Friday 19 February 2016

साई बाबा का तीसरा वचन


त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौड़ा आऊँगा

श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से दूसरे वचन के बारे में बताते हुए ‘भाईजी’ सुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा का यह तीसरा वचन, “त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौड़ा आऊँगा” अभयकारी वचन है. इसे पढ़ने वाले को सहज ही डर से मुक्ति मिल जाती है.
इस वचन को समझना है तो पहले यह समझना होगा कि क्या सिर्फ शरीरधारी होने से ही साई का अस्तित्व था?
साई तो हमेशा ही शरीर के परे थे. उनका शरीर तो मात्र एक नश्वर ज़रिया था इस धरती पर लोगों से संपर्क बना कर उन्हें बेहतर इंसान बनने की ओर अग्रसर करना और लोगों को अभयत्व देने वाले नाम – साई - को स्थापित करने का. यह उद्देश्य पूरा होते ही साई ने देह छोड़ कर पुनः अनंतता को ओढ़ लिया और उस परमशक्ति में फिर से समा गए जिसका दास वो ख़ुद को कहा करते.




आज साई सदेह नहीं हैं लेकिन आज भी उनका नाम और उनका काम उनके भक्तों को पूर्ण संरक्षण दे रहा है. साई का यह वचन आज भी दोहराते हुए उनके भक्तों की आँखों में पानी भर आता है, शरीर रोमांचित हो उठता है और साई के प्रति अनुग्रह उनमें आत्म-विश्वास का संचार कर देता है. साई ने इस वचन के माध्यम से अपनी अखंड उपस्थिति के प्रति अपने भक्तों को आश्वस्त किया है. यह वचन भक्त के आवेगशील मनोभावों को नियंत्रित करता है, उसकी हृदयगति को नियंत्रित करता है और संवेदनाओं को जागृत करता है.
15 अक्टूबर, 1918, मंगलवार के रोज़, दशहरे के पावन दिन दोपहर के 2.30 बजे बाबा ने अपनी नश्वर देह छोड़ कर समाधि का वरण कर लिया था. उनकी देहोत्सर्ग की इस क्रिया को ऐच्छिक भी माना जा सकता है क्योंकि उन्होंने तात्या पाटिल की मृत्यु अपने ऊपर ले कर उसको जीवन-दान दे दिया था.
इससे लगभग 35 वर्ष पूर्व भी, दिसंबर 1887 में भी बाबा ने तीन दिन की एक छोटी ऐच्छिक समाधि ली थी. तब भी शिर्डीवासियों ने पहला दिन ही ढलते-ढलते ये मान लिया था कि बाबा अब लौट के नहीं आयेंगे लेकिन ये तो बाबा का नामकरण करने वाले और उनके प्रथम भक्त म्हालसापति की दृढ़ इच्छा-शक्ति का ही परिणाम था, जो बाबा का सर अपनी गोद में लेकर बैठे थे, कि उन्होंने शिर्डी के लोगों और प्रशासन के आगे झुकने से मना कर दिया था और बाबा के वापस आने की तीन दिन की समयावधि तक उन्होंने किसी को भी बाबा को हाथ लगाने नहीं दिया था. धन्य है वो भक्त म्हालसापति! यदि उन्होंने दबाव में आ कर लोगों को बाबा की देह की अंतिम क्रिया करने की बात मान ली होती तो बाबा के असली रूप, उसका माह्तम्य जानने और उनकी लीलाओं को देखने से हम सभी लोग वंचित रह गए होते. तीसरे दिन की समयावधि समाप्त होते-होते बाबा के शरीर में प्राण लौट आये थे जैसा कि उन्होंने समाधि लेने से पूर्व म्हालसापति को इंगित कर ही दिया था.

