई के बेटे तात्या का रोग हर कर उसके स्थान पर उसकी मृत्यु को अपना लिया था (श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 42).
समाधि अवस्था में मन काम, क्रोध, इर्ष्या और अहंकार से रिक्त रहता है. यह अवस्था मन की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, आशंकाओं, उपेक्षाओं, मान-अपमान, स्वाभिमान-अभिमान, राग-द्वेष से परे है. नानावल्ली द्वारा बाबा को अपने आसन से हटा देने पर भी बाबा का सहज रहना इस बात का परिचायक है कि बाबा में लेशमात्र भी अभिमान नहीं था और न ही वह इस बात से आहत हुए थे. वे इस अपमानजनक कृत्य पर भी सहज और शांत ही रहे थे. शिर्डी के बनियों द्वारा उन्हें मस्जिद में दिए जलाने के लिए जब तेल देने से मना कर दिया गया था और जब बाबा ने जल से ही दीपक जलाये थे, तब भी उन्होंने उन दुकानदारों को कोई श्राप या सज़ा नहीं देते हुए केवल समझाइश ही दी थी कि किस तरह से उनका झूठ बोलना न सिर्फ उनके अपने व्यक्तित्व के लिए नुकसानदेह है बल्कि उन्होंने झूठ बोलकर उस ख़ुदा की शान में ख़िलाफ़त की है जिसकी स्तुति में वो दीपक जलाये जाने थे. साई ने हमेशा लोगों को सुधारने का काम बिना किसी हथियार और सज़ा के किया है और  आज भी कर रहे हैं. अपने जिस कठिन समय को लोग भगवान की सज़ा मानते हैं वो तो दरअसल उनके अपने कर्मों का ही फल होता है. यह शाश्वत सत्य है कि कर्म बिना फल दिए शांत नहीं होता.  
बरसों-बरस लग जाते हैं तब समाधि की स्थिति में आ पाना संभव हो पाता है. योगावस्था का चरम है समाधि. योग का अर्थ ही है, ‘चित्तवृत्ति निरोध:’ यानि जिसमें चित्त की वृत्ति थम जाये. समाधि अवस्था में चित्त अपनी मूल वृत्ति के विपरीत एकदम स्थिर रहता है, भटकता नहीं है. स्व-केन्द्रित न होकर चित्त परोपकार के भाव से भर उठता है. इसीलिए तो साई की शरण में जाकर अपने पापों के कटने का अहसास मन को होता है. जीवन सरल बन जाता है.

श्री दाभोलकर रचित श्री साई सच्चरित्र को पढ़ कर समझ में आता है कि साई बाबा में समाधि के गुण सदैव विद्यमान थे. वे चलते-फिरते, सोते-जागते सदैव समाधि अवस्था में ही रहते. वे अपने आपको सदा ईश्वर का आज्ञाकारी सेवक ही मानते जैसा कि श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 34 में उल्लेखित है. बाबा ने शामा से कहा, “जो निरभिमान होकर अपने को कृतज्ञ समझ कर उन (ईश्वर) पर पूर्ण विश्वास करेगा, उसके कष्ट दूर हो जाएँगे और उसे उसे मुक्ति की प्राप्ति होगी.
जो मुक्त है, वही सच्ची समाधि में है. शरीर, मन और चित्त की यह स्थिति, ईश्वर का अखंड स्मरण करने से, उसके अस्तित्व में बिना शर्त समर्पण कर और सम्पूर्ण ब्रह्मांड को उसकी सत्ता मान कर आचरण करने से ही संभव है. यही कारण है कि साई जब सदेह थे तब भी सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वोपरि थे और आज जब वो भौतिक देहधारी नहीं हैं तब भी इन्हीं गुणों को परिलक्षित करते दिखते हैं.
