Friday 18 March 2016

साई बाबा का पाँचवा वचन


मुझे सदा जीवित ही जानो
अनुभव करो सत्य पहचानो
                                                                                  

साई सत्य है. श्री साई अमृत कथा में बाबा के 11 वचनों में से पाँचवे वचन के बारे में बताते हुए भाईजी सुमीतभाई पोंदा कहते हैं कि बाबा का यह पाँचवा वचन – मुझे सदा जीवित ही जानोअनुभव करो सत्य पहचानो – साई के सत्य स्वरुप के दर्शन को भावों में पिरो कर साई के भक्तों के जीवन में सत्य की राह खोलता हैसत्य ही नित्य है. निरंतर है. अखंड है. अविनाशी है. यह वचन साई के ऐसे ही अविनाशी, अनंत, अखंड और निरंतर स्वरुप से भक्त को रू-बरू कराता है. साई का न तो कोई आदि है और न अंत ही. साई तो सतत, निरंतर विश्वास का नाम है. इस वचन से साई के भक्त को साई के सत्य स्वरुप का भान होता है. यही सत्य अनुभव करने पर हमारे जीवन में साई के सत्य का प्रकाश दिखने लगता है.
      साई को समाधि लिए हुए कई दशक हो गए हैं. उनकी समाधि की शताब्दी भी सन्निकट है. समय रेखा में साई वर्तमान से बहुत दूर नहीं हुए हैं और इसीलिए हमारे मन की सच्ची आवाज़ सुनकर वो पलट कर मुस्कुरा देते हैं. जैसे-जैसे साई और इन जैसी अन्य पवित्र आत्माओं का सफ़र समय-रेखा पर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे हमारी आवाज़ इन तक पहुँचनी धीमी हो जाती है. देर से उन तक पहुँचती है. यह देर  हमारे जीवन में जुड़े सत्य के महीन पड़ने से होती है. इन पवित्र आत्माओं के कान तो हमारी आवाज़ सुनने के लिए बेचैन रहते ही हैं. कमजोरी तो हम ही में आ जाती है. हमारी आवाज़ में ही आ जाती है.

जैसे-जैसे समय-रेखा पर यह युगपुरुष हमसे दूर होते जाते हैं, हमारे मन पर उनका प्रभाव उनकी अपरोक्ष उपस्थिति के अभाव में कम होने लगता है. हमें देखने वाली कोई नज़र जब दिखाई नहीं देती तो ऐसा ही होता है! हमारे जीवन में असत्य का प्रभाव बढ़ने लगता है. ऐसा नहीं है कि इन आत्माओं के महत्त्व में कोई कमी आ जाती है लेकिन बुद्धि तो प्रमाण मांगती है. होता यूं है कि जब इन युगपुरुषों के समकालीन हमारे बीच नहीं रहते तो इनके जीवन-तत्त्व का सत्य पीढ़ियों के झरने में बहते-बहते अपना मूल स्वरुप और दिशा खो देता है. बाद की पीढ़ी वाले कानों सुनी तो अगली पीढ़ी को बता देते है लेकिन मन से जो भाव महसूस किया होता है, वह संप्रेषित नहीं कर पाते. तब इन महापुरुषों की जीवन-गाथा तथ्य कम और कहानी अधिक लगने लगती है. कुछ और समय और कई पीढ़ियों से गुजरने के बाद तो यह बातें काल्पनिक-सी ही लगने लगती है. इस झरने में बहते हुए, कम होते-होते भाव कहीं खो जाता है.
इन जीवन-गाथाओं में अब भक्ति से अधिक युक्ति का समावेश हो जाता है. कुछ किस्सों में बत्ताने वाले की याददाश्त की सीमितता के चलते, निरंतरता खो जाती है तो कहीं कुछ काल्पनिक भी जुड़ जाता है ओ असत्य लगता है. कहानियां तो रह जाती हैं लेकिन अब वो मनोमंथन न कर मनोरंजन का साधन हो जाती हैं. थोथे कर्मकांड को धर्म मान लिया जाता है. जब कर्मकांड में भाव न हो तो वह भक्ति नहीं बन पाता. भावहीन कर्मकांड महज शारीरिक क्रिया तक सिमट कर रह जाता है.  