अपनी इच्छा से प्राणों को शरीर से अलग कर लेने और फिर उन दोनों को अपनी मर्ज़ी से जोड़ने  वाले साई की देह त्यागने की क्रिया को भला साधारण रूप से कैसे लिया जा सकता है! श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 7 में साई की यौगिक क्षमताओं के बारे में पढ़ कर स्पष्ट हो जाता है कि साई बाबा का अपने मन और शरीर पर अद्भुत नियंत्रण था. उनका ब्रहमचर्य हनुमान के सदृश अखंड था और अपने संपर्क में आने वाली सारी महिलाओं को हमेशा बहुत ही मर्यादित नज़रों से देखते. कभी भी किसी की नज़रों में सीधे नहीं देखते. सभी महिलाओं को वे माई (माँ) कह कर ही संबोधित करते. वे कभी खण्डयोग कर अपने शरीर के सारे अंगों को अलग कर फिर जोड़ देते तो कभी धौति-क्रिया के माध्यम से अपने पेट की सारी अतड़ीया निकाल कर उन्हें कपड़े से साफ़ कर पेड़ों की टहनियों पर सूखने को डाल देते थे और फिर उन्हें वापस अपनी जगह लगा लेते थे. वो एक हथेली चौढ़े और तीन हाथ लम्बे लकड़ी के पटिये पर चारों कोनो पर दीपक लगा कर उसे फटी हुई चिंदियों से लटकाकर उस पर ऐसे सोते कि कौतुकी लोगों को वे केवल उस पटिये पर सोते दिखते न कि चढ़ते और उतरते. वे रात में सोते तो म्हालसापति को कहते कि ध्यान रखना कि कहीं सोते में उनके ह्रदय में भगवत्स्मरण बंद न हो जाए. जिस साई को अपने शरीर और इन्द्रियों पर इतना नियंत्रण हो वह कैसे मृत्यु का ग्रास बन सकता है? वह तो इच्छा-मृत्यु का ही वरण कर सकता है. ऐसी मृत्यु जिसमे सिर्फ उनका शरीर निष्प्राण हुआ हो, साई तो अखंड, सतत और अनवरत् हैं. मृत्यु ने साई का शरीर नहीं हरा था बल्कि साई ने शरीर को त्यागा था जो साई के लिए कतई कठिन नहीं था.
शरीर में आसक्ति, उसका त्यागा जाना मुश्किल कर देती है. जिस व्यक्ति की शरीर में ही आसक्ति हो, उसके लिए शरीर त्यागना दुखदायी होता है. इसे त्यागना उसके लिए कठिन होता है जो या तो शरीर को ही जीवन मानता हो और शरीर के होने या न होने को जीवन को होने या न होने के जैसा समझता हो. साई तो त्याग की प्रतिमूर्ति थे. न धन-संपत्ति का संग्रह, न जीभ में कोई स्वाद का लालच, न महिलाओं में कोई आसक्ति और न ही किसी प्रकार की अन्य वासनाएं. साई तो त्याग को ही जीते थे या कहें कि साई ने जीवन भर त्याग को ही जिया.
उनका अपने शरीर के प्रति कोई मोह था ही नहीं. न तो वे तो इस शरीर को संवारते थे और न ही कभी कपड़ों या आभूषणों में उनकी दिलचस्पी ही रही. वे कई-कई दिनों तक स्नान नहीं करते लेकिन मन की पवित्रता से हर समय उनके चेहरे पर एक अजीब ही नूर रहता. फटे कपड़ों में रहकर भी उन्होंने लोगों के उधड़े हुए भाग्य को सिलने का काम किया. बिना फर्श की मस्जिद में ज़मीन पर बैठ-बैठे भी उन्होंने लोगों के पत्थर जैसे मन को कोमल किया. धूनी के सामने बैठकर झुलसते हुए तन को परमार्थ में लगाया. ऐसा पावन शरीर त्यागने में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई. जीवन, प्राण, शरीर भरम है. हमारे दर्शन में भी लिखा है कि शरीर को जीवित रखने वाली आत्मा जो कि इस शरीर की ऊर्जा है, वह तो शाश्वत, अमर, अटूट और अटल है.
श्री साई सच्चरित्र के अध्याय 8 में मानव जीवन के महत्त्व को दर्शाते हुए उल्लेख है कि अलग-अलग योनियों में जन्म लेते-लेते जब इस आत्मा के पुण्य और पाप का समन्वय हो जाता है तो मानव जन्म का अवसर मिलता है. इसी जन्म में आकर पापों और पुण्यों को जलाने का अवसर भी मिलता है जो आत्मा को मोक्ष देकर परमात्मा के अन्दर विलीन कर देता है.