सदेह रहते हुए वे अपने पास आने वाले भक्तों का भूत, वर्तमान और भविष्य सदा ही बता देते थे. इसके लिए उन्हें कभी किसी का न तो हाथ देखने की ज़रुरत ही थी और न ही किसी की जन्मकुंडली उन्होंने देखी हो ऐसा हुआ था. न कोई रमल विद्या और न ही कोई कर्ण-पिशाचिनी विद्या उनके पास थी. उनका ध्यान इतना प्रगाढ़ था कि जागृत अवस्था में वे किसी का भी आज, गुज़रा हुआ और आने वाला कल बिलकुल सटीक बता देते थे. लोगों को आने वाली विपदाओं के प्रति आगाह करते जैसे कि उन्होंने दामू अन्ना को उसकी लालच से भरे अनाज और रुई के सौदों (श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 25) के प्रति आगाह कर किया था. इस सौदे को अपनी जिद के मुताबिक़ कर दामू को भारी घाटा होता. इस और इस जैसी अन्य घटनाओं से सिद्ध होता है कि साई बाबा को भविष्य के बारे में न सिर्फ बिलकुल ठीक-ठीक पता होता था बल्कि वे अपनी शरण में आने वालों को अनिष्ट से बचा लेते थे. इसी तरह उन्होंने भीमाजी पाटिल के पूर्व जन्मों के पापों को काट कर उन्हें तकलीफदेह क्षय रोग से मुक्त किया था (श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 13). इस और इस जैसी कई अन्य घटनाओं से स्पष्ट होता है कि बाबा को अपनी शरण में आने वालों के पूर्व के घटनाक्रम और क्या कर्म उनको तकलीफ पहुंचा रहे हैं, के बारे में सब कुछ साफ़-साफ़ पता रहता था. जैसे उन्होंने बापूसाहेब बूटी के साथ आये अग्निहोत्र ब्राह्मण और ज्योतिष-शास्त्र में पारंगत मुले शास्त्री को उनके गुरु श्री घोळप स्वामी के रूप में दर्शन दिए थे (श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 12). यह घटना बाबा के वर्तमान को पढ़ने की क्षमता के बारे में बताती है. ऐसे ही कई किस्से आते हैं, जहाँ पर बाबा ने अपनी त्रिकालज्ञता का परिचय दिया है.
श्री साई सच्चरित्र में बाबा ने आश्वस्त किया है कि उनकी समाधि उनके भक्तों से बातें करेंगी, उनकी रक्षा करेगी और इस तरह से साई बाबा के पास होने का अहसास सदा उनके भक्तों को होता रहेगा. उनके पास होने का भास सदा ही उनके भक्तों को होता रहता भी है. क्या साई की समाधि उनसे अलग है? क्या साई, यह नश्वर देह छोड़ने के बाद अपनी सारी शक्तियां अपनी समाधि को देकर कहीं किसी और रूप में, किसी और स्थान पर चले गए हैं? उन्होंने अपनी समाधि को अपने से अलग क्यों बताया? साई ने जब इस देह से जीते जी मोह नहीं रखा तो इस नश्वर तत्व को वे समाधीस्थ होने के बाद क्यों कर्ता बताते. सर्वज्ञ साई अब अपनी समाधि के साथ-साथ समस्त जग के अनंत स्वरुप में मिल गए हैं, निराकार हो गए हैं तब शिर्डी स्थित उनकी समाधि उनके इस धरा पर उपस्थिति की प्रतीक स्वरुप सगुण भक्ति को बल दे रही है.  
संतों के स्वधाम गमन को उनका समधीस्थ होना माना गया है. साई भी तो एक संत थे जिन्हें ईश्वर-प्रदत्त शक्तियां परोपकार के लिए मिली थीं. संत कौन होते हैं?श्रीमद् भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि संत ईश्वर का ही स्वरुप होते हैं. स+अंत = संत. जो अपना अंत साथ में लेकर चलते हैं वो संत माने जा सकते हैं. अपना अंत यानि अपनी भौतिक इच्छाओं का अंत जो साथ में लेकर चले, वो संत होता है. सदेह रहते हुए भी भौतिक इच्छाओं का अंत, संतों को अदम्य शक्ति देता है. स्वयं पर क़ाबू पाने की शक्ति. यही शक्ति जीते जी उनको परमार्थी बना देती है और देह त्याग के बाद समर्थ, परमहंस. परमहंस यानि वो श्वेत, बेदाग़ पंछी जिसे सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का वाहन भी माना जाता है जो जितना पानी में रहता है, उतना ही पानी के बाहर भी. यह विभूतियाँ भी इसी तरह इस धरती पर रहते हुए भौतिकता से दूर और आध्यात्मिकता के अन्दर रहती हैं और परम आध्यात्मिक ऊचाइयों को प्राप्त कर चुकी होती हैं. ऐसे ही परमहंस हैं साई बाबा जो न सिर्फ ख़ुद के आध्यात्मिक उत्थान के लिए कार्यरत थे बल्कि ख़ुद पर आश्रितों के लिए भी सतत चिंतित रहते हैं.