ऐसा इसलिए होता है कि भगवान् या अवतार बुद्धि का नहीं विवेक का विषय होते हैं. बुद्धि असत्य का साधन होती है तो विवेक सत्य का वाहन. विवेक को परीक्षा देनी होती है, बुद्धि परीक्षा लेती है. विवेक का रास्ता लम्बा और तकलीफ़देह होता है. बुद्धि आरामदायक छोटे रास्ते खोजती है. बुद्धि, युक्ति-प्रधान होती है तो विवेक भक्ति-प्रधान. विवेक करुणा को जागृत कर देता है तो बुद्धि करुणाविहीन बनाती है. करुणा ही भक्ति की सुवास है. जब विवेक को बुद्धि ढांक  लेती है तो भक्ति कमज़ोर पड़ जाती है. मन में असत्य का उदय हो जाता है. जितना असत्य बढ़ता जाता है, हमारी आवाज़ उतनी ही क्षीण होती जाती है और इसीलिए समय-रेखा पर लगातार दूर हो रहे इन युगपुरुषों तक नहीं पहुँचती है. जब इनके कानों तक हमारी आवाज़ पड़ना कम हो जाती है तो इन्हें फिर अवतार लेना पड़ता है. हमारे मन के इसी असत्य को साफ़ करने के लिए समय-समय पर परमात्मा हमेशा कोई न कोई अवतार लेकर हमारे उद्धार के लिए अवतरित होते ही हैं.
सत्य-रूप अवतारों का समय-समय पर आगमन सुनिश्चित है. जब भी असत्य का तत्त्व झूठ, फरेब, बेईमानी, दुराचार, वैमनस्य, लोभ, लालच, कदाचरण, अन्याय, इत्यादि के रूप में अपना स्वरुप बढ़ाने लगता है, तब-तब इनका नाश करने युगपुरुष अवतरित होते हैं. वे कभी मर्यादा पुरुष राम के रूप में, कभी सारथी बन कृष्ण के रूप में, कभी शांतिस्वरुप महावीर बन, कभी त्याग की प्रतिमूर्ति बन बुद्ध के रूप में, तो कभी परम-शक्ति के निर्गुण स्वरुप का पैग़ाम लेकर पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के रूप में, एकता का पाठ पढ़ाने गुरु नानक के रूप में, बलिदान की मिसाल रखने जीसस क्राइस्ट बन कर तो कभी इंसानियत का पैग़ाम देकर झोलियाँ भरने वाले फ़क़ीर साई बाबा का अवतार लेकर आते हैं. उनका जीवन युगों-युगों तक, हमारे आचरण में बस गए असत्य में से सत्य का अर्क निकाल कर हमारे सामने रख देता है.