परमात्मा अंशी है और हम उसके अंश. हम उसी का रंग-रूप, उसी की छाँव-धूप हैं. हम एक बूँद है तो वह सात समुन्दर. वो परबत है तो हम कंकड़. हम निर्बल हैं तो वो बलवान लेकिन वो हरपल हमारे साथ ही होता है. हम उसी शक्ति का सुर-संगीत हैं और उसी के गीत गाते हैं. बस मुसीबत तब होती है कि हम उसके गीत गाते-गाते, अपने शब्द, सुर, ताल और लय बिगाड़ लेते हैं. जब हमारे शब्द, सुर, लय, ताल बिगड़ने लगते हैं तब हमारे कर्मों का स्वरुप बिगड़ने लगता है. हमें समझ लेना चाहिए कि हम परमात्मा के प्रेम और भाईचारे के मूल सिद्धांत से दूर होते जा रहे हैं और अब हमारे पापों के रास्ते का सफ़र प्रारंभ हो चुका है. हम तनाव में रहने लगते हैं. चैन नहीं पाते. उखड़े-से रहते हैं. तब सद्गुरू की ज़रुरत होती है.
पाप और पुण्य को जलाने का रास्ता सद्गुरू के चरणों में ही मिलता है जो अपने शिष्य को उसके तमाम अवगुणों और कमियों के बावजूद अपनाकर उसे अपने मूल, परमात्मा, से मिलाने का कार्य करता है. साई बाबा ऐसे ही सद्गुरू हैं जिन्हें कोई देवता, कोई भगवान् या फिर अवतार कहते हैं.   
मनुष्य का जन्म अपने कर्मों के चलते होता है जबकि देवता करुणावश अवतार लेते हैं. जब-जब भी मानवता गुमराह हो जाती है तो वो परम शक्ति जिसे हम ईश्वर, अल्लाह या फिर गॉड कह कर पुकारते हैं, कभी राम, तो कभी कृष्ण, जीसस, पैग़म्बर, नानक, बुद्ध, महावीर तो कभी ज़रथुश्त्र और अन्य का अवतार लेकर इस धरा पर जन्म लेती है और अपना-अपना काम कर, अपनी पावन देह से धरती को पवित्र करने के उद्देश्य से यहीं छोड़ स्वधाम चली जाती हैं.
जहाँ भी इनकी देह विश्राम करती है या फिर जिस जगह भी पंच-तत्वों में विलीन हो जाती है, वहाँ पर धाम बन जाता है. लोग उस पार्थिव देह की पवित्रता की चुम्बकीय शक्ति से खिंचे उस धाम पर आते हैं और अपने मन को खोल कर रख देते है. इनकी देह की निर्मलता, शुचिता और शुद्धि, किसी भी स्थल को देवालय के जैसी कर देती है. ठीक इसी तरह साई बाबा की शक्ति और पवित्रता से सिंचित पवित्र देह ने शिर्डी को भी पवित्र धाम बना दिया है, जहाँ लोग पैरों में बंधी डोर से चिड़ियों की भांति खिंचे चले आते हैं. बदले में साई भी अपने भक्तों के लिए हर जन्म में दौड़े चले आते हैं कभी सत्य की राह दिखाने तो कभी पापों को जलाने, कभी गले से लगाने तो कभी उनको सांत्वना देने. हमेशा. हर जन्म में.
श्री साई सच्चरित्र में कई सारे किस्से आते हैं जब बाबा ने भक्तों को उनके पूर्व जन्मों का हाल कह सुनाया. एक बार जब बाबा ने स्कूल मास्टर शामा के गाल पर चिमटी ली तो शामा ने बनावटी रोष दिखाते हुए उनसे कहा कि हमें तो ऐसा देव चाहिए जो हमें रोज़-रोज़ नया खाने को दे, अच्चा-अच्छा पहनने को दे और हमारा ख़याल रखे. बाबा ने तपाक से कहा कि इसी लिए तो मैं आया हूँ. मेरा और तेरा 72 जन्मों का रिश्ता है. ऐसा ही बाबा ने जिलाधीश के निज सहायक नानासाहेब चांदोरकर को अपने पास बुलावा भेजा और कहा कि उनका और बाबा का तो तीन जन्मों का नाता है. श्रीमती खापर्डे के कई जन्मों का वृत्तान्त बताते हुए बाबा ने उनके हाथों से बना खाना खाया. पूर्व जन्म में जायदाद को लेकर एक-दूसरे को मार डालने वाले दो भाई जब इस जन्म में बकरे के रूप में उनके पास आये तो बाबा ने उन्हें मोल लेकर उन्हें घास भी खिलाई. सांप के मुंह से मेंढक को बचाने पर बाबा ने उन दोनों, वीरभद्रप्पा और चैनबसप्पा, के ही कई सारे पूर्व जन्मों की कथा भी सुनायी. बाबा ने यह भी बताया कि कैसे उन्होंने हर जन्म में उस मेंढक की रक्षा करी है. धुरन्धर भाइयों से बाबा ने अपना साठ जन्मों का रिश्ता बताया.