ऐसे परमहंसों की समाधि की सीढ़ी चढ़ने के लिए यानि उनके पास तक जाने के लिए भक्त या आश्रित का स्वयं मन का साफ़, शुद्ध और बेदाग़ होना चाहिए. यदि पूर्व में किसी के दिल दुखाने वाले कार्य किये हों तो उनका प्रायश्चित भी करना होगा और न कर पाने की स्थिति में, उसका संकल्प तो होना ही चाहिए.
सुख की चाह और दुःख सहना, इसी से उत्पन्न होने वाली संवेदनशीलता इंसान को इंसान रहने देती है. कर्म का सिद्धांत है कि हर कर्म से कोई दुखी होता है तो कोई सुखी. किसी एक का दुःख किसी दूसरे का सुख बन ही जाता है. और तो और, जो अहसास आज किसी को सुख देता है, वही अहसास कल उसी को दुखी भी कर सकता है. इंसान कर्म से पार नहीं पा सकता और कर्म, सुख-दुःख के झूले से. कर्म इंसान करता है और अपने दुःख के लिए दोष ईश्वर को देता है.
दुखी तो इस दुनिया में सभी हैं. ऐसा कोई घर नहीं है जहाँ पर दुःख न हो. कोई शरीर से तो कोई धन से दुखी है. कोई रिश्तों से तो कोई परिस्थितियों से. कोई रोटी के लिए तरसता है तो कोई उसे हजम करने के लिए तड़पता है. कोई बहुत नींद आने से परेशान रहता है तो कोई रात-रात भर जाग कर परेशान होता है. साइकिल वाला इसलिए परेशान है कि उसके पास गाड़ी नहीं तो गाड़ी वाला इसलिए परेशान है कि गाड़ी में घूमने के कारण से उसका वज़न बढ़ गया है और उसे कम करने के लिए वो साइकिल चलाता है. दुःख के मूल में इच्छाओं का वास होता है और इच्छाएँ मृत्यु-पर्यंत ख़त्म नहीं होती. और होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि इन्हीं दुःख देने वाली इच्छाओं के ज़रिये अध्यात्म के रास्ते खुल जाते हैं. अध्यात्म यानि ख़ुद को पा लेने की अवस्था. समाधि की अवस्था. बहुत कम लोग इस तक पहुँच पाते हैं.
दुःख तीनो काल में अपना एक विशिष्ट स्वरुप लिए होता है. भूतकाल की किसी बात का शोक हमें हमेशा सालता रहता है. कोई अपमान, कोई अप्रिय घटना या फिर कोई पराजय – हम इन्हें दिल से लगाकर रखते हैं. यह भूल जाते हैं कि अगर किसी ने हमारा अपमान एक बार भी किया है तो उस अपमान को रोज़-रोज़ याद करके, हम स्वयं को प्रत्येक दिन अपने हाथों अपमानित करते ही रहते हैं. एक बार की पराजय को दिल से लगा कर बैठे होते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि वो तो सिर्फ़ एक बुरा दिन था. दिन बुरा होने से जीवन बुरा नहीं हो जाता. उसे रोज़ याद कर हम रोज़ पराजित होते रहते हैं. ऐसा ही उन अप्रिय घटनाओं के साथ होता है जिनका दंश हम पालते रहते हैं और उन्हें पोषित भी करते हैं.
वर्तमान का मोह भी दुःख का ही एक रूप है. धन-संपत्ति का मोह हमें उसका आनंद ही नहीं लेने देता. हम चैन से नहीं बैठ पाते. और धन कमाने की जुगत में उस आज को भी खो देते हैं जो किसी भी संपत्ति से अधिक मूल्यवान है. उन रिश्तों को भी ताक पर रख देते हैं जिनका जीवित रहना हमारे लिए सांस का काम करता है. जीवन में रिश्ते तो रह जाते हैं लेकिन रिश्तों में जीवन ख़त्म हो जाता है. संतान के प्रति मोह हमें उसके भले की सोचने नहीं देता. रिश्तों को निभाने की जुगत में हम अपनों को अपने से इतना सटा लेते हैं कि उनका भी सांस लेना दूभर हो जाता है और हमारा भी. अखबार ठीक से पढने के लिए हमेशा एक निश्चित दूरी होना ज़रूरी है. आँखों के बहुत पास होने से अक्षर पढ़ने में नहीं आते. हमें अपना रुतबा भी बहुत प्यारा होता है. उसे निभाने के लिए हम अपने चेहरे पर झूठ के इतनी परत चढ़ा लेते हैं कि ख़ुद से मुलाक़ात होने पर ख़ुद को भी पहचान नहीं सकते. मोह मारता है.