सत्य को जब असत्य मान लिया जाता है तब राम पूजे ज़रूर जाते हैं लेकिन चरित्र रावण का जिया जाता है. कृष्ण के आगे हाथ जोड़ कर खड़े तो रहते हैं लेकिन मन में कंस, दुर्योधन और जरासंघ से भाव उत्पन्न होते हैं. सलीब के ऊपर जीसस दिखते तो ज़रूर हैं लेकिन उनकी करुणा को हम आत्मसात नहीं कर पाते. पैग़म्बर की बातें तो होती हैं लेकिन उनके उपदेश तोड़-मरोड़ कर समझाए जाते हैं. इसी तरह साई को तो मानते हैं लेकिन साई की नहीं मानते. साई की नहीं मानते क्योंकि साई की पूर्णता पर हमें संदेह होता है. हम इस बात को नहीं मानते कि हम साई के ही अंश हैं और उससे मिलकर पूर्णता चाहते हैं क्योंकि हम उसे देख नहीं पाते. उस बुद्धि के लिए तो साई समाधीस्थ हो चुके हैं. प्राण त्याग चुके हैं. दुनियादारी के लहजे से तो साई मर चुके हैं! अब तो वो सिर्फ़ हमारी इच्छापूर्ति का साधन बन चुके हैं. हम साई से तो मांगते हैं. साई को भूल जाते हैं. साई तो हमारे लिए सिर्फ़ चमत्कार का माध्यम हैं. ऐसे चमत्कार तो साई तब भी करते थे जब वो सशरीर थे और आज भी करते हैं.   
साई के जिन चमत्कारों का ज़िक्र सुन कर हम अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए साई के पास जाते हैं, उन चमत्कारों का ध्येय तो उनके भक्तों का उत्थान ही था. साई कोई छोटे-मोटे जादूगर नहीं थे जिन्हें अपनी आजीविका चलने के लिए ऐसे चमत्कारों का सहारा लेना पड़ता. वो तो एक फ़क़ीर थे जिनकी जीवन से अपेक्षाएं बेहद सीमित थी. अगर वो चमत्कार नहीं करते तो भी उनको भिक्षा मांग कर रूखी-सूखी तो मिल ही जाती थी. पहनने को फटे कपड़े ही उन्हें भाते. वो तो अपने भक्तों की विनम्र भक्ति और उनकी दीनता से अभिभूत हो कर इन लीलाओं को करते जिन्हें साधारण बुद्धि चमत्कार समझती जबकि आध्यात्मिक रूप से यह बाबा की उनके भक्तों को पुनः संस्कारित करने की अनूठी रीत थी. साई का प्रत्येक चमत्कार हम सभी में संस्कार डालने के लिए ही होता था. अब भी होता है. विभिन्न कारणों से अपने स्थान से हट चुके ‘मैं’ को पुनः आत्मरूप में स्थिर करना आध्यात्म का तो अर्थ ही है. भूल चुके संस्कारों को याद कराना. उनको स्थिर कर देना. ख़ुद को ख़ुद से मिलाकर शांति देना यही आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य है और क्रिया भी. यही सत्य का मार्ग भी है. खोज साई की नहीं. खोज स्वयं की. यही साई के चमत्कारों का उद्देश्य होता है.
साई की सत्य का मार्ग दिखाने की रीत भी एकदम सरल है. वो हमें देना तो कुछ और ही चाहते हैं लेकिन जानते हैं कि हमें किन चीज़ों की इच्छा है. किन चीज़ों को पाने की आशा में हम बेचैन रहते हैं. हममें से अधिकाँश तो धन-संपत्ति, शादी, संतान, क़ानूनी मामलों में जीत और इन जैसी ही अनेक चीज़े साई से मांगने जाते हैं. वो सरलता से दे देता है. वो तो सितारों की चाल भी हमारे लिए बदल देता है. नसीब की रेखाएं बदले बिना साई नसीब का लेखा बदल देता है. यह उसकी शक्ति है. हमारे नसीब और औक़ात से बढ़कर हमें दे देता है. हमारा लालच बढ़ जाता है. हम और मांगते हैं. वो और दे देता है. मांगने और देने का सिलसिला बराबर चलता रहता है. हम मांगते-मांगते थक जाते हैं, अब थोड़ी ग्लानि भी होने लगती है. भिखारी-सा महसूस करने लगते हैं.
इंसान के पास जब कुछ नहीं हो तो उसे डर नहीं लगता. खो कर भी क्या खो जायेगा? अब डर बढ़ जाता है. अब जबकि वो हमें हमारी पसंद का इतना कुछ दे चुका होता है, तो उन चीज़ों के खो जाने का डर हमारे मन में समा जाता है. इच्छाओं के फलीभूत होते ही इन चीज़ों को सम्हालने की अशांति और खोने का भय आकार ले लेते हैं. हमारी लालच पूरी होते ही और बढ़ जाती है और ग्लानि में बदल जाती है. जलन के मारे जब दुश्मनी के भाव से जीने लगते हैं तो शोक कहाँ पीछे रहता है. लोगों से आगे बढ़ेंगे तो दुश्मन भी बढ़ जाते हैं. दूसरों को अपने से ज़्यादा ख़ुश देखते हैं तो जलन होने लगती है. शोक तो दुःख के साथ ही चलता है. जो आज सुख का विषय है वो कल दुःख का कारण बन जाता है.
हमनें साई से माँगा भी तो अनित्य और नाशवान है. जो कुछ भी हमनें साई से लिया है, उन सभी का एक दिन ख़ात्मा हो ही जाना है. अब जब मिल गया है तो मन स्थिर नहीं रह पाता. बेचैनी का आलम रहता है. संस्कार दूषित हो गए जो होते हैं. हम जीते-जी हम मर जाते हैं. पहले इच्छाओं को बल देने, फिर उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए और उसके बाद उनका बोझ लिए-लिए हम जिंदा लाश ही तो बन जाते हैं. सारी संवेदनाएं शून्य से नीचे होती हैं. बदहवास से ठौर पाने को तड़पते हैं. आँखें रोती हैं लेकिन आंसूं को तरसती हैं क्योंकि आंसूं तो हम पहले ही अपनी इच्छाओं के लिए बहा चुके होते हैं. ज़ुबान दर्द को बयान करना चाहती हैं लेकिन शब्द तो मांगों को बुनते-बुनते खो चुके होते हैं. निर्जीव होने की कोई और पहचान होती है क्या!
साई कहते भी तो थे, “मनुष्य की बनाई हुई सारी चीज़ें नाशवान होती है. ईश्वर-प्रदत्त वस्तुएं हमेशा रहती हैं.” क्या सूरज-चाँद को कहीं ख़त्म होते देखा है? कुदरत का रूप बिगाड़ सकें है लेकिन क्या कुदरत ख़त्म हुई? मनुष्य का स्वरुप बिगड़ गया है लेकिन क्या ईश्वर का मनुष्य में भरोसा कम हुआ? आज भी नयी नस्ल तो पैदा हो ही रही है! जब अनित्य में ममता बाँध लेंगे तो उसके ख़त्म होने पर दुःख ही होगा. अनित्य ही असत्य है. असत्य के पैर नहीं होते. वो चलता नहीं, हवा में तैरता है लेकिन ओंधे मुंह गिर भी पड़ता है. उसकी उम्र ज़्यादा नहीं होती. हमारा शरीर नाशवान है, अनित्य है, असत्य है लेकिन आत्मा अजर-अमर है. रूप नाशवान है, स्वरुप नित्य है. सत्य है.
विषय-आधारित सुख, नाशवान है. विषय के साथ उस सुख की समाप्ति तय है. उसी तरह साधन-जन्य आनंद असत्य है क्योंकि साधन की समाप्ति पर वह समाप्त हो जायेगा. सुख, शांति और आनंद नित्य है और सत्य हैं.