साई का अपने भक्तों से रिश्ता जब बन जाता है तो वो फिर हमें अपनी छात्र-छाया से दूर नहीं होने देते. साई इतनी आसानी से रिश्ता बनाने भी तो नहीं देते थे. कितनी ही बार होता था जब कोई इच्छा के बावजूद शिर्डी नहीं आ पाता था तो कोई शिर्डी आकर भी मस्जिद की सीढियां नहीं चढ़ पाता था. बाबा की मर्ज़ी के बगैर कोई भी उनके क़रीब नहीं आ सकता था. बाबा किनको अपने पास आने से रोकते थे? पद, पैसे और ख़ानदान के अहंकार से भरे लोगों को बाबा सख्त नापसंद करते. जैसे कि हाजी सिद्दीक़ फाल्के जिन्हें अपनी हज यात्रा का बहुत अभिमान हो गया था. धन के लोभी लोगों की भी बाबा के दरबार में कोई जगह नहीं थी. जैसे वो बनिया जो ब्रह्मज्ञान लेने बाबा के पास आया था लेकिन बाबा की माया के जाल में ऐसा उलझा कि उस समय जब बाबा को सिर्फ पांच रुपयों की ज़रुरत थी और उसकी जेब में ढाई सौ रुपये होने के बावजूद वो नहीं दे पाया. मेघा जैसे भक्त, जिसकी मृत्यु पर बाबा ने भी आंसू बहाए थे, पर भी बाबा पहले-पहल नाराज़ हुए थे जब उसके मन में बाबा के यवन होने का भाव था. बाबा ने कालान्तर में उसकी भक्ति को बढ़ाया ही. नानासाहेब चांदोरकर को बाबा ने संरक्षण तो दिया लेकिन जब एक सुन्दर मुस्लिम महिला को देख उनके मन में वासना के भाव उत्पन्न हुए तो बाबा ने बड़े ही प्रेम समझाकर से उन भावों को दूर धकेल दिया और चांदोरकर को ग्लानी-मुक्त कर दिया. शिर्डी से मीलों दूर पंढरपुर के एक वकील ने तात्यासाहेब नूलकर के बाबा में विश्वास को लेकर मज़ाक उड़ाया था और जब वही वकील सालों बाद बाबा के पास दर्शन के लिए आया तो बाबा ने उसे दुत्कार दिया था. जो ज़ुबान किसी के विश्वास की निंदा करे ऐसी बोली बाबा को सख्त नापसंद थी.   
ऐसा नहीं था कि बाबा किसी को भी अपने पास आने से रोकते थे, उनका विरोध तो केवल उन नकारात्मक मनोभावों से था जिन्हें लेकर ये लोग बाबा के पास आते थे. बाबा का मानना था कि इन भावों के साथ कोई भी उस मस्जिद की सीढियां नहीं चढ़ सकता जिन भावों में या तो ख़ुद आने वाले का या फिर किसी और का अहित छिपा हो. ऐसे मनोभाव न सिर्फ मनुष्य के अपने व्यक्तित्व को तोड़ते हैं बल्कि दूसरों के लिए भी हानिकारक होते हैं. जो इच्छाएँ इंसान के ईश्वर को पाने में बाधक हों वो इच्छाएँ लेकर कोई भी कभी भी बाबा के पास नहीं पहुँच पाया.
जो भी बाबा के शुरूआती भक्तों में गिने गए वे सभी स्वभाव से सरल और धनवान लेकिन धन-संग्रह में अनासक्ति रखने वाले ही थे. बाबा अकसर गाते, “फ़क़ीरी अव्वल बादशाही. अमीरी से लाख सवाई. गरीबों का अल्लाह भाई.” जिसके पास कोई इच्छा नहीं है, वो बादशाहों की तरह रह सकता है. धन इंसान की सेवा के लिए है लेकिन जब इंसान धन की सेवा करने लगे तो वो धन का सेवक कहलाता है. जिसको धन का मोह ही नहीं है वो बादशाह की तरह रह सकता है.
चाह गयी, चिंता गयी. मनवा बेपरवाह.
जिनको कछु न चाहिए, वो शाहन के शाह.