भविष्य का भय, आज को डरावना बना देता है. आज जो कुछ भी हमें साई की कृपा से मिला है, उसके छिन जाने का डर हमारे सारे व्यक्तित्व को मटमैला कर देता है. जीवन के शांत पानी में भविष्य के भय का पत्थर फ़ेंक कर हम नीचे का मैल ऊपर ले आते है और उस पानी को दूषित कर देते हैं. और मज़े की बात तो यह है कि अंत में समझ आता है कि जीवन में हमारे अधिकांश भय निर्मूल, बेकार के ही सिद्ध होते हैं. ये निराधार ही होते है. हमारे मन की अँधेरी उड़ान का परिणाम होते हैं भय लेकिन यह हक़ीकत जीवन की साझ में ही समझ आती है जब बहुत कुछ सुधारा नहीं जा सकता.
गुज़रे हुए कल का शोक, वर्तमान का मोह और भविष्य का भय, ये तीनों हमें सुख, शांति और आनंद से दूर ही रखते हैं. यह सभी के साथ होता है. अपने और अपनों के लिए ही जी-जी कर हम भूल चुके होते हैं कि सुख, शांति और आनंद को पाने का सबसे आसान रास्ता होता है परोपकार का. दूसरे को सुख देने की असीम शांति में हमारे सारे शोक घुल जाते हैं, मोह खो जाते हैं और भय हवा हो जाते हैं. परोपकार का भाव हमें एक सीढ़ी ऊपर चढ़ा देता है. यही सीढ़ी उस साई की समाधि की पहली सीढ़ी है जहाँ पर कोई भी नकारात्मक भाव ठहर ही नहीं सकते क्योंकि परोपकार का रास्ता साई के पास ही लेकर जाता है.
परोपकार ही साई की पहचान है. ख़ुद फटे कपड़ों में रहते लेकिन दूसरों को अपने एक बोल से निहाल कर देते, ओढ़ी हुई फ़क़ीरी को होठों की मुस्कान तले दबाकर रखते, भिक्षा लेते तो बदले में दुआओं का भण्डार खोल देते, दक्षिणा मांगते तो वर्षों पुराने बोझ से मुक्ति का दान दे देते, भक्ति लेकर अभयकारी उदी को मुक्तहस्त से माथे पर लगा देते. किस्मत का लेखा और सितारों की चाल साई बदल देते हैं. यह शक्ति उनको परोपकार करने के बदले, और लिए मिली है!        
साई की समाधि की सीढ़ी पर चढ़ने की इच्छा हमेशा परोपकार की भावना के साथ होनी चाहिए. यही इस सीढ़ी पर चढ़ने की आवश्यकता भी है और योग्यता है. दूसरों के लिए साई से मांगी हुई दुआ किन रास्तों से, कितनी गुणा श्रृंगारित और संपन्न होकर वापस हमारे ही पास आती है, इस बात का अहसास अगर हमें हो जाए तो हम कभी अपने लिए साई से दुआ मांगेंगे ही नहीं. दूसरों का अच्छा करो. इससे जो दुआ निकलती है वो कर्मों के फल को भी पिघला देती है.

इस सीढ़ी पर अपने लिए मांगेंगे तो भी मिलेगा लेकिन उतना ही जितना हम उठाने का सामर्थ्य रखते हो लेकिन जब हम दूसरे के लिए खुशियाँ मांगेंगे तो साई न सिर्फ हमें हमारी हैसियत से ज़्यादा देगा बल्कि हमारे सामर्थ्य को बढ़ा भी देगा. हमारा दुःख, सुख में बदल जाएगा. मर्ज़ी हमारी है. साई की समाधि की सीढ़ी हमारे बोझ उठाने को तैयार है. पहला कदम हमें ही रखना होगा. यहाँ ज़िन्दगी को समझोगे तो समझोगे कि ख़ुशी से रो देना और ग़मों में मुस्कुराना ही जीवन है. तब दुःख क़दमों के नीचे होंगे.


बाबा भली कर रहे।।
श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु
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