साई से माँगना ही है तो इनको मांगो. ऐसी वास्तु मांगो जो कभी ख़त्म न हो. और साई से माँगना भी क्या. जब साई से मांगते हैं तो साई को यह अहसास कराते हैं कि हमें उस पर भरोसा नहीं है. मांग कर हम उसे यह बताते हैं कि उसे तो यह पता भी नहीं है कि हमें क्या चाहिए. अपना हाथ फैलाए हुए हम तो अपना ही क़द गिरा चुके होते हैं. हम तो जानते ही नहीं है कि वो तो समुन्दर लेकर बैठा है हमें देने के लिए और हम हैं कि चुल्लू भर पानी में ही संतोष कर लेते हैं. कभी उस पर तो छोड़ कर देखो! हम कुछ छींटे अपने पर डाल कर ख़ुशी मनाते हैं, साई तो हमें तर करने बैठा है. एक बार मांगना छोड़ कर साई पर भरोसा कर के तो देखो!
फिर जीवित होने के लिए अब हम दोबारा साई की तरफ ही मुड़ते है. साई से फिर चमत्कार की उम्मीद लिए. अब एक नए तरह का चमत्कार चाहते हैं हम.     
साई चमत्कार करते भी हैं. साई पर अपना भार छोड़कर हम दोबारा जी उठते हैं. सूख चुकी आँखों के कुँए में फिर पानी की कोई झिर फूट पड़ती है. अब आंसूं नमकीन नहीं, मीठे लगते है. साई को शुक्रिया कहने के लिए सूख चुकी ज़ुबान को एक बार फिर शब्द मिल जाते हैं. निढाल जिस्म जीवन की राहों पर हल्का होकर मानो तैरने लगता है. इच्छाओं का बोझ जो हट चुका होता है. यह जीवन अब सदा के लिए होता है. साई का भाव हमारे अन्दर फिर जी उठता है. साई को हम फिर जीवित जानने लगते हैं. सत्य की पहचान मिल जाती है. साई ही सत्य है, नित्य हैं. उससे मिलने वाली चीज़ कभी ख़त्म नहीं होगी.
अब जब साई अपनी मर्जी से देना शुरू करते हैं तो वो सत्य से चित्त को भर कर हमें आनंद से सराबोर कर देते हैं. न ही किसी चीज़ का मोह. न उससे उत्पन्न होने वाला कोई शोक. न उसके खो जाने का भय और न ही उसके जाने का कोई दुःख.
मुझे सदा जीवित ही जानो..अनुभव करो सत्य पहचानो. साई को जीवित जानने की अनुभूति से हमारे मन का सफ़र अब सुख, शांति और आनंद का सफ़र बन जाता है.
बाबा भली कर रहे।।

                          श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु

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