बाबा का मानना था धन नहीं धन के प्रति मोह, ईश्वर-प्राप्ति में बाधक है. बाबा ने कभी किसी को धन-संग्रह या संचय करने से नहीं रोका लेकिन उनका मानना था कि जो भी धन किसी के पास है वो उसे उसका मालिक न समझे बल्कि ईश्वर के उस आशीर्वाद के प्रति ज़िम्मेदार समझे और उस धन से वो धर्म करे, परोपकार करे. धन से धर्मार्जन ईश्वर के पास पहुंचा देता है. इस आसक्ति से मुक्ति ईश्वर का रास्ता खोलती है. साई के दर का रास्ता खोलती है. जो अपने आप को सर्वशक्तिमान समझता हो, उसे साई की क्या दरकार!
आज जब बाबा सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि अब जब इन भावों से युक्त होकर जाने वालों को डांट कर भागने वाला नहीं है और जब साई की मस्जिद और उनके समाधि मंदिर के द्वार सभी के लिए खुले हुए हैं, तब यह कैसे संभव होता है कि साई इन जैसों को अपने पास आने से रोक सकें? इसका जवाब बहुत ही सरलता से दिया जा सकता है कि जब इस प्रकार के लोग शिर्डी पहुँचते हैं तो उन्हें तब तक बाबा के पास होने की अनुभूति नहीं मिलती जब तक वे अपने सारे केंचुल उतार कर बाबा की शरण में न आ जाएँ. जब तक उनमें आतंरिक सुधार नहीं आ जाता, उनको साई से तो मिलता है लेकिन उन्हें साई नहीं मिलते. उनमें और मंदिर के बाहर बैठ कर भीख मांगने वालों में कोई विशेष अंतर नहीं होता. ये अन्दर, बाबा के सामने भीख मांगते हैं. बाहर बैठकर मांगने वाला फिर भी बेहतर होता है क्योंकि वो खुलकर मांग रहा है और ये छुपाकर. हाथ दोनों के ही फैले हैं. दीन दोनों ही हैं. कष्ट में दोनों ही हैं. बाबा के दर से ख़ाली कोई नहीं लौटता. अंतर सिर्फ इस बात का है कि कौन क्या लेकर लौट रहा है.
साई के भक्त तो वो होते हैं जिन्हें साई से नहीं, साई ही चाहिए होते हैं. जब साई अपने हो गए तो पूरी कायनात अपनी हो जाती है. साई तब आपके हो सकते हैं जब आप साई के चाहे अनुसार अपना वर्तन करें. बिना शर्त समर्पण, साई की भक्ति की एकमात्र शर्त है. साई हमेशा ही दौड़े-दौड़े चले आते हैं. केवल साई को याद भर करना पड़ता है. जैसे अपनी जेब में पड़े बटुए की जवाबदारी आपकी होती है, आप उसे सम्हालते रहते हैं. वैसे ही अपनी शरण में आये ऐसे भक्तों को साई हमेशा ही सम्हालते हैं. कई-कई जन्मों तक. हमेशा. पहले साई हमें अपनी ओर खेंचते है और फिर जब हम उनकी तरह बर्ताव कर जब उनके जैसे बन जाते हैं, तब साई की वो शक्ति हमारे अन्दर भी आ जाती है. उस लोहे के टुकड़े की तरह जिसमें चुम्बकीय शक्ति तो है लेकिन वो सुप्त रहती है जब तक कि वो दुसरे चुम्बक के प्रभाव में नहीं आती. अब साई हमारी ओर खिंचे चले आते हैं. साई को अपने पास, अपने संरक्षण के लिए बुलाना है तो पहले साई के बनो. फिर साई बनो.
भक्त ही किसी को भगवान् बनाते हैं. भगवान् के बिना भक्त और भक्त के बिना भगवान् अधूरे हैं. दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं. परमात्मा के बिन आत्मा और आत्मा के बिन परमात्मा, दोनों ही अधूरे हैं.  जैसे जब तुम साई के अंश थे तो तुम दौड़ते हुए साई के पास जाते थे. तब तुम अपूर्ण थे. तुम्हारे व्यक्तित्व का दूसरा भाग साई के पास था. अब जब साई तुम्हारा अंश, तुम्हारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुके हैं तो साई तुम्हारे बिन अपूर्ण हैं. तुम ही साई को पूर्ण करते हो. वे दौड़ते हुए तुम्हारे पास आते हैं. यह साई का आश्वासन है और वचन भी.     

  
बाबा भली कर रहे।।

                        श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तुशुभं भवतु

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